Sunday, 24 April 2016

बुरे कर्मों का भोग समाप्त हो जाएगा।

कोई शनि , कोई बुध , कोई राहु , केतु , कोई मंगल हमारा अमंगल नही करता है । हमारा अपना कर्म - कुकर्म , अपने द्वारा किया धर्म - अधर्म जब हाथ धोकर कभी शनि बन कर तो राहु , केतु बन कर हमारे पीछे पड़ कर हमे दुख के भंवर में धकेल देता है तो हम लगते हैं बाप बाप करने और दौड़ने लगते हैं मंदिर मंदिर , ज्योतिष् के यहां , बड़े बड़े कर्मकाण्डी पण्डितों को यहां । फिर गंभीर रुप से ठगे जाते हैं । कोई जयोतिष , कोई पण्डित , कोई चढ़ावा किसी भी मंदिर में , हां नोट कर लीजिये , कोई भी चढावा हमारे दुर्भाग्य को सौभाग्य में नही बदल सका, न बदलेगा । भगवान घूस खोर नही हैं । संसार में रिश्वत चलती है भगवान के यहाँ नहीं। अपने किये गय कुकर्मो को मिटाने के लिये भगवान को खरीदने की भूल कदापि न करें । हम गुनाह करेंगें तो उसकी सजा निश्चित है। भगवान या कोई वास्तविक संत आपके पाप को मिटा नही सकता है । यह भगवान का कानून है । वह अपने कानून को खुद भी नही मिटा सकते । सामर्थ्य है परन्तु कदापि नही मिटायेंगे। अरे!प्रारब्ध तो महापुरुषों को भी भोगना पड़ता है साधारण कि कौन कहे।
यह गाना गाने से काम नही चलेगा कि - माँ मुरादे पुरी करदे हलुआ बाँटूंगी । मुर्ख है जिसने ये गाना बनाया और उससे भी बड़ा मुर्ख है जो ऐसे गानों को झूम-झूम के गाता है । एक अक्षर का सिद्धांत ज्ञान तत्त्व ज्ञान है नहीं, व्यापार बना दिया है भगवान को भी।
बदलना है तो अपने कर्मों को , अपनी सोच को , अपने धर्म को ठीक करिये , संकल्प करिये भगवान को साक्षी मान कर कि हे प्रभु हम अब आपकी शरण में है। वास्तविक ह्दय से मन से सदा के लिय अपने को , खुद को आपके चरणों में समर्पित करता हूं । और फिर दुबारा कभी गलत बात न करें न सोंचें । सब ठीक हो जाएगा । बुरे कर्मों का भोग समाप्त हो जाएगा। आप सजा भोग लेगें फिर सब ठीक हो जाएगा , वर्ना कुछ भी ठीक नही हो सकता।
भगवान अपने बनाए कानून में स्वयं बंधे हैं ।उन्होने अपने बाप दशरथ को नही बचाया , भांजे अभिमन्यु को नही बचाया तो हम आप कितने पाप करके बैठे हैं अनंत जन्मों में खुद नही जानते ।
केवल वास्विक शरणागति ही एक रास्ता है । वर्ना जबतक पूर्व जन्म का पुण्य पुँज है । सब मिलेगा । पाप करते करते पूर्वजन्म का पुण्य पुँज समाप्त ,अब तुम हो जाओगे भिखारी रातों रात , कोई पण्डित , ज्योतिष , ज्ञानी , विज्ञानी , तंत्र , मंत्र , गंगा स्नान , तीरथ वीरथ , तप , जप , पुजा पाठ , यज्ञ , हवन काम नही देगा ।
हमारा पाप ही जब खुद शनि, राहु केतु बन कर जब खड़ा हो जाएगा तो कोई शनि मंदिर में तेल वेल , दीया-दीपक कितना जलालें , कुछ काम नही देगा ।
कितने मुरख पण्डित होते हैं खुद देखें , मृत्यु शैया पर पड़े लोगों को बचाने के लिये महामृत्युंजय जाप करवाने के लिय बोलते हैं। जबकि महामृत्युंजय मंत्र का मतलब है पढ़िये अन्तिम पंक्ति मंत्र की :-

ऊरुवारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मोक्षीयमामृतात्

यानि हे प्रभु हमे जन्म मरण के चक्कर से मुक्त करो और मोक्ष दो ।

'यानि मरते हुये को शरीर से छुटकारा दिला कर हमेशा के लिय जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्त कर दो '।
यह मंत्र यह कहीं नही कहता कि हे प्रभु इसको स्वस्थ करके जीवन दान दो।
तो जरा सोचिये कितने मूर्ख पण्डित लोग हैं। ज्योतिष लोग है जो खुद मंत्र के अर्थ तक को नही जानते।तो वो क्या कल्याण करेगा हमारा

Friday, 18 March 2016

प्रथम भाव
उसमें काल पुरुख की मेष राशि यानी एरीज जोडिएक पड़ता है और जिसका के स्वामित्व हम मंगल गृह को मानते हैं , वह मंगल फिर अष्टम भाव का भी स्वामी मन जाता है क्यों की उसकी दूसरी राशि वृश्चिक वहां पड़ती है और दोनों राशियों का अपना अलग प्रभाव मन जाएगा , तो हम बात कर रहे थे पहले भाव की की वहां मेष राशी जिसका स्वामी मंगल को माना जाता है व रुधिर जिसे हम खून भी कहते है का शरीर में प्रतिनिधितव करता करता है और मंगल को हम उत्साह व उर्जा का कारक भी मानते हैं दुसरे वहां पर सूर्य उच्च का मन जाता है वह भी उर्जा का प्रकार मन जाता है तो दोनों मंगल और सूर्य उर्जा के कारक होने के साथ साथ अग्नि के कारक भी है इसलिए ये जीवन के संचालक गृह प्रथम भाव के कारक बनाये गए जो की पूरण तया तर्कसंगत मन जाएगा , अब मेडिकल साइंस के मुताविक भी इनका यही मतलव निकलता है क्यों को विज्ञान भी यही मानता आया है की ये सारा ब्रह्माण्ड एक उर्जा के आधीन है और प्रमाणित व प्रतक्ष रूप से सूर्य तो इसका प्रमाण है ही , अब विचारनिए बात यह है की जीवन जीने के लिए वो भी सही जीवन जीने के लिए हमें इस उर्जा का सही समन्वय करना पड़ता है नहीं तो हम कहीं न कहीं पिछड़ना शुरू हो जाते हैं सो हमें उर्जा का नेगेटिव या पॉजिटिव प्रयोग करना आना चाहिए , अपनी अपनी पर्सनल होरोस्कोप में देखने पर इन दोनों उर्जा युक्त ग्रहों का किस प्रकार से बैठे हैं , किन किन नक्षत्रों में , उप नक्षत्रों में और आगे उप उप नक्षत्रों में, नव्मंषा कुंडली में, षोडस वर्गों में, अष्टक वर्गों में , पराशर शास्त्र अनुसार की प्लेनेट और न जाने और कितनी विधियों अनुसार देखने के वाद ही ये पता चलता है के वे गृह कितने बलवान हैं , मात्र एक आधी विधि अपूरण मानी जाती गयी है , और विचारनिए बात ये भी है के आज के वक्त में इस पवित्र शास्त्र का मज़ाक बना कर रख दिया गया है मात्र सिर्फ भौतिकता के चलते ऐसा हो रहा है , क्यों के हर आदमी दो चार किताबें पढ़ कर अपने आप को ज्ञानी मानने लगता है और आज जब सब कुछ कोमर्शिअल यानी व्यावसायिक सोच सब पर हावी हो चुकी है तो हर चीज की सैंक्टिटी यानी पवित्रता ख़तम हो रही है , जब स्वार्थ हावी हो जाए तो अक्ल पर पर्दा पड़ना शुरू हो जाता है, तो हम यहाँ देखते हैं के इन दोनों ऊर्जायों का हम कैसे सही इस्तेमाल करते हैं और जैसे के अगर कहीं न कहीं कोई ग्रहों में कमी पूर्व जनित कर्मो के कारण आ गयी हो तो हम उसमे काफी हद तक सुधार भी ला सकते हैं , हालांकि वह सुधार अपनी अपनी बिल्पावेर यानि इच्छा शक्ति , करम और प्रभु पर पूरण भरोसा इसी के चलते पूरण हो पाती

Monday, 4 January 2016

परंतु यह बिमारी का भी घर है

जन्म पत्रिका का अष्टम भाव वैसे तो मोक्ष का स्थान माना जाता है। परंतु यह बिमारी का भी घर है। कुछ योग ऐसे हं जो अष्टम स्थान में प्रभावशील होकर रोग उत्पन्न करते हैं। कौन से हैं वे रोग आइए जानते हैं।
1- अष्टम भाव मंगल, चंद्र और शुक्र हो तो जातक सेक्स संबधी एवं हर्निया रोग से ग्रसित होता है।
2- अष्टम भाव में शुक्र हो तथा प्रथम भाव में शनि हो तो पेंशाब में घात संबधी रोग होता है। शनि यदि अष्टम भाव में हो उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि ना हो तो भी पेशाब संबधी रोग होता है।
3- अष्टम भाव में मंगल, शुक्र की युति हो तो वीर्य संबंधी रोग होता है।
4- अष्टम भाव में शनि हो तथा उस पर मंगल की दृष्टि हो तो जलोदर नाम का रोग होता है।
5- मोक्ष स्थान अष्टम में केतु अशुभ होने पर वायु गोला रोग करता है, केतु पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो अल्सर भी हो सकता है।
6- अष्टम स्थान पर चंद्रमा नीच का हो, शत्रु या अशुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो सर्दी संबधी रोग होते हैं। हर्निया, गैस, हृदय रोग भी हो सकता है।
7- अष्टम स्थान पर नीच का मंगल राहु से युक्त हो, चंद्र कमजोर हो तो बाढ़ में बहने या जल में डूबने का खतरा रहता है।
8- अष्टम भाव में शनि या शुक्र नीच का होकर बैठा हो तथा उस पर कोई शुभ दृष्टि भी न हो तो जातक को शुगर, ब्लडप्रेशर, अपेन्डि़क्स जैसे रोग होते हैं।
शनि रोग का कारक बनता हो, जो जातक को लम्बे समय तक पीड़ित रखता है. यह और एक दर्द भी है कि राहु जब किसी रोग का जनक होता है, तो बहुत समय तक तो उस रोग की जांच (डायग्नोसिस) ही नहीं हो पाती है. डॉक्टर यह समझ ही नहीं पाता है कि जातक को क्या बीमारी है? और ऐसी स्थिति में रोग अपेक्षाकृत अधिक अवधि तक चलता है. प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी रोगों से अवश्य पीड़ित होता है. कुछ व्यक्ति कुछ विशेष समय में अथवा माह में ही प्रतिवर्ष बीमार हो जाते है. ये सभी तथ्य प्राय: जन्मप्रत्रिका में ग्रहों की भागवत एवं राशिगत स्थितियों और दशा, अन्तदर्शा पर निर्भर करते हैं. इसके अतिरिक्त कई बीमारियां ऐसी हैं, जो होने पर बहुत कम दुष्प्रभाव डाल पाती हैं, जबकि कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जो जब भी जातक विशेष को होती हैं, तो बहुत नुकसान पहुंचाती है. कई बार ऐसा स्थिति उत्पन्न होती है कि बीमारी होती तो हैं लेकिन उसकी पहचान भली प्रकार से नहीं हो पाती है. उन सभी प्रकार के तथ्यों का पता जातक की कुंडली को देखकर लगाया जा सकता है



Sunday, 27 December 2015

श्री नव नाथ गायत्री


""""""श्री नव नाथ गायत्री""""""""
( 1) ओँकार आदिनाथ जी
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ एँ आदिनाथाय विद्महे ओँकार स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात
मंत्र -
ओँकार आदिनाथाय नम:
( 2 ) उदयनाथ ( पार्वती स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ ऊँ उदयनाथाय विद्महे धरती स्वरूपाय धीमहि तन्नो
पराशक्ति प्रचोदयात
मंत्र -
ऊँ श्री उदयनाथाय नम:
( 3 ) सत्यनाथ ( ब्रहमा स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ सँ सत्यनाथाय विद्महे ब्रहमा स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात
मंत्र -
ऊँ श्री सत्यनाथाय नम:
( 4 ) संतोषनाथ ( विष्णु स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ सँ संतोषनाथाय विद्महे विष्णु स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात
मंत्र -
ऊँ श्री संतोषनाथाय नम:
( 5 ) अचल अचम्भेँनाथ ( आकश/शेष स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ एँ अचम्भेँनाथाय विद्महे शेष स्वरूपाय धीमहि तन्नो
निरंजनः प्रचोदयात।।थ।।
मंत्र -
ऊँ श्री अचल अचम्भेँनाथाय नम:
( 6 ) गजबेलि गजकंथडनाथ ( गजहस्ती स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गँ गजकंथडनाथाय विद्महे गणेश स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात।।ना।।
मंत्र -
ऊँ श्री गजबेलि गजकंथडनाथाय नम:
( 7 ) सिद्ध चौरंगीनाथ ( चंद्र/वनस्पति स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ चौँ चौरंगीनाथाय विद्महे चंद्र स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात।।श।।
मंत्र -
ऊँ श्री सिद्ध योगी चौरंगीनाथाय नम:
( 8 ) दादा गुरु मत्स्येंद्रनाथ ( माया स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ मँ मत्स्येंद्रनाथाय विद्महे माया स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात।।रे।।
मंत्र -
ऊँ श्री सिद्ध योगी मत्स्येंद्रनाथाय नम:
( 9 ) गुरु गोरक्षनाथ ( शिव स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ गोरक्षनाथाय विद्महे शुन्य पुत्राय स्वरूपाय
धीमहि तन्नो गोरक्ष निरंजनः प्रचोदयात ।।न।।
मंत्र -
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ हुँ फट स्वाहा
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ गोरक्ष हुँ फट स्वाहा
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ गोरक्ष निरंजनात्मने हुँ फट स्वाहा
ऊँ शिव गोरक्षनाथाय नम:


Friday, 11 December 2015

शरीर और संसार एक है

शरीर और संसार एक है । ये एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते । शरीर को संसार की और संसार को शरीर की आवश्यकता है । पर हम स्वयं (आत्मा) शरीरसे अलग हैं और शरीरके बिना भी रहते ही हैं । शरीर उत्पन्न होनेसे पहले भी हम थे और शरीर नष्ट होनेके बाद भी रहेंगे‒इस बातका पता न हो तो भी यह तो जानते ही हैं कि गाढ़ निद्रामें जब शरीरकी यादतक नहीं रहती, तब भी हम रहते हैं और सुखी रहते हैं । शरीरसे सम्बन्ध न रहनेसे शरीर स्वस्थ होता है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनपर आप भी ठीक रहोगे और संसार भी ठीक रहेगा । दोनोंकी आफत मिट जायगी । शरीरादि पदार्थोंकी गरज और गुलामी मनसे मिटा दें तो महान् आनन्द रहेगा । इसीका नाम जीवन्मुक्ति है । शरीर, कुटुम्ब, धन आदिको रखो, पर इनकी गुलामी मत रखो । जड़ वस्तुओंकी गुलामी करनेवाला जड़से भी नीचे हो जाता है, फिर हम तो चेतन हैं । जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंसे हम अलग हैं । ये अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर हम नहीं बदलते । हम इन अवस्थाओंको जाननेवाले हैं और अवस्थाएँ जाननेमें आनेवाली हैं । अत : इनसे अलग हैं । जैसे, छप्परको हम जानते हैं कि यह छप्पर है तो हम छप्परसे अलग हैं‒यह सिद्ध होता है । अत: हम वस्तु, परिस्थिति, अवस्था आदिसे अलग हैं‒इसका अनुभव होना ही मुक्ति है ।

Sunday, 15 November 2015

एक बार दया करके दर्शन दीजिये


हे प्रभो ! यदि आपका नाम पतितपावन है तो एक बार आकर दर्शन दीजिये | मैं आपको बारम्बार प्रणाम करके विनय करता हूँ, हे प्रभो ! दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये | हे प्रभो ! आपके बिना इस संसार में मेरा और कोई भी नहीं है, एक बार दर्शन दीजिये, दर्शन दीजिये, विशेष न तरसाइए | आपका नाम विश्वम्भर है, फिर मेरी आशा को क्यों नहीं पूर्ण करते हैं | हे करुणामय ! हे दयासागर ! दया कीजिये | आप दया के समुद्र हैं, इसलिए किन्चित दया करने से आप दयासागर में कुछ दया की त्रुटी नहीं हो जायगी | आपकी किन्चित दया से सम्पूर्ण संसार का उध्दार हो सकता है, फिर एक तुच्छ जीव का उध्दार करना आपके लिये कौन बड़ी बात है | हे प्रभो, यदि आप मेरे कर्तव्य को देखें तब तो इस संसार से मेरा निस्तार होने का कोई उपाय ही नहीं है | इसलिये आप अपने पतितपावन नाम की और देखकर इस तुच्छ जीव को दर्शन दीजिये | मैं न तो कुछ भक्ति जानता हूँ, न योग जानता हूँ तथा न कोई क्रिया ही जानता हूँ, जो की मेरे कर्तव्य से आपका दर्शन हो सके | आप अन्तर्यामी होकर यदि दयासिन्धु नहीं होते तो आपको संसार में कोई दयासिन्धु नहीं कहता, यदि आप दयासागर होकर भी अन्तर की पीड़ा को न पहचानते तो आपको कोई अन्तर्यामी नहीं कहता | दोनों गुणों से युक्त होकर भी यदि आप सामर्थ्यवान न होते तो आपको कोई सर्वशक्तिमान और सर्वसामर्थ्यवान नहीं कहता | यदि आप केवल भक्तवत्सल ही होते तो आपको कोई पतितपावन नहीं कहता | हे प्रभो ! हे द्यासिन्धो ! एक बार दया करके दर्शन दीजिये |
जीवात्मा अपने मन से कहता है – रे दुष्ट मन ! कपटभरी प्रार्थना करने से क्या अन्तर्यामी भगवान् प्रसन्न हो सकते हैं ? क्या वे नहीं जानते कि ये सब तेरी प्रार्थनाएँ निष्काम नहीं हैं ? एवं तेरे हृदय में श्रध्दा, विशवास और प्रेम कुछ भी नहीं है ? यदि तुझको यह विशवास है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं तो फिर किस लिये प्रार्थना करता है ? बिना प्रेम के मिथ्या प्रार्थना करने से भगवान् कभी नहीं सुनते और यदि प्रेम है तो फिर कहने से प्रयोजन ही क्या है 

Friday, 6 November 2015

पिछले जन्मों से घबराने की जरूरत है।

अतीत में आपने जो किया है, वह आपने किया है। आप स्वतंत्र थे करने को; आपने किया है। आपका एक हिस्सा जड़ हो गया है और परतंत्र हो गया है। लेकिन आपका एक हिस्सा अभी भी स्वतंत्र है, उसके विपरीत करने को आप मुक्त हैं। उसके विपरीत करके आप उसको खंडित कर सकते हैं। उससे भिन्न को करके आप उसे विनष्ट कर सकते हैं। उससे श्रेष्ठ को करके आप उसको विसर्जित कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में है कि वह अतीत-संस्कारों को भी धो डाले।
आपने कल तक क्रोध किया था, तो क्रोध करने को आप स्वतंत्र थे। निश्चित ही, जो आदमी बीस वर्षों से रोज क्रोध करता रहा है, वह क्रोध से बंध जाएगा। बंध जाने का मतलब यह है कि एक आदमी, जिसने बीस साल से क्रोध किया है निरंतर, वह एक दिन सुबह सोकर उठता है और अपने बिस्तर के पास अपनी चप्पलें नहीं पाता, एक यह आदमी है; और एक वह आदमी है जिसने बीस सालों से क्रोध नहीं किया, वह भी सुबह उठता है और बिस्तर के पास अपनी चप्पलें नहीं पाता; किस में इस बात से क्रोध के पैदा होने की संभावना अधिक है?
उस आदमी में, जिसने बीस साल से क्रोध किया, क्रोध पैदा होगा। इस अर्थों में वह बंधा है, क्योंकि बीस साल की आदत तत्क्षण उसमें क्रोध पैदा कर देगी कि जो उसने चाहा था, वह नहीं हुआ। इस अर्थों में वह बंधा है कि बीस साल का एक संस्कार उसे आज भी वैसे ही काम करने को प्रेरित करेगा कि करो, जो तुमने निरंतर किया है। लेकिन क्या वह इतना बंधा है कि क्रोधित न हो, यह उसकी संभावना नहीं है?
इतना कोई कभी नहीं बंधा है। अगर वह इसी वक्त सचेत हो जाए, तो रुक सकता है। और क्रोध को न आने दे, यह उसकी संभावना है। आए हुए क्रोध को परिणत कर ले, यह उसकी संभावना है। और अगर वह यह करता है, तो बीस साल की आदत थोड़ी दिक्कत तो देगी, लेकिन पूरी तरह नहीं रोक सकती है। क्योंकि जिसने आदत बनायी थी, अगर वह खिलाफ चला गया है, तो वह तोड़ने के लिए स्वतंत्र है। दस-पांच दफे के प्रयोग करके वह उससे मुक्त हो सकता है।
कर्म बांधते हैं, लेकिन बांध ही नहीं लेते। कर्म जकड़ते हैं, लेकिन जकड़ ही नहीं लेते। उनकी जंजीरें हैं, लेकिन सब जंजीरें टूट जाती हैं। ऐसी कोई जंजीर नहीं है, जो न टूटे। और जो न टूटे, उसको जंजीर भी नहीं कह सकेंगे। जंजीर बांधती है, लेकिन सब जंजीरें खुलने की क्षमता रखती हैं। अगर ऐसी कोई जंजीर हो, जो फिर खुल ही न सके, तो उसको जंजीर भी नहीं कह सकिएगा। जंजीर वही है, जो बांध भी सके और खोल भी सके। कर्म बंधन है, इसी अर्थों में, कि निर्बंधन भी हो सकता है। और हमारी चेतना हमेशा स्वतंत्र है। हमने जो कदम उठाए हैं, हम जिस रास्ते पर चलकर आए हैं, उस पर लौटने को हम हमेशा स्वतंत्र हैं।
तो अतीत आपको बांधे हुए है, लेकिन भविष्य आपका मुक्त है। एक पैर बंधा है और एक खुला है। अतीत का एक पैर बंधा हुआ है, भविष्य का एक पैर खुला हुआ है। आप चाहें, तो इस भविष्य के पैर को भी उसी दिशा में उठा सकते हैं, जिसमें आपने अतीत के पैर को बांधा है। आप बंधते चले जाएंगे। आप चाहें, तो इस भविष्य के पैर को अतीत की दिशा से विपरीत उठा सकते हैं। आप खुलते चले जाएंगे। यह आपके हाथ में है। उस स्थिति को हम मोक्ष कहते हैं, जहां दोनों पैर खुल जाएं। और उस स्थिति को हम परिपूर्ण निम्नतम नर्क कहेंगे, जहां दोनों पैर बंध जाएं।
इस वजह से, अतीत से घबराने की जरूरत नहीं है, न पिछले जन्मों से घबराने की जरूरत है। जिसने वे कदम उठाए थे, वह अब भी कदम उठाने को स्वतंत्र है।