Sunday 27 December 2015

श्री नव नाथ गायत्री


""""""श्री नव नाथ गायत्री""""""""
( 1) ओँकार आदिनाथ जी
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ एँ आदिनाथाय विद्महे ओँकार स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात
मंत्र -
ओँकार आदिनाथाय नम:
( 2 ) उदयनाथ ( पार्वती स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ ऊँ उदयनाथाय विद्महे धरती स्वरूपाय धीमहि तन्नो
पराशक्ति प्रचोदयात
मंत्र -
ऊँ श्री उदयनाथाय नम:
( 3 ) सत्यनाथ ( ब्रहमा स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ सँ सत्यनाथाय विद्महे ब्रहमा स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात
मंत्र -
ऊँ श्री सत्यनाथाय नम:
( 4 ) संतोषनाथ ( विष्णु स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ सँ संतोषनाथाय विद्महे विष्णु स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात
मंत्र -
ऊँ श्री संतोषनाथाय नम:
( 5 ) अचल अचम्भेँनाथ ( आकश/शेष स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ एँ अचम्भेँनाथाय विद्महे शेष स्वरूपाय धीमहि तन्नो
निरंजनः प्रचोदयात।।थ।।
मंत्र -
ऊँ श्री अचल अचम्भेँनाथाय नम:
( 6 ) गजबेलि गजकंथडनाथ ( गजहस्ती स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गँ गजकंथडनाथाय विद्महे गणेश स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात।।ना।।
मंत्र -
ऊँ श्री गजबेलि गजकंथडनाथाय नम:
( 7 ) सिद्ध चौरंगीनाथ ( चंद्र/वनस्पति स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ चौँ चौरंगीनाथाय विद्महे चंद्र स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात।।श।।
मंत्र -
ऊँ श्री सिद्ध योगी चौरंगीनाथाय नम:
( 8 ) दादा गुरु मत्स्येंद्रनाथ ( माया स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ मँ मत्स्येंद्रनाथाय विद्महे माया स्वरूपाय धीमहि
तन्नो निरंजनः प्रचोदयात।।रे।।
मंत्र -
ऊँ श्री सिद्ध योगी मत्स्येंद्रनाथाय नम:
( 9 ) गुरु गोरक्षनाथ ( शिव स्वरुपा )
गायत्री –
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ गोरक्षनाथाय विद्महे शुन्य पुत्राय स्वरूपाय
धीमहि तन्नो गोरक्ष निरंजनः प्रचोदयात ।।न।।
मंत्र -
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ हुँ फट स्वाहा
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ गोरक्ष हुँ फट स्वाहा
ऊँ ह्रीँ श्रीँ गोँ गोरक्ष निरंजनात्मने हुँ फट स्वाहा
ऊँ शिव गोरक्षनाथाय नम:


Friday 11 December 2015

शरीर और संसार एक है

शरीर और संसार एक है । ये एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते । शरीर को संसार की और संसार को शरीर की आवश्यकता है । पर हम स्वयं (आत्मा) शरीरसे अलग हैं और शरीरके बिना भी रहते ही हैं । शरीर उत्पन्न होनेसे पहले भी हम थे और शरीर नष्ट होनेके बाद भी रहेंगे‒इस बातका पता न हो तो भी यह तो जानते ही हैं कि गाढ़ निद्रामें जब शरीरकी यादतक नहीं रहती, तब भी हम रहते हैं और सुखी रहते हैं । शरीरसे सम्बन्ध न रहनेसे शरीर स्वस्थ होता है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनपर आप भी ठीक रहोगे और संसार भी ठीक रहेगा । दोनोंकी आफत मिट जायगी । शरीरादि पदार्थोंकी गरज और गुलामी मनसे मिटा दें तो महान् आनन्द रहेगा । इसीका नाम जीवन्मुक्ति है । शरीर, कुटुम्ब, धन आदिको रखो, पर इनकी गुलामी मत रखो । जड़ वस्तुओंकी गुलामी करनेवाला जड़से भी नीचे हो जाता है, फिर हम तो चेतन हैं । जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंसे हम अलग हैं । ये अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर हम नहीं बदलते । हम इन अवस्थाओंको जाननेवाले हैं और अवस्थाएँ जाननेमें आनेवाली हैं । अत : इनसे अलग हैं । जैसे, छप्परको हम जानते हैं कि यह छप्पर है तो हम छप्परसे अलग हैं‒यह सिद्ध होता है । अत: हम वस्तु, परिस्थिति, अवस्था आदिसे अलग हैं‒इसका अनुभव होना ही मुक्ति है ।

Sunday 15 November 2015

एक बार दया करके दर्शन दीजिये


हे प्रभो ! यदि आपका नाम पतितपावन है तो एक बार आकर दर्शन दीजिये | मैं आपको बारम्बार प्रणाम करके विनय करता हूँ, हे प्रभो ! दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये | हे प्रभो ! आपके बिना इस संसार में मेरा और कोई भी नहीं है, एक बार दर्शन दीजिये, दर्शन दीजिये, विशेष न तरसाइए | आपका नाम विश्वम्भर है, फिर मेरी आशा को क्यों नहीं पूर्ण करते हैं | हे करुणामय ! हे दयासागर ! दया कीजिये | आप दया के समुद्र हैं, इसलिए किन्चित दया करने से आप दयासागर में कुछ दया की त्रुटी नहीं हो जायगी | आपकी किन्चित दया से सम्पूर्ण संसार का उध्दार हो सकता है, फिर एक तुच्छ जीव का उध्दार करना आपके लिये कौन बड़ी बात है | हे प्रभो, यदि आप मेरे कर्तव्य को देखें तब तो इस संसार से मेरा निस्तार होने का कोई उपाय ही नहीं है | इसलिये आप अपने पतितपावन नाम की और देखकर इस तुच्छ जीव को दर्शन दीजिये | मैं न तो कुछ भक्ति जानता हूँ, न योग जानता हूँ तथा न कोई क्रिया ही जानता हूँ, जो की मेरे कर्तव्य से आपका दर्शन हो सके | आप अन्तर्यामी होकर यदि दयासिन्धु नहीं होते तो आपको संसार में कोई दयासिन्धु नहीं कहता, यदि आप दयासागर होकर भी अन्तर की पीड़ा को न पहचानते तो आपको कोई अन्तर्यामी नहीं कहता | दोनों गुणों से युक्त होकर भी यदि आप सामर्थ्यवान न होते तो आपको कोई सर्वशक्तिमान और सर्वसामर्थ्यवान नहीं कहता | यदि आप केवल भक्तवत्सल ही होते तो आपको कोई पतितपावन नहीं कहता | हे प्रभो ! हे द्यासिन्धो ! एक बार दया करके दर्शन दीजिये |
जीवात्मा अपने मन से कहता है – रे दुष्ट मन ! कपटभरी प्रार्थना करने से क्या अन्तर्यामी भगवान् प्रसन्न हो सकते हैं ? क्या वे नहीं जानते कि ये सब तेरी प्रार्थनाएँ निष्काम नहीं हैं ? एवं तेरे हृदय में श्रध्दा, विशवास और प्रेम कुछ भी नहीं है ? यदि तुझको यह विशवास है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं तो फिर किस लिये प्रार्थना करता है ? बिना प्रेम के मिथ्या प्रार्थना करने से भगवान् कभी नहीं सुनते और यदि प्रेम है तो फिर कहने से प्रयोजन ही क्या है 

Friday 6 November 2015

पिछले जन्मों से घबराने की जरूरत है।

अतीत में आपने जो किया है, वह आपने किया है। आप स्वतंत्र थे करने को; आपने किया है। आपका एक हिस्सा जड़ हो गया है और परतंत्र हो गया है। लेकिन आपका एक हिस्सा अभी भी स्वतंत्र है, उसके विपरीत करने को आप मुक्त हैं। उसके विपरीत करके आप उसको खंडित कर सकते हैं। उससे भिन्न को करके आप उसे विनष्ट कर सकते हैं। उससे श्रेष्ठ को करके आप उसको विसर्जित कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में है कि वह अतीत-संस्कारों को भी धो डाले।
आपने कल तक क्रोध किया था, तो क्रोध करने को आप स्वतंत्र थे। निश्चित ही, जो आदमी बीस वर्षों से रोज क्रोध करता रहा है, वह क्रोध से बंध जाएगा। बंध जाने का मतलब यह है कि एक आदमी, जिसने बीस साल से क्रोध किया है निरंतर, वह एक दिन सुबह सोकर उठता है और अपने बिस्तर के पास अपनी चप्पलें नहीं पाता, एक यह आदमी है; और एक वह आदमी है जिसने बीस सालों से क्रोध नहीं किया, वह भी सुबह उठता है और बिस्तर के पास अपनी चप्पलें नहीं पाता; किस में इस बात से क्रोध के पैदा होने की संभावना अधिक है?
उस आदमी में, जिसने बीस साल से क्रोध किया, क्रोध पैदा होगा। इस अर्थों में वह बंधा है, क्योंकि बीस साल की आदत तत्क्षण उसमें क्रोध पैदा कर देगी कि जो उसने चाहा था, वह नहीं हुआ। इस अर्थों में वह बंधा है कि बीस साल का एक संस्कार उसे आज भी वैसे ही काम करने को प्रेरित करेगा कि करो, जो तुमने निरंतर किया है। लेकिन क्या वह इतना बंधा है कि क्रोधित न हो, यह उसकी संभावना नहीं है?
इतना कोई कभी नहीं बंधा है। अगर वह इसी वक्त सचेत हो जाए, तो रुक सकता है। और क्रोध को न आने दे, यह उसकी संभावना है। आए हुए क्रोध को परिणत कर ले, यह उसकी संभावना है। और अगर वह यह करता है, तो बीस साल की आदत थोड़ी दिक्कत तो देगी, लेकिन पूरी तरह नहीं रोक सकती है। क्योंकि जिसने आदत बनायी थी, अगर वह खिलाफ चला गया है, तो वह तोड़ने के लिए स्वतंत्र है। दस-पांच दफे के प्रयोग करके वह उससे मुक्त हो सकता है।
कर्म बांधते हैं, लेकिन बांध ही नहीं लेते। कर्म जकड़ते हैं, लेकिन जकड़ ही नहीं लेते। उनकी जंजीरें हैं, लेकिन सब जंजीरें टूट जाती हैं। ऐसी कोई जंजीर नहीं है, जो न टूटे। और जो न टूटे, उसको जंजीर भी नहीं कह सकेंगे। जंजीर बांधती है, लेकिन सब जंजीरें खुलने की क्षमता रखती हैं। अगर ऐसी कोई जंजीर हो, जो फिर खुल ही न सके, तो उसको जंजीर भी नहीं कह सकिएगा। जंजीर वही है, जो बांध भी सके और खोल भी सके। कर्म बंधन है, इसी अर्थों में, कि निर्बंधन भी हो सकता है। और हमारी चेतना हमेशा स्वतंत्र है। हमने जो कदम उठाए हैं, हम जिस रास्ते पर चलकर आए हैं, उस पर लौटने को हम हमेशा स्वतंत्र हैं।
तो अतीत आपको बांधे हुए है, लेकिन भविष्य आपका मुक्त है। एक पैर बंधा है और एक खुला है। अतीत का एक पैर बंधा हुआ है, भविष्य का एक पैर खुला हुआ है। आप चाहें, तो इस भविष्य के पैर को भी उसी दिशा में उठा सकते हैं, जिसमें आपने अतीत के पैर को बांधा है। आप बंधते चले जाएंगे। आप चाहें, तो इस भविष्य के पैर को अतीत की दिशा से विपरीत उठा सकते हैं। आप खुलते चले जाएंगे। यह आपके हाथ में है। उस स्थिति को हम मोक्ष कहते हैं, जहां दोनों पैर खुल जाएं। और उस स्थिति को हम परिपूर्ण निम्नतम नर्क कहेंगे, जहां दोनों पैर बंध जाएं।
इस वजह से, अतीत से घबराने की जरूरत नहीं है, न पिछले जन्मों से घबराने की जरूरत है। जिसने वे कदम उठाए थे, वह अब भी कदम उठाने को स्वतंत्र है।

Wednesday 28 October 2015

उस दिन से रोग समाप्त होना शुरू हो जाता है।


1) अगर परिवार में कोई परिवार में कोई व्यक्ति बीमार है तथा लगातार औषधि सेवन के पश्चात् भी 
स्वास्थ्य लाभ नहीं हो रहा है, तो किसी भी रविवार से आरम्भ करके लगातार 3 दिन तक गेहूं के आटे का 
पेड़ा तथा एक लोटा पानी व्यक्ति के सिर के ऊपर से उबार कर जल को पौधे में डाल दें तथा पेड़ा गाय को 
खिला दें। अवश्य ही इन 3 दिनों के अन्दर व्यक्ति स्वस्थ महसूस करने लगेगा। अगर टोटके की अवधि में 
रोगी ठीक हो जाता है, तो भी प्रयोग को पूरा करना है, बीच में रोकना नहीं चाहिए।
2) अमावस्या को प्रात: मेंहदी का दीपक पानी मिला कर बनाएं। तेल का चौमुंहा दीपक बना कर 7 उड़द के 
दाने, कुछ सिन्दूर, 2 बूंद दही डाल कर 1 नींबू की दो फांकें शिवजी या भैरों जी के चित्र का पूजन कर, जला 
दें। महामृत्युजंय मंत्र की एक माला या बटुक भैरव स्तोत्र का पाठ कर रोग-शोक दूर करने की भगवान से 
प्रार्थना कर, घर के दक्षिण की ओर दूर सूखे कुएं में नींबू सहित डाल दें। पीछे मुड़कर नहीं देखें। उस दिन 
एक ब्राह्मण -ब्राह्मणी को भोजन करा कर वस्त्रादि का दान भी कर दें। कुछ दिन तक पक्षियों, पशुओं और
रोगियों की सेवा तथा दान-पुण्य भी करते रहें। इससे घर की बीमारी, भूत बाधा, मानसिक अशांति 
निश्चय ही दूर होती है।
3) अगर बीमार व्यक्ति ज्यादा गम्भीर हो, तो जौ का 125 पाव (सवा पाव) आटा लें। उसमें साबुत काले 
तिल मिला कर रोटी बनाएं। अच्छी तरह सेंके, जिससे वे कच्ची न रहें। फिर उस पर थोड़ा सा तिल्ली का 
तेल और गुड़ डाल कर पेड़ा बनाएं और एक तरफ लगा दें। फिर उस रोटी को बीमार व्यक्ति के ऊपर से 7 
बार वार कर किसी भैंसे को खिला दें। पीछे मुड़ कर न देखें और न कोई आवाज लगाए। भैंसा कहाँ मिलेगा, 
इसका पता पहले ही मालूम कर के रखें। भैंस को रोटी नहीं खिलानी है, केवल भैंसे को ही श्रेष्ठ रहती है। 
शनि और मंगलवार को ही यह कार्य करें।
4) पीपल के वृक्ष को प्रात: 12 बजे के पहले, जल में थोड़ा दूध मिला कर सींचें और शाम को तेल का दीपक और अगरबत्ती जलाएं। ऐसा किसी भी वार से शुरू करके 7 दिन तक करें। बीमार व्यक्ति को आराम मिलना प्रारम्भ हो जायेगा।
5) घर से बीमारी जाने का नाम न ले रही हो, किसी का रोग शांत नहीं हो रहा हो तो एक गोमती चक्र ले 
कर उसे हांडी में पिरो कर रोगी के पलंग के पाये पर बांधने से आश्चर्यजनक परिणाम मिलता है। उस दिन
से रोग समाप्त होना शुरू हो जाता है।
6) यदि आपका बच्चा बहुत जल्दी-जल्दी बीमार पड़ रहा हो और आप को लग रहा कि दवा काम नहीं कर 
रही है, डाक्टर बीमारी खोज नहीं पा रहे है। तो यह उपाय शुक्ल पक्ष की अष्टमी को करना चाहिये। आठ 
गोतमी चक्र ले और अपने पूजा स्थान में मां दुर्गा के श्रीविग्रह के सामने लाल रेशमी वस्त्र पर स्थान दें। मां 
भगवती का ध्यान करते हुये कुंकुम से गोमती चक्र पर तिलक करें। धूपबत्ती और दीपक प्रावलित करें।
धूपबत्ती की भभूत से भी गोमती चक्र को तिलक करें। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे की 11 माला जाप
करें। जाप के उपरांत लाल कपड़े में 3 गोमती चक्र बांधकर ताबीज का रूप देकर धूप, दीप दिखाकर बच्चे के
गले में डाल दें। शेष पांच गोमती चक्र पीले वस्त्र में बांधकर बच्चे के ऊपर से 11 बार उसार कर के किसी 
विराने स्थान में गड्डा खोदकर दबा दें। आपका बच्चा हमेशा सुखी रहेगा।

Saturday 10 October 2015

गले में तुलसी की माला धारण करने से जीवनशक्ति बढ़ती है

तुलसी के आध्यात्मिक और औषधीय गुण - तुलसी माला की महिमा - एक सत्य घटना :

राजस्थान में जयपुर के पास एक इलाका है – लदाणा। पहले वह एक छोटी सी रियासत थी। उसका राजा एक बार शाम के समय बैठा हुआ था। उसका एक मुसलमान नौकर किसी काम से वहाँ आया। राजा की दृष्टि अचानक उसके गले में पड़ी तुलसी की माला पर गयी। 

राजा ने चकित होकर पूछाः
"क्या बात है, क्या तू हिन्दू बन गया है ?"
"नहीं, हिन्दू नहीं बना हूँ।"
"तो फिर तुलसी की माला क्यों डाल रखी है ?"
"राजासाहब ! तुलसी की माला की बड़ी महिमा है।"
"क्या महिमा है ?"

"राजा साहब ! मैं आपको एक सत्य घटना सुनाता हूँ। एक बार मैं अपने ननिहाल जा रहा था। सूरज ढलने को था। इतने में मुझे दो छाया-पुरुष दिखाई दिये, जिनको हिन्दू लोग यमदूत बोलते हैं। उनकी डरावनी आकृति देखकर मैं घबरा गया। 
तब उन्होंने कहाः
"तेरी मौत नहीं है। अभी एक युवक किसान बैलगाड़ी भगाता-भगाता आयेगा। यह जो गड्ढा है उसमें उसकी बैलगाड़ी का पहिया फँसेगा और बैलों के कंधे पर रखा जुआ टूट जायेगा। बैलों को प्रेरित करके हम उद्दण्ड बनायेंगे, तब उनमें से जो दायीं ओर का बैल होगा, वह विशेष उद्दण्ड होकर युवक किसान के पेट में अपना सींग घुसा देगा और इसी निमित्त से उसकी मृत्यु हो जायेगी। हम उसी का जीवात्मा लेने आये हैं।"

राजा साहब ! खुदा की कसम, मैंने उन यमदूतों से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि 'यह घटना देखने की मुझे इजाजत मिल जाय।' उन्होंने इजाजत दे दी और मैं दूर एक पेड़ के पीछे खड़ा हो गया। थोड़ी ही देर में उस कच्चे रास्ते से बैलगाड़ी दौड़ती हुई आयी और जैसा उन्होंने कहा था ठीक वैसे ही बैलगाड़ी को झटका लगा, बैल उत्तेजित हुए, युवक किसान उन पर नियंत्रण पाने में असफल रहा। बैल धक्का मारते-मारते उसे दूर ले गये और बुरी तरह से उसके पेट में सींग घुसेड़ दिया और वह मर गया।"

राजाः "फिर क्या हुआ ?"
नौकरः "हजूर ! लड़के की मौत के बाद मैं पेड़ की ओट से बाहर आया और दूतों से पूछाः'इसकी रूह (जीवात्मा) कहाँ है, कैसी है ?"
वे बोलेः 'वह जीव हमारे हाथ नहीं आया। मृत्यु तो जिस निमित्त से थी, हुई किंतु वहाँ हुई जहाँ तुलसी का पौधा था। जहाँ तुलसी होती है वहाँ मृत्यु होने पर जीव भगवान श्रीहरि के धाम में जाता है। पार्षद आकर उसे ले जाते हैं।'

हुजूर ! तबसे मुझे ऐसा हुआ कि मरने के बाद मैं बिहिश्त में जाऊँगा कि दोजख में यह मुझे पता नहीं, इसले तुलसी की माला तो पहन लूँ ताकि कम से कम आपके भगवान नारायण के धाम में जाने का तो मौका मिल ही जायेगा और तभी से मैं तुलसी की माला पहनने लगा।'

कैसी दिव्य महिमा है तुलसी-माला धारण करने की ! इसीलिए हिन्दुओं में किसी का अंत समय उपस्थित होने पर उसके मुख में तुलसी का पत्ता और गंगाजल डाला जाता है, ताकि जीव की सदगति हो जाय।

गले में तुलसी की माला धारण करने से जीवनशक्ति बढ़ती है, बहुत से रोगों से मुक्ति मिलती है। तुलसी की माला पर भगवन्नाम जप करने से एवं गले में पहनने से आवश्यक एक्युप्रेशर बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है, जिससे मानसिक तनाव में लाभ होता है, संक्रामक रोगों से रक्षा होती है तथा शरीर स्वास्थ्य में सुधार होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है। तुलसी माला धारण करने से शरीर निर्मल, रोगमुक्त व सात्त्विक बनता है। तुलसी शरीर की विद्युत संरचना को सीधे प्रभावित करती है। इसको धारण करने से शरीर में विद्युतशक्ति का प्रवाह बढ़ता है तथा जीव-कोशों द्वारा धारण करने के सामर्थ्य में वृद्धि होती है।

वैसे भी तुलसी माला में बहुत औषधीय गुण हैं : 

गले में तुलसी की माला धारण करने से जीवनशक्ति बढ़ती है, बहुत से रोगों से मुक्ति मिलती है। तुलसी की माला पर भगवन्नाम जप करने से एवं गले में पहनने से आवश्यक एक्युप्रेशर बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है, जिससे मानसिक तनाव में लाभ होता है, संक्रामक रोगों से रक्षा होती है तथा शरीर स्वास्थ्य में सुधार होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है। तुलसी माला धारण करने से शरीर निर्मल, रोगमुक्त व सात्त्विक बनता है। तुलसी शरीर की विद्युत संरचना को सीधे प्रभावित करती है। इसको धारण करने से शरीर में विद्युतशक्ति का प्रवाह बढ़ता है तथा जीव-कोशों द्वारा धारण करने के सामर्थ्य में वृद्धि होती है।

तुलसी की माला धारक के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है। कलाई में तुलसी का गजरा पहनने से नब्ज नहीं छूटती, हाथ सुन्न नहीं होता, भुजाओं का बल बढ़ता है। तुलसी की जड़ें कमर में बाँधने से स्त्रियों को, विशेषतः गर्भवती स्त्रियों को लाभ होता है। प्रसव वेदना कम होती है और प्रसूति भी सरलता से हो जाती है। कमर में तुलसी की करधनी पहनने से पक्षाघात नहीं होता, कमर, जिगर, तिल्ली, आमाशय और यौनांग के विकार नहीं होते हैं।
तुलसी की माला पहनने से आवाज सुरीली होती है, गले के रोग नहीं होते, मुखड़ा गोरा, गुलाबी रहता है। हृदय पर झूलने वाली तुलसी माला फेफड़े और हृदय के रोगों से बचाती है। इसे धारण करने वाले के स्वभाव में सात्त्विकता का संचार होता है।


Saturday 3 October 2015

सम्मान प्राप्ति के आसान उपाय


 सम्मान प्राप्ति के आसान उपाय 

१.समाज में उचित मान सम्मान प्राप्ति के लिए रात में सोते समय सिरहाने ताम्बे के बर्तन में जल भर कर उसमें थोड़ा शहद के साथ कोई भी सोने /चाँदी का सिक्का या अंगूठी रख लें फिर सुबह उठकर प्रभु का स्मरण करने के बाद सबसे पहले बिना कुल्ला किये उस जल को पी लें ...जल्दी ही आपकी यश ,कीर्ति बड़ने लगेगी ।
२.रात को सोते समय अपने पलंग के नीचे एक बर्तन में थोड़ा सा पानी रख लें, सुबह वह पानी घर के बाहर डाल दें इससे रोग, वाद-विवाद, बेइज्जती, मिथ्या लांछन आदि से सदैव बचाव होता रहेगा ।
३.दुर्गा सप्तशती के द्वादश (12 वें ) अध्याय के नियमित पाठ करने से व्यक्ति को समाज में मान सम्मान और मनवांछित लाभ की प्राप्ति होती है ।
४.समाज में मान सम्मान की प्राप्ति के लिये कबूतरों/चिड़ियों को चावल-बाजरा मिश्रित कर के डालें, बाजरा शुक्रवार को खरीदें व शनिवार से डालना शुरू करें।

Wednesday 30 September 2015

मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा था

शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है।
इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवावस्था की शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया 
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।

ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू छलक आए कि "ये सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते भी है ।
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता" का पार्ट देख रहा था 
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की झोली फैला रखी है ।
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योगादि की शिछा दी है सब भूल जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे मेरा मार्ग दर्शा दिया ।)
सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता है ।....सर्व धर्मान परित्यज्यै ,मामेकं शरणं ब्रिज...।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है।
इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवावस्था की शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया 
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।

ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू छलक आए कि "ये सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते भी है ।
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता" का पार्ट देख रहा था 
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की झोली फैला रखी है ।
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योगादि की शिछा दी है सब भूल जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे मेरा मार्ग दर्शा दिया ।)
सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता है ।....सर्व धर्मान परित्यज्यै ,मामेकं शरणं ब्रिज...।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।















Sunday 20 September 2015

जिस दुःख मे नारायण का स्मरण हो वह सुख है , उसे दुःख कैसे कहेँ


श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से ब्रह्मास्त्र का निवारण किया । परीक्षित की रक्षा करने के बाद वे द्वारिका पधारने को तैयार हुए तो कुन्ती का दिल भर आया उनकी अभिलाषा है कि चौबीस घंटे मैँ श्रीकृष्ण को निहारा करुँ ।
अतः कुन्ती उनके मार्ग मेँ खड़ी हो गयी श्रीकृष्ण रथ से उतरे तो कुन्ती उनका वंदन करने लगी । वंदन से प्रभू बन्धन मेँ आते हैँ । वंदन के समय अपने सारे पापो को याद करने से हृदय दीन और नम्र होगा ।
कुन्ती मर्यादा - भक्ति है , साधन भक्ति है । यशोदा पुष्टि - भक्ति है । यशोदा का सारा व्यवहार भक्तिरुप था । प्रेम लक्षणा भक्ति मेँ व्यवहार और भक्ति मेँ भेद नहीँ रहता । वैष्णव की क्रियाएँ भक्ति ही बन जाती हैँ । प्रथम मर्यादा भक्ति आती है , उसके बाद पुष्टि भक्ति । मर्यादा भक्ति साधन है सो वह आरम्भ मेँ आती है , पुष्टि भक्ति साध्य है अतः वह अन्त मेँ आती है ।
कुन्ती की भक्ति दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति है , हनुमान जी भक्ति दास्यभक्ति है ,वे दास्यभक्ति के आचार्य है ।
दास्यभाव से हृदय दीन बनता है । दास्यभक्ति मेँ दृष्टि चरणो मेँ स्थिर करनी होती है। बिना भाव के भक्ति सिद्ध नही हो सकती है । कुन्ती वात्सल्य भाव से श्रीकृष्ण का मुख निहारती हैँ , चरण दर्शन से तृप्ति नही हुयी सो मुख देख रही हैँ , कुन्ती स्तुति करती है -

नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने ।
नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये ।।
जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है जिन्होँने कमलोँ की माला धारण की है . जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल है और जिनके चरणोँ मेँ कमल चिह्न हैँ ऐसे हे कृष्ण आपको बार बार वंदन है ।
प्रभू के सभी अंगो की उपमा कमल से दी गयी है >
नवकंज लोचन ,कंजमुख करकंजपद कंजारुणम् !!
भगवान की स्तुति रोज तीन बार करना है -- सुबह मेँ , दोपहर मेँ , और रात को सोने से पहले । इसके अलावा सुख , दुःख और अन्तकाल मेँ भी स्तुति करना है । अर्जुन दुःख मेँ स्तुति करता है , कुन्ती सुख मेँ स्तुति करती है , और भीष्म अन्तकाल मेँ स्तुति करते हैँ । सुखावसाने , दुःखावसाने , देहावसने स्तुति करना है ।
हम अति सुख मे भगवान को भूल जाते है , जीव पर भगवान अनेक उपकार करते हैँ किन्तु वह सब भूल जाता है । परमात्मा के उपकार भूलना नहीं चाहिए ।
कुन्ती कहती हैँ
बिना जल के नदी की शोभा नहीँ है , प्राण के बिना शरीर शोभा नहीँ देता . कुंकुम का टीका न हो तो सौभाग्यवती स्त्री नहीँ सुहाती । इसी प्रकार आपके विना पांडव भी नहीँ सुहाते । नाथ आपसे ही हम सुखी हैँ ।।
गोपी गीत मेँ गोपियाँ भी भगवान के उपकार का स्मरण करती हैँ > विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षासाद् वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् ।।
कुन्ती याद करती हैँ कि जब भीम को दुर्योधन ने विषमिश्रित लडडू खिलाये थे , उस समय आपने उसकी रक्षा की थी । लाक्षागृह से बचाया ।
मेरी द्रौपदी को जब दुःशासन भरी सभा वस्त्र खीँचने लगा उस समय आपने उसकी रक्षा की ,जिसे भगवान ढकते है उसे कौन उघाड़ सकता है ।
जीव ईश्वर को कुछ भी नही दे सकता , जगत का सब कुछ ईश्वर का ही है ।
कुन्ती कहती है नाथ हमारा त्याग न करो आप द्वारिका जा रहेँ है किन्तु एक वरदान माँगने की इच्छा है वरदान देकर आप चले जाइए ।
कुन्ती जैसा वरदान न किसी ने माँगा है न कोई माँगेगा ।
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।
हे जगदगुरु ! हमारे जीवन मे प्रतिक्षण विपदा आती रहेँ क्योकि विपदावस्था मे निश्चित ही आपके दर्शन होते रहेँगे ।
जिस दुःख मे नारायण का स्मरण हो वह सुख है , उसे दुःख कैसे कहेँ ?
सुख के माथे सिल परौ हरी हृदय से पीर ।
बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम जपाय ।।
श्रीहरिशरणम्

Sunday 13 September 2015

विकारों से अपनी अंतरज्योत को ढक लिया है।


आत्म-कल्याण
जीवन का सत्य परमात्म-तत्व या चेतना का प्रकाश बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर है । अंदर के इस परम तत्व को पा लेने से ही वाह्य संसार का सत्य दिखने लगता है या अंदर प्रकाश होता है, तभी बाहर प्रकाश फैलता है ।
इस सत्य की अनुभूति या परमात्म तत्व का बोध अंतर्मन में गोता लगाने से ही प्राप्त होता है । इसके लिए तप-साधना का मार्ग है । किसी आध्यात्मिक चेतना संपन्न मनीषी द्वारा ही यह संभव है । इतनी लंबी साधना के बाद जिस सत्य का बोध होता है, वही जीवन-दर्शन परिपक्व होकर विचारधारा का रूप ग्रहण करता है ।
‘आत्मकल्याण’ को समझने के लिए ये जान लेना जरूरी है कि हमारे शरीर में आत्म-रूप में परमात्मा बैठे हैं । अर्थात् आत्मा उसी परमात्मा का अंश है । आत्मा उस परमतत्व का एक सूक्ष्म अणु है और इस रूप में वह विराट सभी जीवों के अंदर है । इसलिए आत्मा और परमात्मा में अभेद है, अभिन्नता है ।
सच तो यह है कि आत्मा को अखंड रूप में देखना और पहचानना ही आत्मा के समष्टि रूप को जानना है । मेरे अंदर जो आत्मा है, वही दूसरे प्राणी के अंदर भी है । इस सत्य को जान लेने के बाद किसी प्राणी के लिए कल्याण का भाव आत्म-कल्याण ही है । इसलिए आत्म-कल्याण की भावना अपने उदात्त रूप में विश्वकल्याण की भावना में आगे चलकर परिवर्तित हो जाती है । जब आपके हृदय का गागर आनंद और आत्म संतोष से भर जाएगा तो संसार उसी चेतना के प्रकाश से जगमगाने लगेगा ।
जो मनुष्य मानसिक रूप से प्रफुल्ल हो और शारीरिक रूप से स्वस्थ हो, वही जगत् कल्याण कर सकता है । जब नदी भरी रहती है तब स्वत: प्यासी धरती और प्यासे जीव को उससे तृप्ति मिलती है । इसलिए पहले नदी का भरा रहना आवश्यक है। हमारा जीवन परमात्मा का अंश
है। एक ही ज्योति समस्त जीवों में जल रही है । अंतर यह होता है कि हमने संसार में आकर विकारों से अपनी अंतरज्योत को ढक लिया है।

Monday 7 September 2015

यह जो चमत्कार प्रभु मुझे दे रहा है, यह मुझे पता न चले।


 एक मुसलमान फकीर के जीवन में कहा गया है। फकीर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो फरिश्ते उतरे, और उन्होंने उस फकीर को कहा कि परमात्मा ने हमें भेजा है कि तुम कोई वरदान मांग लो। तुम जो चाहो! तुम पर प्रभु प्रसन्न हैं। तो उस फकीर ने कहा, लेकिन अब! अब तो कोई चाह न रही। देर करके तुम आए। जब चाह थी बहुत, कोई आया नहीं पूछने। और अब जब चाह न रही, तब तुम आए हो?

उन देवताओं ने कहा, हम आए ही इसीलिए हैं। जब चाह नहीं रह जाती, तभी तुम इतने पवित्र होते हो कि तुमसे पूछा जा सके कि कुछ चाहते हो? चाह के कारण ही तो हमारे और तुम्हारे बीच दरवाजा बंद था। चाह गिर गई, इसलिए दरवाजा खुला। अब हम तुमसे पूछने आए हैं कि तुम कुछ मांग लो।

उस फकीर ने कहा, लेकिन अब मैं क्या मांग सकता हूं! लेकिन जितनी फकीर जिद्द करने लगा कि मैं कुछ भी नहीं मांग सकता, उतने ही फरिश्ते जिद्द करने लगे कि कुछ मांग लो।

जिंदगी ऐसी ही उलटी है। जो लोग जितनी जिद्द करते हैं कि यह चाहिए, उतना ही चूकते चले जाते हैं। जो दौड़ते हैं पाने को, खो देते हैं। और जो पाने का खयाल ही छोड़ देते हैं, उनके पीछे सब कुछ दौड़ने लगता है।

उन देवताओं ने चरण पकड़ लिए और कहा कि परमात्मा हमसे कहेगा कि तुम इतना भी न समझा पाए! वापस जाओ। तुम कुछ मांग लो। तो उस फकीर ने कहा कि तुम्हीं कुछ दे दो, जो तुम्हें लगता हो। तो उन देवताओं ने कहा कि हम तुम्हें वरदान देते हैं कि तुम जिसे भी छू दोगे, वह बीमार होगा तो स्वस्थ हो जाएगा, मुर्दा होगा तो जीवित हो जाएगा। अगर सूखे पौधे को तुम छू दोगे, तो अंकुर निकल आएंगे।

उस फकीर ने कहा, इतनी तुमने कृपा की, थोड़ी कृपा और करो। और वह कृपा यह कि मेरे छूने से यह न हो, मेरी छाया के छूने से हो। मैं जहां से निकल जाऊं, मेरी छाया पड़ जाए सूखे वृक्ष पर, वह हरा हो जाए, लेकिन मुझे उसका पता न चले। अगर मेरे छूने से होगा, तो मेरा अहंकार पुन: निर्मित हो सकता है। मुझे पता न चले।

नहीं तो यह तुम्हारा वरदान, मेरे लिए अभिशाप हो जाएगा। मुझे पता न चले। मेरी शक्ति का मुझे पता न चले। मेरे संतत्व का मुझे पता न चले। मेरे रहस्य का मुझे पता न चले। यह जो चमत्कार प्रभु मुझे दे रहा है, यह मुझे पता न चले।

वह फकीर चलता गांव में, सूखे वृक्षों पर छाया पड़ जाती, वे हरे हो जाते। कभी किसी बीमार पर उसकी छाया पड़ जाती, वह स्वस्थ। हो जाता। लेकिन न तो उस फकीर को पता चलता और न उस बीमार को पता चलता, क्योंकि छाया के पड़ने से यह घटना होती।

यह तो कहानी है, लेकिन सूफी फकीर कहते हैं कि जब भी कभी कोई संत पैदा होता है, तो न उसे खुद पता होता है कि मैं संत हूं न किसी और को पता चलता है।

पता चलना, ठोस हो जाना है। पता न चलना, तरल होना है, विरल होना है, हवा की तरह होना है। जिन्हें हमने भगवान भी कहा है, बुद्ध या महावीर को, उन्हें खुद कुछ भी पता नहीं है। वे निर्दोष बच्चों की भांति हैं।

इसलिए हमें शरीर दिखाई पड़ते हैं, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हमें पत्थर दिखाई पड़ते हैं, प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह पदार्थ है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वही परमात्मा है।

Saturday 29 August 2015

देखो कि कैसे शरीर जलता है


‘प्रयोग करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है……।’

बस लेट जाओ। पहले भाव करो कि तुम मर गए हो। शरीर एक शव मात्र है। लेटे रहो और अपने ध्‍यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ। आंखें बंद करके भीतर गति करो। अपने ध्‍यान को अँगूठों पर ले जाओं और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है। और सब कुछ जल रहा है,जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्‍हारा शरीर विलीन हो रहा है। अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो।

अंगूठे से क्‍यों शुरू करो। यह आसान होगा। क्‍योंकि अंगूठा तुम्‍हारे ‘मैं’ से, तुम्‍हारे अहंकार से बहुत दूर है। तुम्‍हारा अहंकार सिर में केंद्रित है; वहां से शुरू करना कठिन होगा। तो बिंदु से शुरू करो; भाव करो कि अंगूठे जल रहे है। और वहां अब राख ही बची है।

और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ। सारे अंग—पैर,जांघ—विलीन हो जाएंगे। और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे है; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं है। वे राख हो गए है। ऊपर बढ़ते जाओ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है। प्रत्‍येक चीज राख हो गई है; धूल-धूल में मिल रही है। और तुम देख रहे हो।

‘और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।’

तुम शिखर पर खड़े द्रष्‍टा रह जाओगे, साक्षी रह जाओगे। शरीर वहां पडा होगा, मृत जला हुआ, राख-और तुम द्रष्‍टा होगे, साक्षी होगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है।

यह विधि निरहंकार अवस्‍था की उपलब्‍धि के लिए बहुत उपयोगी है। क्‍यो? क्‍योंकि इसमें बहुत सी बातें घटती है। यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह उतनी सरल है नहीं। इसकी आंतरिक संरचना बहुत जटिल है।
पहली बात यह है कि तुम्‍हारी स्‍मृतियां शरीर का हिस्‍सा है। स्‍मृति पदार्थ है; यही कारण है कि उसे संग्रहीत किया जा सकता है। स्‍मृति मस्‍तिष्‍क के कोष्‍ठों में संग्रहीत है। स्‍मृतियां भौतिक है, शरीर का हिस्‍सा है। तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क का आपरेशन करके अगर कुछ कोशिकाओं को निकाल दिया जाए तो उनके साथ कुछ स्‍मृतियां भी विदा हो जायेगी। स्‍मृतियां मस्‍तिष्‍क में संग्रहीत रहती है। स्‍मृति पदार्थ है; उसे नष्‍ट किया जा सकता है।
और अब तो वैज्ञानिक कहते है कि स्‍मृति प्रत्‍यारोपित कि जा सकती है। देर-अबेर हम उपाय खोज लेंगे कि जब आइंस्‍टीन जैसा व्‍यक्‍ति मरे तो हम उसके मस्‍तिष्‍क की कोशिकाओं को बचा लें। और उन्‍हें किसी बच्‍चे में प्रत्‍यारोपित कर दें। और उस बच्‍चे को आइंस्टीन के अनुभवों से गूजरें बिना ही आइंस्टीन की स्‍मृतियां प्राप्‍त हो जाएगी।

तो स्‍मृति शरीर का हिस्‍सा है। और अगर सारा शरीर जल जाए, राख हो जाए,तो कोई स्‍मृति नहीं बचेगी। याद रहे,यह बात समझने जैसी है। अगर स्‍मृति रह जाती है तो शरीर अभी बाकी है। और तुम धोखे में हो। अगर तुम सचमुच गहराई से इस भाव में उतरोगे कि शरीर नहीं है। जल गया है, आग ने उसे पूरी तरह राख कर दिया है। तो उसे क्षण तुम्‍हें कोई स्‍मृति नहीं रहेगी। साक्षित्‍व के उस क्षण में कोई मन नहीं रहेगा। सब कुछ ठहर जाएगा। विचारों की गति रूक जाएगी। केवल दर्शन,मात्र देखना रह जाएगा कि क्‍या हुआ है।

और एक बार तुमने यह जान लिया तो तुम इस अवस्‍था में निरंतर रह सकते हो। एक बार सिर्फ यह जानना है कि तुम अपने को अपने शरीर से अलग कर सकते हो। यह विधि तुम्‍हें अपने शरीर से अलग जानने का, तुम्‍हारे और तुम्‍हारे शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने का, कुछ क्षणों के लिए शरीर से बाहर होने का एक उपाय है। अगर तुम इसे साध सको तो तुम शरीर में होते हुए भी शरीर में नहीं होगे। तुम पहले की तरह ही जीए जा सकते हो; लेकिन अब तुम फिर कभी वही नहीं हो सकते हो।

इस विधि में कम से कम तीन महीने लगेंगे। इसे करते रहो; यह एक दिन में नहीं होगी। लेकिन यदि तुम प्रतिदिन इसे एक घंटा देते हो तो तीन महीने के भीतर किसी दिन अचानक तुम्‍हारी कल्‍पना सफल होगी। और एक अंतराल निर्मित हो जाएगा। और तुम सचमुच देखोगें कि तुम्‍हारा शरीर राख हो रहा है। तब तुम उसका निरीक्षण कर सकते हो। और उस निरीक्षण में एक गहन तथ्‍य को बोध होगा। कि अहंकार असत्‍य है, झूठ है; उसकी कोई सत्‍ता नहीं है। अहंकार था; क्‍योंकि तुम शरीर से विचारों से मन से तादात्‍म्‍य किए बैठे थे। तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो न मन, न विचार, न शरीर। तुम उस सब से भिन्‍न हो जो तुम्‍हें घेर हुए है। तुम अपनी परिधि से सर्वथा भिन्‍न हो।

तो उपर से यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह तुम्‍हारे भीतर गहन रूपांतरण ला सकती है। लेकिन पहले मरघट में जाकर ध्‍यान करो, जो लोगों को जलाया जाता है। देखो कि कैसे शरीर जलता है। कैसे शरीर फिर मिट्टी हो जाता है। ताकि तुम फिर आसानी से कल्‍पना कर सको। और जब अँगूठों से आरंभ करो और बहुत धीरे-धीरे उपर बढ़ो।

और इस विधि में उतरने के पहले श्‍वास छोड़ने पर ज्‍यादा ध्‍यान दो। इस विधि को करने के ठीक पहले पंद्रह मिनट तक श्‍वास छोड़ो और आंखे बंद कर लो, फिर शरीर को श्‍वास लेने दो और आंखें खोल दो। पंद्रह मिनट तक गहन विश्राम में रहो। और फिर विधि में प्रवेश करो।

Thursday 20 August 2015

गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित “शिवस्तोत्ररत्नाकर


आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा विरचित

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं,गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम् |
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं,महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम् ||१||
महेशं सुरेशं सुरारार्तिनाशं,विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम् |
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं,सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् ||२||
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं, गवेन्द्राधिरूढं गणातीतरूपम् |
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं,भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम् ||३||
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले,महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन् |
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः,प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप ||४||
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं, निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम् |
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम् ||५||
न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाश आस्ते न तन्द्रा न निद्रा |
न गृष्मो न शीतो न देशो न वेषो,न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे ||६||
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां, शिवं केवलं भासकं भासकानाम् |
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं,प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ||७||
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते,नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते |
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य,नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ||८||
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ,महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र |
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे,त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ||९||
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे,गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् |
काशीपते करुणया जगदेतदेकस्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ||१०||
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे,त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ |
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश,लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन् ||११||
(गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित “शिवस्तोत्ररत्नाकर” से)

Monday 17 August 2015

मन की इस अटलता से क्या लाभ


शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||१||

(यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?)

कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||२||

(सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?)

षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||३||

(वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?)

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||४||

(जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?)

क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||५||

(जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?)

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||६||

(दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों,किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?)

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ,
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||७||

(जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?)

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||८||

(जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?)

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही |
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ||९||

(जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशालीशरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है|)

॥ इति श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम् गुर्वष्टकम् सम्पूर्णं॥

Friday 14 August 2015

परमेश्वर ने सारे साधन दिये है

मनुष्य के ज्ञान की दृष्टि से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्राणियों की संख्या असंख्य है । एक मनुष्य ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य मिलकर भी सब प्राणियों की संख्या को नहीं गिन सकते । मनुष्यों की दृष्टि से न गिनने की स्थिति में उसे असंख्य कहा जाता है । परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में प्राणियों की संख्या सीमित है । क्योंकि परमेश्वर अपनी असीमित शक्ति से सभी प्राणियों को गिनता है, इसलिए परमेश्वर सब के कर्म-फल को ठीक-ठीक प्रदान करता है ।
अनेक बार, अनेकों लोग परमेश्वर को कोसते रहते हैं कि "हमें कुछ नहीं दिया, हमें क्या दिया, हमें यह नहीं दिया, हमें वो नहीं दिया "इत्यादि अर्थात कोई कहता है हमें आँख नहीं दी, कोई कहता है हमें वाणी नहीं दी, कोई कहता है हमें हाथ, पाँव, नाक या और कोई अंग नहीं दिया, कोई कहता है हमें अच्छे माता-पिता नहीं दिये, कोई कहता है हमें जमीन नहीं दी । यदि एक-एक को गिनने लगे तो लिखते ही जायेंगे, लिखना बन्द नहीं हो पायेगा । जितने मनुष्य उतनी शिकायतें । शिकायतों की कतार बड़ी लम्बी बनेगी ।
ऐसा सोच-विचार रखना भौतिकवादी के लिए सामान्य हो सकता है, परन्तु यही सोच-विचार आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अत्यंत घातक होगा । एक ओर परमेश्वर को परमेश्वर स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी ओर परमेश्वर पर शक (शंका )किया जा रहा है । यदि परमेश्वर के विषय में किसी से भी यह पूछा जाये कि परमेश्वर न्यायकारी है या अन्यायकारी ? उत्तर यह मिलेगा कि न्यायकारी है । यदि परमेश्वर न्यायकारी है तो शक नहीं कर सकते और शक करना है तो परमेश्वर न्यायकारी नहीं हो सकता । परन्तु साधनों के अभाव से ग्रस्त जनता इस बात नहीं समझ सकती हैं । यही समझ का अभाव कभी-कभी साधना करने वाले आध्यात्मिक व्यक्तियों में भी देखा जाता है । साधनों के अभाव की पीड़ा इतनी गहरी होती है कि साधना के पथिक का सारा ज्ञान दब जाता है और वह साधक भी परमेश्वर को कोसने लगता है ।
यह कैसी विडम्बना है देखिए -परमेश्वर ने सारे साधन दिये है, पर किसी को आँख, किसी को कान, किसी को नाक या किसी को वाणी नहीं दिये । एक अंग या साधन नहीं है, बाकी सभी अंग या साधन हैं । सब कुछ दिये जाने पर भी एक साधन को लेकर साधक के मन में परमेश्वर के प्रति शंका उत्पन्न हो रही है । ऐसी स्थिति में साधक, साधना को साधना के रूप में समुचित पद्धति से नहीं कर पायेगा । साधक को यह विचार करना चाहिए कि जितने भी साधन मिले हुए हैं, वे मेरे कर्मो के आधार पर ही मिले हुए हैं और जो भी साधन नहीं मिले हैं वे भी मेरे कर्मो के आधार पर ही नहीं मिले हैं । यदि इस बात को साधक समझता है, तो इस समझ को विवेक के रूप में बदलें । क्योंकि समझने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है । इसलिए उस समझ को विवेक में बदलना चाहिए और उस विवेक को भी वैराग्य में बदलना पड़ता है । उसी स्थिति में साधक के मन में फिर कभी परमेश्वर के प्रति शक (शंका )नहीं होगा ।
साधक को यह भी समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर ने हमें जितने भी साधन दिये हैं, उन साधनों से भी हम अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि समय में थोडा बहुत पीछे हो सकता है, परन्तु प्रयोजन को अवश्य पूरा कर सकते हैं । सब साधन उपलब्ध है पर एक -आध साधन के अभाव में हताश-निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चाहे आँख न हो, चाहे कान न हो, चाहे हाथ न हो, परन्तु हमारी बुद्धि काम कर रही हैं, तो बहुत है । उस बुद्धि के बल पर हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो मनुष्य के द्वारा करने योग्य हैं ।
हम पर परमेश्वर की इतनी अधिक कृपा है कि उसने हमें वह अमुल्य बुद्धि दी है, जो किसी ओर प्राणी में देखने को नहीं मिलेगा है, यदि मनुष्य यह विचार नहीं करे कि 'मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया 'बल्कि यह विचार करे कि जो भी परमेश्वर ने मुझको साधन दिये, उन साधनों का प्रयोग कैसे करूँ, जिससे अपने प्रयोजन को पूरा कर सकूँ । हमें जितने भी साधन मिले हुए हैं, उनका भी पूरा प्रयोग नहीं कर पा रहे है, अर्थात सदुपयोग कम हो रहा है और दुरूपयोग अधिक हो रहा है । एक-एक साधन के दुरुपयोग को रोक-रोक कर उसे सदुपयोग में लगाया जाये, तो हमें समय की कमी दिखाई देगी और साधनों की अधिकता दिखाई देगी । परमेश्वर ने उदार मन से इतने साधन उपलब्ध कराये है कि उनके सदुपयोग करने का समय ही बच नहीं पाता है, तो और अधिक साधनों को पाकर भी क्या कर लेंगे ? हाँ जो भी साधन उपलब्ध हैं, उनका कितना प्रतिशत प्रयोग किया और कितना प्रतिशत प्रयोग नहीं किया, इसका आकलन किया जाए, तो मनुष्य को सही अनुभूति होगी कि साधन कम मात्रा में है या अधिक मात्रा में हैं ।
साधन कम है या अधिक हैं, यह जानना बड़ी बात नहीं है, बल्कि बड़ी बात यह जानना है कि उन साधनों का समुचित प्रयोग कितनी मात्रा में किया और कितनी मात्रा में नहीं किया । साधक को उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए, न कि साधनों को पाने की दिशा में । परमेश्वर ने हमें क्या नहीं दिया ? सब कुछ दिया है, ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है ।

Saturday 8 August 2015

गुस्सा छू-मंतर हो जाएगा।


पति का गुस्सा कम करने का अचूक
यदि आपके पति का स्वभाव भी गुस्सैल हैं और भी बात-बात पर गुस्सा हो जाते हैं तो :

जब आपके पति गहरी नींद में सोए हों तब एक नारियल, सात गोमती चक्र और थोड़ा का गुड़ लेकर इन सभी सामग्री को एक पीले कपड़े में बांध लें। अब इस पोटली को अपने पति के ऊपर सात बार ऊबार कर बहते हुए जल में बहा दें। इसके अलावा प्रतिदिन सूर्य को अध्र्य दें और अपनी मनोकामना कहें। कुछ ही समय में आपके पति का गुस्सा छू-मंतर हो जाएगा।

Wednesday 5 August 2015

तुम बिनु को मोरी राखे लाज


हे राम......... 
सूनो हमारी करुण पुकार .........
तुम बिनु को मोरी राखे लाज,
मेरे "राम" गरीब निवाज ,
तुम बिनु को मोरी राखे लाज...........

मैं असहाय अधम अज्ञानी,
पतितंन को सिरताज.......

पतित उधारन बिरदु तुम्हारो
सिद्ध करो महराज,

तुम बिन को मोरी राखे लाज..........

जिसने ध्यान लगाया ,पाया,
जैसे ध्रुव, गजराज........

हमरी बारी जाय छुपे तुम
किन कुंजन में आज........

तुम बिनु को मोरी राखे लाज...........

मैं अपराधी हूँ बड़ा
अवगुण भरा जहाज,

डूब रहा मझधार में ,
पार करो महराज.........

तुम बिनु को मोरी राखे लाज...........


Tuesday 4 August 2015

उसे किसी काल मैं कुछ भी भय नही

कायर का घर फूस का, भभकी चाहूँ पछित
सुरा के कछु डर नहीं, गज गिरी की भीत
,,,,,,,,,,कायर ( साधना क्षेत्र से भागने वाले अज्ञानी ) का घर तो फूंस का बना हुआ जेसा है, जो की आग ज़रा सी चिंगारी से भभक उठता है ( अर्थात उसकी स्थिति इतनी दुर्लब है जो तनिक सी क़ठिनाई परीक्षा अग्नि ) मैं स्वाहा हो जाती है, परन्तु उस शूरवीर ( सन्त ) को कुछ भी डर नही है,जिसकी दीवार हाथी के भी चाड़ने से भी नही गिरती ( अर्थात जिसकी साधना स्थिति सुद्ृाड है, उसे किसी काल मैं कुछ भी भय नही

ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है ।


मनुष्य के ज्ञान की दृष्टि से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्राणियों की संख्या असंख्य है । एक मनुष्य ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य मिलकर भी सब प्राणियों की संख्या को नहीं गिन सकते । मनुष्यों की दृष्टि से न गिनने की स्थिति में उसे असंख्य कहा जाता है । परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में प्राणियों की संख्या सीमित है । क्योंकि परमेश्वर अपनी असीमित शक्ति से सभी प्राणियों को गिनता है, इसलिए परमेश्वर सब के कर्म-फल को ठीक-ठीक प्रदान करता है ।
अनेक बार, अनेकों लोग परमेश्वर को कोसते रहते हैं कि "हमें कुछ नहीं दिया, हमें क्या दिया, हमें यह नहीं दिया, हमें वो नहीं दिया "इत्यादि अर्थात कोई कहता है हमें आँख नहीं दी, कोई कहता है हमें वाणी नहीं दी, कोई कहता है हमें हाथ, पाँव, नाक या और कोई अंग नहीं दिया, कोई कहता है हमें अच्छे माता-पिता नहीं दिये, कोई कहता है हमें जमीन नहीं दी । यदि एक-एक को गिनने लगे तो लिखते ही जायेंगे, लिखना बन्द नहीं हो पायेगा । जितने मनुष्य उतनी शिकायतें । शिकायतों की कतार बड़ी लम्बी बनेगी ।
ऐसा सोच-विचार रखना भौतिकवादी के लिए सामान्य हो सकता है, परन्तु यही सोच-विचार आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अत्यंत घातक होगा । एक ओर परमेश्वर को परमेश्वर स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी ओर परमेश्वर पर शक (शंका )किया जा रहा है । यदि परमेश्वर के विषय में किसी से भी यह पूछा जाये कि परमेश्वर न्यायकारी है या अन्यायकारी ? उत्तर यह मिलेगा कि न्यायकारी है । यदि परमेश्वर न्यायकारी है तो शक नहीं कर सकते और शक करना है तो परमेश्वर न्यायकारी नहीं हो सकता । परन्तु साधनों के अभाव से ग्रस्त जनता इस बात नहीं समझ सकती हैं । यही समझ का अभाव कभी-कभी साधना करने वाले आध्यात्मिक व्यक्तियों में भी देखा जाता है । साधनों के अभाव की पीड़ा इतनी गहरी होती है कि साधना के पथिक का सारा ज्ञान दब जाता है और वह साधक भी परमेश्वर को कोसने लगता है ।
यह कैसी विडम्बना है देखिए -परमेश्वर ने सारे साधन दिये है, पर किसी को आँख, किसी को कान, किसी को नाक या किसी को वाणी नहीं दिये । एक अंग या साधन नहीं है, बाकी सभी अंग या साधन हैं । सब कुछ दिये जाने पर भी एक साधन को लेकर साधक के मन में परमेश्वर के प्रति शंका उत्पन्न हो रही है । ऐसी स्थिति में साधक, साधना को साधना के रूप में समुचित पद्धति से नहीं कर पायेगा । साधक को यह विचार करना चाहिए कि जितने भी साधन मिले हुए हैं, वे मेरे कर्मो के आधार पर ही मिले हुए हैं और जो भी साधन नहीं मिले हैं वे भी मेरे कर्मो के आधार पर ही नहीं मिले हैं । यदि इस बात को साधक समझता है, तो इस समझ को विवेक के रूप में बदलें । क्योंकि समझने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है । इसलिए उस समझ को विवेक में बदलना चाहिए और उस विवेक को भी वैराग्य में बदलना पड़ता है । उसी स्थिति में साधक के मन में फिर कभी परमेश्वर के प्रति शक (शंका )नहीं होगा ।
साधक को यह भी समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर ने हमें जितने भी साधन दिये हैं, उन साधनों से भी हम अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि समय में थोडा बहुत पीछे हो सकता है, परन्तु प्रयोजन को अवश्य पूरा कर सकते हैं । सब साधन उपलब्ध है पर एक -आध साधन के अभाव में हताश-निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चाहे आँख न हो, चाहे कान न हो, चाहे हाथ न हो, परन्तु हमारी बुद्धि काम कर रही हैं, तो बहुत है । उस बुद्धि के बल पर हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो मनुष्य के द्वारा करने योग्य हैं ।
हम पर परमेश्वर की इतनी अधिक कृपा है कि उसने हमें वह अमुल्य बुद्धि दी है, जो किसी ओर प्राणी में देखने को नहीं मिलेगा है, यदि मनुष्य यह विचार नहीं करे कि 'मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया 'बल्कि यह विचार करे कि जो भी परमेश्वर ने मुझको साधन दिये, उन साधनों का प्रयोग कैसे करूँ, जिससे अपने प्रयोजन को पूरा कर सकूँ । हमें जितने भी साधन मिले हुए हैं, उनका भी पूरा प्रयोग नहीं कर पा रहे है, अर्थात सदुपयोग कम हो रहा है और दुरूपयोग अधिक हो रहा है । एक-एक साधन के दुरुपयोग को रोक-रोक कर उसे सदुपयोग में लगाया जाये, तो हमें समय की कमी दिखाई देगी और साधनों की अधिकता दिखाई देगी । परमेश्वर ने उदार मन से इतने साधन उपलब्ध कराये है कि उनके सदुपयोग करने का समय ही बच नहीं पाता है, तो और अधिक साधनों को पाकर भी क्या कर लेंगे ? हाँ जो भी साधन उपलब्ध हैं, उनका कितना प्रतिशत प्रयोग किया और कितना प्रतिशत प्रयोग नहीं किया, इसका आकलन किया जाए, तो मनुष्य को सही अनुभूति होगी कि साधन कम मात्रा में है या अधिक मात्रा में हैं ।
साधन कम है या अधिक हैं, यह जानना बड़ी बात नहीं है, बल्कि बड़ी बात यह जानना है कि उन साधनों का समुचित प्रयोग कितनी मात्रा में किया और कितनी मात्रा में नहीं किया । साधक को उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए, न कि साधनों को पाने की दिशा में । परमेश्वर ने हमें क्या नहीं दिया ? सब कुछ दिया है, ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है ।

Sunday 2 August 2015

शिव महापुराण की कथा सुनने का विशेष महत्व है।

श्रावण माह में सोमवार का दिन विशेष महत्व रखता है। सोमवार को शिव उपासना की कृपा प्राप्ति का द्वार माना गया है। जो देवों के भी देव हैं वही महादेव हैं अर्थात्‌ भगवान शिव हैं। हालांकि वर्ष में प्रत्येक महीने शिव उपासना किसी न किसी रूप में चलती ही रहती है लेकिन पूरा श्रावण का महीना शिव उपासना का ही महीना कहलाता है।

श्रावण मास में आशुतोष भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। जो प्रतिदिन पूजन न कर सकें उन्हें सोमवार को शिव पूजा अवश्य करनी चाहिए और व्रत रखना चाहिए। सोमवार भगवान शंकर का प्रिय दिन है। अतः सोमवार को शिवाराधना करना चाहिए। भगवान शिव को आशुतोष कहते हैं। आशुतोष का अर्थ होता है तुरंत खुश या प्रसन्न होने वाले या तत्काल तुष्ट होने वाले देवता। 

मासों में श्रावण मास भगवान शंकर को विशेष प्रिय है। और इस मास में भी सोमवार उन्हें अधिक प्रिय है। वैसे  श्रावण मास में प्रतिदिन शिवोपासना का विधान है। 


श्रावण में पार्थिव शिव पूजा अर्थात्‌ पवित्र मिट्टी से शिवलिंग स्थापित कर उन पर विधिवत पूजन का विशेष महत्व है। अतः प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोष को शिव पूजा या पार्थिव शिव पूजा अवश्य करनी चाहिए।

श्रावण मास में जितने भी सोमवार पड़ते हैं उन सबमें शिवजी का व्रत किया जाता है। इस व्रत में प्रातः गंगा स्नान अन्यथा किसी पवित्र नदी या सरोवर में अथवा विधिपूर्वक घर पर ही स्नान करके शिव मंदिर में जाकर स्थापित शिवलिंग का या अपने घर में पार्थिव मूर्ति बनाकर यथाविधि षोडशोपचार पूजन किया जाता है। यथासम्भव विद्वान आचार्यों से रुद्राभिषेक पूजन किया जाता है।

इस व्रत में श्रावण माहात्म्य और शिव महापुराण की कथा सुनने का विशेष महत्व है। पूजन के पश्चात संत एवं विद्वानों को भोजन कराकर एक बार ही भोजन करने का विधान है।

भगवान शिव का यह व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। जिन्होंने इस व्रत को किया वही इसका महत्व समझते हैं। भारत की हर शिव-स्थली में इन दिनों रौनक बढ़ जाती है। विशेष रूप से कैलाश मानसरोवर, अमरनाथ, उज्जैन, वाराणसी, सोमनाथ, त्र्यंबकेश्वर, ॐकारेश्वर, रामेश्वरम, केदारनाथ आदि।