Monday 31 March 2014

मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा- कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है

एक बार एक स्वामी जी भिक्षा माँगते हुए एक
घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज
लगायी, भीक्षा दे दे माते!!
घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोली मे
भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश
दीजिए!”
स्वामीजी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।” दूसरे
दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज
दी – भीक्षा दे दे माते!!
उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायीं थी,
जिसमे बादाम- पिस्ते भी डाले थे, वह खीर
का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामी जी ने
अपना कमंडल आगे कर दिया।
वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने
देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है।
उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह
कमंडल
तो गन्दा है।”
स्वामीजी बोले, “हाँ,
गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।”
स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब
हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर
लाती हूँ।”
स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़
हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न?” स्त्री ने
कहा : “जी महाराज !” स्वामीजी बोले,
“मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ
का कूड़ा-
कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक
उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा।
यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने
मन को शुद्ध करना चाहिए,
कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे
सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।जय श्री कृष्णा

अब तो कहीं जा कर हरि भगति कर सकूँ

नाम बिन भाव करम नहिं छूटै।
साध संग औ राम भजन बिन, काल निरंतर लूटै॥
मल सेती जो मलको धोवै, सो मल कैसे छूटै॥
प्रेम का साबुन नाम का पानी, दोय मिल ताँता टूटै॥
भेद अभेद भरम का भाँडा, चौडे पड-पड फूटै॥
गुरु मुख सबद गहै उर अंतर, सकल भरम के छूटै॥
राम का ध्यान तूँ धर रे प्रानी, अमृत कर मेंह बूटै॥
जबहुत फेर पए कृपण को अब कुछ किरपा कीजे
होहू द्‍याल दर्शन देह अपना एसी बख़्श क्रिजे
हे मेरे प्रभु जी एसी दया करो की अब तो कहीं जा कर हरि भगति कर सकूँ
कियू की मेरा मन तो मेल से ही मेल को धोना चाहता है जो हो ही नहीं सकता
यदि प्रेम का साबुन ओर नाम का पानी मिल जाए तो मन पर लगी हुई जन्मों की मेल धूल सकती है
ओर यह किरपा तो आप ही कर सकते हैं शरण पड़े की लाज राखो
जय श्री कृष्णान 'दरियाव अरप दे आपा, जरा मरन तब टूटै॥

बहुत लोग कहते हैं - ध्यान करना , ध्यान लगाना

बहुत लोग कहते हैं - ध्यान करना , ध्यान लगाना ..|
करना भी एक क्रिया हैं .. जब तक किया जा रहा हैं .. इसका अहसास हैं .. तब तक मनुष्य ध्यान की अवस्था में भी नहीं पहुच पाता हैं ...|

ध्यान हैं सब क्रियायो से छूट जाने का नाम .., जब मनुष्य का ध्यान में प्रवेश हो जाता हैं .. तब ध्यान की सघनता धीरे -धीरे .. बढती जाती .. हैं ..और मनुष्य समाधि में स्थित हो जाता हैं |

ध्यान -शरीर की मृत अवस्था का दुसरा नाम हैं , जहा शारीर नहीं होता .. सिर्फ मैं .. और मेरा मन होता हैं ...धीरे -धीर .. मैं और मन एक दुसरे में विलीन हो जाते हैं .. और शून्य आत्मा में प्रवेश होता हैं .. इस अवस्था को तुरिह भी कहते हैं |

यह ध्यान का तीसरा अवस्था हैं .. जहा .. मनुष्य को परमात्मा .. प्रथम उपहार देता हैं ...| बहुत से लोग .. ध्यान की प्रथम अवस्था या दुसरे चरण तक ही छूट जाते हैं ... तीसरा चरण .. हैं जाग्रति का .. परमात्मा के दर्शन का ... मिलन दूर हैं .. मगर ध्यान के तीसरे चरण में दर्शन उपलब्ध हो जाता हैं |

एक हाथ से ताली

एक हाथ से ताली

संन्यास लेने के बाद गौतम बुद्ध ने अनेक क्षेत्रों की यात्रा की। एक बार वह एक गांव में गए। वहां एक स्त्री उनके पास आई और बोली- आप तो कोई राजकुमार लगते हैं। क्या मैं जान सकती हूं कि इस युवावस्था में गेरुआ वस्त्र पहनने का क्या कारण है? बुद्ध ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि तीन प्रश्नों के हल ढूंढने के लिए उन्होंने संन्यास लिया।

यह शरीर जो युवा व आकर्षक है, पर जल्दी ही यह वृद्ध होगा, फिर बीमार व अंत में मृत्यु के मुंह में चला जाएगा। मुझे वृद्धावस्था, बीमारी व मृत्यु के कारण का ज्ञान प्राप्त करना है। उनसे प्रभावित होकर उस स्त्री ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। शीघ्र ही यह बात पूरे गांव में फैल गई। गांववासी बुद्ध के पास आए व आग्रह किया कि वे इस स्त्री के घर भोजन करने न जाएं क्योंकि वह चरित्रहीन है।

बुद्ध ने गांव के मुखिया से पूछा- क्या आप भी मानते हैं कि वह स्त्री चरित्रहीन है? मुखिया ने कहा कि मैं शपथ लेकर कहता हूं कि वह बुरे चरित्र वाली है। आप उसके घर न जाएं। बुद्ध ने मुखिया का दायां हाथ पकड़ा और उसे ताली बजाने को कहा। मुखिया ने कहा- मैं एक हाथ से ताली नहीं बजा सकता क्योंकि मेरा दूसरा हाथ आपने पकड़ा हुआ है। बुद्ध बोले- इसी प्रकार यह स्वयं चरित्रहीन कैसे हो सकती है जब तक इस गांव के पुरुष चरित्रहीन न हों। अगर गांव के सभी पुरुष अच्छे होते तो यह औरत ऐसी न होती इसलिए इसके चरित्र के लिए यहां के पुरुष जिम्मेदार हैं। यह सुनकर सभी लज्जित हो गए।

गुरु उसी को जानिए जो दुखे दुखाय नाहीं

गुरु उसी को जानिए जो दुखे दुखाय नाहीं
पान फूल छेड़े नहीं रहे बगीचे माही
क्या धन्ने के गुरु मंडलेश्वर थे क्या सदना कसाई के गुरु किसी बड़े मठ के सवामी थे तो कहा जाएगा के नहीं
आज 90 % लोग गुरु वाले हैं लेकिन उनका कर्म नहीं सुधरा भजन तो बॅड गया ओर कर्म से वही रहगाए
यदि एसा होता तो हर चीज़ मैं मिलावट ओर रिश्वत खोरी ना होती ओर ना ही व्रिध आश्रम बनाने की ज़रूरत पड़ती
गुरु होने से कुछ नही होता जबतक जीव अन्तमुख नही होता
आज तो शिष्य बनाने की होड़ सी लगी हुई है कों गुरु देखता है के जो शिष्य बनने आया है वह इसके काबिल भी है के नही
बस यह देखा जाता है शिष्य दान कितना दे रहा है गुरु से मिलना होतो पहले मोटी रकम देनी पड़ती है ओर वो भी अजेंटों के द्वारा ली जाती है गुरु पूर्णिमा का पर्व नज़दीक है ओर आज के गुरु लोगो ने पहले से ही ते कर रखा है के किस शहर मैं कितना धन इकठा होगा वहीं पे पूजा कराई जाए

कार्य क्षमता बढ़ाने व कोलॅस्ट्रोल घटाने का अचूक आयुर्वेदिक नुस्खा------

कार्य क्षमता बढ़ाने व कोलॅस्ट्रोल घटाने का अचूक आयुर्वेदिक नुस्खा------

अपनी कार्य क्षमता बढ़ा कर सफल होने, स्फूर्तिवान होने व चर्बी घटा कर तन्दरूस्त होने का यह आजमाया हुआ नुस्खा है। अनेक लोगों ने इसका प्रयोग कर सफलता पाई है। नुस्खा निम्न प्रकार है:
मिश्रण: 50 ग्राम मेथी, 20 ग्राम अजवाइन,10 ग्राम काली जीरी
बनाने की विधिः---- मेथी, अजवाइन तथा काली जीरी को इस मात्रा में खरीद कर साफ कर लें। प्रत्येक वस्तु को धीमी आंच में तवे के उपर हल्का सेकें। सेकने के बाद प्रत्येक को मिक्सर-ग्राइंडर में पीसकर पावडर बनालें। तीनों के पावडर को मिला कर कांच की शीशी में रख ले .आपकी अमूल्य दवाई तैयार है।
दवाई लेने की विधिः------ तैयार दवाई को रात्रि को खाना खाने के बाद सोते समय 1 चम्मच गर्म पानी के साथ लेवें। याद रखें इसे गर्म पानी के साथ ही लेना है। इस दवाई को रोज लेने से शरीर के किसी भी कोने में अनावश्यक चर्बी/ गंदा मैल मल मुत्र के साथ शरीर से बाहर निकल जाता है, तथा शरीर सुन्दर स्वरूपमान बन जाता है। मरीज को दवाई 30 दिन से 90 दिन तक लेनी होगी।
लाभः- इस दवाई को लेने से न केवल शरीर में अनावश्यक चर्बी दूर हो जाती है बल्किः-
- शरीर में रक्त का परिसंचरण तीव्र होता है। हृदय रोग से बचाव होता है तथा कोलेस्ट्रोल घटता है।
- पुरानी कब्जी से होने वाले रोग दूर होते है। पाचन शक्ति बढ़ती है।
- गठिया बादी हमेशा के लिए समाप्त होती है।
- दांत मजबूत बनते है। हडिंया मजबूत होगी।
- आँखों का तेज बढ़ता है .
- कानों से सम्बन्धित रोग व बहरापन दूर होता है।
- शरीर में अनावश्यक कफ नहीं बनता है।
- कार्य क्षमता बढ़ती है, शरीर स्फूर्तिवान बनता है। घोड़े के समान तीव्र चाल बनती है।
- चर्म रोग दूर होते है, शरीर की त्वचा की सलवटें दूर होती है, लालिमा लिये शरीर क्रांति-ओज मय बनता है।
- स्मरण शक्ति बढ़ती है तथा आयु भी बढ़ती है, यौवन चिरकाल तक बना रहता है।
- पहले ली गई एलोपेथिक दवाईयां के साइड इफेक्ट को कम करती है।
- इस दवा को लेने से शुगर (डायबिटिज) नियंत्रित रहती है।
- बालों की वृद्धि तेजी से होती है।
- शरीर सुडौल, रोग मुक्त बनता है।
परहेजः- ------
- इस दवाई को लेने के बाद रात्रि में कोई दूसरी खाद्य-सामग्री नहीं खाएं।
- यदि कोई व्यक्ति धुम्रपान करता है, तम्बाकू-गुटखा खाता या मांसाहार करता है तो उसे यह चीजे छोड़ने पर ही दवा फायदा पहुचाएंगी।
- शाम का भोजन करने के कम-से-कम दो घण्टे बाद दवाई लें।

तुमसे बिछडु तो मौत आ जाये

"कोई अच्छी सी सज़ा दो मुझको, चलो ऐसा करो भूला दो मुझको, तुमसे बिछडु तो मौत आ जाये, दिल की गहराई से ऐसी दुआ दो मुझको"

अगर अशांति मिटाना है तो

अगर अशांति मिटाना है तो दोनों नथुनों से श्वास ले ॐ शांति शांति जप करें और फिर फूँक मार के अशांति को बाहर फेंक दें | संध्या काल में किया हुआ ये प्रयोग भी अशांति को भागने में बड़ी मदद देगा | अगर निरोगता करनी है तो आरोग्यता के भाव से श्वास भरें आरोग्य का मन्त्र "नासे रोग हरे सब पीरा जपत निरंतर हनुमंत बीरा " ऐसा जप करके रोग गया, ऐसा १० बार करें कैसा भी रोगी, कैसा भी अशांत, कैसा भी बिखरा हुआ जीवन हो उसका जीवन संवर जायेगा उसका

सामान्य देवता को प्रसन्न करने की तो शक्ति नहीं

हे प्राणनाथ हे गोविंदे आप अपने सुयश की लाज रखिये, मैं महा पतित हूँ कभी थोड़ा सा भी आप के काम नहीं आया ( जरा  भी भजन नहीं किया ) अत्यन्त बलवान माया के द्वारा भवन ,, संपति,,, स्त्री,,, आदि के बन्धन मोह मैं बाँध दिया गया हूँ ,,, हे प्रभु मैं देखता हूँ,,, सुनता हूँ,,,, ओर ( मोह के दोष ) सब जानता हूँ फिर भी बाज नहीं आया ( उसे छोड़ नहीं सका ) कहा जाता है की आपने बहुत से पतीतों का उद्धार किया है मेने अपने कानों से भी यह शब्द संतों द्वारा सुना है ,,, हे प्रभु जी मेरी दशा यह है की केवट को नदी पार करने की उतराई तो दे नहीं सकता ओर बेठना जहाज़ पर चाहता हूँ ,, हे प्रभु जी किसी सामान्य  देवता को प्रसन्न करने की तो शक्ति नहीं ओर मेरा साहस देखो की आप जी की शरण लेना चाहता हूँ,,, हे मदुसुदन हे नन्द नंदन इस नीच को भाव सागर से पार उतार दिजिये हे प्रभु मैं आप जी को नई बात करने को नहीं कहता हूँ आप तो सदा से ही ग़रीबों  पर किरपा करने वाले हैं
जय श्री कृष्णा

मेरा मन बुध्दि हीन है

हे स्वामी,, हे भगवान ,,,हे जगत गुरु,,, मेरा मन बुध्दि हीन है,, समस्त सुखों की निधि आपके चरण कमलों का स्मरण छोडकर कुते के समान व्यर्थ का श्रम ही करता रहा,, यह अज्ञानी सुने घरों मैं ( सुख हीन विषयों मैं ) बर्तनों को देखता  ( पदार्थों को ही इकठा करता ) व्यर्थ मैं भटकता फिरता है,,,इस लालच मैं कभी, किसी भी प्रकार से प्राणों को संतोष नहीं मिला यह दुर्बुद्दि मूर्ख एक एक ग्रास ( थोड़े थोड़े सुख ) के लिय कितना ( नाना प्रकार के दुख ) इसे भयभीत करते हैं , हे प्रभु आप सर्व व्यापी हैं सब प्रकार से परिपूर्ण हैं, समस्त लोकों के ओर मेरे भी स्वामी हैं,एसे आपको छोड़ कर यह मूर्ख भर्मों को लिए भटकता रहता है हे भगवान अब की बार मेरी बाह पकड़ल्ो ता के आवागमन दे छूट जाउ
जय श्री कृष्णा

Sunday 30 March 2014

संसार दुखों से पूरण कुंआ है फिर भी उसी मैं गिरता है

जीव बार बार एसा ही करता है जेसे पतन्गा दीपक से प्रेम करके अग्नि से भी डरता नहीं है ज्ञान विचार के दीपक से मनुष्य प्रत्यक्ष यह देखते हुए की संसार दुखों से पूरण कुंआ है फिर भी उसी मैं गिरता है , यह मूर्ख प्राणी काल रूपी सर्प ही रजो गुण एवम् तमोगुण रूपी विष ज्वाला से कियू जलता रहता है ,, ( कियू की दुखदायी राजस ओर तामस कर्म करता है) शस्त्र प्रतिकूल वाद विवादमयी जो बहुत मत मतान्तर है उनका समर्थन करने के लिय नाना प्रकार के वेश धारण करता है इस प्रकार भ्रम मैं पड़कर भटकते हुए जीवन के सब दिन रात बीत जाते हैं पर कोई काम सफल नहीं होता संसार सागर अगम्य है, अनेक प्रकार के साधन उपायों की नोका बनाकर हठ पूर्वक मनुष्य नवीन कर्म रूपी भार   हीडॉता है यदि जीव श्री कृष्ण जी का भजन सच्चे मन से करे तो संसार सागर से पार हो ही जाय इस मैं कोई सन्श्ये ही कहीं रह जाता
जय श्री कृष्णा

मनुष्य इस जगत मैं हज़ारों माता पिताओं तथा सेंकडओं स्त्री.... पुत्रों के संयोग वियोग का अनुभव कर चुके है

मनुष्य इस जगत मैं  हज़ारों माता पिताओं  तथा सेंकडओं स्त्री.... पुत्रों के संयोग वियोग का अनुभव कर चुके है,करते हैं ओर करते रहेगें , अग्यानि मनुष्यों को प्रतिदिन हर्ष के हज़ारों ओर भय के सेंकडओं  किन्तु विद्वान मनुष्यों के मन पर उनका  कोई प्रभाव नहीं पड़ता,,,
मैं दोनो हाथ उपर उठा कर पुकार पुकार कर कह रहा हूँ पर मेरी बात कोई नहीं सुनता ,, धर्म मैं मोक्ष तो सिद्ध होता ही है,,
अर्थ ओर काम भी सिद्ध होते है तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते,,
कामना से, भय से,, लोभ से , अथवा प्राण बचाने के लिय भी लोग धर्म का त्याग न करें,, धर्म नित्य है, ओर सुख दुख अनित्य है इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है ओर उसके बँधन का हेतु राग अनित्य है
जय श्री कृष्णा

दूसरे सब पतित तो बस दो चार दिन के पतित ही होते हैं

हे भगवान ,  हे मेरे गुरु देव  , मैं सब पतीतों का तिलक ( सिरमोर सबसे बड़ा पतित ) हूँ , दूसरे सब पतित तो बस दो चार दिन के पतित ही होते हैं ( थोड़े समय के लिय ) मैं तो कई जन्मों का पतित हूँ यदि पिछले जन्मों की बात ना भी करूँ तो भी इस जन्म मैं ही इतने घोर पाप कर चुका हूँ की उन पपियों का सरदार ही बन गया हूँ ,,,, व्याध, अजामिल,,, गणिका,,,, पूतना,,, का ही आप जी ने उधार किया,, हे प्रभु जीमुझे  छोडकर आपने दूसरों का उधार किया ,,यही बात  ह्रदय  का शूल पीड़ा बन गई है यह वेदना केसे मिटे ,,हे प्रभु जी यह बात मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ की मेरे समान पाप करने मैं समर्थ कोई ओर हो ही नही सकता ,,,,ओर ना ही किसी मैं इतने पाप करने की समर्थता है ,, हे प्रभु जी मैं इसी लज्जा से मरा जाता हूँ की मुझ से भी बड़े अच्छे पतित ओर कों हो गये ( जिनका उधार करके आप पतित पावन कहलाते हैं) यदि मेरा उधार करो तो जानूँ तब तो मानूं के आप पतित पावन हो,
जय श्री कृष्णा

Saturday 29 March 2014

मेरा मन ही जनता है के मैं कितना पवित्र हूँ ओर कितना अशुध

मेरा मन ही जनता है के मैं कितना पवित्र हूँ ओर कितना अशुध
कियू के मैं तो दूसरों के सामने अपनी श्रेष्टता ही सिध करने की कोशिश करता हूँ अपनी वाणी ओर प्रभाव से उन्हें यकीन भी करा देता हूँ बारबार इस भरम के कारंण मैं खुद भी भर्मित्त हो कर खुद को दूसरों अच्छा अनुभ्व करलेता हूँ 
इसी भर्म मैं जीवन ओर कर्म बिगाड़ लेता हूँ 
जय श्री कृष्णा

तुलसी के बीज से यौन समस्याओ का उपचार

तुलसी के बीज से यौन समस्याओ
का उपचार:: जब भी तुलसी में खूब फुल
यानी मंजिरी लग जाए तो उन्हें पकने
पर तोड़ लेना चाहिए वरना तुलसी के
झाड में चीटियाँ और कीड़ें लग जाते है
और उसे समाप्त कर देते है . इन पकी हुई
मंजिरियों को रख ले . इनमे से काले काले बीज अलग होंगे उसे एकत्र कर ले .
यही सब्जा है . अगर आपके घर में नही है
तो बाजार में पंसारी या आयुर्वैदिक
दवाईयो की दुकान पर मिल जाएंगे शीघ्र पतन एवं वीर्य की कमी::
तुलसी के बीज 5 ग्राम रोजाना रात
को गर्म दूध के साथ लेने से समस्या दूर
होती है नपुंसकता:: तुलसी के बीज 5 ग्राम
रोजाना रात को गर्म दूध के साथ लेने
से नपुंसकता दूर होती है और यौन-
शक्ति में बढोतरि होती है। यौन दुर्बलता : 15 ग्राम तुलसी के
बीज और 30 ग्राम सफेद मुसली लेकर
चूर्ण बनाएं, फिर उसमें 60 ग्राम
मिश्री पीसकर मिला दें। और
शीशी में भरकर रख दें। 5 ग्राम
की मात्रा में यह चूर्ण सुबह-शाम गाय के दूध के साथ सेवन करें इससे यौन
दुर्बलता दूर होती है। मासिक धर्म में अनियमियता:: जिस
दिन मासिक आए उस दिन से जब तक
मासिक रहे उस दिन तक तुलसी के बीज
5-5 ग्राम सुबह और शाम पानी या दूध
के साथ लेने से मासिक
की समस्या ठीक होती है गर्भधारण में समस्या:: जिन महिलाओ
को गर्भधारण में समस्या है
वो मासिक आने पर ५-५ ग्राम
तुलसी बीज सुबह शाम पानी के साथ
ले जब तक मासिक रहे , मासिक ख़त्म
होने के बाद माजूफल का चूर्ण १० ग्राम सुबह शाम पानी के साथ ले ३
दिन तक तुलसी के पत्ते गर्म तासीर के होते है
पर सब्जा शीतल होता है . इसे
फालूदा में इस्तेमाल किया जाता है .
इसे भिगाने से यह जेली की तरह फुल
जाता है . इसे हम दूध या लस्सी के साथ
थोड़ी देशी गुलाब की पंखुड़ियां दाल कर ले तो गर्मी में बहुत ठंडक
देता है .इसके अलावा यह पाचन
सम्बन्धी गड़बड़ी को भी दूर
करता है .यह पित्त घटाता है ये
त्रीदोषनाशक , क्षुधावर्धक है . नोट :: तुलसी के बीज,सफेद मुसली और
माजूफल का चूर्ण
आपको पंसारी की दूकान
या आयुर्वैदिक दवाओ कि दूकान से
मिल जायेंगे

अच्छा ही सभी कुछ होता है जो कुछ मेरा भगवान करे

अच्छा ही सभी कुछ होता है जो कुछ मेरा भगवान करे
फिर उसका किया कब टलता है चाहे लाख यतन भगवान करे
हे परम किरपा उस ईश्वर की जिसने यह मानव जन्म दिया
कोई ओर भी है इस दुनियाँ मैं जो इतना बड़ा एहसान करे,
दो फूल चड़ा कर मंदिर मैं धन ओर खजाना माँग लिया
इससे तो यही बेहतर है जो एक ना कोड़ी दान करे,

हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं।

हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा बना रहता है। हम नहीं चाहते हैं फिर भी यह चलता रहता है। आप लगातार सोच-सोचकर स्वयं को कम और कमजोर करते जा रहे हैं। ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है।

ध्यान जैसे-जैसे गहराता है व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का क्षण मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान का प्राथमिक स्वरूप है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।

ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करके करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है।

श्री हरि - गोविन्द नाम धुन जब लग जायगी

श्री हरि - गोविन्द नाम धुन जब लग जायगी तब यह काया भी गोविन्द बन जायगी भगवान से कोई दुराई कोई भेद भाव नहीं रह जायेगा मन आनन्द से उच्छल ने लगेगा नेत्रों से प्रेम बहने लगेगा कीट भ्रंग बन कर जेसे कीट रूप मैं फिर अलग नही रहता वेसे तुम भी भगवान से अलग नही रहोगे हरि ॐ तत्सत नमा शिवाय

Friday 28 March 2014

प्रभु जी राम जी का नाम जपते रहिये

  • प्रभु जी राम जी का नाम जपते रहिये ओर जपते जपते जब उसमें पूरी तरह डूब जाओगे तो राम जी खुद ही गुरु जी की वावस्था कर देंगे किसी के कहने पर गुरु की खोज ना करो आज कल हर कोई कहता है हमारा गुरु ही पूरण है बाकी सब मिथ्या है एसा नही है हमारे पास बहुत से लोग आते है जो गुरु वाले हैं लेकिन अनुभ्व कुछ भी नही

अपने दर्शन से ही सबका दर्शन है,

सर्गुन निर्गुन निरन्कार सुन्न समाधि आप
आपना किया नानका आपे ही फिर जाप
पहले पाठ, फिर जाप, फिर आप ही आप,
अपने दर्शन से ही सबका दर्शन है, 
प्रभु जी पूरण गुरु कभी भी ना अपने ध्यान की बात करेगा ओर ना ही भगवान जी के दर्शन की
वह तो यही कहेगा के ध्यान करो ओर अपना दर्शन आप करो कियू के हमसे अलग तो बर्ह्म कोई हे ही नही
वह तो व्यापक है ओर हम भी व्यापक हैं
अपने दर्शन के बाद अपने को जोत स्वरूप बनाओ ओर फिर उस जोत को पूर्ण व्यापक मैं मिला दो ओर जितनी देर तक हो सके उसमें मिले रहो ओर फिर वापिस आ जाओ कियू के हमारे प्राण नाभि से बँधे होते हैं इसलिय वापिस तो आना ही पड़ेगा यही है ब्रहां ज्ञान
जय श्री कृष्णा

यदि भाग्य साथ ही नहीं दे रहा हो और दुर्भाग्य पीछा न छोड़ रहा हो तो यह प्रयोग करे

यदि भाग्य साथ ही नहीं दे रहा हो और दुर्भाग्य पीछा न छोड़ रहा हो तो यह प्रयोग करे, जरुर लाभ होगा -
सूर्योदय के उपरान्त और सूर्यास्त से पूर्व इस प्रयोग को करना है। एक रोटी ले लें। इस रोटी को अपने ऊपर से 31 बार वार लें । प्रत्येक बार वारते समय इस मन्त्र का उच्चारण भी करें :-

ऊँ दुर्भाग्यनाशिनी दुं दुर्गाय नमः ।

बाद में रोटी को कुत्‍ते को खिला दें अथवा बहते पानी में बहा दें या अपने नजदीकी किसी तालाब अथवा कुए में समर्पित कर दे । इस प्रयोग को एक बार या अधिक से अधिक 3 मंगलवार करे । श्रद्धा विश्वास से करने पर शीघ्र लाभ होता है तथा दुर्भाग्य का नाश होकर सौभाग्य वृद्धि होती है। फलत: सुख-समृद्धि एवं उन्नति प्राप्त होती है। 

इस रजोगुण रूपी गर्व ने किस किस का स्थान भ्रष्‍ट नही किया

इस रजोगुण रूपी गर्व ने किस किस का स्थान भ्रष्‍ट नही किया, हिरण्यकशिपु,,, हिरण्याक्ष,, आदि देत्यो तथा रावण,, कुम्भकर्ण ,,का इसने कुल नाश ही कर दिया, कन्स , केशी,, चानूर,, महान बलवान थे किंतु इस गर्व ने इन्हें निर्जीव करके यमुना जल मैं डुबो दिया , गर्व वश ये मारे गये ओर इनकी भस्म यमुना मैं बह गयी,, राजसूय यझ के समय शिशु पाल जेसा योद्धा गर्व के कारण बिना पॅरिश्रम मारा गया ओर उसकी ज्योति श्री कृष्ण जी के चरणों  मैं लीन हो गई ,,, इस गर्व के कारण ही ब्रहां देवराज इंद्र,,देवगन गर्व के महामद से ही भ्रमित होकर ही नाचते फिरते हैं किन्तु जो भाव से भगवान जी की शरण ग्रहण कर लेता है वही हरि भ्गत ही निशिचन्त हो कर भर नींद सोता ( पूरा सुखद विश्राम पता ) है
जय श्री कृष्णा

भगवान की प्राप्ति करने के लिय कोई भी साधन अपनाओ

भगवान की प्राप्ति करने के लिय कोई भी साधन अपनाओ , कोई भी विधि अपनाओ लेकिन भाव से किसी ढंग तो अपनाना ही पड़ेगा
जेसे बालक छोटा हो ओर उसे भूख लगी हो मजेदार बात यह है के भोजन भी पास ही हो लेकिन उसे खाने का ढंग मालूम ना हो तो सोचो क्या वह उस भोजन खो खा सकता है  कभी भी नही
अब देखो भूख भी है ओर भोजन भी है दोनो चीज़ें मोजूद हैं लेकिन खाने का ढंग मालूम नहीं तो भूखा ही रहना पड़ेगा
यदि उसी समय माँ आ जाय तो माँ को बच्चे की भूख का भी पता है ओर खिलाने का ढंग भी पता है इसी तरहा
जीव भी बहुत भजन करता है लेकिन कुछ इच्छा पूर्ति ओर कुछ आभास के सिवाय ओर कुछ भी नहीं होता
यदि इसी समय गुरुदेव का मिलन हो जाए तो उसे जीव की कई जन्मों से प्रभु प्राप्ति की प्यास का भी पता है ओर ढंग भी पता है तो फिर जीव का भर्म दूर हो कर उसे ब्रहां बनने मैं कितना समय लगेगा
जय श्री कृष्णा

Thursday 27 March 2014

रजनीश एक प्रतिभावान दार्शनिक थे

रजनीश एक प्रतिभावान दार्शनिक थे । इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि वह एक धर्मज्ञ-धर्मात्मा-महात्मा थे । इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि वह सर्वज्ञ थे-किसी भी विषय पर बोल सकते थे । इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि हर विषय पर उनकी बातें सही ही हों । नि:सन्देह सच्चाई यह है कि धर्म के विषय में वे बिल्कुल ही अनजान थे । धर्म का अ-आ-इ-ई भी नहीं जानते थे क्योंकि दर्शन शास्त्र पढ़कर दार्शानिक बना जा सकता है-- आध्यात्मिक गुरु और तात्त्विक सद्गुरु बनना तो दूर रहा, साधक ही नहीं कहला सकते-- ज्ञानी कहलाना तो और ही आगे की बात हो गई । वे योगी-साधक आध्यात्मिक भी नहीं थे ।

भगवान श्री कृष्ण ,श्याम सुंदर, मधुसूदन,

भगवान श्री कृष्ण ,श्याम सुंदर, मधुसूदन, तो ग़रीबों को भी चाहने वाले हैं हमारे स्वामी दीनों के नाथ है, ओर प्रीति के सच्चे निर्वाह कर्ता हैं भला विदुर की जाति  पाँति ओर कुल क्या था, लेकिन श्री कृष्ण जी ने तो प्यार के लालायित रहने वाले हैं , पांडवों  के पास कोन सी प्रभुता थी किंतु श्री कृष्ण जी तो अर्जुन के रथ के सारथि बने , सुदामा के पास कोन सी प्रभुता थी परन्तु श्री कृष्ण जी द्वारिका नाथ प्रेम के सच्चे चाहने वाले जो ठहरे, इस लिय हे जीव हे शठ आर्त हो कर दुखों को भस्म करने वाले उन श्री हरि जी की शरण मैं भाग कर चला जा वह तेरा उधार ज़रूर करेंगे
जय श्री कृष्णा 

किसी के भी शत्रुता करने से क्या हो सकता है

किसी के भी शत्रुता करने से क्या हो सकता है
जिसे श्री कृष्ण बड़ा बनाते हैं उससे जो मुकाबला  ( स्पर्धा ) करता है उसका गर्व झूठा है ( चूर चूर) हो जाता है
जो चंद्रमा की ओर धूलि उड़ाएगा लोट कर उसी के मुख पर वह धूल पड़ेगी, पक्षी कहीं समुंद्र उलिच सकता है, या वायु से कहीं
पर्वत इदर उधर हो सकता है  जिनकी किर्पा पतित भी पावन हो जाते हैं  जिनके चरण स्प्रश से पत्थर बनी अहिल्या भी मुक्त हो गई यदि भगवान अपने अनुकूल  हैं तो ,,, चाहे सारा संसार दाँत पीसकर ( क्रोध करके ) मर जाय, एक बॉल भी नही हटा सकता , हे जीव तू अपने आप को भगवान जी के आगे पूर्ण तोर पर समर्पित करके तो देख
जय श्री कृष्णा

किसी के भी शत्रुता करने से क्या हो सकता है

किसी के भी शत्रुता करने से क्या हो सकता है
जिसे श्री कृष्ण बड़ा बनाते हैं उससे जो मुकाबला  ( स्पर्धा ) करता है उसका गर्व झूठा है ( चूर चूर) हो जाता है
जो चंद्रमा की ओर धूलि उड़ाएगा लोट कर उसी के मुख पर वह धूल पड़ेगी, पक्षी कहीं समुंद्र उलिच सकता है, या वायु से कहीं
पर्वत इदर उधर हो सकता है  जिनकी किर्पा पतित भी पावन हो जाते हैं  जिनके चरण स्प्रश से पत्थर बनी अहिल्या भी मुक्त हो गई यदि भगवान अपने अनुकूल  हैं तो ,,, चाहे सारा संसार दाँत पीसकर ( क्रोध करके ) मर जाय, एक बॉल भी नही हटा सकता , हे जीव तू अपने आप को भगवान जी के आगे पूर्ण तोर पर समर्पित करके तो देख
जय श्री कृष्णा

Wednesday 26 March 2014

साहस ना हो तो शस्त्र व्यर्थ है

साहस ना हो तो शस्त्र व्यर्थ है
भूख ना होतो भोजन व्यर्थ है
सदविचार ना हो तो बुध्दि व्यर्थ है
प्रीति ना हो तो भग्ति व्यर्थ है
श्रदा ना होतो साधु का संग व्यर्थ है
बच्चों को अच्छे संस्कार ना होतो बाप बनना व्यर्थ है
संतोष ना होतो लाभ व्यर्थ है
जय श्री कृष्णा

कतरा दरिया मैं मिल जाए

कतरा दरिया मैं मिल जाए तो दरिया हो ही जाता है
गर मिटाए अपनी हस्ती को तो खुदा हो ही जाता है

इंसान घर बदलता है।

इंसान घर बदलता है।
लिवास बदलता है ,रिश्ते बदलता है।
दोस्त बदलता हृ।
फिर भी परेशान क्यो रहता है ..???
क्योकि वो खुद को नही बदलता ।
एक संत ने कहाँ है।
उम्रभर इंसान यही भूल करता रहा ।
धूल चेहरे पे थी ।और आइना साफ करता रहा

तेरे दीदार की खातिर

तेरे दीदार की खातिर वृंदावन धाम आये हैं,
पतीतों के मसीहा हो यह सुनकर नाम आये हैं,
दुनियाँ के जो ठुकराए उन्हें देते सहारा तुम,
हमें भी बख़्श लोगे नाथ बस इसी काम आये हैं

~ पैंतीस अक्षरों का शाबर मन्त्र ~

~ पैंतीस अक्षरों का शाबर मन्त्र ~
====================
।। ॐ एक ओंकार श्रीसत्-गुरू प्रसाद ॐ।।
ओंकार सर्व-प्रकाषी। आतम शुद्ध करे अविनाशी।।
ईश जीव में भेद न मानो। साद चोर सब ब्रह्म पिछानो।।
हस्ती चींटी तृण लो आदम। एक अखण्डत बसे अनादम्।।
ॐ आ ई सा हा
कारण करण अकर्ता कहिए। भान प्रकाश जगत ज्यूँ लहिए।।
खानपान कछु रूप न रेखं। विर्विकार अद्वैत अभेखम्।।
गीत गाम सब देश देशन्तर। सत करतार सर्व के अन्तर।।
घन की न्याईं सदा अखण्डत। ज्ञान बोध परमातम पण्डत।।
ॐ का खा गा घा ङा
चाप ङ्यान कर जहाँ विराजे। छाया द्वैत सकल उठि भाजे।।
जाग्रत स्वप्न सखोपत तुरीया। आतम भूपति की यहि पुरिया।।
झुणत्कार आहत घनघोरं। त्रकुटी भीतर अति छवि जोरम्।।
आहत योगी ञा रस माता। सोऽहं शब्द अमी रस दाता।।
चा छा जा झा ञा
टारनभ्रम अघन की सेना। सत गुरू मुकुति पदारथ देना।।
ठाकत द्रुगदा निरमल करणं। डार सुधा मुख आपदा हरणम्।।
ढावत द्वैत हन्हेरी मन की। णासत गुरू भ्रमता सब मन की।।
टा ठा डा ढा णा
तारन, गुरू बिना नहीं कोई। सत सिमरत साध बात परोई।।
थान अद्वैत तभी जाई परसे। मन वचन करम गुरू पद दरसे।।
दारिद्र रोग मिटे सब तन का। गुरू करूणा कर होवे मुक्ता।।
धन गुरूदेव मुकुति के दाते। ना ना नेत बेद जस गाते।।
ता था दा धा ना
पार ब्रह्म सम्माह समाना। साद सिद्धान्त कियो विख्याना।।
फाँसी कटी द्वात गुरू पूरे। तब वाजे सबद अनाहत धत्तूरे।।
वाणी ब्रह्म साथ भये मेल्ला। भंग अद्वैत सदा ऊ अकेल्ला।।
मान अपमान दोऊ जर गए। जोऊ थे सोऊ फुन भये।।
पा फा बा भा मा
या किरिया को सोऊ पिछाना। अद्वैत अखण्ड आपको माना।।
रम रह्या सबमें पुरूष अलेखं। आद अपार अनाद अभेखम्।।
ड़ा ड़ा मिति आतम दरसाना। प्रकट के ज्ञान जो तब माना।।
लवलीन भए आदम पद ऐसे। ज्यूँ जल जले भेद कहु कैसे।।
वासुदेव बिन और न कोऊ। नानक ॐ सोऽहं आत्म सोऽहम्।।
या रा ला वा ड़ा
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लृं श्री सुन्दरी बालायै नमः।।
।।फल श्रुति।।
पूरब मुख कर करे जो पाठ। एक सौ दस औं ऊपर आठ।।
पूत लक्ष्मी आपे आवे। गुरू का वचन न मिथ्या जावे।।
दक्षिन मुख घर पाठ जो करै। शत्रू ताको तच्छिन मरै।।
पच्छिम मुख पाठ करे जो कोई। ताके बस नर नारी होई।।
उत्तर दिसा सिद्धि को पावे। ताके वचन सिद्ध होइ जावे।।
बारा रोज पाठ करे जोई। जो कोई काज होव सिद्ध सोई।।
जाके गरभ पात होइ जाई। मन्त्रित कर जल पान कराई।।
एक मास ऐसी विधि करे। जनमे पुत्र फेर नहीं मरे।।
अठराहे दाराऊ पावा। गुरू कृपा ते काल रखावा।।
पति बस कीन्हा चाहे नार। गुरू की सेवा माहि अधार।।
मन्तर पढ़ के करे आहुति। नित्य प्रति करे मन्त्र की रूती।।
!! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ शांति !!

1. मूलाधार चक्र :

1. मूलाधार चक्र : 

यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9% 
लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

मंत्र : लं

चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए 
भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्‍यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने
लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र-

यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

मंत्र : वं

कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश
होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

3. मणिपुर चक्र :

नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो दस
कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी
रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

मंत्र : रं

कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो
जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना
जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।
आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

4. अनाहत चक्र-

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से
सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील
व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार,
इंजीनियर आदि हो सकते हैं।

मंत्र : यं

कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर
रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना
इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार
समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है।
इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है।व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

5. विशुद्ध चक्र-

कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर
यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

मंत्र : हं

कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत
होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।
6. आज्ञाचक्र :

भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां
ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है
लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इस बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।

मंत्र : ऊं

कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी
शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7. सहस्रार चक्र :

सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम
का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को
संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें :

मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत
हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।

जिनके मन मैं भगवान बसे

जिनके मन मैं भगवान बसे वह किसी ओर की आस करे ना करे
जिस काम क्रोध का नाश किया वह किसी ओर का नाश करे ना करे
जिनके हों मात पिता जिंदा वह तीर्थ वास करें ना करे
तूँ प्रेम के पर्चे हाल कर दे चाहे वोह पास करे ना करे

मन की मति छोड़ गवारा,

मन की मति छोड़ गवारा,
कीयू विषयों संग लिपट रहा है ,कीयू ना करे विचारा.........
संग सखा सब मतलब के हैं ,झूठा जगत पसारा...........
सच्चा मीत सतगुर प्यारे, करे जो पार उतारा.......
मन मुख से तू गुर मुख हो जा ,मिले सच्चा नाथ प्यारा.

शिव ही परम सत्य है शिव के बिना जीव शव ही होता है


अब तो चेत प्राणी,

अब तो चेत प्राणी,
बहुत जन्म भटके दुख पाया सुख की आस लगानी,
विशय भोग लालसा ऩहीँ छूटे ना छूटी आवन जानी,
पर धन पर त्रिया हिर्धे बसावे विसारेया शारिंग पाणी,
जय श्री कृष्णा

प्रश्न : ध्यान क्यों? ध्यान किसलिए करते हैं?

प्रश्न : ध्यान क्यों? ध्यान किसलिए करते हैं?
उत्तर : अगर कोई आपसे पूछे कि आप किसी से प्यार क्यों करते हैं? तो क्या कहेंगे? आप कहेंगे कि प्रेम खुद में आनंद है। जरूरी नहीं कि इसका कोई कारण हो। प्रेम खुद में ही आनंद है। उसके बाहर और कोई कारण नहीं है जिसके लिए प्रेम किया जाए। अगर कोई किसी कारण से प्यार करता हो तो हम फौरन समझ जाएंगे कि गड़बड़ है, यह प्यार सच्चा नहीं है। मैं आपको इसलिए प्यार करता हूं कि आपके पास पैसा है, वह मिल जाएगा। तो फिर प्यार झूठा हो गया। मैं इसलिए प्यार करता हूं कि मैं परेशानी में हूं, अकेला हूं, आप साथी हो जाएंगे। वह प्यार भी झूठा हो गया। वह प्यार नहीं रहा। जहां कोई कारण है, वहां प्यार नहीं रहा, जहां कुछ पाने की इच्छा है, वहां प्यार की कोई गुंजाइश नहीं है। प्यार तो अपने आप में ही पूरा है। ठीक वैसे ही, ध्यान के आगे कुछ पाने को जब हम पूछते हैं- क्या मिलेगा? ऐसा सवाल हमारा लोभ पूछ रहा है। मोक्ष मिलेगा कि नहीं? आत्मा मिलेगी कि नहीं? नहीं, मैं आपसे कहता हूं, कुछ भी नहीं मिलेगा और जहां कुछ भी नहीं मिलता, वहीं सब कुछ मिल जाता है। जिसे हमने कभी खोया नहीं, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, जो हमारे भीतर मौजूद है। अगर वह पाना है जो हमारे भीतर पहले से ही है तो कुछ और पाने की इच्छा का कोई मतलब नहीं हो सकता। सब पाने की इच्छा छोड़ कर जब हम मौन, चुप रह जाएंगे, तो उसके दर्शन होंगे जो हमारे भीतर हमेशा मौजूद है।

यदि भगवान पानी है तो हम बर्फ हैं

यदि भगवान पानी है तो हम बर्फ हैं
यदि भगवान सवर्ण हैं तो हम आभूष्ण हैं
यदि भगवान दूध है तो हम दही है
निरगुन के बिना साकार ओर साकार के बिना निरगुन हो ही नहीं सकता
जय श्री कृष्णा

जहाँ जाति का अभिमान होता है

जहाँ जाति का अभिमान होता है, वहाँ भग्ति होनी बड़ी कठिन है, कीयू की भग्ति स्वयं से होती है , शरीर से नहीं, परन्तु जाति शरीर की होती है स्वयं की नहीं
जय श्री कृष्णा

विचार करो जिससे हम सुख चाहते हैं

विचार करो जिससे हम सुख चाहते हैं क्या वह सर्वथा सुखी है क्या वह दुखी नही है 
दुखी व्यक्ति आपको सुखी केसे बना देगा
कामना छूटने से जो सुख होता है वह सुख कामना की पूर्ति से कभी नहीं होता
एक कामना की पूर्ति होने पर दूसरी कामना का जागना तह है
जय श्री कृष्णा

संत उसी को जानिए

संत उसी को जानिए जो दुखे दुखाय नाहीं
पान फूल छेड़े नहीं रहे बगीचे माही

किसी का अक्स हूँ मैं,

किसी का अक्स हूँ मैं, 
मुझे मालूम ना था
मैं भी वही हूँ ,
मुझे मालूम ना था
किसी रहबर ने दिखाई राह तो यह भेद खुला
खुद ही खुदा हूँ
मुझे मालूम ना था

बरसे तो भर दे जल जंगल

बरसे तो भर दे जल जंगल आकाश मैं सागर कहीं नहीं
हर अपराधी को दंड देता उसकी लगी कचहरी कहीं नहीं
हर भूखे को अन्न देता उसके लगे भंडारे कहीं नहीं
हर दिल मैं वोह बस्ता है उसका ठोर टीकाना कहीं नहीं

जेसे रोगी का उदेश्य निरोग होना होता है

जेसे रोगी का उदेश्य निरोग होना होता है, एसे ही मनुष्य का उदेश्य अपना कल्याण करना है
जब साधक का एक मात्र उदेश्य परमात्म प्राप्ति का हो जाता है तब उसके पास जो भी सामग्री होती है वह सब साधन रूप ही हो जाती है
कर्म योग, ज्ञान योग, ध्यान योग, भ्ग्ति योग, आदि सभी साधनों मैं एक मजबूत इरादे या उदेश्य की बड़ी आश्यकता होती है
यदि अपने कल्याण का उदेश्य ही मजबूत नहीं होगा तो इनमें जीतने भी साधन हैं उसकी सिध्दि केसे मिलेगी
एक परमात्म प्राप्ति का उदेश्य होने पर कोई भी साधन छोटा या बड़ा नहीं होता
जय श्री कृष्णा

भय दूसरे से होता है

भय दूसरे से होता है अपने से नहीं, भगवान तो अपने हैं इसलिय उनके शरण होने पर मनुष्य सदा के लिये निर्भय हो जाता है

जो अपने सुख के लिए ...



  1. जो अपने सुख के लिए वस्तुओं की इच्छा करता है उसको वस्तुओं के अभाव का दुख तो भोगना ही पड़ेगा
    चाहे साधु बनो चाहे घर मैं रहो (जब तक कामना ) कुछ पाने की इच्छा रहेगी तब तक शान्ति नही मिल सकती
    अगर शान्ति चाहते हो तो , यों होना चाहिय यों नहीं होना चाहिय, इसको छोड़ दो ओर जो भगवान चाहे वही होना चाहिये इसको स्वीकार कर लो समझो आप का काम बन गया
    जय श्री कृष्णा

जो दुनियाँ का गुरु बनता है...


  1. जो दुनियाँ का गुरु बनता है वह दुनियाँ का गुलाम हो जाता है,,, ओर जो अपने आपका गुरु बनता है वह दुनियाँ का गुरु हो जाता है
    कल्याण प्राप्ति मैं खुद की लगन ही काम आती है खुद की लगन ना हो तो गुरु क्या करेगा ,,, ओर शास्त्र क्या करेगा,,,
    जो हमसे कुछ चाहता है वह हमारा गुरु केसे हो सकता है
    पुत्र ओर शिष्य को श्रेष्ठ बनाने का विधान तो है परन्तु अपना गुलाम बनाने का विधान नहीं है
    गुरु मैं मनुष्य बुद्दी करना ओर मनुष्य मैं गुरु बुद्दि करना अपराध है क्यों की गुरु एक तत्व है, शरीर का नाम गुरु नहीं है
    शिष्य दुर्लभ है गुरु नहीं,,,, जिगयासु दुर्लभ है ज्ञान नही ,,,, भ्गत दुर्लभ है भगवान है
    जय श्री कृष्णा