Tuesday 30 September 2014

कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो

संकल्प तत्त्व में श्रद्धा समन्वित है। श्रद्धा का अर्थ है-तीव्रतम आकर्षण। केवल श्रद्धा के बल पर जो घटित हो सकता है, वह श्रद्धा के बिना घटित नहीं हो सकता। पानी तरल है। जब वह जम जाता है, सघन हो जाता है तब वह बर्फ बन जाता है। जो हमारी कल्पना है, जो हमारा चिन्तन है वह तरल पानी है। जब चिन्तन का पानी जमता है तब वह श्रद्धा बन जाता है। तरल पानी में कुछ गिरेगा तो वह पानी को गंदला बना देगा। बर्फ पर जो कुछ गिरेगा, वह नीचे लुढ़क जायेगा, उसमें घुलेगा नहीं। जब हमारा चिन्तन श्रद्धा में बदल जाता है तब वह इतना घनीभूत हो जाता है कि बाहर का प्रभाव कम से कम होता है।
मंत्र का तीसरा तत्त्व है-साधना। शब्द भी है, आत्म विश्वास भी है, संकल्प भी है तथा श्रद्धा भी है, किन्तु साधना के अभाव में मंत्र फलदायी नहीं हो सकता। जब तक मंत्र साधक आरोहण करते-करते मंत्र को प्राणमय न बना दे, तब तक सतत साधना करता रहे। वह निरन्तरता को न छोड़े। योगसूत्र में पातंजलि कहते हैं - ‘दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारा सेवितः।’ ध्यान की तीन शर्त है-दीर्घकाल, निरन्तरता एवं निष्कपट अभ्यास। साधना में निरन्तरता और दीर्घकालिता दोनों अपेक्षित है। अभ्यास को प्रतिदिन दोहराना चाहिए। आज आपने ऊर्जा का एक वातावरण तैयार किया। कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो वह ऊर्जा का वायुमण्डल स्वतः शिथिल हो जता है। …… 

मन शक्तिशाली बन जाता है

मानसिक जप के बिना मन की स्वस्थता की भी हम कल्पना नहीं कर सकते। मन का स्वास्थ्य हमारे चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता पर निर्भर है। जब हमारे दर्शन केन्द्र और ज्योति केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं तब हमारी शक्ति का स्रोत फूटता है और मन शक्तिशाली बन जाता है। नियम है-जहां मन जाता है, वहां प्राण का प्रवाह भी जाता है। जिस स्थान पर मन केन्द्रित होता है, प्राण उस ओर दौड़ने लगता है। जब मन को प्राण का पूरा सिंचन मिल जाता है और शरीर के उस भाग के सारे अवयवों को, अणुओं और परमाणुओं को प्राण और मन का सिंचन मिलता है तब वे सारे सक्रिय हो जाते हैं। जो कण सोये हुए हैं, वे जाग जाते हैं। चैतन्य केन्द्र को जाग्रत हुआ तब मानना चाहिए जब उस स्थान पर मंत्र ज्योति में डूबा हुआ दिखाई पड़ने लग जाए। जब मंत्र बिजली के अक्षरों में दिखने लग जाए तब मानना चाहिए वह चैतन्य केन्द्र जाग्रत हो गया है।
मंत्र का पहला तत्त्व है-शब्द और शब्द से अशब्द। शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है तब वह अशब्द बन जाता है।
मंत्र का दूसरा तत्त्व है-संकल्प। साधक की संकल्प शक्ति दृढ़ होनी चाहिए। यदि संकल्प शक्ति दुर्बल है तो मंत्र की उपासना उतना फल नहीं दे सकती जितने फल की अपेक्षा की जाती है। मंत्र साधक में विश्वास की दृढ़ता होनी चाहिए। उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिए। उसका आत्म-विश्वास जागृत होना चाहिए। साधक में यह विश्वास होना चाहिए कि जो कुछ वह कर रहा है अवश्य ही फलदायी होगा। वह अपने अनुष्ठान में निश्चित ही संभवतः सफल होगा। सफलता में काल की अवधि का अन्तर आ सकता है। किसी को एक महीने में, किसी को दो चार महीनों में और किसी को वर्ष भर बाद ही सफलता मिले। बारह महीने में प्रत्येक साधक को मंत्र का फल अवश्य ही मिलना चालू हो जाता है।

मंत्र को ललाट के मध्य में देखने का अभ्यास किया जाए।

‘नमः शिवाय’ शिव के प्रति नमन, शिव के प्रति समर्पण, शिव के साथ तादात्म्य है। यह अनुभूति अभय पैदा करती है। रमण महर्षि से पूछा गया - ‘ज्ञानी कौन ? ‘उत्तर दिया जो अभय को प्राप्त हो गया हो।’ ‘नमः शिवाय’ अभय के द्वारा ज्ञान की ज्योति जलाता है। अतः मंत्र सृष्टा ऋषियों ने ॐ के साथ नमः शिवाय संयुक्त कर ॐ रूपी ब्रह्म को ‘शिव’ रूपी जगत के साथ मिलाया है।
मंत्र के तीन तत्त्व होते हैं -शब्द, संकल्प और साधना। मंत्र का पहला तत्त्व है- शब्द। शब्द मन के भावों को वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार सम्प्रेषण का प्रयोग करे, कोई सजेशन या ऑटोसजेशन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है। वह व्यक्ति अपने मन के भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है, जोर-जोर से बोलता है, ध्वनि की तरंगे तेज गति से प्रवाहित होती है, फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे-धीरे करता है, मंद कर देता है। पहले ओठ, दांत, कंठ सब अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं। ध्वनि मंद हो जाती है। होठों तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती। जोर से बोलना या मंद स्वर में बोलना - दोनों कंठ के प्रयत्न हैं। ये स्वर तंत्र के प्रयत्न हैं। जहां कंठ का प्रयत्न होता है वह शक्तिशाली तो होता है किन्तु बहुत शक्तिशाली नहीं होता। उसका परिणाम आता है किन्तु उतना परिणाम नहीं आता जितना हम इस मंत्र से उम्मीद करते हैं मंत्र की परिणति या मूर्घन्य तब वास्तविक परिणाम आता है जब कंठ की क्रिया समाप्त हो जाती है और मंत्र हमारे दर्शन केन्द्र में पहुंच जाता है। यह मानसिक क्रिया है। जब मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है, तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ एवं दांत हिलते हैं। स्वर-तंत्र का कोई प्रकंपन नहीं होता। मन ज्योति केन्द्र में केन्द्रित हो जाता है प्श्यन्ति वाक शैली में पूरे मंत्र को ललाट के मध्य में देखने का अभ्यास किया जाए। उच्चारण नहीं, केवल मंत्र का दर्शन, मंत्र का साक्षात्कार, मंत्र का प्रत्यक्षीकरण। इस स्थति में मंत्र की आराधना से वह सब उपलब्ध होता है जो उसका विधान है।

तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती।

वाक्-शक्ति के चार प्रकार हैं - बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती एवं परा। बैखरी वाक् शब्द का निम्नतम स्तर है। इसको पकड़कर क्रमशः परावाक् पर्यन्त उठने का प्रयोजन है। बैखरी से तात्पर्य हमारी स्थूल ध्वनि से है। जब हम बोल-बोल कर जप करते है, यह बैखरी वाणी कहलाती है। जब हम मन ही मन जप या स्मरण करते हैं इसे मध्यमा कहा जाता है। जब हम शब्द और उसके अर्थ दोनों को देखते हुए स्मरण करते हैं, उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं। जहां न बोलना है, न देखना है अर्थात् निर्विचार एवं निर्विकल्प स्थिति होती है, उस स्थिति में एक शून्य भाषा व्यापक होती है उसे परावाक् कहते हैं। बैखरी जप में जपकर्ता को यह अहसास रहता है कि मैं जप कर रहा हूं। मध्यमा में साधक का यह अहसास छूट जाता है कि मैं जप कर रहा हूं। उसका जप अजपा जाप हो जाता है। बिना किसी प्रयास के एवं बिना किसी अहं भाव के जप चलता रहता है। मध्यमा में हृदय से जाप होता है, मस्तिष्क से नहीं होता। जागृति समाप्त हो जाती है। मध्यमा वाक् के अभ्यास से नाद-श्रवण होने लगता है। पश्यन्ती में साधक ओंकार को आज्ञाचक्र से ऊपर बिल्कुल ललाट के मध्य में कल्पना से ज्योतिस्वरूप बिन्दु को देखता है। यहां देखना ही बोलना है। परास्थिति में देखना भी छूट जाता है। केवल शून्य में ठहरना होता है। यहां ठहरने का आधार आनंद की अनुभूति होती है। इस प्रकार शब्दातीत परमपद का साक्षात्कार करने के लिए शब्द का आश्रय लेकर ही शब्द राज्य का भेद करना होता है। जप-साधना में शब्द को पकड़कर शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश है।
ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र के प्रथम भाग ॐ की रचना एवं जप की विधि की चर्चा के पश्चात् यह देखना है कि इस महामंत्र में ‘नमः शिवाय’ शब्दों का समावेश करने का क्या प्रयोजन है। नमः शब्द नमस्कार का ही छोटा रूप है। यह महामंत्र नमस्कार मंत्र भी है। प्रणव की अवधारणा में कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ की साधना करते-करते साधक कहीं अहंकार का शिकार न हो जाए, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘नमः शिवाय’ शब्दों से विनम्र समर्पण है। अहंकार एवं ममकार जब तक विलीन नहीं होते तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती। सान्तता समाप्त हुए बिना अनन्त की अनुभूति नहीं होती। अनन्त की अनुभूति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है - अहंकार का विलय और ममकार का विलय।
‘नमः शिवाय’ नमन है, समर्पण है-अपने पूरे व्यक्तित्व का समर्पण। इससे अहंकार विलीन हो जाता है। जहां नमन होता है वहां अहंकार टिक नहीं सकता। अहंकार निःशेष और सर्वथा समाप्त। जहां शिव है वहां ममकार नहीं हो सकता। ममकार पदार्थ के प्रति होता है। शिव तो परम चेतन स्वरूप है। अपना ही चेतनरूप शिव है। चेतना के प्रति ममकार नहीं होता। शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है। भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता। आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है, तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं किन्तु जब ‘नमः शिवाय’ जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है। साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, ‘आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूँ। साधक ने कहा, ‘मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया। मैं मेरे प्रभु के साथ था।’

Monday 29 September 2014

इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं।


‘ओम्’ शब्द पूर्ण शब्द है। ओम् में अ, उ, म तीन अक्षर हैं। इन तीन ध्वनियों के मेल से ‘ओम’ बनता है। इसका प्रथम अक्षर ‘अ’ सभी शब्दों का मूल है, चाहे शब्द किसी भी भाषा का हो। ‘अ’ जिव्हा मूल अर्थात् कण्ठ से उत्पन्न होता है। ‘म’ ओठों की अन्तिम ध्वनि है। ‘उ’ कण्ठ से प्रारम्भ होकर मुंह भर में लुढ़कता हुआ ओठों में प्रकट होता है। इस प्रकार ओम् शब्द के द्वारा शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि कण्ठ से लेकर ओंठ तक जितनी भी प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हो सकती है, ओम में उन सभी ध्वनियों का समावेश है। फिर इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं। अतः ओम् शब्दों की समष्टि है।
अब संक्षेप में ओंकार की रचना भी समझनी जरूरी है। ओंकार में अकार, उकार, मकार, बिन्दु, अर्द्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त शक्ति, व्यापिनी, समना तथा उन्मना इतने अंश हैं। ओंकार के ये कुल 12 अंश हैं। ओंकार के दो स्वरूप हैं। अकार, उकार एवं मकार अशुद्ध विभाग हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीन भूमिकाओं में इन तीन अवयवों का कार्य होता है। जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएं प्रणव की पहली तीन मात्राओं में विद्यमान है। तुरीय या तुरीयातीत अवस्था चतुर्थ अवयव से शुरू होती है। अकार, उकार एवं मकार तीन शक्तियों के प्रतीक हैं - उकार ब्रह्मा का प्रतीक है तथा मकार महेश का प्रतीक है। प्रणव के चतुर्थ अवयव ‘बिन्दु’ से लेकर उन्मना तक कुल 9 अंश प्रणव के शुद्ध विभाग हैं। बिन्दु अर्द्धमात्रा रूपी अवयव है। बिन्दु में एक मात्रा का अर्द्धाशं है, अर्द्ध चन्द्र में बिन्दु का अर्द्धांश है तथा निरोधिका में अर्द्धचन्द्र अर्द्धांश है। इस प्रकार यह क्रम प्रतिपद में उसके पूर्ववर्ती मात्रा का अर्द्धांश बनता चला जाता है। यह क्रम समना तक चलता है। ये अंश या मात्राएं किसकी हैं ? ये वास्तव में मन की मात्राएं हैं। मन की गति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती है। उन्मना अमात्र है, उसकी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि वहां मन की समाप्ति हो जाती है। मन की मात्रा होती है, विशुद्ध चैतन्य की मात्रा नहीं होती। योगी का परम उद्देश्य है कि वह स्थूल मात्रा से क्रमशः सूक्ष्ममात्रा में होते हुए अमात्रक स्थिति में पहुंच जाए। उन्मना में न मन है, न मात्रा है, न काल है, न देश है, न देवता है। वह शुद्ध चिदानन्द - भूमि है।
ओंकार की इन स्थितियों में एक विकास क्रम है। बिन्दु का अनुभव भ्रूमध्य के ऊर्ध्व में होता है। ब्रह्मरन्ध्र की अन्तिम सीमा तक नाद का अनुभव चलता है। नादान्त भेद हो जाने पर स्थूल दृष्टि से देह का भेद हो जाता है। अतः नाद का अवलम्बन लेकर ही नादान्त तक पहुंचा जाता है। नाद साधना ही वस्तुतः ओंकार की साधना है। इस साधना में पारंगत होने पर केवल नाद का ही अतिक्रमण नहीं होता अपितु शून्य का भी अतिक्रमण होता है और अन्त में मन का भी अतिक्रमण होता है, जिसका फल है परमेश्वर से तादात्म्य लाभ।
इस प्रकार ओम् एक महामंत्र है। इसका जप और इसके अर्थ का चिन्तन समाधि-लाभ का उपाय है। वाचक एवं वाच्य का अभेद सम्बन्ध होता है। ज्यों ही वाचक शब्द का स्मरण अथवा उच्चारण किया जाता है त्यों ही वह उसके वाच्य पदार्थ का बिम्ब मन में ला देता है। ‘यत ध्यायति तत् भवति’ के अनुसार ‘ओम्’ शब्द के जप एवं स्मरण से हमारे मन में ब्रह्मभाव जाग्रत होता है। मन में यह भाव जगाए रहने के लम्बे अभ्यास के बाद अन्त में मन ब्रह्म भाव में अवस्थित हो जाता है। अतः ‘ओम्’ सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तक पहुंचने की कुंजी है।

यहां जाकर मन प्रत्यक्ष ब्रह्म में लीन हो जाता है

यह शब्द ‘ओम्’ है। विश्व के सभी धर्मों में इस शब्द की महिमा गाई गई है। बाइबिल में लिखा है - On the beginning was the work and the word with god and the word was god. यह 'Word' ओम ही है। मुस्लिम धर्म में इस शब्द को ‘कलमा’ ‘बांग’, ‘आवाजे खुदा’ आदि नामों से पुकारा गया है।
शास्त्रों में वर्णित है कि ॐकार से ही इस विश्व की सृष्टि हुई है। ‘शब्द’ पद का वैदिक अर्थ है - सूक्ष्म भाव (Subtitle Idea) सूक्ष्म भाव स्थूल पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। इन्हीं भावों का आश्रय लेकर सभी स्थूल पदार्थों की सृष्टि होती है। भाव-शब्द ही स्थूल रूपों का जन्मदाता है। मन में उठने वाला प्रत्येक भाव अथवा मुख से उच्चरित होने वाला प्रत्येक शब्द विशेष - विशेष कंपन मात्र हैं। इन कम्पनों में खास-खास आकृति बनाने की क्षमता रहती है।  उच्चारण के साथ ही आकृति बन जाती है। अतः किसी भी स्थूल पदार्थ की सृष्टि होने से पूर्व उससे सम्बन्धित भाव विद्यमान रहता है और वही भाव स्थूलाकार में परिणत हो जाता है। सारी सृष्टि के लिए यही नियम लागू होता है। विभिन्न प्रकार के भावों या शब्दों से ही इस विचित्र बहुरूपात्मक विश्व की सृष्टि हुई है। विश्व निर्माणकारी ये सभी भाव एक ही शब्द अथवा भाव से निःसृत हुए हैं और वह शब्द है ‘ओम’। ‘ओम्’ सभी भावों की समष्टि है।
अब प्रश्न उठता है कि इसका क्या प्रमाण है कि विश्व निर्माणकारी सभी भाव ‘ओम’ से ही निःसृत हुए हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है - ब्रह्मज्ञ पुरुषों की प्रत्यक्ष अनुभूति। ब्रह्मज्ञ पुरुषों को समाधि की अवस्था में अनुभव होता है कि जगत् शब्दमय है और फिर वह शब्द गंभीर ओंकार ध्वनि में लीन हो जाता है। विभिन्न स्थितियां इस प्रकार वर्णित करते हैं योगी जना ‘घर्र-घर्र की आवाज, घंटा, वीणा की आवाज, सारेगम प द नी सा के स्वरों की आवाज, शंख ध्वनि’, इसके पश्चात् ॐकार की ध्वनि, फिर उसके बाद कोई स्वर नहीं। शब्दातीत स्थिति को अनादि नाद कहकर पुकारते हैं। यहां जाकर मन प्रत्यक्ष ब्रह्म में लीन हो जाता है। सब निर्वाक, स्थिर। समाधि से लौटते वक्त भी जब पहली अनुभूति होती है तो ओंकार शब्द ही सुनाई पड़ता है। यह अनुभूतिजन्य विवरण सभी ब्रह्मज्ञ पुरुषों का एक सा ही है।

सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है।

'ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र में तीन शब्द है। 'ॐ नमः शिवाय। इसमें पांच अक्षर है। इसे पंचाक्षरी महामंत्र भी कहते हैं। पंचाक्षरी इसलिए कि ‘ॐ’ अक्षरातीत है। ‘नमः शिवाय’ में पांच अक्षर है। ॐको ब्रह्म, प्रणव आदि नामों से पुकारा जाता है। उपनिषदों में कहा गया है- ‘ॐ’ ‘ओम् इति ब्रह्म’ ओम् ब्रह्म है। पातंजल योगसूत्र में कहा गया है- ‘तस्य वाचक प्रणवः’ प्रणव ईश्वर का वाचक है। ब्रह्म एक अखण्ड अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्द ब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित किया गया है। शब्द ब्रह्म को भली भांति जान लेने पर परब्रह्म की प्राप्ति होती है। 
‘शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति’
शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है। जिसे औंकार कहते हैं यही शब्द ब्रह्म है। इस चराचर विश्व के जो वास्तविक आधार हैं, जो अनादि, अनन्त और अद्वितीय हैं तथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उस निर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ओम है।
ब्रह्म इस सृष्टि में निमित्त कारण (Efficient Cause) ही नहीं अपितु उपादान कारण (Material Cause) भी है। प्रारम्भ में एकमात्र ब्रह्म ही थे। उनकी इच्छा हुई ‘एकोऽहम बहुस्याम’ और उन्होंने ही अपने आपको इस जीव जगत के रूप में प्रकट किया। जैसे मकड़ी अपने अन्दर के ही तन्तुओं से जाला बुनती है। अतः यह विश्व-ब्रह्माण्ड ब्रह्म से भिन्न नहीं है। ब्रह्म ही विभिन्न रूपों मे प्रतिभासित हो रहे हैं। अतएव ब्रह्म का वाचक होने के कारण ‘ओम’ ईश्वर अवतार तथा जीव जगत सभी का वाचक हुआ। इस प्रकार यह शब्द निर्गुण-निराकार ब्रह्म का बोध कराता है तो सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण, जिस रूप में भी ब्रह्म अपने आपको प्रकाशित कर रहा है, ओम उन सब का बोध कराता है।
इसकी महिमा में वेदान्त नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है। योगीजन इस शब्द की महिमा में गाते-गाते नहीं थकते। गोरखनाथजी महाराज कहते है:- 
‘शब्द ही ताला शब्द ही कूंची। 
शब्द ही शब्द समाया। 
शब्द ही शब्द सूं परचा हुआ। 
शब्द ही शब्द जगाया।"

Sunday 28 September 2014

शब्द की साधना बहुत जरूरी है।

मंत्र क्या है ? मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचित्य शक्ति होती है। हमारा सारा जगत् शब्दमय है। शब्द को ब्रह्म माना गया है। मन के तीन कार्य हैं-स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन। मन प्रतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है। किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। हम किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं। इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बिम्ब ही सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है।
स्थूल रूप से शब्द दो प्रकार का होता है- (1) जल्प (2) अन्तर्जल्प। हम बोलते हैं, यह है जल्प। जल्प का अर्थ है-स्पष्ट वचन, व्यक्त वचन। हम बोलते नहीं किन्तु मन में सोचते हैं, मन में विकल्प करते हैं, यह है अन्तर्जल्प। मुुंह बंद है, होंठ स्थिर है, न कोई सुन रहा है फिर भी मन में आदमी बोलता चला जा रहा है, यह है अन्तर्जल्प। सोचने का अर्थ है-भीतर बोलना। सोचना और बोलना दो नहीं है। सोचने के समय में भी हम बोलते हैं और बोलने के समय में भी हम सोचते हैं। यदि हम साधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शब्द को समझकर उसके चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। शब्द उत्पत्तिकाल में सूक्ष्म होता है और बाहर आते-आते स्थूल बन जाता है। जो सूक्ष़्म है वह हमें सुनाई नहीं देता, जो स्थूल है वही हमें सुनाई देता है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है-श्रव्य ध्वनि और अश्रव्य ध्वनि। अश्रव्य ध्वनि अर्थात् (Ultra Sound Super Sonic) यह सुनाई नहीं देती। हमारा कान केवल 32470 कंपनों को ही पकड़ सकता है। कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु कान 32470 आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है। यदि हमारा कान सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने लग जाए तो आदमी जी नहीं सकता। यह समूचा आकाश ध्वनि तरंगों से प्रकम्पित है। अनन्तकाल से इस आकाश में भाषा-वर्गणा के पुदगल बिखरे पड़े हैं। बोलते समय भाषा वर्गणा के पुदगल निकलते हैं और आकाश में जाकर स्थिर हो जाते हैं। हजारों लाखों वर्षों तक वे उसी रूप में रह जाते हैं। मनुष्य जो सोचता है, उसके मनोवर्गणा के पुद्गल करोड़ों वर्षों तक आकाश में अपनी आकृतियां बनाए रख सकते हैं। यह सारा जगत तरंगों से आंदोलित हैं। विचारों की तरंगे, कर्म की तरंगे, भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाश में व्याप्त है। मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, मंत्र एक कवच है और मंत्र एक महाशक्ति है। शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है। शब्द में असीम शक्ति होती है।

हजारों वर्षों से जीवित है सात महामानव

सप्त अमर महापुरुषों की अमर कहानी...!!
संसार का एक मात्र सत्य मरण है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। चाहे संसार का कोई भी चर- अचर, द्रश्य-अद्रश्य जीव हो। अर्थात् मृत्यु अटल सत्य है। जिससे कोई भी नहीं बच सका है। लेकिन कुछ जीवात्माएं आज भी जीवित हैं, सशरीर जीवित हैं, ये एक रहस्य ही है..!!
हजारों वर्षों से जीवित है सात महामानव
श्लोक :
'अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥'
अर्थात् : अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सभी चिरंजीवी हैं।
यह दुनिया का एक आश्चर्य है। विज्ञान इसे नहीं मानेगा, योग और आयुर्वेद कुछ हद तक इससे सहमत हो सकता है, लेकिन जहाँ हजारों वर्षों की बात हो तो फिर योगाचार्यों के लिए भी शोध का विषय होगा। इसका दावा नहीं किया जा सकता और इसके किसी भी प्रकार के सबूत नहीं है। यह आलौकिक है। किसी भी प्रकार के चमत्कार से इन्कार ‍नहीं किया जा सकता। सिर्फ शरीर बदल-बदलकर ही हजारों वर्षों तक जीवित रहा जा सकता है। यह संसार के सात आश्चर्यों की तरह है।
हिंदू इतिहास और पुराण अनुसार ऐसे सात व्यक्ति हैं, जो चिरंजीवी हैं। यह सब किसी न किसी वचन, नियम या शाप या वरदान से बंधे हुए हैं और यह सभी दिव्य शक्तियों से संपन्न है। योग में जिन अष्ट सिद्धियों की बात कही गई है वे सारी शक्तियाँ इनमें विद्यमान है। यह परामनोविज्ञान जैसा है, जो परामनोविज्ञान और टेलीपैथी विद्या जैसी आज के आधुनिक साइंस की विद्या को जानते हैं वही इस पर विश्वास कर सकते हैं। आओ जानते हैं कि हिंदू धर्म अनुसार कौन से हैं यह सात जीवित महामानव।
1. बलि : राजा बलि के दान के चर्चे दूर-दूर तक थे। देवताओं पर चढ़ाई करने राजा बलि ने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया था। बलि सतयुग में भगवान वामन अवतार के समय हुए थे। राजा बलि के घमंड को चूर करने के लिए भगवान ने ब्राह्मण का भेष धारण कर राजा बलि से तीन पग धरती दान में माँगी थी। राजा बलि ने कहा कि जहाँ आपकी इच्छा हो तीन पैर रख दो। तब भगवान ने अपना विराट रूप धारण कर दो पगों में तीनों लोक नाप दिए और तीसरा पग बलि के सर पर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया।
2. परशुराम : परशुराम राम के काल के पूर्व महान ऋषि रहे हैं। उनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका है। पति परायणा माता रेणुका ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें फरसा दिया था इसीलिए उनका नाम परशुराम हो गया।
भगवान पराशुराम राम के पूर्व हुए थे, लेकिन वे चिरंजीवी होने के कारण राम के काल में भी थे। भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।
3. हनुमान : अंजनी पुत्र हनुमान को भी अजर अमर रहने का वरदान जगद्जननी माता जानकी से मिला हुआ है। यह राम के काल में राम भगवान के परम भक्त रहे हैं। ये भगवान के व्हिर सेवक कहे जाते हैं! हजारों वर्षों बाद वे महाभारत काल में भी नजर आते हैं। महाभारत में प्रसंग हैं कि भीम उनकी पूँछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूँछ नहीं हटा पाता है।
4. विभिषण : रावण के छोटे भाई विभिषण। जिन्होंने राम की नाम की महिमा जपकर अपने भाई के विरु‍द्ध लड़ाई में उनका साथ दिया और जीवन भर राम नाम जपते रहें।
5. ऋषि व्यास : महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती(मत्स्यगंधा) के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे। अतएव ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाए। इनकी माता ने बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया।
कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किए जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाए, इनमें तीसरे विदुर भी थे। व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है। भारतीय वांड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति व्यासजी की ऋणी है।
6. अश्वत्थामा : अश्वथामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। अश्वस्थामा के माथे पर अमरमणि है और इसीलिए वह अमर हैं, लेकिन अर्जुन ने वह अमरमणि निकाल ली थी। ब्रह्मास्त्र चलाने के कारण कृष्ण ने उन्हें शाप दिया था कि कल्पांत तक तुम इस धरती पर जीवित रहोगे, इसीलिए अश्वत्थामा सात चिरन्जीवियों में गिने जाते हैं। माना जाता है कि वे आज भी जीवित हैं तथा अपने कर्म के कारण भटक रहे हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र एवं अन्य तीर्थों में यदा-कदा उनके दिखाई देने के दावे किए जाते रहे हैं। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर के किले में उनके दिखाई दिए जाने की घटना भी प्रचलित है।
7. कृपाचार्य : शरद्वान् गौतम के एक प्रसिद्ध पुत्र हुए हैं कृपाचार्य। कृपाचार्य अश्वथामा के मामा और कौरवों के कुलगुरु थे। शिकार खेलते हुए शांतनु को दो शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम कृपी और कृप रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया। महाभारत युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से सक्रिय थे।

Saturday 27 September 2014

यह मंत्र महामंत्र बन जाता है


जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व की प्राप्ति। उपनिषद् का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें ? इसी का उत्तर है यह "ॐ नमः शिवाय’ का मंत्र।" ॐ नमः शिवाय’ एक मंत्र ही नहीं महामंत्र है। यह महामंत्र इसलिए है कि यह आत्मा का जागरण करता है। हमारी आध्यात्मिक यात्रा इससे सम्पन्न होती है। यह किसी कामना पूर्ति का मंत्र नहीं है। यह मंत्र है जो कामना को समाप्त कर सकता है, इच्छा को मिटा सकता है। एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला और एक मंत्र होता है कामना को मिटाने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। कामना पूर्ति और इच्छा पूर्ति का स्तर बहुत नीचे रह जाता है। जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि वही है, जिससे कामना और इच्छा का अभाव हो सके। एक कहानी आती है- एक अत्यन्त गरीब के पास एक साधु आया। वह व्यक्ति गरीब तो था पर था संतोषी एवं भगवान का अटूट विश्वास रखने वाला। उसकी गरीबी को देखकर साधु ने करुणार्द्र होकर उसे मांगने के (कुछ भी) लिए कहा, लेकिन गरीब व्यक्ति ने कुछ भी नहीं मांगा। तो साधु बोला कि मैं किसी को देने की सोच लेता हूं उसे पूरा करना मेरा कर्तव्य समझता हूं। अतः मैं तुझे पारस दे देता हूं जिससे तुम अपनी गरीबी को दूर कर सकोगे। तब उस गरीब व्यक्ति ने निवेदन किया, ‘हे महाराज। मुझे इन सांसारिक सुखों की चाहना नहीं है। मुझे तो वह चाहिए जिसे पाकर आपने पारस को ठुकराया है जो पारस से भी ज्यादा कीमती है वह मुझे दो।’
जब व्यक्ति के अन्तर की चेतना जाग जाती है तब वह कामना पूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता। वह उसके पीछे दौड़ता है तथा उस मंत्र की खोज करता है जो कामना को काट दे। ‘नमः शिवाय’ इसीलिए महामंत्र है कि इससे इच्छा की पूर्ति नहीं होती अपितु इच्छा का स्रोत ही सूख जाता है। जहां सारी इच्छाएं समाप्त, सारी कामनाएं समाप्त, वहां व्यक्ति निष्काम हो जाता है। पूर्ण निष्काम भाव ही मनुष्य का प्रभु स्वरूप है।
इस मंत्र से ऐहिक कामनाएं भी पूरी होती हैं किन्तु यह इसका मूल उद्देश्य नहीं है। इसकी संरचना अध्यात्म जागरण के लिए हुई है, कामनाओं की समाप्ति के लिए हुई है। यह एक तथ्य है कि जहां बड़ी उपलिब्ध होती है, वहां आनुषंगिक रूप में अनेक छोटी उपलब्धियां भी अपने आप हो जाती है। छोटी उपलब्धि में बड़ी उपलब्धि नहीं होती किन्तु बड़ी उपलब्धि में छोटी उपलब्धि सहज हो जाती हैं। कोई व्यक्ति लक्ष्मी के मंत्र की आराधना करता है तो उससे धन बढ़ेगा। सरस्वती के मंत्र की आराधना से ज्ञान बढ़ेगा किन्तु अध्यात्म का जागरण या आत्मा का उन्नयन नहीं होगा क्योंकि छोटी उपलब्धि के साथ बड़ी उपलब्धि नहीं मिलती। जो व्यक्ति बड़ी उपलब्धि के लिए चलता है, रास्ते में उसे छोटी-छोटी अनेक उपलब्धियां प्राप्त हो जाती हे। यह मंत्र महामंत्र इसलिए है कि इसके साथ कोई मांग जुड़ी हुई नहीं है। इसके साथ केवल जुड़ा है - आत्मा का जागरण, चैतन्य का जागरण, आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय। जिस व्यक्ति को परमात्मा उपलब्ध हो गया, जिस व्यक्ति को आत्म जागरण उपलब्ध हो गया, उसे सब कुछ उपलब्ध हो गया, कुछ भी शेष नहीं रहा। इस महामंत्र के साथ जुड़ा हुआ है-केवल चैतन्य का जागरण। सोया हुआ चैतन्य जाग जाए। सोया हुआ प्रभु, जो अपने भीतर है वह जाग जाए, अपना परमात्मा जाग जाए। जहां इतनी बड़ी स्थिति होती है वहां सचमुच यह मंत्र महामंत्र बन जाता है।

इससे भूख बहुत बढती है।

भूख लगाने के लिए ( मंदाग्नी )-
आधा माशा फ़ूला हुआ सुहागा एक कप गुनगुने पानी में दो तीन बार लेने से भूख खुल जाती है।
काला नमक चाटने से गैस खारिज होती है,और भूख बढती है,यह नमक पेट को भी साफ़ करता है।
हरड का चूर्ण सौंठ और गुड के साथ अथवा सेंधे नमक के साह सेवन करने से मंदाग्नि ठीक होती है।
सेंधा नमक,हींग अजवायन और त्रिफ़ला का समभाग लेकर कूट पीस कर चूर्ण बना लें,इस चूर्ण के बराबर पुराना गुड लेकर सारे चूर्ण के अन्दर मिला दें,और छोटी छोटी गोलियां बना लें,रोजाना ताजे पानी से एक या दो गोली लेना चालू कर दे,यह गोलियां खाना खाने के बाद ली जाती है,इससे खाना पचेगा भी और भूख भी बढेगी।
हरड को नीब की निबोलियों के साथ लेने से भूख बढती है,और शरीर के चर्म रोगों का भी नाश होता है।
हरड गुड और सौंठ का चूर्ण बनाकर उसे थोडा थोडा मट्ठे के साथ रोजाना लेने से भूख खुल जाती है।
छाछ के रोजाना लेने से मंदाग्नि खत्म हो जाती है।
सोंठ का चूर्ण घी में मिलाकर चाटने से और गरम जल खूब पीने से भूख खूब लगती है।
रोज भोजन करने से पहले छिली हुई अदरक को सेंधा नमक लगाकर खाने से भूख बढती है।
लाल मिर्च को नीबू के रस में चालीस दिन तक खरल करके दो दो रत्ती की गोलियां बना लें,रोज एक गोली खाने से भूख बढती है।
गेंहूं के चोकर में सेंधा नमक और अजवायन मिलाकर रोटी बनवायी जाये,इससे भूख बहुत बढती है।
चने के प्रयोग से पाचन शक्ति बढती है,इसके लिये उबले चने चने की रोटी भुने चने खाने चाहिये।
भोजन के आधा घंटा पूर्व चुकन्दर गाजर टमाटर पत्ता गोभी पालक तथा अन्य हरी साग सब्जियां व फ़लीदार सब्जियों के मिश्रण का रस पीने से भूख बढती है।
सेब का सेवन करने से भूख भी बढती है और खून भी साफ़ होता है।
अजवायन चालीस ग्राम सेंधा नमक दस ग्राम दोनो को कूट पीस कर एक साफ़ बोतल में रखलें,इसमे दो ग्राम चूर्ण रोजाना सवेरे फ़ांक कर ऊपर से पानी पी लें,इससे भूख भी बढेगी और वात वाली बीमारियां भी समाप्त होंगी।
एक पाव सौंफ़ पानी में भिगो दें,फ़िर इस पानी में चौगुनी मिश्री मिलाकर पका लें,इस शरबत को चाटने से भूख बढती है।
पकी हुई मीठी इमली के पत्ते सेंधा नमक या काला नमक काली मिर्च और हींग का काढा बनाकर पीने से मंदाग्नि ठीक हो जाती है।
जायफ़ल का एक ग्राम चूर्ण शहद के साथ चाटने से जठराग्नि प्रबल होकर मंदाग्नि दूर होती है।
सोंफ़ सोंठ और मिश्री सभी को समान भाग लेकर ताजे पानी से रोजाना लेना चाहिये इससे पाचन शक्ति प्रबल होती है।
मोठ की दाल मंदाग्नि और बुखार की नाशक है।
डेढ ग्राम सांभर नमक रोज सुबह फ़ांककर पानी पीलें,मंदाग्नि का नामोनिशान मिट जायेगा।
टमाटर का सास चाटते रहने से या पके टमाटर की फ़ांके चूंसते रहने से भूख खुल जाती है।
दो छुहारों का गूदा निकाल कर तीन सौ ग्राम दूध में पका लें,छुहारों का सत निकलने पर दूध को पी लें,इससे खाना भी पचता है,और भूख भी लगती है।
जीरा सोंठ अजवायन छोटी पीपल और काली मिर्च समभाग में लें,उसमे थोडी सी हींग मिला लें,फ़िर इन सबको खूब बारीक पीस कर चूर्ण बना लें,इस चूर्ण का एक चम्मच भाग छाछ मे मिलाकर रोजाना पीना चालू करें,दो सप्ताह तक लेने से कैसी भी कब्जियत में फ़ायदा देगा।

सिर दर्द दूर होता है

बादाम रोगन के फायदे --
बोर्नविटा , कॉम्प्लान आदि पर हज़ारों रुपये खर्च करने की बजाये बादाम रोगन ख़रीदे।
- सोने से पूर्व आँखों के चारों ओर बादाम रोगन की हल्की-हल्की मालिश करने से चेहरे पर निखार आता है और झुर्रियां नहीं पड़ती।
- सिर की खुश्की मिटाने के लिए सिर पर बादाम रोगन की मालिश करें।
- बाल न झड़े, इसके लिए भी सिर पर बादाम रोगन की मालिश करते हैं।
- रात में गाय के गर्म दूध में से चम्मच बादाम रोगन दाल कर पिने से दिमाग तेज़ होता है।
- बादाम रोगन गरम दूध में डाल कर पिने से कब्ज दूर होती है।
- नाक में दो - दो बूंद बादाम रोगन रात में सोते वक्त डालने से आँखों की ज्योति तेज़ होती है।ये नस्य दिमाग भी तेज़ करता है।
- बादाम रोगन के नस्य से सिर दर्द दूर होता है।
- यदि सुनने की शक्ति कम होने का भय हो तो बादाम रोगन की एक-एक बूंद प्रतिदिन डालें।
- आंवले के रस के साथ बादाम तेल की मालिश बालों का झड़ना, असमय सफेद होना, पतला होना और डैंड्रफ रोक सकती है।दो-तीन बूंद बादाम रोगन व एक चम्मच शहद की मालिश रोमकूप खोल चेहरे पर चमक लाती है।
- इसका सेवन तनाव कम करता है।
- ये हार्ट के लिए लाभदायक है।
- सर्दियों में शरीर का तापमान बनाए रखता है।
- छोटे बच्चों के लिए लाभदायक है।
- वजन घटाने में मदद करता है।
- गर्दन में दर्द होने पर इससे मालिश करने पर ठीक हो जाता है।
- इसकी सिर में मालिश करने से नींद अच्छी आती है।

माया का गुणगान कितनी देर करतें है

जहां जहां मन अटकाया है वहाँ तृप्ति नहीं मिलती है गुरु के पास आकर मन को शान्ति मिलती है 
- संसार में बार बार दुःख पाते है फिर भी उसे नहीं छोड़ते है 
- गुरु हमारे सुख सामने रखता है फिर भी उसको अपना नहीं बनाते वहीँ सिज सिज कर खत्म हो जाते है 
- हम माया में जम्प नहीं लगाएंगे तो वहीं दुखी हो हो कर हम खतम हो जाएंगे ये आसक्ति बहुत कस्ट देती है मन को आलंबन देने की आदत है तो भगवान का आलंबन दो 
- गुरु के गुणों का बखान नहीं कर सकते गुरु के इतने गुण है अगर हम गुरु का गुणगान करेंगे तो प्रेम बढ़ता ही जायगा फिर गुरु से प्रेम बढ़ते बढ़ते माया छुटटी जाएगी 
स्तुति में ही स्थिति है 
आप देखिये आप गुरु की भगवन की बात कितनी देर करते हैं.. और माया का गुणगान कितनी देर करतें है 
- गुरु के गुण बाहरी नहीं - बल्कि उसका ज्ञान ही उसके गुण है आप ज्ञान का चिन्तन क्यों नहीं करते माया की बातों में मन लगाते हो हमेशा 
- जिनका मन शरीर में आसक्त होता है उसे उन शरीरो के बिछरने का भी गम होगा जब जीते जी अपने को ही शरीर से अलग कर दिया तो फिर और किस से जुड़न होगी
शरीर से अपना पार्टीशन करो...
- मन जहाँ जुड़ने लगे संसार से उसे हटाइये - ये अभ्यास निरन्तर करना पड़ता है माया में बहाव को रोकना है 
** एक नाली मे काई रोज़ साफ करी जाती थी रोज जमती थी एक एक्सपर्ट ने बताया नाली का पानी रोक दीजिये फिर सूरज की किरणों से जड़ सूखेगी तो फिर काई नहीं जमेगी ऐसा ही किया फिर काई नहीं ज़मी 
हम अपने मन को माया के बहाव से रोकें फिर गुरु के ज्ञान की रौशनी में रक्खें तो फिर काई नहीं जमेगी विकारों की 
हम जिस डाल पर बैठें है उसी को काटते है 
- भजन था मन को मारे मारे 
गीता भगवान ने कहा - मन को मोड़े मोड़े यानि माया से हटाकर मन को मोड़कर भगवान में लगादो ये मरेगा नहीं इसकी दिशा बदल दो 
- जैसे खा खा कर ऊब जाते हो पहिन पहिन कर ऊब जाते हो ऎसे ही संसार में मै मेरे से ऊब होने लगे पर मन ऊबता नहीं है संसार को ही पकड़कर बैठें है..तभी दुखों का अन्त नही होता")

Thursday 25 September 2014

अब वह अपने घर जाना चाहता था

भगवान बुद्ध के ये शब्द नोट कर लीजिए- 
‘इहासने शुण्यतु में शरीरम्’ त्वगस्थि मांसं प्रलयं च यातु।
अप्राप्यं बोधिं बहुकल्प दुर्लभाम् नेहासनात्कायमः चलिष्येत्।।
उपनिषद् के ऋषि की यह प्रार्थना भी हृदयंगम कर लीजिए - 
हिरण्मयेण (हिरण्मयेन) पात्रेण, सत्यस्थापिहितं मुखम्। 
तत्त्वं पूषन्न पावृणु, सत्य धर्माय दृष्टये।।
साधना में दृढ़ संकल्प एवं दृढ़ आस्था तथा पूर्ण समपर्ण का होना परमावश्यक है।
गुरु शिष्य का प्रकरण है। वर्षों तक गुरु के पावन सान्निध्य में शिष्य ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। अब वह अपने घर जाना चाहता था। घर का रास्ता उसके लिए अज्ञात था। उसने गुरु से अनुरोध किया, ‘गुरुदेव। आपको कष्ट न हो तो मेरा पथ-प्रदर्शन करें, अन्यथा मैं भटक जाऊंगा।’ गुरु ने शिष्य के हाथ में दीपक दिया और आगे हो गए। गुरुकुल के द्वार तक वे चलते रहे। उसके बाद शिष्य से कहा, ‘अब आगे मैं नहीं जाऊंगा। तुम अपना मार्ग स्वयं खोजो। उस खोज में कहीं भटक भी जाओ तो घबराना मत। एक दिन तुम अपनी मंजिल को अवश्य ही प्राप्त कर लोगे।’ शिष्य ने झुककर गुरु को प्रणाम किया। उसी समय गुरु ने फूंक देकर दीपक को बुझा दिया। शिष्य विस्मित हो गया। एक क्षण रुककर शिष्य बोला, ‘गुरुदेव, आप मेरे साथ यह कैसा मजाक कर रहे हैं? न आप साथ चलते हैं और न आगे का पथ-प्रदर्शन कर रहे है। अपना पथ मैं स्वयं देखूं, इसके लिए जो दीपक मेरे पास था, उसे भी आपने बुझा दिया है। अब मैं क्या करूंगा? गुरुदेव ने मुस्कराते हुआ कहा, ‘वत्स! डरो मत, मैं तुम्हें आत्म निर्भर (आत्म निर्भर) देखना चाहता हूं। यह जो दीपक तुम्हारे पास था, तुम्हारा अपना जलाया हुआ नहीं था। तुम स्वयं पुरुषार्थ करो, स्वयं प्रकाश पाओ, स्वयं दीपक जलाओ और स्वयं अपने दीपक बन जाओ।’

श्वांस को देखने से मन की एकाग्रता बढ़ती है

दृश्य-दर्शन से तात्पर्य है किसी भी स्थूल बिन्दु पर दृष्टि टिकाकर धारणा करना। वह बिन्दु ¬ हो सकता है, राम, कृष्ण एवं शिव का चित्र एवं मूर्ति हो सकता है। अपने गुरु का चित्र हो सकता है। अपने शरीर का कोई भी संवेदनशील अंग हो सकता है। यथा नासिकाग्र, भृकुटी, नाभि, हृदय आदि-2 प्राण-दर्शन भी सुगम एवं सरल है। प्राण-दर्शन से तात्पर्य श्वांस दर्शन से श्वांस और जीवन दोनों एकार्थक जैसे हैं जब तक जीवन तब तक श्वांस और जब तक श्वांस तब तक जीवन। शरीर और मन के साथ श्वांस का गहरा सम्बन्ध है। यह ऐसा सेतु है जिसके द्वारा नाड़ी संस्थान, मन और प्राण शक्ति तक पहुंचा जा सकता है। श्वासं को देखने का अर्थ है - प्राण शक्ति के स्पंदनों को देखना और उस चैतन्य शक्ति को देखना, जिसके द्वारा प्राण शक्ति संपदित होती है। श्वांस को देखने से मन की एकाग्रता बढ़ती है। श्वांस दीर्घ एवं मंद होना चाहिए।
दूसरा तरीका है-नाद-श्रवण का। कोई भी मधुर भक्ति स्वरों की या मंत्र स्वरों की कैसेट भर ली जाए और उसको धीमी आवाज में चलाते हुए मस्त होकर सुना जाए। मन को पूरा का पूरा उसमें लगा दिया जाए। कानों में रूई की डाट लगाकर या अंगुलियां डालकर अपने शरीर के कलरव को सुना जाए। हृदय, नाड़ियां एवं रक्त परिभ्रमण के स्वर को दत्तचित्त होकर सुना जाए। इसी शरीर के स्वर में से ‘सोऽहम्’ का स्वर फूट पड़ता है। रात्रि की सन-सन की आवाज के साथ मन को लगाया जाए। आधा घंटे का अभ्यास ही साधक को शून्य स्थिति में उतार देता है। पर यह साधना जंगल में ही संभव है, गांव या बस्ती में संभव नहीं है।
तीसरा तरीका है-शून्य विचरण। यह काफी कठिन एवं श्रम साध्य है, विशेषकर नव साधकों के लिए। लम्बे अभ्यास के बाद तो कोई भी साधक शून्य स्थिति में ही पहुंचते हैं पर प्रथम छलांग में ही शून्य में ठहरना काफी कठिन है। इस साधना में किसी भी प्रकार का नियंत्रण वर्जित है। विचार आए तो आने दें। उन्हें रोके नहीं। विचारों को देखो। संकल्प विकल्प आए तो उन्हें भी देखते रहें। करना कुछ नहीं, केवल देखना है। जान लेना है कि यह ऐसा हो रहा है। जैसे ही विचारों को देखना प्रारम्भ करते हैं, विचारों का आना बंद हो जाता है। विचार रूकते ही एक शून्य स्थिति पैदा हो जाती है। उस शून्य स्थिति में रहना ही शून्य विचरण कहलाता है।
तीन तरीके आपको सुझाए गए हैं जो आपको अच्छा लगता हो, सरल लगता हो, आपकी प्रकृति एवं स्वभाव के अनुकूल हो, वही अपना लीजिए। ध्यान रहे साधना का प्रारम्भ दृढ़ संकल्प से प्रारम्भ होता है और दृढ़ भाव से साधना का समापन होता है। 

सूक्ष्म शरीर में मन एक प्रबल शक्ति है

शब्द की शक्ति असीमित है। गोरखनाथजी महाराज कहते हैं - 
‘सबदहि ताला, सबदहि कूंची, सबदहि सबद जगाया। 
सबदहि सबद सूं परचा हुआ, सबदहि सबद समाया।।’
ऐसी विराटता है शब्द की। यह शब्द क्या है ? यह शब्द है ॐ (औंकार) सृष्टि की उत्पत्ति के समय Big Bang के रूप में ॐ शब्द का विस्फोट हुआ। शब्द से ही अन्य स्वर प्रकट हुए, सृष्टि संकुचन में भी इसी ॐ शब्द का संकुचन होगा। इसी ॐ महा शब्द के साथ अपने इष्ट का नाम जोड़कर हम किसी भी रूप में यथा ॐ शिव, ॐ नमः शिवाय ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ कृष्णाय, ॐ रामाय नमः आदि-आदि अपनी-अपनी श्रद्धा एवं विश्वास के अनुसार किसी भी शब्द को अपनी साधना का आधार बना सकते हैं। नये साधक के लिए जप बहुत जरूरी है। हमारी वाणी शुद्धि के लिए जप बहुत जरूरी है। ज्यों-ज्यों जप बढ़ता है, हमारे कायिक ब्रह्माण्ड में वह शब्द गूंजने लगता है।
साधना के लिए तीसरा आधार है - मन। मन को नियंत्रित कैसे किया जाए ? मन को ‘अमन’ कैसे किया जाए? अपने सूक्ष्म शरीर में मन एक प्रबल शक्ति है। इस मन के प्रसंग में गोरखनाथजी महाराज कहते हैं - 
‘यह मन शक्ति, यह मन शिव। 
यह मन पांच तत्व का जीव। 
यह मन ले जे उन्मन रहे। 
तो तीन लोक की बातां कहे।।
मन को ‘शिव’ बताया गया है, मन को शक्ति बताया गया है। यह मन ‘शक्ति’ रूप में हमें नचा रहा है, कठपुतलियों की भांति। यही मन ‘शिव’ बनकर हमें कल्याण का मार्ग दिखाता है। यह मन जड़ है, पर चेतन से मिलाने का यही एक मात्र आधार है। जिसने इस मन को ‘अमन’ कर दिया, वह सर्वज्ञ हो गया। बाबाजी महाराज ने मन के सम्बन्ध में बड़ी मार्मिक उक्ति कही है:- 
‘मन की चाल चरित घणी, मन ही ज्ञान-अज्ञान। 
‘श्रद्धा’ मन को उलट दे, धरि उनमनि ध्यान।
यह उन्मनि ध्यान क्या है ? मन है - अज्ञान है, मन नहीं है-ज्ञान है। ‘उन्मनि ध्यान’ से तात्पर्य है-मन के अस्तित्व को समाप्त करना। मन के द्वारा मन को मारना। मन को मारने के लिए हमारे पास मुख्यतः ध्यान की तीन टेक्नीक है:- 
1. दृश्य - दर्शन 
2. नाद - श्रवण 
3. शून्य - विचरण 
नाथपंथ में ध्यान की तीन टेक्नीक को इस तरह सांकेतिक किया गया है -
‘अंखियन मांहि दृष्टि लुकाले, काना मांहि नाद। 
शून्य मां ही सूरता रमाले, यो ही पद निर्वाण।’
ध्यान का अर्थ है-गहराई में उतर कर देखना। जानना और देखना चेतना का लक्षण है। आवृत्त चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है - जानो और देखो। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो, स्कूल मन के द्वारा सूक्ष़्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो। पूरी साधना यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर है, ज्ञात से अज्ञात की ओर है। देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है। जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं है। जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं है। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अन्तिम साधन है - देखना। आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएगे, विकल्प शून्य हो जाएंगे। हम जैसे-2 देखते चले जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं। दृश्य दर्शन में आंख एवं मन का संयोग है। नाद श्रवण में कान एवं मन का संयोग है। शून्य विचरण में केवल मन का रमण है। पहले दो तरीके स्थूल हैं, सरल हैं, तीसरा तरीका जरा सूक्ष्म है, कठिन भी है।

जैसा खाए अन्न, वैसा होय मन।

दृढ़ आसन, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा-साधना की पूर्व शर्तें हैं। बैठने का आसन दृढ़ होना चाहिए। भले ही वह सुखासन ही हो। तीन आसन साधना के लिए उपयोगी एवं व्यवहार्य है-सुखासन, पद्मासन और सिद्धासन। इनमें से जो भी आसन आपको सुगम लगे, आरामदायक लगे उसे ही अपनाना चाहिए। आसन वहीं स्वीकार्य है जिसमें बैठकर आप तकलीफ महसूस न करें। आसन तीनों में से जो चाहे अपना लें पर एक घंटा की लगातार बैठक का अभ्यास होना जरूरी है। एक घंटा की लगातार बैठक आप बिना किसी कष्ट के कर लेते हैं, इतना अभ्यास परम आवश्यक है।
शरीर को साधने के लिए दूसरी आवश्यकता है-संयमित आहार की। आयुर्वेद में अच्छे स्वास्थ्य के लिए तीन शर्तें बताई है आहार की 1. हितभुक् 2. मितभुक 3. ऋतुभुक। वही खाया जाए तो शरीर के अनुकूल हो। शरीर की अपनी अपनी प्रकृति है। अनुसंधान कर जान लें कि मेरे शरीर को कौन-कौन सी खाद्य सामग्री अनुकूल पड़ती है। जो अनुकूल खाद्य सामग्री है उसी का प्रयोग किया जाए। बीच-बीच में उपवास भी किए जाए। अधिक आहार से मल संचित होते हैं। जिसके शरीर में मल संचित होते हैं, उसका नाड़ी संस्थान शुद्ध नहीं रहता और मन भी निर्मल नहीं रहता। दुःखदायी एवं उटपटांग स्वप्न उसी रात को ज्यादा आते हैं जिस रात आपने जरूरत से ज्यादा खा लिया है या फिर आप प्रकोष्ठ बद्धता के शिकार हैं। ज्ञान और क्रिया, इन दोनों की अभिव्यक्ति का माध्यम नाड़ी संस्थान है। मलों के संचित होने पर ज्ञान और क्रिया दोनों में अवरोध पैदा हो जाता है। फेफड़ों व आंतों को राहत देने के लिए भूख से कम भोजन उपादेयी होता है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर उपवास, मित भोजन और रस परित्याग सुझाए गए हैं।
ऋतुभुक का अर्थ है - खरी कमाई (कमाई) की रोटी खाई जाए। कुटिल तरीकों से अर्जित खाद्यान का उपयोग न किया जाए। जैसा खाए अन्न, वैसा होय मन। शरीर साधना की तीसरी आवश्यकता है - नींद पर काबू। नींद पर नियंत्रण का अर्थ यह नहीं है कि नींद ही न ली जाए। जितनी देर साधना क्रम अपनाया जाए, हम पूर्ण जागरूक रहें। हमारा रोम रोम पूर्ण जाग्रत रहे। पूर्ण चैतन्य रहें। आप किसी जंगल से गुजर रहे हैं। उस निर्जन बीहड़ जंगल में आप छोटी सी आहट से ही चौंक जाते हैं उसके प्रति सजग हो जाते हो। ऐसी ही चैतन्या जरूरी है। आसन दृढ़, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा प्रारम्भिक तैयारी है।
हमारा दूसरा आधार है 

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे

अथ मंत्र:-
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः 
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।"
॥ इति मंत्रः॥

"नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनी ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनी ॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ 4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणी ॥5॥
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ 8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्र सिद्धिं कुरुष्व मे॥
इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत् ।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥

। श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् । 
ॐ तत्सत्

Wednesday 24 September 2014

गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं:-

1. शरीर 2. वाणी अर्थात् शब्द 3. मन।
साधक को सर्व प्रथम शरीर को जानना एवं साधना बहुत जरूरी है। शरीर बहुत बड़ा यंत्र है। विश्व की सबसे बड़ी फैक्ट्री भी इसके समक्ष छोटी पड़ती है। पूरे शरीर में 60 खरब न्यूरोन, सेल हैं जो स्वायतशासी हैं। प्रत्येक सेल 11 जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है। बिजली बनाता है, अपने क्षेत्र में बिजली सप्लाई करता है, ज्ञानग्राही तन्तुओं से सूचना प्राप्त करता है, ज्ञानग्राही तंतुओं से सूचना मस्तिष्क एवं शरीर में फैलाता है, क्रियावाही तंतुओं को कार्य के लिए सूचित करता है। एक सेल, एक अदना सा सेल 1 लाख तक सूचनाएं संग्रहीत कर सकता है। मस्तिष्क में 1 खरब सेल एक साथ सक्रिय हैं। लाखों-करोड़ों स्मृतियों के प्रकोण हैं। लाखों-करोड़ों आवेशों के प्रकोष्ठ हैं सबकी स्वचालित व्यवस्था है। पूरे ज्ञान तंतुओं की लम्बाई 1 लाख मील है जबकि पूरी पृथ्वी का क्षेत्रफल 25 हजार वर्ग मील है। सामान्यतया हम हमारी क्षमता का मात्र 5 प्रतिशत प्रयोग करते हैं। कुछ लोग इससे भी कम प्रयोग कर पाते हैं। बड़े-बड़े महापुरुषों ने अपनी क्षमता का मात्र 20 प्रतिशत प्रयोग किया है। विश्व का पूरा उद्योग तंत्र, राजतंत्र एवं समाज तंत्र इस शरीर तंत्र के समक्ष बहुत छोटा है। इसीलिए ‘पिण्डे सो ब्रह्माण्डे’ कहा गया है। पहला कार्य है-शरीर तंत्र की विराटता को समझे। दूसरा कार्य है- शरीर को निवृत्त करना और प्रवृत्त करना। प्रवृत्त करने में आसन, प्राणायाम, स्वांस की क्रियाएं, बैठने की सारी मुद्राएं आ जाती है। शरीर को निवृत्त करने का अर्थ है - शरीर को सारी क्रियाओं से मुक्त कर हल्का बना देना मानो कि शरीर है ही नहीं। शरीर को साधने के लिए अभ्यास जरूरी है। यदि एक आसन में हम एक घंटा भी नहीं बैठ पाते हैं, तो साधना करना बिल्कुल संभव नहीं है। अभ्यास में साधना क्रम ही तो है। साधना के लिए शरीर को साधना बहुत जरूरी है। गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं:-
‘आसन दृढ़ आहार दृढ़ जे निद्रा दृढ़ होय। 
गोरख कहे सुनो रे पूता, मरे न बूढ़ा होय।।

Tuesday 23 September 2014

यह उद्धार कैसे संभव है? उद्धार के लिए वैराग्य भाव चाहिए

प्रश्न है, यह उद्धार कैसे संभव है? उद्धार के लिए वैराग्य भाव चाहिए या अभ्यास चाहिए। वैराग्य का अर्थ है जो पूर्णतया राग मुक्त हो गया हो। जो जीतने की कामना करता है उसे ही हार का भय सताता है। वैराग्य का अर्थ है-पूर्ण अनासक्ति। वैराग्य में केवल अनुराग बचता है और सब छूट जाते हैं। पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए वैरागी होना संभव नहीं है। वैराग्य या तो प्रारब्ध कर्मवशात् उत्पन्न होता है या फिर अभ्यास के द्वारा प्राप्त हुई अनुभूति के कारण पैदा होता है। बूढ़े, रूग्ण एवं मृत व्यक्तियों को हम देखते ही हैं पर हमसे से कितनों को वैराग्य होता है पर बुद्ध ने ज्यों ही बीमार, बूढ़ा एवं मृत को देखा, वैराग्य हो गया। तुलसीदास ने अपनी पत्नी की एक झिड़की पर ही संसार से मुख मोड़ लिया। निमित्त पाकर प्रारब्ध कार्य जागे, वे प्रभु प्रेम में लीन हो गए। भर्तृहरि को उसकी पत्नी ने धोखा दिया, वे अलख जगाने राजमहल से निकल पड़े। ऐसे हजारों उदाहरण आध्यात्मिक इतिहास में मिल जाएंगे, जब एक छोट सा निमित्त पाकर व्यक्ति वैरागी हो गया।
समाधान यही मिलता है कि वैराग्य भाव प्रारब्ध कर्मजन्य है तो फिर बचता है अभ्यास। अभ्यास हर व्यक्ति, जो रूचि रखता है, कर सकता है। अभ्यास का अर्थ है-पुरुषार्थ। पुरुषार्थ का अर्थ है-वर्तमान में जीना। महावीर ने कहा है-‘खणं जाणिए पंडिए’-साधक तुम क्षण हो जानो’ क्षण को जानना ही पुरुषार्थ है। हम या तो भूतकाल में जीते हैं या फिर भविष्य में। वर्तमान में जीना हमें नहीं आता। वर्तमान में जीने का अर्थ है-पुरुषार्थ करना, अभ्यास करना। अभ्यास के लिए हमारे पास तीन आधार हैं 

शिव बनकर शिव का अनुभव करो

एक यक्ष प्रश्न है-‘किमाश्चर्यं मतः परम’ अर्थात् सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? हम अपने आपको नहीं जानते यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। हजारों वर्षों से आदमी के सामने प्रश्न है - कोऽहम् मैं कौन हूं।’ ‘मैं कौन हूं’ इस प्रश्न के अन्वेषण में आदमी ने अपने अस्तित्व की कई परतें उघाड़ी। उसे प्रतीत हुआ-मेरा यह शरीर मैं नहीं है, मेरी इन्द्रियां, मेरी बुद्धि मैं नहीं है। एक बिन्दु आया, एक अन्तिम ठहराव आया, साधक के अनुभव में, वह अनुभव था, ‘सोऽहम’ ‘मैं हूं’ मेरे सिवाय अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है।
अध्यात्म की यात्रा ‘कोऽहम्’ से प्रारम्भ हुई एवं ‘सोऽहम्’ पर सम्पूर्ण हुई। अनन्तकाल से बेटा खोज रहा है अपने परम पिता को और परमपिता बेटे के हृदय में बैठा-बैठा मुस्करा रहा है तथा कह रहा है-यह रहा मैं।
आज मूल प्रश्न है-आदमी का जीवन कैसे बदले ? आदमी को परम शान्ति एवं परमानंद की प्राप्ति कैसे हो ? आदमी को बदलने के लिए अध्यात्मिक यात्रा परमावश्यक है। आध्यात्मिक साधना का अर्थ है-भीतर की यात्रा। आध्यात्म का अर्थ है-आत्मा के भीतर। आत्मा के बाहर-बाहर हम यात्रा कर रहे हैं। अतीत से कर रहे हैं। कभी भीतर जाने का अवकाश ही नहीं मिला। हम मानते हैं दुनिया में जो कुछ सार है वह बाहर ही है भीतर कुछ भी नहीं। वास्तविकता यह है कि जो भीतर की यात्रा कर लेता है उसे बाहर का सत्य असत्य जैसा प्रतिभासित होने लगता है। जैसे दिन भर का थका हुआ पक्षी अपने घोंसले में आकर विश्राम करता है वैसे ही बहिर्मुखी प्रवृत्तियों से त्रस्त आदमी कहीं विश्राम ले सके; कहीं शान्ति का अनुभव कर सके वह स्थान हो सकता है-केवल अध्यात्म, केवल भीतर का प्रवेश। साधना करते-करते अनुभव की चिन्गारियां उछलती है, अनुभव के स्फुलिंग बिखरते हैं, तब आदमी यह घोषणा करता है-बाहर निस्सार है, भीतर सार है। हमने भीतर को खोया-सब असार हाथ लगा। हमने भीतर को पाया-सब सार ही सार प्रतीत हुआ।
सभी धर्म इसी ओर संकेत कर रहे हैं। उपनिषद् कहते हैं। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत’ शिव बनकर शिव का अनुभव करो।
अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बुद्ध कहते हैं-‘अप्प दीपो भव’। महावीर कहते हैं ‘संपेक्खिए अप्प गमप्यएण’ आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बाइबिल कहती है 'O Father, Make my the eye, make my the light' कुरान कहती है, ‘मेरे खुदा, तेरे नूर की रोशनी इस बंदे में भर दे।’ सभी घोषणाएं एक ही गन्तव्य की ओर संकेत कर रही हैं। वीथिकाएं, पगडण्डियां अलग-अलग हो सकती हैं पर लक्ष्य सबका एक ही है और वह लक्ष्य है-आत्मा का साक्षात्कार या आत्मा की अनुभूति। आत्मा की अनुभूति के बिना आदमी का आमूल-चूल रूपान्तरण संभव नहीं है। आत्मानुभूति के लिए एक ठोस, वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक मार्ग चाहिए, एक सिस्टेमेटिक टेक्नीक चाहिए, एक विश्वसनीय पद्धति चाहिए। आप क्रोध को रोकना चाहते हैं पर रूकता नहीं अपितु रोकने के प्रयास में वह उग्र हो जाता है। हम क्रोध को रोक नहीं रहे हैं, क्रोध से कुश्ती लड़ रहे हैं। जितनी बार हमारी क्रोध से कुश्ती होती है, हम पराजित होते हैं। क्रोध और प्रबल हो जाता है और हम निर्बलतर हो जाते हैं। अध्यात्म यह कहता है-अंधकार को समाप्त करने के लिए अंधकार से लड़ने की क्या आवश्यकता है। अंधकार से लड़ा नहीं जाता। जिसकी सत्ता ही नहीं उससे लड़ाई कैसे होगी ? सत्ता तो प्रकाश की है। प्रकाश के अभाव का नाम, अनुपस्थिति का नाम अंधकार है। प्रकाश कर लिया जाए तो अंधकार मिट जाता है। प्रकाश आ जाए तो अंधकार नहीं है। अशान्ति भी अभाव है, दुःख भी अभाव है, घृणा भी अभाव है। घृणा है प्रेम की अनुपस्थिति। प्रेम बढ़े, प्रेम जगे, प्रेम गहरा हो तो घृणा विलीन हो जाएगी। असत्य सत्य की अनुपस्थिति है। सत्य बढ़े, सत्य विकसित हो तो असत्य क्षीण हो जाएगा। अशान्ति शान्ति की अनुपस्थिति है। शान्ति जगेगी, शान्ति बढ़ेगी, अशान्ति विदा हो जाएगी। आवश्यकता है विधायक पक्ष को उभारने की, बाहर लाने की। ज्यों ही विधायक पक्ष उभरेगा, निषेधात्मक पक्ष विदा हो जाएगा। विधायक पक्ष को सबल करने के लिए साधना की आवश्यकता है। मनुष्य योनि से पूर्व की सभी योनियां प्रकृति एवं महाकाल के विधान पर आश्रित हैं। उनको कुछ करने कराने की आवश्यकता नहीं है। वे तो तैरती रहती हैं, बहती हैं। उन्हें अपने उद्धार करने की कोई चेष्टा नहीं करनी है। उनकी पदोन्नति तो उर्ध्व मुखी, सीधी एवं सरल है। मनुष्य योनि में स्वकृत कर्मों का फल भोगना होता है। यहां कर्म की गति वक्र, चक्राकार एवं अनन्त वैचित्रयमयी हो जाती है। मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं का ही करना होता है। अतः उपनिषद् कहता है, ‘उद्धेदात्मनात्मानम्’ अपना उद्धार स्वयं को ही करना है।

यह समर्पण प्राणों का समर्पण है।

ब्रह्म के चिंतन में लीन ज्ञानी...

अज्ञानी परमात्मा को भेंट भी करे, तो क्या भेंट करे? अज्ञानी न परमात्मा को जानता, न स्वयं को जानता। न उसे उसका पता है, जिसको भेंट करनी है; न उसका पता है, जिसे भेंट करनी है। स्वभावतः, उसे यह भी पता नहीं है कि क्या भेंट करना है।

अज्ञानी जिन चीजों से आसक्त होता है, उन्हीं को परमात्मा को भेंट भी कर आता है। जो उसे प्रीतिकर लगता है, वही वह परमात्मा के चरणों में भी चढ़ाता है। भोग लगता है प्रीतिकर, भोजन लगता है प्रीतिकर, तो परमात्मा के द्वार पर चढ़ा आता है। फूल लगते हैं प्रीतिकर, तो परमात्मा के चरणों में रख आता है। सोचता है, शायद जो उसे प्रीतिकर है, वही परमात्मा को भी प्रीतिकर है।

लेकिन अज्ञान में जो प्रीतिकर है, वह ज्ञान में प्रीतिकर नहीं रह जाता। हमें जो प्रीतिकर है, हमारी स्थिति में जो प्रीतिकर है, उसे परमात्मा के द्वार पर चढ़ाने योग्य समझने की भूल अज्ञान में ही होती है।

कृष्ण कहते हैं इस सूत्र में कि ज्ञानीजन, योगीजन, अपनी इंद्रियों को ही उस परमात्मा की अग्नि में आहुति दे देते हैं।

भस्म में छिपी हुई अग्नि जिस प्रकार दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ब्रह्म के चिंतन में लीन ज्ञानी पहचाने नहीं जा सकते |

हम जब भी परमात्मा को कुछ भेंट करते हैं, तो इंद्रियों के विषयों में से कुछ भेंट करते हैं। इंद्रियां जो चाहती हैं, उसे हम परमात्मा को भेंट करते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन इंद्रियों को ही उसकी अग्नि में आहुति दे देते हैं। भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

फूल लगता है प्रीतिकर; नासापुटों को सुगंध लगती है मधुर; आंखों को रूप लगता है आकर्षक। हम फूल को चढ़ा देते हैं परमात्मा के चरणों पर। ज्ञानीजन सुगंध की इंद्रिय को ही चढ़ा देते हैं, फूल को नहीं। हमें भोजन लगता है प्रीतिकर, स्वाद लगता है मधुर, हम स्वादिष्ट फलों को, मिष्ठानों को परमात्मा के द्वार पर रख देते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन स्वाद को ही–स्वादिष्ट को नहीं–स्वाद को ही उसकी अग्नि में समर्पित कर देते हैं। इंद्रियों को ही। जो प्रीतिकर लगता है, वह नहीं; जिसे प्रीतिकर लगता है, उसे ही समर्पित कर देते हैं।

यह समर्पण प्राणों का समर्पण है। यह समर्पण अपना ही समर्पण है। क्योंकि हम जिसे अब तक जानते हैं स्वयं का होना, वह हमारी इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हम जिसे कहते हैं अपनी अस्मिता, अपना होना, वह हमारी इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और जब कोई अपनी समस्त इंद्रियों को, अपने समस्त जोड़ को परमात्मा को चढ़ा देता, तो पीछे चढ़ाने वाला और जिसको चढ़ाया गया है वह, वे दोनों एक ही हो जाते हैं। क्योंकि पीछे परमात्मा ही बचता है। अगर हम अपनी सारी इंद्रियां परमात्मा को चढ़ा दें, तो हमारे भीतर सिवाय परमात्मा के फिर और कोई भी नहीं बचता है।

इंद्रियों के द्वारा हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियां हमारे उपकरण हैं संसार से संयुक्त होने के। आंख से हम रूप से जुड़ते हैं, आंख से हम प्रकाश से जुड़ते हैं। कान से हम स्वर से, ध्वनि से जुड़ते हैं। ऐसे हमारी पांचों इंद्रियों के द्वार से हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियों से जाएं, तो संसार में पहुंच जाएंगे। इंद्रियों को छोड़कर जाएं, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे। इंद्रियां द्वार हैं संसार की तरफ। अगर इंद्रियों से लौट आएं पीछे, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे।

जो सीढ़ी मकान के नीचे लाती है, वही सीढ़ी मकान के ऊपर भी ले जाती है। जो रास्ता आपको यहां तक ले आया, वही रास्ता आपको वापस आपके घर तक भी ले जाएगा। लेकिन यहां आते समय और घर लौटते समय, रास्ता भी वही होगा, आप भी वही होंगे। फर्क क्या पड़ेगा? फर्क इतना ही पड़ेगा, आपका रुख, आपका चेहरा बदल जाएगा। इधर आते हुए चेहरा इस तरफ होगा, पीठ घर की तरफ होगी; घर जाते समय चेहरा घर की तरफ होगा, पीठ इस तरफ होगी।

संसार में जाते समय इंद्रियों की तरफ उन्मुख होकर, मुंह करके संसार में जाना पड़ता है। परमात्मा की तरफ, स्वयं की तरफ आते समय, इंद्रियों की तरफ पीठ कर लेनी पड़ती है और लौटना पड़ता है।

इंद्रियां ही द्वार हैं संसार में ले जाने के, इंद्रियां ही द्वार बनती हैं परमात्मा में आने के। इंद्रियां एंट्रेंस हैं संसार में और एक्जिट हैं परमात्मा में।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन अपनी इंद्रियों को ही उसके हवन में, उसके यज्ञ की अग्नि में, उस परमात्मा में समर्पित कर देते हैं। उनका ही होम लगा देते हैं। तब जो पीछे शेष रह जाता है वह, और जिसे होम दिया है वह, दो नहीं रह जाते। फिर यज्ञ करने वाला, यज्ञ, यज्ञ जिसकी प्रार्थना में किया गया वह, सब एक ही हो जाते हैं।

पारिवारिक कलह समाप्त होती है।

स्नेही स्वजनों,वगत एवं सुमंगल कामना

तुलसी के पौधे से आसन्न विपत्ति का भान होता है !!

क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया कि आपके घर,परिवार या आप पर कोई 
विपत्ति आने वाली होती है तो उसका असर सबसे पहले आपके घर में स्थित तुलसी 
के पौधे पर होता है। 
आप उस पौधे का कितना भी ध्यान रखें धीरे-धीरे वो पौधा सूखने लगता है।

तुलसी का पौधा ऐसा है जो आपको पहले ही बता देगा कि आप पर या आपके घर 
परिवार को किसी मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है।

पुराणों और शास्त्रों के अनुसार माना जाए तो ऐसा इसलिए होता है कि जिस घर पर 
मुसीबत आने वाली होती है उस घर से सबसे पहले लक्ष्मी यानी तुलसी चली जाती है।

क्योंकि दरिद्रता,अशांति या क्लेश जहां होता है वहां लक्ष्मी जी का निवास नही होता।

अगर ज्योतिष की माने तो ऐसा बुध के कारण होता है। बुध का प्रभाव हरे रंग पर होता 
है और बुध को पेड़ पौधों का कारक ग्रह माना जाता है।

ज्योतिष में लाल किताब के अनुसार बुध ऐसा ग्रह है जो अन्य ग्रहों के अच्छे और बुरे 
प्रभाव जातक तक पहुंचाता है।

अगर कोई ग्रह अशुभ फल देगा तो उसका अशुभ प्रभाव बुध के कारक वस्तुओं पर 
भी होता है। 
अगर कोई ग्रह शुभ फल देता है तो उसके शुभ प्रभाव से तुलसी का पौधा उत्तरोत्तर 
बढ़ता रहता है। 
बुध के प्रभाव से पौधे में फल फूल लगने लगते हैं।

प्रतिदिन चार पत्तियां तुलसी की सुबह खाली पेट ग्रहण करने से मधुमेह,रक्त विकार, 
वात,पित्त आदि दोष दूर होने लगते है।

मां तुलसी के समीप आसन लगा कर यदि कुछ समय हेतु प्रतिदिन बैठा जाये तो श्वास 
के रोग अस्थमा आदि से जल्दी छुटकारा मिलता है।

घर में तुलसी के पौधे की उपस्थिति एक वैद्य समान तो है ही यह वास्तु के दोष भी 
दूर करने में सक्षम है हमारें शास्त्र इस के गुणों से भरे पड़े है जन्म से लेकर मृत्यु 
तक काम आती है यह तुलसी.... 
कभी सोचा है कि मामूली सी दिखने वाली यह तुलसी हमारे घर या भवन के समस्त 
दोष को दूर कर हमारे जीवन को निरोग एवम सुखमय बनाने में सक्षम है माता के 
समान सुख प्रदान करने वाली तुलसी का वास्तु शास्त्र में विशेष स्थान है।

हम ऐसे समाज में निवास करते है कि सस्ती वस्तुएं एवम सुलभ सामग्री को शान 
के विपरीत समझने लगे है।
महंगी चीजों को हम अपनी प्रतिष्ठा मानते है।
कुछ भी हो तुलसी का स्थान हमारे शास्त्रों में पूज्यनीय देवी के रूप में है तुलसी को 
मां शब्द से अलंकृत कर हम नित्य इसकी पूजा आराधना भी करते है।

इसके गुणों को आधुनिक रसायन शास्त्र भी मानता है।
इसकी हवा तथा स्पर्श एवम इसका भोग दीर्घ आयु तथा स्वास्थ्य विशेष रूप से 
वातावरण को शुद्ध करने में सक्षम होता है।

शास्त्रानुसार तुलसी के विभिन्न प्रकार के पौधे मिलते है उनमें श्रीकृष्ण तुलसी, 
लक्ष्मी तुलसी,राम तुलसी,भू तुलसी,नील तुलसी,श्वेत तुलसी,रक्त तुलसी, 
वन तुलसी,ज्ञान तुलसी मुख्य रूप से विद्यमान है।

सबके गुण अलग अलग है शरीर में नाक कान वायु कफ ज्वर खांसी और दिल की 
बिमारियों परविशेष प्रभाव डालती है।

वास्तु दोष को दूर करने के लिए तुलसी के पौधे अग्नि कोण अर्थात दक्षिण-पूर्व से 
लेकर वायव्य उत्तर-पश्चिम तक के खाली स्थान में लगा सकते है यदि खाली 
जमीन ना हो तो गमलों में भी तुलसी को स्थान दे कर सम्मानित किया जा सकता है।

तुलसी का गमला रसोई के पास रखने से पारिवारिक कलह समाप्त होती है।
पूर्व दिशा की खिडकी के पास रखने से पुत्र यदि जिद्दी हो तो उसका हठ दूर होता है। 
यदि घर की कोई सन्तान अपनी मर्यादा से बाहर है अर्थात नियंत्रण में नहीं है तो 
पूर्व दिशा में रखे।
तुलसी के पौधे में से तीन पत्ते किसी ना किसी रूप में सन्तान को खिलाने से सन्तान 
आज्ञानुसार व्यवहार करने लगती है।

कन्या के विवाह में विलम्ब हो रहा हो तो अग्नि कोण में तुलसी के पौधे को कन्या 
नित्य जल अर्पण कर एक प्रदक्षिणा करने से विवाह जल्दी और अनुकूल स्थान में 
होता है सारी बाधाए दूर होती है।

यदि कारोबार ठीक नहीं चल रहा तो दक्षिण-पश्चिम में रखे तुलसी कि गमले पर 
प्रति शुक्रवार को सुबह कच्चा दूध अर्पण करे व मिठाई का भोग रख कर किसी 
सुहागिन स्त्री को मीठी वस्तु देने से व्यवसाय में सफलता मिलती है।

नौकरी में यदि उच्चाधिकारी की वजह से परेशानी हो तो ऑफिस में खाली जमीन 
या किसी गमले आदि जहाँ पर भी मिटटी हो वहां पर सोमवार को तुलसी के सोलह 
बीज किसी सफेद कपडे में बाँध कर सुबह दबा दे सम्मान की वृद्धि होगी।

नित्य पंचामृत बना कर यदि घर कि महिला शालिग्राम जी का अभिषेक करती है 
तो घर में वास्तु दोष हो ही नहीं सकता।

अति प्राचीन काल से ही तुलसीपूजन प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर पर होता आया है
तुलसी पत्र चढाये बिना शालिग्राम पूजन नहीं होता।

भगवान विष्णु चढायेप्रसाद,श्राद्धभोजन.देवप्रसाद,चरणामृत व पंचामृत में तुलसी 
पत्रहोना आवश्यक है अन्यथा उसका भोग देवताओं को लगा नहीं माना जाता।

मरते हुए प्राणी को अंतिम समय में गंगाजल के साथ तुलसी पत्र देने से अंतिम
श्वास निकलने में अधिक कष्ट नहीं सहन करना पड़ता तुलसी के जैसी धार्मिक
एवं औषधीय गुण किसी अन्य पादप में नहीं पाए जाते हैं।

तुलसी के माध्यम से कैंसर जैसे प्राण घातक रोग भी मूल से समाप्त हो जाता है
आयुर्वेद के ग्रंथों में ग्रंथों में तुलसी की बड़ी भारी महिमा का वर्णन है इसके पत्ते
उबालकर पीने से सामान्य ज्वर,जुकाम,खांसी तथा मलेरिया में तत्काल रहत
मिलती है तुलसी के पत्तों में संक्रामक रोगों को रोकने की अद्भुत शक्ति है।

सात्विक भोजन पर मात्र तुलसी के पत्ते को रख देने भर से भोजन के दूषित होने
का काल बढ़ जाता है जल में तुलसी के पत्ते डालने से उसमें लम्बे समय तक कीड़े
नहीं पड़ते।

तुलसी की मंजरियों में एक विशेष सुगंध होती है जिसके कारण घर में विषधर सर्प
प्रवेश नहीं करते परन्तु यदि रजस्वला स्त्री इस पौधे के पास से निकल जाये तो यह
तुरंत म्लान हो जाता है अतः रजस्वला स्त्रियों को तुलसी के निकट नहीं जाना चाहिए।

तुलसी के पौधे की सुगंध जहाँ तक जाती है वहाँ दिशाओं व विदिशाओं को पवित्र करता
है एवं उदभिज,श्वेदज,अंड तथा जरायु चारों प्रकार के प्राणियों को प्राणवान करती हैं अतः
अपने घर पर तुलसी का पौधा अवश्य लगाएं तथा उसकी नियमित पूजा अर्चना भी करें।
आपके घर के समस्त रोग दोष समाप्त होंगे।

पौराणिक ग्रंथों में तुलसी का बहुत महत्व माना गया है।
जहां तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है,वहीं तुलसी पूजन
करना मोक्षदायक माना गया है।
हिन्दू धर्म में देव पूजा और श्राद्ध कर्म में तुलसी आवश्यक मानी गई है।

शास्त्रों में तुलसी को माता गायत्री का स्वरूप भी माना गया है।
गायत्री स्वरूप का ध्यान कर तुलसी पूजा मन,घर-परिवार से कलह व दु:खों का अंत
कर खुशहाली लाने वाली मानी गई है।
इसके लिए तुलसी गायत्री मंत्र का पाठ मनोरथ व कार्य सिद्धि में चमत्कारिक भी
माना जाता है।

तुलसी गायत्री मंत्र व पूजा की आसान विधि -

- सुबह स्नान के बाद घर के आंगन या देवालय में लगे तुलसी के पौधे की गंध,फूल,
लाल वस्त्र अर्पित कर पूजा करें।
फल का भोग लगाएं।
धूप व दीप जलाकर उसके नजदीक बैठकर तुलसी की ही माला से तुलसी गायत्री मंत्र
का श्रद्धा से सुख की कामना से कम से कम 108 बार स्मरण अंत में तुलसी की
पूजा करें -

ॐ श्री तुलस्यै विद्महे। विष्णु प्रियायै धीमहि।
तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।।

जय तुलसी मैय्या

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,जयति पुण्य भूमि भारत,,
सदा सुमंगल,,,ॐ नमो भगवते वासुदेवाय,,,

उसकी कोई मांग नहीं हो सकती

वानप्रस्थ का अर्थ था कि अब उसकी नजर फिर जंगल की तरफ। जंगल से ही शुरू हुई थी उसकी यात्रा, अब वह फिर जंगल की तरफ देखने लगा। लेकिन अभी जंगल चला नहीं जाता था, क्योंकि उसके बच्चे पच्चीस वर्ष के होकर गुरुकुल से वापस लौट रहे होंगे। और अभी बाप एकदम छोड्कर चला जाए, तो बच्चे बिलकुल मुश्किल में पड़ जाएंगे। उन्हें भीतर का तो थोड़ा—सा अनुभव हुआ है, लेकिन बाहर के उपद्रव के जाल की शिक्षा भी चाहिए।

तो बाप घर रुकता था, पच्चीस वर्ष। पचहत्तर वर्ष की उम्र तक वह घर रुकता। उसका मुख जंगल की तरफ होता; वह घर से अपना डेरा उखाड़ने लगता। लेकिन बच्चे लौटते हैं आश्रम से, उनको इस संसार की जो व्यवस्था है, इसका जो उसका अपना अनुभव है, वह उसे दे देना है। और जब वह पचहत्तर साल का होता, तो वह संन्यस्त हो जाता। वह वापस जंगल में लौट जाता। क्योंकि जब वह पचहत्तर साल का होता, तब उसके बच्चे पचास साल के करीब पहुंचने लगते। उनके वानप्रस्थ होने का वक्त आ जाता।

यह जो पचहत्तर साल की अवस्था में संन्यस्त होकर चले जाते लोग, ये गुरु हो जाते। छोटे बच्चे इनके पास पहुंचते। ऐसा हमारा वर्तुल था। जो सारे जीवन की सब अवस्थाओं को देखकर लौट आया है जंगल में, उसके पास हम अपने छोटे बच्चों को भेज देते थे कि उससे वे जीवन का सार और जीवन की कुंजी लेकर आ जाएं।

शिक्षक और विद्यार्थी के बीच इतना फासला तो होना ही चाहिए। आज जगत में बड़ी असुविधा है, क्योंकि शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई सम्मान का भाव नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि फासला बिलकुल नहीं है। कई बार तो ऐसा है कि हो सकता है विद्यार्थी ज्यादा अनुभवी हो शिक्षक से। और अगर थोड़ा बहुत फासला भी है तो वह इतना इंच दो इंच का है कि उसमें कोई आदरभाव पैदा नहीं होता।

लेकिन एक पचहत्तर साल का बूढ़ा, जिसने जीवन के ब्रह्मचर्य का, गार्हस्थ का, वानप्रस्थ होने का और संन्यस्त होने का सारा अनुभव संजो लिया है, जब छोटे बच्चे उसके पास जाते तो उन्हें लगता कि वे किसी हिमाच्छादित शिखर के पास आ गए हैं। उसकी चोटी बड़ी ऊंची होती, आकाश छूती! वहा सम्मान सहज होता।

लोग कहते हैं, गुरु का आदर करना चाहिए। और मैं कहता हूं जिसका आदर करना ही पड़े, वही गुरु है। करना चाहिए का कोई सवाल नहीं उठता। और जहां करना चाहिए का सवाल उठता है, वहां कोई आदर हो नहीं सकता। आदर कोई थोपा नहीं जा सकता, उसकी कोई मांग नहीं हो सकती।

ऐसा अनूठा प्रयोग पृथ्वी पर फिर कभी दुबारा नहीं हुआ

तो हम दूसरे चरण में उसे गृहस्थ बनाते थे। ऐसा अनूठा प्रयोग पृथ्वी पर फिर कभी दुबारा नहीं हुआ। और जब तक यह प्रयोग दुबारा नहीं होता, पृथ्वी अत्यंत दुख और पीड़ा से भरी रहेगी।

बाहर जाने के पहले भीतर पैर मजबूती से जम जाने चाहिए। धन पर हाथ पड़े इसके पहले स्वयं की संपदा का अनुभव हो जाना चाहिए। फिर धन साधन होगा। फिर हम उसका उपयोग कर लेंगे, लेकिन धन फिर हमारा मालिक न हो पाएगा।

तो ब्रह्मचर्य के बाद हम भेजते थे उसे गृहस्थ में, कि जाए घर में, विवाह करे, संतति हो उसकी। संसार को देखे, संसार को जीए। लेकिन यह व्यक्ति और ढंग से जीता था। इसके जीने का गुण ही अलग था। क्योंकि यह व्यक्ति साक्षी हो पाता था। हम साक्षी नहीं हो पाते, हम भोक्ता हो जाते हैं।

भोक्ता होना पीड़ा है। साक्षी होना परम आनंद है। और साक्षी को अगर हम नर्क में भी डाल दें, तो भी दुख में नहीं डाल सकते। और भोक्ता को हम स्वर्ग में भी रख दें, तो भी हम दुख के बाहर नहीं ले जा सकते। भोगी मन दुखी होगा ही। क्योंकि भोगी मन के लक्षण हैं कुछ। भोगी मन का पहला लक्षण तो यह है कि जो भी मिल जाए वह कम मालूम होता है। भोगी मन का दूसरा लक्षण यह है कि उसे जो भी मिल जाए वह व्यर्थ मालूम होता है; जो नहीं मिलता वही सार्थक मालूम होता है। भोगी मन का तीसरा लक्षण यह है कि उसकी वासना अनंत होती है और वासना की पूर्ति के साधन सदा सीमित हैं।

इसलिए भोगी मन को कभी भी किसी तरह के सुख में प्रविष्ट कराना असंभव है। वह हर जगह दुखी होगा। दुख उसके भीतर पैदा होता है। हर चीज उसके दुख में रंग जाती है।

साक्षी को दुखी करना असंभव है। क्योंकि साक्षी के भी वैसे ही लक्षण हैं। साक्षी का पहला लक्षण तो यह है कि जो भी घटना घटती हो, वह उससे अपने को पृथक मानता है। जो भी घट रहा हो, वह उससे. अपने को फासले पर देखता है। वह जानता है कि मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो अगर दुख घट रहा है तो वह दुख का भी देखने वाला है। वह दुख के साथ एक नहीं हो पाता। और जब तक आप दुख के साथ एक न हों, तब तक दुखी नहीं हो सकते।

साक्षी मन का दूसरा लक्षण है कि जो भी मिल जाए वह उसके लिए अनुगृहीत होता है। जो भी मिल जाए, वह उसे परमात्मा की अनुकंपा मानता है। जो भी मिल जाए, वह उसे अपने कर्तृत्व का फल नहीं मानता, उसकी अनुकंपा मानता है। क्योंकि साक्षी कर्ता तो बनता ही नहीं, इसलिए वह यह तो कह ही नहीं सकता कि मैंने किया इसलिए मुझे मिला! वह सदा यही कहता है कि मैंने तो कुछ भी नहीं किया और यह सब मुझे मिला, इसलिए मैं अनुगृहीत हूं। उसके अनुग्रह की कोई सीमा नहीं है। उसके धन्यवाद का, आभार का अहोभाव अनंत है। इसे समझ लें।

साक्षी का मतलब ही यह है कि वह जानता है, मैंने कभी कुछ नहीं किया। मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो जो कुछ भी हुआ है, वह मेरे द्वारा नहीं हुआ है, उसमें मैं कर्ता नहीं हूं। इसलिए जो भी हो जाए, वह प्रभु की अनुकंपा है।

साक्षी से सुख को छीनना असंभव है। साक्षी उस कला को जानता है, जिससे उसके चारों तरफ सुख फैलता है। जैसे मकड़ी अपने भीतर से जाले को निकालकर निर्मित करती है, वैसा ही भोक्ता अपने चारों तरफ दुख का जाल निर्मित करता है और साक्षी अपने चारों तरफ सुख का जाल निर्मित करता है।

फिर साक्षी की कोई वासना नहीं है। क्योंकि जब मैं कर्ता हो ही नहीं सकता, तो करने की कोई कामना व्यर्थ है। और जिसकी कोई वासना नहीं है, जिसकी कोई अपेक्षा नहीं है, उसे आप कभी भी दुखी नहीं कर सकते। दुख आता है अपेक्षा के टूटने से।

मैंने सुना है कि एक आदमी बहुत उदास और दुखी बैठा है। उसकी एक बड़ी होटल है। बहुत चलती हुई होटल है। और एक मित्र उससे पूछता है कि तुम इतने दुखी और उदास क्यों दिखाई पड़ते हो कुछ दिनों से? कुछ धंधे में कठिनाई, अड़चन है? उसने कहा, बहुत अड़चन है। बहुत घाटे में धंधा चल रहा है। मित्र ने कहा, समझ में नहीं आता, क्योंकि इतने मेहमान आते—जाते दिखाई पड़ते हैं! और रोज शाम को जब मैं निकलता हूं तो तुम्हारे दरवाजे पर होटल के तख्ती लगी रहती है नो वेकेंसी को, कि अब और जगह नहीं है, तो धंधा तो बहुत जोर से चल रहा है! उस आदमी ने कहा, तुम्हें कुछ पता नहीं। आज से पंद्रह दिन पहले जब सांझ को हम नो वेकेंसी की तख्ती लटकाते थे, तो उसके बाद कम से कम पचास आदमी और द्वार खटखटाते थे। अब सिर्फ दस—पंद्रह ही आते हैं। पचास आदमी लौटते थे पंद्रह दिन पहले; जगह नहीं मिलती थी। अब सिर्फ दस—पंद्रह ही लौटते हैं। धंधा बड़ा घाटे में चल रहा है।

अपेक्षा से भरा हुआ चित्त निश्चित ही दुखी होगा।

मैं एक घर में मेहमान था। गृहिणी ने मुझे कहा कि आप मेरे पति को समझाइए कि इनको हो क्या गया है। बस, निरंतर एक ही चिंता में लगे रहते हैं कि पाच लाख का नुकसान हो गया। पत्नी ने मुझे कहा कि मेरी समझू में नहीं आता कि नुकसान हुआ कैसे! नुकसान नहीं हुआ है। मैंने पति को पूछा। उन्होंने कहा, हुआ है नुकसान, दस लाख का लाभ होने की आशा थी, पांच का ही लाभ हुआ है। नुकसान निश्चित हुआ है। पांच लाख बिलकुल हाथ से गए।

अपेक्षा से भरा हुआ चित्त, लाभ हो तो भी हानि अनुभव करता है। साक्षीभाव से भरा हुआ चित्त, हानि हो तो भी लाभ अनुभव करता है। क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया, और जितना भी मिल गया, वह भी परमकृपा है, वह भी अस्तित्व का अनुदान है।

तो गृहस्थ हम बनाते थे व्यक्ति को, जब वह भीतर के साक्षी की थोड़ी—सी झलक पा लेता था। फिर पत्नी होती थी, लेकिन वह कभी पति नहीं हो पाता था। फिर बच्चे होते थे, वह उनका पालन करता था, लेकिन कभी पिता नहीं हो पाता था। मकान बनाता था, दुकान चलाता था, लेकिन सब ऐसे जैसे किसी नाटक के मंच पर अभिनय कर रहा हो। और प्रतीक्षा करता था उस दिन की, कि वह जो भीतर की यात्रा पच्चीस वर्ष की उम्र में अधूरी छूट गई थी, जल्दी से उसे पूरा करने का कब अवसर मिले। तो पचास वर्ष की उम्र में वह वानप्रस्थ हो जाता था।

यह शब्द बड़ा अनूठा है

सिर्फ भारत ने एक अनूठा प्रयोग किया था कि इसके पहले कि भीड़ पकड़ ले और आदमी बाहर की तरफ बहने लगे, हम उसे गुरुकुल भेज देते थे, ताकि वह उन लोगों के सान्निध्य में बैठ जाए जो भीतर की तरफ बह रहे हैं। उस हवा में वह भी भीतर की तरफ बह पाए। और थोड़ा—सा उसे बोध हो जाए, थोड़ा संगीत सुनाई पड़ने लगे, थोड़ो भीतर की वीणा बज उठे, फिर हम उसे संसार में भेज देते थे, निर्भीक।

हमने इस देश में जीवन के चार चरण किए थे। पहले चरण को हमने ब्रह्मचर्य कहा था। यह शब्द बड़ा अनूठा है। इस शब्द का अर्थ है—ईश्वर जैसी चर्या। ब्रह्म जैसी चर्या। ब्रह्म जैसा आचरण। यह शब्द उतना छोटा नहीं है जैसा कि लोगों ने इसे मान रखा है। लोग तो समझते हैं कि शायद वीर्य का निरोध ब्रह्मचर्य है। यह बड़ी क्षुद्र व्याख्या है। वीर्य का निरोध तो सहज हो जाता है। लेकिन ईश्वर जैसी चर्या अगर हो, तो वीर्य का निरोध तो छाया की भांति पीछे चला आता है। वह कोई मौलिक, वह कोई आधारभूत बात नहीं है। वह तो जो बाहर की तरफ दौड़ रहा है, उसका ही वीर्य भी बाहर की तरफ दौडता है। जो भीतर की तरफ चलने लगा, उसके वीर्य की गति भी अंतर्मुखी हो जाती है।

ईश्वर जैसी चर्या का अर्थ है—जिसकी जीवन—चेतना भीतर, और भीतर, और भीतर की तरफ जा रही है। केंद्र की तरफ जाती हुई चेतना का नाम ब्रह्मचर्य है। अपने से बाहर जाती चेतना का नाम अब्रह्मचर्य है। दूसरे की तरफ जाती हुई चेतना का नाम कामवासना है। अपनी तरफ जाती हुई चेतना का नाम ब्रह्मचर्य है। पच्चीस वर्ष के लिए हम युवकों को भेज देते थे गुरुकुल में, ताकि वे भीतर की तरफ बहना सीखें। इसके पहले कि संसार का स्वाद उन्हें आए वे परमात्मा का थोड़ा—सा स्वाद ले लें। फिर कोई डर नहीं है। फिर संसार उन्हें कभी भी भुला न सकेगा। फिर वह याद बनी ही रहेगी। फिर वह भीतर की पुकार जारी ही रहेगी। फिर भीतर कोई धुन बजती ही रहेगी। और धन फिर कितनी ही आवाज करे, उस भीतर की आवाज को दबाना मुश्किल होगा।

स्त्रियां पुरुषों को कितना ही आकर्षित करें, या पुरुष स्त्रियों को कितना ही आकर्षित करें, वह आकर्षण फीका ही रहेगा। जिसने एक बार भी भीतर के पुरुष या भीतर की स्त्री का दर्शन कर लिया, उसके लिए बाहर फिर छायाएं हैं, फिर बाहर तस्वीरें हैं, फिर बाहर कुछ भी वास्तविक नहीं है। फिर कोई आकर्षण बाहर नहीं है। फिर कोई खींच नहीं सकता। तब हम मानते थे व्यक्ति को इस योग्य कि वह अब संसार में जाए।

बड़ी अजीब बात है। संसार के बाहर का अनुभव ले-ले, फिर संसार में जाए। प्रयोजन कीमती था। फिर कोई संसार में जाता था तो भी संसार उसके भीतर नहीं पहुंच पाता था। जिसने भीतर की थोड़ी—सी भी समझ पैदा कर ली, वह संसार से फिर अछूता निकल जाता था। वह चलता था इस नदी में, लेकिन उसके पैरों में पानी नहीं छूता था। फिर वह गुजरता था इन्हीं सब जगहों से, जहां से आप गुजरते हैं, लेकिन वह गुजर जाता था एक मेहमान की तरह। यह घर उसके लिए धर्मशाला ही होता था। यह परिवार उसके लिए एक नाटक से ज्यादा मूल्य नहीं रखता था। जो भी जरूरी था, वह करता था। लेकिन कोई भी ऐसी वासना नहीं थी जो विक्षिप्तता बन जाए।

मस्तिष्क सब कुछ अनुभव करता है


देलगादो ने रेडियो के द्वारा दूर से लोगों के मन को संचालित करने के प्रयोग किए हैं। तो उसने एक सांड को, उसके मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड डाल दिए… और आप जानकर चकित होंगे कि आपके मस्तिष्क के भीतर अगर कोई चीज डाल दी जाए तो आपको पता नहीं चलेगा। वहां कोई संवेदना नहीं है। अगर आपके ब्रेन की सर्जरी की जाए और वहा कोई चीज छोड़ दी जाए—लोहे का एक टुकड़ा—तो आपको कभी पता नहीं चलेगा कि वहा लोहे का टुकड़ा पड़ा है। क्योंकि आपके मस्तिष्क में संवेदन अनुभव करने वाले कोई स्नायु नहीं हैं।

यह बड़ी हैरानी की बात है कि मस्तिष्क सब कुछ अनुभव करता है, लेकिन भीतर उसके पास कोई स्नायु नहीं हैं। इसलिए तो आपको मस्तिष्क के भीतर क्या चल रहा है, उसका पता नहीं चलता। बहुत बड़ा

काम चल रहा है। बड़ी फैक्ट्री है। कोई सात करोड़ स्नायु हैं। चौबीस घंटे वहां विद्युत की तरह भाग—दौड़ चल रही है। आपको पता नहीं चलता है।

एक सांड के मस्तिष्क में देलगादो ने एक इलेक्ट्रोड रख दिया और उस इलेक्ट्रोड का संबंध उसके रेडियो से है। और वह उस रेडियो के द्वारा उस सांड को संचालित करने लगा। जब वह रेडियो में उस बटन को दबाएगा जिससे सांड को क्रोध आना चाहिए, तो सांड एकदम फुफकार मारकर क्रोध से भर जाएगा। बीच में तार भी नहीं जुड़ा है, वायरलेस से संबंधित है। हजारों मील दूर भी बैठा हो देलगादो तो वहां से वह सांड कों—सांड माउंट आबू में हो और देलगादो अमरीका में—तो वहां से वह उसको क्रोधित कर सकता है। सिर्फ बटन दबाने की बात है कि वह क्रोध में आ जाएगा; फुफकार मारेगा और जो भी आसपास होगा, हमला कर देगा।

उसने जब अपने प्रयोग का प्रदर्शन किया यूरोप में—स्पेन में—तो लोग चकित हो गए। लाखों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। सांड फुफकार मारकर भागा, क्योंकि देलगादो भी था वहां मैदान में। वह हाथ में अपना रेडियो लिए खड़ा हुआ है। वह ठीक उसके पास आ गया, एकदम घबड़ाहट का क्षण था, कि वह अपने सींग घुसेड़ देगा उसके पेट में, तभी उसने बटन दबाई। साड वहीं शांत हो गया, एक फीट दूरी पर। खड़ा हो गया, जैसे एकदम ध्यान में चला गया!

यह इतनी खतरनाक स्थिति है कि इसका आज नहीं कल राजनीतिज्ञ उपयोग करेंगे। बच्चों को अस्पताल में पैदा होने के साथ ही इलेक्ट्रोड डाले जा सकते हैं, जिनका उनको कभी पता नहीं चलेगा। सिर्फ दिल्ली से बटन दबाने की जरूरत है कि सब लोग कहेंगे—झंडा ऊंचा रहे हमारा!

जरूर तानाशाही हुकूमतें इसका उपयोग करेंगी। कि मुल्क भूखा मर रहा हो तो भी कोई फिक्र नहीं। लेकिन मुल्क के अगर सुख के संवेदन को संचालित किया जा सके, तो भूखे लोग भी आनंद से भर जाएंगे। कितने ही आप सुखी हों, अगर आपके दुख के केंद्र को संचालित किया जा सके, आप तज्‍क्षण दुखी हो जाएंगे। तो सुख—दुख भी आपकी आत्मा की खबर नहीं देते। सिर्फ आपके यांत्रिक मस्तिष्क की खबर देते हैं। सिर्फ एक ही संभावना है जिससे आदमी यंत्रवत नहीं है, और सभी स्थितियों में हम यंत्रवत हैं। शरीर है भी यंत्र, लेकिन उसके भीतर जो छिपा है, वह यंत्र नहीं है। शरीर है भी एक बहुत काप्लिकेटेड, बहुत सूक्ष्म नाजुक यंत्र। मालिक भीतर छिपा है।

नचिकेता पूछता है कि यह मेरा तीसरा वरदान है कि मैं जानना चाहता हूं कि जब यह सारा यंत्र—शरीर गिर जाएगा, तब भी मैं बचता हूं या नहीं? संशय है बहुत, क्योंकि कुछ कहते हैं कि कोई बचता है पीछे; और कुछ कहते हैं, कोई भी नहीं बचता।

यमराज को विचार हुआ कि अनधिकारी के प्रति आत्मतत्व का उपदेश करना हानिकर होता है

यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। अनधिकारी के प्रति, अपात्र के प्रति आत्मतत्व का उपदेश हानिकर होता है। असल में जो अनधिकारी है, वह सत्य का उपयोग भी हानि के लिए ही करेगा। जो अधिकारी है वह असत्य का उपयोग भी कल्याण के लिए करेगा।

मनोवैज्ञानिकों की खोज बड़ी हैरान करने वाली है

आत्मा की अमरता, आत्मा का शेष रहना शरीरे के पार, आत्मा का अतिक्रमण करना शरीर को; दीया मिट जाए लेकिन ज्योति बचती है; यह सवाल नचिकेता उठाता है। नचिकेता कहता है, बड़ा संशय है। कोई कहता है कि आत्मा बचती है और कोई कहता है कि आत्मा नहीं बचती। मृत्यु के बाद क्या होता है? यही मेरा तीसरा वर है, यही मैं जान लेना चाहता हूं।

यही प्रत्येक जान लेना चाहता है। अगर मृत्यु के बाद कुछ बचता है, तो अभी भी आपके भीतर कुछ है। और अगर मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं बचता, तो अभी ची आपके भीतर कुछ भी नहीं है। अभी भी आप खाली, कोरे, एक यंत्रवत। एक यंत्र से ज्यादा नहीं हैं। आप अभी भी नहीं हैं—अगर मृत्यु के बाद आप नहीं बचेंगे। तो धोखा है, आपको सिर्फ खयाल है कि आप हैं—अगर आप पदार्थ का एक जोड़ हैं, और एक रासायनिक व्यवस्था हैं, और एक यंत्र की भाति चल रहे हैं।

एक कार चल रही है, एक घड़ी चल रही है, एक मशीन चल रही है, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि मशीन है। मशीन सिर्फ एक जोड़ है। कल—पुर्जे अलग कर लेंगे, कुछ भी पीछे बचेगा नहीं।

आदमी भी क्या एक जोड़ है, कि सारे कल—पुर्जे अलग कर लें तो भीतर कुछ भी न बचे? क्योंकि मृत्यु कल—पुर्जे अलग करेगी। और अगर भीतर कुछ भी नहीं बचता, आप सिर्फ एक जोड़ है—तो आप थे ही नहीं। आपका होना ही नहीं है। आप सिर्फ खयाल में हैं। एक वहम है होने का।

न तो आपकी बुद्धि से पता चलता है कि आपके भीतर आत्मा है। क्योंकि आप जितनी बुद्धिमानी का काम करते हैं, उससे ज्यादा बुद्धिमानी का काम करने वाले यंत्र, कंप्यूटर खोज लिए गए हैं। आप जितनी कुशलता से काम करते हैं, उससे कुछ आत्मा का पता नहीं चलता, क्योंकि यंत्र की कुशलता आप नहीं पा सकते। यंत्र ज्यादा कुशल है। और इसलिए जहा भी ज्यादा कुशलता की जरूरत होती है, वहां आदमी का भरोसा नहीं किया जा सकता। वहा यंत्र का भरोसा करना होता है।

आपकी खूबी क्या है? कि आप गणित कर लेते हैं? कि आप भाषा बोल लेते हैं? ये सब काम यंत्र कर सकते हैं। उन्होंने करीब—करीब करना शुरू कर दिया है। आदमी की विशिष्टता, यंत्रों से, इसमें नहीं है कि वह बुद्धिमान है ‘ आइंस्टीन भी जो काम कर रहा है, वह काम भी उससे ज्यादा कुशलता से एक कंप्यूटर कर सकता है। तो फिर आपका मस्तिष्क एक यंत्र, कंप्यूटर से ज्यादा नहीं है। आप भी एक यंत्र हैं।

आदमी बच्चे पैदा करता है। लेकिन अभी वैज्ञानिकों ने ऐसे यंत्र विकसित किए हैं, जो अपने बच्चे पैदा कर सकते हैं। यंत्र खुद ही अपने जैसा यंत्र अपने भीतर से पैदा कर सकता है, निर्मित कर सकता है। तब फिर वह भी कोई बड़ी बात नहीं रह गई। यंत्र अपने जैसा यंत्र स्वयं ही निर्मित कर सकता है, आटोमैटिक। और ऐसी भी व्यवस्था की गई है कि वह आने वाले यंत्र में, जो उससे पैदा होगा, अपने से श्रेष्ठता लाए। और इस तरह हर यंत्र जो उससे पैदा होगा, और आगे पैदा होगा, वह पिछले से श्रेष्ठ होता चला जाएगा। आपका बेटा जरूरी नहीं है कि आपसे श्रेष्ठ हो। अक्सर तो ऐसा नहीं होता। अच्छे बाप अक्सर बुरे बेटों को जन्म देते हैं। यंत्र में ऐसी आंतरिक व्यवस्था की जा सकी है कि वह जो यंत्र पैदा करे, उससे श्रेष्ठ हो। जो —जो उसमें भूल—चूक थीं, वह उसमें न हों। फिर उसके बाद वह जो यंत्र पैदा करेगा, वह और भी श्रेष्ठ होगा। और एक ऐसी जगह आ सकती है कि यंत्र पैदा करते—करते श्रेष्ठतम यंत्र को पैदा कर दे, जो कि आदमी अभी तक सफल नहीं हुआ है।

और आप जिनको सुख—दुख कहते हैं, वे भी सारी यांत्रिक घटनाएं हैं।

स्किनर एक बहुत बड़ा मनसविद है। स्किनर ने बहुत से प्रयोग किए हैं जिनमें आपके सुख—दुख यांत्रिक हैं, इसकी खोज की है। मनुष्य जिस सुख को गहरा से गहरा जानता है, वह संभोग का सुख है। लेकिन स्किनर, देलगादो और दूसरे मनोवैज्ञानिकों की खोज बड़ी हैरान करने वाली है।

चूहों पर स्किनर और उसके मित्र काम कर रहे थे। उन्होंने मस्तिष्क में वे बिंदु खोज लिए हैं जहां सुख का अनुभव होता है—प्लेजर प्याइंट्स, और वे भी बिंदु खोज लिए हैं जहां दुख का अनुभव होता है। तो बिजली का तार जोड़ देते हैं जहां सुख का अनुभव होता है। और उस बिंदु को अगर बिजली से छेड़ा जाए, तो बड़ा सुख मालूम होता है। दुख का बिंदु जोड़ दिया जाए इलेक्ट्रोड से, तो बड़ा दुख मालूम होता है। एक चूहे पर स्किनर प्रयोग कर रहा था। और संभोग के क्षण में चूहे को जो रस और आनंद मालूम होता है, वह मस्तिष्क के किस हिस्से में मालूम होता है उस हिस्से का उसने अध्ययन किया, और उस हिस्से में उसने बिजली से तार जोड़ दिया। और चूहे को बटन बता दी, बटन दबाकर। और जैसे ही बटन दबाई, चूहा बड़ा आनंदित हुआ। फिर तो चूहे ने खुद बटन दबाना सीख लिया। आप चकित होंगे कि एक घंटे में चूहे ने पांच हजार बार बटन दबाई। पांच हजार! रुका ही नहीं, जब तक कि बेहोश होकर नहीं गिर पड़ा। स्किनर का कहना है कि आने वाली सदी में हम हर आदमी के खीसे में रखने वाला छोटा यंत्र दे देंगे। पुरुष को स्त्री की जरूरत नहीं है, स्त्री को पुरुष की जरूरत नहीं है। जब भी वह कामसुख पाना चाहे, जरा—सा बटन को दबाए उसके मस्तिष्क का सुख—केंद्र संचालित हो जाएगा। रास्ते पर चलते हुए आप संभोग करते चले जाएंगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा। और संभोग के लिए जो उपद्रव झेलने पड़ते हैं—घर—गृहस्थी बसाओ; एक स्त्री की परेशानी भोगो; एक पति का उपद्रव झेलो—वह कुछ भी नहीं। आप पूरी तरह मालिक हो जाते हैं।

ठीक ऐसे ही दुख के केंद्र भी मस्तिष्क में हैं। स्किनर कहता है कि वे काटकर अलग किए जा सकते हैं। कोई दुख अनुभव ही नहीं होगा। आप सोचते हैं कि दुख इसलिए अनुभव होता है कि दुख है, तो आप गलती में हैं। सिर्फ आपके पास दुख का केंद्र है, वह अलग कर दिया जाए, आपको दुख अनुभव नहीं होता। जब आपको मारफिया दिया जाता है, या क्लोरोफार्म दिया जाता है, तो दुख का केंद्र आच्छादित हो जाता है। इसीलिए फिर आपका हाथ—पैर भी काटा जाए तो आपको पता नहीं चलता। आपको कोई मार भी डाले तो पता नहीं चलता।

ये सारे केंद्र यांत्रिक हैं। और आप जानकर हैरान होंगे कि ये नई खोजें आदमी को बड़ी खतरनाक स्थिति में ले जाएंगी।

अपने साधारण से शब्दों में बड़े प्यार से उत्तर देता है

अपनी शादी के पहले दिन पति और पत्नी के बीच शर्त रखी जाती है कि किसी के लिए भी दरवाजा नहीं खोला जायेगा !
उसी दिन उस लड़के के माता पिता आये और अन्दर जाने के लिए दरवाजा खट खटाया !
..
पति पत्नी एक दुसरे की तरफ देखते है।
...
पति अपने माता पिता के लिए दरवजा खोलना चाहता है लेकिन उसे शर्त याद आ जाती है। वह दरवाज़ा नहीं खोलता है ओर उसके माता पिता चले जाते है ।
...
कुछ समय के बाद उसी दिन लड़की के माता पिता आते है और अन्दर जाने के लिए दरवाजा ख़त खटाते है ।
..
...
पति पत्नी फिर एक दुसरे की तरफ देखते है और उस समय भी वो शर्त याद करते है ।
..
पत्नी की आँखों में आंसू आ जाते हे वो अपने आंसू पूछते हुए कहती हे : मै अपने माता पिता के लिए ऐसा नहीं कर सकती और दरवाजा खोल देती है ।
..
पति कुछ नहीं कहता है ।।
..
कुछ समय के बाद उनके दो पुत्र जन्म लेते है ।
...
इसके बाद उनको तीसरा बच्चा होता है जो एक लड़की (बेटी) होती है ।।
..
वह पति अपनी पुत्री के जन्म लेने के अवसर पर एक बहुत बड़ी और शानदार पार्टी का आयोजन करता है और अपने सभी दोस्तों और रिश्तेदारों को बुलाता है ।
..

फिर उसकी पत्नी उससे पूछती है कि क्या कारण था जो उसने बेटी के जन्म पर इतनी बड़ी पार्टी का आयोजन किया जबकि इससे पहले दोनों बेटों के जन्म पर ऐसा कुछ नहीं किया ।।
...
पति अपने साधारण से शब्दों में बड़े प्यार से उत्तर देता है :
क्योकि यही वो है जो एक दिन मेरे लिए दरवाजा खोलेगी ।।

Monday 22 September 2014

जीवन की कुंजी की खोज कर रहे हैं।


सारी साधुता एक ही धारणा पर टिकी है कि शरीर के साथ सब समाप्त नहीं होता। और जीवन का अर्थ इसी बात पर निर्भर है कि शरीर जब गिरता है तो कुछ बिना गिरा भी शेष रह जाता है। शरीर जब मिटता है मिट्टी में, तो सभी कुछ मिट्टी में नहीं गिरता। कुछ मेरे भीतर, कोई ज्योति, किसी और यात्रा पर निकल जाती है। मैं बचता हूं किसी अर्थों में।

अगर मैं बचता हूं तो ही मेरे जीवन का भेद बचता है। अगर मैं ही नहीं बचता, तो क्या भेद है? फिर तो शायद जिन्हें हम बुरा कहते हैं वे ही ज्यादा समझदार हैं। जिन्हें हम भला कहते हैं वे नासमझ हैं।

अगर आत्मा भी मरणधर्मा है, तो साधु मूढ़ हैं, ध्यानी अज्ञानी हैं। मंदिरों में पागलों की जमात है। क्योंकि वे जो भी कर रहे हैं, वह किसी अर्थ का नहीं है। फिर आप प्रार्थना करें या जुआ खेलें, बराबर है।

आत्मा अगर बचती है शरीर के बाद, तो ही मंदिर और गुरुद्वारा; और वेद कुछ अर्थ रखते हैं। महावीर, बुद्ध, कृष्ण में कुछ भेद है, कुछ राज है उनके पास। वे किसी महान जीवन की कुंजी की खोज कर रहे हैं।

लेकिन अगर शरीर के साथ सब समाप्त हो जाता है, तो कैसी कुंजी और किसकी खोज! तब जीवन एक व्यर्थ दौड़धूप

फिर सत्य और असत्य में क्या भेद है?

छोटे बच्चे छोटी—छोटी चीजों पर लड़ते हैं। बड़े—बूढ़े भी कुछ बड़ी चीजों पर लड़ते हुए मालूम नहीं पड़ते। छोटी ही उनकी लड़ाइयां हैं। लेकिन उम्र बड़ी होने के कारण अपनी छोटी बातो को वे बड़ा करके दिखलाते है

यह मैं बड़ा हूं यह खोज ही बचकानी है। मगर बड़े इस बचकानी खोज के लिए तर्क देते हैं। वे ढंग से बताते हैं। वे ऐसा नहीं कहते कि मैं बड़ा हूं। ऐसा कहना बहुत छोटापन मालूम पड़ेगा। वे कहते हैं, मेरा राष्ट्र महान है। लेकिन मेरा राष्ट्र महान क्यों है? क्योंकि मैं इस राष्ट्र में पैदा हुआ हूं। मेरी वजह से। मैं अगर पाकिस्तान में पैदा होता, तो पाकिस्तान महान होता। और मैं अगर अफगानिस्तान में पैदा होता, तो अफगानिस्तान महान होता। जहां मैं हूं वही राष्ट्र महान होता है। मेरा धर्म महान है। मेरा शास्त्र, मेरी गीता, मेरे पुराण, मेरे तीर्थंकर, मेरे भगवान, मेरे अवतार, वे बड़े हैं। उनके पीछे आड़ में हम बड़े हो जाते हैं। और यह पागलपन सारी दुनिया में सभी के ऊपर है।

ऐसा लगता है, मनुष्यता अभी तक प्रौढ़ नहीं हुई। पूरी मनुष्यता की औसत उम्र दस साल के करीब है। इसलिए इतने युद्ध होते हैं, इतनी मूढ़ताएं होती हैं। निपट अज्ञान से भरा हुआ सारा व्यवहार है।

अगर बूढ़े बचकाना व्यवहार करते हैं, तो कभी—कभी कोई बच्चा वृद्धों जैसा गौरवपूर्ण व्यवहार भी करता है। वह दूसरी संभावना ही नचिकेता का सार है। अब हम सूत्र में प्रवेश करें—

नचिकेता तीसरा वर मांगते हुए कहता है : मरे हुए मनुष्य के विषय में यह संशय है— कोई तो यों कहते हैं कि मरने के बाद आत्मा रहता है। और कोई ऐसा कहते हैं कि नहीं रहता है। आपके द्वारा उपदेश पाया हुआ मैं इसका निर्णय भलीभांति समझ लूं यही तीनों वरों में तीसरा वर है
सारे धर्म की खोज यही है। इस एक बिंदु पर ही सारे धर्मों का अंतस्तल टिका हुआ है कि क्या शरीर की मृत्यु मनुष्य की मृत्यु है? क्या मर जाने के बाद सभी कुछ मर जाता है, या कुछ शेष रहता है? और यह इतना केंद्रीय सवाल है कि इस पर सभी कुछ निर्भर है। जीवन के सारे मूल्य, जीवन का सारा अर्थ, प्रयोजन, अभिप्राय, जीवन की सारी गरिमा, गीत, गौरव, सभी कुछ इस एक बात पर निर्भर है कि क्या शरीर के साथ सब कुछ समाप्त हो जाता है?

अगर शरीर के साथ सभी कुछ समाप्त हो जाता है तो न नीति में कोई अर्थ है, न धर्म में कोई अर्थ है। न अच्छाई है फिर कुछ, न बुराई है फिर कुछ। क्योंकि अच्छे भी मिट्टी में मिल जाते हैं, बुरे भी मिट्टी में मिल जाते हैं। अच्छे आदमी की मिट्टी में और बुरे आदमी की मिट्टी में कोई गुणात्मक फर्क नहीं होता। एक चोर और एक साधु के मरे हुए शरीर में कोई भी तो भेद नहीं है। और अगर चोर भी वहीं पहुंच जाता है और साधु भी वहीं पहुंच जाता है, मिट्टी में, और दोनों समान हो जाते हैं, तो दोनों के जीवन में जो भेद था वह काल्पनिक था। क्योंकि मृत्यु ने प्रगट कर दिया कि सब भेद काल्पनिक थे। तुम अच्छे थे कि बुरे, दो कौड़ी की बात है। अगर मृत्यु के साथ सब कुछ समाप्त हो जाता है, तो इस जगत में कोई नैतिक, कोई धार्मिक, किसी मूल्य का, किसी वैज्यू का कोई अर्थ नहीं है। फिर बेईमानी और ईमानदारी समान हैं। फिर हत्या और जीवनदान बराबर हैं। फिर हिंसा और अहिंसा में कोई भी फर्क नहीं है। फिर सत्य और असत्य में क्या भेद है? फिर मैं अच्छा रहूं या बुरा रहूं जब अंत में सब समान ही हो जाता है, और अच्छे और बुरे दोनों ही मिट्टी में मिलकर खो जाते हैं, तो अच्छे होने की सारी आधारशिला गिर जाती है।