वाक्-शक्ति के चार प्रकार हैं - बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती एवं परा। बैखरी वाक् शब्द का निम्नतम स्तर है। इसको पकड़कर क्रमशः परावाक् पर्यन्त उठने का प्रयोजन है। बैखरी से तात्पर्य हमारी स्थूल ध्वनि से है। जब हम बोल-बोल कर जप करते है, यह बैखरी वाणी कहलाती है। जब हम मन ही मन जप या स्मरण करते हैं इसे मध्यमा कहा जाता है। जब हम शब्द और उसके अर्थ दोनों को देखते हुए स्मरण करते हैं, उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं। जहां न बोलना है, न देखना है अर्थात् निर्विचार एवं निर्विकल्प स्थिति होती है, उस स्थिति में एक शून्य भाषा व्यापक होती है उसे परावाक् कहते हैं। बैखरी जप में जपकर्ता को यह अहसास रहता है कि मैं जप कर रहा हूं। मध्यमा में साधक का यह अहसास छूट जाता है कि मैं जप कर रहा हूं। उसका जप अजपा जाप हो जाता है। बिना किसी प्रयास के एवं बिना किसी अहं भाव के जप चलता रहता है। मध्यमा में हृदय से जाप होता है, मस्तिष्क से नहीं होता। जागृति समाप्त हो जाती है। मध्यमा वाक् के अभ्यास से नाद-श्रवण होने लगता है। पश्यन्ती में साधक ओंकार को आज्ञाचक्र से ऊपर बिल्कुल ललाट के मध्य में कल्पना से ज्योतिस्वरूप बिन्दु को देखता है। यहां देखना ही बोलना है। परास्थिति में देखना भी छूट जाता है। केवल शून्य में ठहरना होता है। यहां ठहरने का आधार आनंद की अनुभूति होती है। इस प्रकार शब्दातीत परमपद का साक्षात्कार करने के लिए शब्द का आश्रय लेकर ही शब्द राज्य का भेद करना होता है। जप-साधना में शब्द को पकड़कर शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश है।
ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र के प्रथम भाग ॐ की रचना एवं जप की विधि की चर्चा के पश्चात् यह देखना है कि इस महामंत्र में ‘नमः शिवाय’ शब्दों का समावेश करने का क्या प्रयोजन है। नमः शब्द नमस्कार का ही छोटा रूप है। यह महामंत्र नमस्कार मंत्र भी है। प्रणव की अवधारणा में कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ की साधना करते-करते साधक कहीं अहंकार का शिकार न हो जाए, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘नमः शिवाय’ शब्दों से विनम्र समर्पण है। अहंकार एवं ममकार जब तक विलीन नहीं होते तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती। सान्तता समाप्त हुए बिना अनन्त की अनुभूति नहीं होती। अनन्त की अनुभूति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है - अहंकार का विलय और ममकार का विलय।
‘नमः शिवाय’ नमन है, समर्पण है-अपने पूरे व्यक्तित्व का समर्पण। इससे अहंकार विलीन हो जाता है। जहां नमन होता है वहां अहंकार टिक नहीं सकता। अहंकार निःशेष और सर्वथा समाप्त। जहां शिव है वहां ममकार नहीं हो सकता। ममकार पदार्थ के प्रति होता है। शिव तो परम चेतन स्वरूप है। अपना ही चेतनरूप शिव है। चेतना के प्रति ममकार नहीं होता। शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है। भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता। आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है, तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं किन्तु जब ‘नमः शिवाय’ जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है। साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, ‘आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूँ। साधक ने कहा, ‘मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया। मैं मेरे प्रभु के साथ था।’
ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र के प्रथम भाग ॐ की रचना एवं जप की विधि की चर्चा के पश्चात् यह देखना है कि इस महामंत्र में ‘नमः शिवाय’ शब्दों का समावेश करने का क्या प्रयोजन है। नमः शब्द नमस्कार का ही छोटा रूप है। यह महामंत्र नमस्कार मंत्र भी है। प्रणव की अवधारणा में कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ की साधना करते-करते साधक कहीं अहंकार का शिकार न हो जाए, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘नमः शिवाय’ शब्दों से विनम्र समर्पण है। अहंकार एवं ममकार जब तक विलीन नहीं होते तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती। सान्तता समाप्त हुए बिना अनन्त की अनुभूति नहीं होती। अनन्त की अनुभूति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है - अहंकार का विलय और ममकार का विलय।
‘नमः शिवाय’ नमन है, समर्पण है-अपने पूरे व्यक्तित्व का समर्पण। इससे अहंकार विलीन हो जाता है। जहां नमन होता है वहां अहंकार टिक नहीं सकता। अहंकार निःशेष और सर्वथा समाप्त। जहां शिव है वहां ममकार नहीं हो सकता। ममकार पदार्थ के प्रति होता है। शिव तो परम चेतन स्वरूप है। अपना ही चेतनरूप शिव है। चेतना के प्रति ममकार नहीं होता। शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है। भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता। आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है, तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं किन्तु जब ‘नमः शिवाय’ जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है। साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, ‘आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूँ। साधक ने कहा, ‘मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया। मैं मेरे प्रभु के साथ था।’
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