'ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र में तीन शब्द है। 'ॐ नमः शिवाय। इसमें पांच अक्षर है। इसे पंचाक्षरी महामंत्र भी कहते हैं। पंचाक्षरी इसलिए कि ‘ॐ’ अक्षरातीत है। ‘नमः शिवाय’ में पांच अक्षर है। ॐको ब्रह्म, प्रणव आदि नामों से पुकारा जाता है। उपनिषदों में कहा गया है- ‘ॐ’ ‘ओम् इति ब्रह्म’ ओम् ब्रह्म है। पातंजल योगसूत्र में कहा गया है- ‘तस्य वाचक प्रणवः’ प्रणव ईश्वर का वाचक है। ब्रह्म एक अखण्ड अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्द ब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित किया गया है। शब्द ब्रह्म को भली भांति जान लेने पर परब्रह्म की प्राप्ति होती है।
‘शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति’
शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है। जिसे औंकार कहते हैं यही शब्द ब्रह्म है। इस चराचर विश्व के जो वास्तविक आधार हैं, जो अनादि, अनन्त और अद्वितीय हैं तथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उस निर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ओम है।
ब्रह्म इस सृष्टि में निमित्त कारण (Efficient Cause) ही नहीं अपितु उपादान कारण (Material Cause) भी है। प्रारम्भ में एकमात्र ब्रह्म ही थे। उनकी इच्छा हुई ‘एकोऽहम बहुस्याम’ और उन्होंने ही अपने आपको इस जीव जगत के रूप में प्रकट किया। जैसे मकड़ी अपने अन्दर के ही तन्तुओं से जाला बुनती है। अतः यह विश्व-ब्रह्माण्ड ब्रह्म से भिन्न नहीं है। ब्रह्म ही विभिन्न रूपों मे प्रतिभासित हो रहे हैं। अतएव ब्रह्म का वाचक होने के कारण ‘ओम’ ईश्वर अवतार तथा जीव जगत सभी का वाचक हुआ। इस प्रकार यह शब्द निर्गुण-निराकार ब्रह्म का बोध कराता है तो सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण, जिस रूप में भी ब्रह्म अपने आपको प्रकाशित कर रहा है, ओम उन सब का बोध कराता है।
इसकी महिमा में वेदान्त नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है। योगीजन इस शब्द की महिमा में गाते-गाते नहीं थकते। गोरखनाथजी महाराज कहते है:-
‘शब्द ही ताला शब्द ही कूंची।
शब्द ही शब्द समाया।
शब्द ही शब्द सूं परचा हुआ।
शब्द ही शब्द जगाया।"
‘शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति’
शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है। जिसे औंकार कहते हैं यही शब्द ब्रह्म है। इस चराचर विश्व के जो वास्तविक आधार हैं, जो अनादि, अनन्त और अद्वितीय हैं तथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उस निर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ओम है।
ब्रह्म इस सृष्टि में निमित्त कारण (Efficient Cause) ही नहीं अपितु उपादान कारण (Material Cause) भी है। प्रारम्भ में एकमात्र ब्रह्म ही थे। उनकी इच्छा हुई ‘एकोऽहम बहुस्याम’ और उन्होंने ही अपने आपको इस जीव जगत के रूप में प्रकट किया। जैसे मकड़ी अपने अन्दर के ही तन्तुओं से जाला बुनती है। अतः यह विश्व-ब्रह्माण्ड ब्रह्म से भिन्न नहीं है। ब्रह्म ही विभिन्न रूपों मे प्रतिभासित हो रहे हैं। अतएव ब्रह्म का वाचक होने के कारण ‘ओम’ ईश्वर अवतार तथा जीव जगत सभी का वाचक हुआ। इस प्रकार यह शब्द निर्गुण-निराकार ब्रह्म का बोध कराता है तो सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण, जिस रूप में भी ब्रह्म अपने आपको प्रकाशित कर रहा है, ओम उन सब का बोध कराता है।
इसकी महिमा में वेदान्त नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है। योगीजन इस शब्द की महिमा में गाते-गाते नहीं थकते। गोरखनाथजी महाराज कहते है:-
‘शब्द ही ताला शब्द ही कूंची।
शब्द ही शब्द समाया।
शब्द ही शब्द सूं परचा हुआ।
शब्द ही शब्द जगाया।"
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