Monday 23 March 2015

उन्होंने अंधकार को कभी देखा ही नहीं

भगवान हैं तो दिखते क्यों नही ? दिव्य को प्राकृत रुप से अनुभव नहीं किया जा सकता। प्राण-वायु के बिना हम जीवित नहीं रह सकते परन्तु वह दिखती नहीं। हम कह सकते हैं कि भले ही वह दिखती नहीं परन्तु उसका अनुमान लगाया जा सकता है, उसका अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है क्योंकि वृक्षों की डालियाँ और पत्ते हिल रहे हैं और शीतल मंद समीर हमारे देह को स्पर्श कर रहा है ठीक उसी प्रकार उस दिव्य की सांकेतिक अनुभूति तो हमें होती है पर अपनी चेतना के ऊपर जमे हुए कल्मष को क्रमश: धोते हुए जब चेतना अपने वास्तविक दिव्य स्वरुप में आ जावेगी तब उबके दर्शन ऐसे ही सुलभ होंगे जैसे हम प्राकृत जगत को देखते हैं। सांकेतिक ही सही, जब तक यह अनुभूति हो रही है तब तक आत्म-सुधार का मार्ग प्रशस्त है और हम अपना मार्ग चुन सकते हैं।
अखिल विश्व के उल्लुओं का यदि कोई सम्मेलन हो और उसमें यह प्रस्ताव पारित हो जावे कि प्रकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं तो क्या यह सत्य हो जावेगा ? उन्होंने नहीं देखा तो सूर्यनारायण के अस्तित्व पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लग सकता ? किन्तु यदि भगवान सूर्यनारायण से पूछा जावे कि प्रभो ! अंधकार कैसे दूर हो ? तो वे क्या उत्तर देंगे क्योंकि उन्होंने अंधकार को कभी देखा ही नहीं। उनके प्रकाश की पहली किरण के उदय के साथ ही अंधकार न जाने कहाँ छुप जाता है।
अपने घर में प्रकाश के लिये हमने एक स्विच/बटन दबाया और घर प्रकाश से भर गया किन्तु जब तक स्विच/बटन न दबायें तब तक इस प्रकाश का अनुभव नहीं कर सकते। प्रकाश, स्विच/बटन में नहीं है; वह तो आ रहा है विद्युत-केन्द्र से। परन्तु जिन तारों में होकर आता है, वह तो प्रकाश से नहीं चमकते तो क्या उनमें विद्युत नहीं है?
हमें प्रभु की सहज कृपा प्राप्त है यही कारण है कि हम उसका सही अर्थ नहीं समझते। जो प्राणवायु हमें बिना किसी प्रयत्न के मिल रही है, बिना किसी परिश्रम के स्वयं प्रभु कृपा से संचालित हो रही है उसकी कीमत तब समझ आती है जब चिकित्सालय में पड़े होने पर "आक्सिजन सिलैन्डर" लगाने के बाद भी श्वाँस लेने में असुविधा होती है। यही कारण है कि संतो/भक्तों को उनकी कृपा के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता। जितना हम अनुभव करेंगे, जैसा भाव होगा, उससे कहीं अधिक वह हम पर लुटाने को तत्पर बैठे हैं परन्तु उस आनन्द की अनुभूति के लिये हम उनके सम्मुख तो हो जावें, विमुख कैसे जाने कि "पीछे कौन" है ? पलट ! देख पलटकर ! वह कहाँ नहीं है ? जिस दिन "भाव" बन जाये तो उन्हें तो कहीं से आना-जाना तो है नहीं, बस प्रकट होना है। वह वैकुन्ठ में भी है, गोलोक में भी, साकेत में भी, अनन्तानन्त ब्रहमान्डों में जो बसे हैं, वह क्षणार्ध में खंभ फ़ाड़कर भी प्रकट हो जाते हैं। अग्नि केवल काठ या माचिस की तीली में नहीं है, अग्नि सभी स्थानों में व्याप्त है, यहाँ तक कि देह में भी। उसे तो बस घर्षण से प्रकट होना होता है।
 जय श्री राधे !

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