महाभारत के बाद जब सब ओर केवल अज्ञान का अन्धकार ही अन्धकार फैला हुआ था, तब उस समय की अत्यन्त भ्रष्ट जीवन पद्धति से दुःखी होकर बौद्ध और जैन तीर्थंकरों ने गृहत्याग की, संन्यास की दीक्षा जन साधारण को दी हो तो संभव हैं उनका उद्देश्य कुछ एक लोगों को व्यक्तिगत जीवन में आदर्शवादी रहकर भ्रष्ट चरित्र लोगों का मार्ग दर्शन करना रहा हो, और संभव हैं इसे उस समय कुछ प्रयोजन भी सिद्ध हुआ हो। पर सदा के लिए जन साधारण के लिए गृहत्याग या संन्यास कोई अनुकरणीय प्रक्रिया नहीं हो सकता।
आज 56 लाख से अधिक व्यक्ति साधु संन्यासी का वेश बनाये फिरते हैं। संसार के त्याग का यह लोग नारा लगाते हैं। स्त्री बच्चों को त्याग देते हैं, लोगों से कुछ मतलब नहीं रखते, एकान्त सेवन में शान्ति प्राप्त करने और भजन करके भगवान को प्राप्त करने का इनका कार्य क्रम होता है। आजीविका के लिए भिक्षा वृत्ति को अपनाते हैं और वेष भूषा को प्राचीन काल के ऋषियों से मिलती जुलती बनाने का प्रयत्न करते हैं।
विचारणीय प्रश्न हैं कि क्या इन साधु कहलाने वालों का कार्यक्रम ऋषि परम्परा के अनुकूल हैं? स्त्री बच्चों को अभाव की स्थिति में छोड़ देना क्या उनके साथ विश्वासघात नहीं हैं? स्वयं उपार्जन न करके दूसरों की कमाई खाने से क्या उनका ऋण अगले जन्म में चुकाना न पड़ेगा? दूसरों का दिया हुआ दान यदि पाप उपार्जित हैं तो खाकर क्या अपनी बुद्धि भी भ्रष्ट न होगी? जीवन धारण करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ जब तक चाहिए तब तक संसार से कोई संबंध न रखने की बात कैसे बन रहा जाय यह बात तो समझ में आती हैं पर सारा समय एकान्त में बिता कर दूसरों पर छोड़ने की प्रक्रिया को ताड़ देना क्या मानव जीवन का सदुपयोग कहा जा सकता हैं? जिस समाज का अगणित ऋण अपने ऊपर हैं उसका ऋण न चुका कर एकान्त में छिप बैठना क्या ऋण मार बैठने के समान अनैतिक नहीं है? अनुत्पादक जीवन क्या समाज और राष्ट्र के लिए भारभूत एवं कष्टदायक नहीं है? आलस्य में बैठे बैठे फालतू समय बिताने से क्या कुविचार मन में नहीं आवेंगे और खाली दिमाग शैतान की दुकान” वाली उक्ति चरितार्थ होगी? लकड़ियों का अभाव होने और अहिंसक जन्तुओं का भय न रहने पर भी धूनी जलाना क्या राष्ट्रीय अपव्यय नहीं है? आज जब कि सस्ते और धुल सकने वाले वस्त्र आसानी से उपलब्ध हो सकते है, और मृग भी अपनी मौत मरने की बधिक द्वारा माँस तथा चमड़े के लोभ से मारे जाते है तब भी मृग चर्म पहने फिरना क्या ऋषियों की भावना के प्रतिकूल उनका असामयिक अन्धानुकरण नहीं है? जब दो रुपये में लोटा मिल सकता है तो बीस रुपये में मिलने वाले नारियल के कमण्डल की क्या उपयोगिता है?
इस प्रकार के कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जिन पर विचार करने से यह गुत्थी सुलझती नहीं कि घर त्यागकर संन्यासी बन जाने और आज जिस प्रकार का जीवन हजारों साधु-संन्यासी जी रहे है इससे उनको स्वयं का तथा जन समाज का, जिसके सम्मिलित उत्तर दायित्व से किसी को छुटकारा नहीं मिल सकता, भला किस प्रकार हित साधन हो सकता है?
आज 56 लाख से अधिक व्यक्ति साधु संन्यासी का वेश बनाये फिरते हैं। संसार के त्याग का यह लोग नारा लगाते हैं। स्त्री बच्चों को त्याग देते हैं, लोगों से कुछ मतलब नहीं रखते, एकान्त सेवन में शान्ति प्राप्त करने और भजन करके भगवान को प्राप्त करने का इनका कार्य क्रम होता है। आजीविका के लिए भिक्षा वृत्ति को अपनाते हैं और वेष भूषा को प्राचीन काल के ऋषियों से मिलती जुलती बनाने का प्रयत्न करते हैं।
विचारणीय प्रश्न हैं कि क्या इन साधु कहलाने वालों का कार्यक्रम ऋषि परम्परा के अनुकूल हैं? स्त्री बच्चों को अभाव की स्थिति में छोड़ देना क्या उनके साथ विश्वासघात नहीं हैं? स्वयं उपार्जन न करके दूसरों की कमाई खाने से क्या उनका ऋण अगले जन्म में चुकाना न पड़ेगा? दूसरों का दिया हुआ दान यदि पाप उपार्जित हैं तो खाकर क्या अपनी बुद्धि भी भ्रष्ट न होगी? जीवन धारण करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ जब तक चाहिए तब तक संसार से कोई संबंध न रखने की बात कैसे बन रहा जाय यह बात तो समझ में आती हैं पर सारा समय एकान्त में बिता कर दूसरों पर छोड़ने की प्रक्रिया को ताड़ देना क्या मानव जीवन का सदुपयोग कहा जा सकता हैं? जिस समाज का अगणित ऋण अपने ऊपर हैं उसका ऋण न चुका कर एकान्त में छिप बैठना क्या ऋण मार बैठने के समान अनैतिक नहीं है? अनुत्पादक जीवन क्या समाज और राष्ट्र के लिए भारभूत एवं कष्टदायक नहीं है? आलस्य में बैठे बैठे फालतू समय बिताने से क्या कुविचार मन में नहीं आवेंगे और खाली दिमाग शैतान की दुकान” वाली उक्ति चरितार्थ होगी? लकड़ियों का अभाव होने और अहिंसक जन्तुओं का भय न रहने पर भी धूनी जलाना क्या राष्ट्रीय अपव्यय नहीं है? आज जब कि सस्ते और धुल सकने वाले वस्त्र आसानी से उपलब्ध हो सकते है, और मृग भी अपनी मौत मरने की बधिक द्वारा माँस तथा चमड़े के लोभ से मारे जाते है तब भी मृग चर्म पहने फिरना क्या ऋषियों की भावना के प्रतिकूल उनका असामयिक अन्धानुकरण नहीं है? जब दो रुपये में लोटा मिल सकता है तो बीस रुपये में मिलने वाले नारियल के कमण्डल की क्या उपयोगिता है?
इस प्रकार के कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जिन पर विचार करने से यह गुत्थी सुलझती नहीं कि घर त्यागकर संन्यासी बन जाने और आज जिस प्रकार का जीवन हजारों साधु-संन्यासी जी रहे है इससे उनको स्वयं का तथा जन समाज का, जिसके सम्मिलित उत्तर दायित्व से किसी को छुटकारा नहीं मिल सकता, भला किस प्रकार हित साधन हो सकता है?
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