Monday, 30 June 2014

इन्सानियत

एक डॉक्टर को जैसे ही एक
urgent सर्जरी के बारे में फोन करके
बताया गया.
वो जितना जल्दी वहाँ आ
सकते थे आ गए.
वो तुरंत हि कपडे बदल
कर ऑपरेशन थिएटर की और बढे.
डॉक्टर को वहाँ उस लड़के के
पिता दिखाई दिए
जिसका इलाज होना था.
पिता डॉक्टर को देखते ही भड़क उठे,
और चिल्लाने लगे.. "आखिर इतनी देर
तक कहाँ थे आप?
क्या आपको पता नहीं है की मेरे बच्चे
की जिंदगी खतरे में है .
क्या आपकी कोई
जिम्मेदारी नहीं बनती..
आप का कोई कर्तव्य है
या नहीं ? ”
डॉक्टर ने हलकी सी मुस्कराहट के साथ
कहा- “मुझे माफ़
कीजिये, मैं
हॉस्पिटल में नहीं था.
मुझे जैसे ही पता लगा,
जितनी जल्दी हो सका मैं
आ गया..
अब आप शांत हो जाइए, गुस्से से कुछ
नहीं होगा”
ये सुनकर पिता का गुस्सा और चढ़
गया.
भला अपने बेटे की इस नाजुक हालत में
वो शांत कैसे रह सकते थे…
उन्होंने कहा- “ऐसे समय में दूसरों
को संयम रखने का कहना बहुत आसान है.
आपको क्या पता की मेरे मन में
क्या चल रहा है.. अगर
आपका बेटा इस तरह मर
रहा होता तो क्या आप
इतनी देर करते..
यदि आपका बेटा मर जाए
अभी, तो आप शांत रहेगे?
कहिये..”
डॉक्टर ने स्थिति को भांपा और
कहा- “किसी की मौत और
जिंदगी ईश्वर
के हाथ में है.
हम केवल उसे बचाने का प्रयास कर सकते
है.. आप ईश्वर से
प्राथना कीजिये.. और मैं अन्दर जाकर
ऑपरेशन करता हूँ…” ये
कहकर डॉक्टर अंदर चले गए..
करीब 3 घंटो तक ऑपरेशन चला..
लड़के के पिता भी धीरज के साथ बाहर
बैठे रहे..
ऑपरेशन के बाद जैसे
ही डाक्टर बाहर निकले..
वे मुस्कुराते हुए, सीधे पिता के पास
गए..
और उन्हें कहा- “ईश्वर का बहुत
ही आशीर्वाद है.
आपका बेटा अब ठीक है.. अब
आपको जो
भी सवाल पूछना हो पीछे आ रही नर्स
से पूछ लीजियेगा..
ये कहकर वो जल्दी में चले गए..
उनके बेटे की जान बच
गयी इसके लिए वो बहुत खुश तो हुए..
पर जैसे ही नर्स उनके पास आई.. वे बोले..
“ये कैसे डॉक्टर है..
इन्हें किस बात का गुरुर है.. इनके पास
हमारे लिए
जरा भी समय नहीं है..”
तब नर्स ने उन्हें बताया..
कि ये वही डॉक्टर है जिसके
बेटे के साथ आपके बेटे का एक्सीडेँट
हो गया था.....
उस दुर्घटना में इनके बेटे
की मृत्यु हो गयी..
और हमने जब उन्हें फोन किया गया..
तो वे उसके क्रियाकर्म कर
रहे थे…
और सब कुछ जानते हुए भी वो यहाँ आए
और आपके बेटे का इलाज
किया...
नर्स की बाते सुनकर बाप क आँखो मेँ
खामोस आँसू
बहने लगे ।
मित्रो ये होती है इन्सानियत "

अच्छाई सभी दिशाओं में फैलती है।

1)➤दूसरों की गलतियों से सीखो अपने
ही ऊपर प्रयोग करके सीखने को तुम्हारी आयु
कम पड़ेगी।
2)➤किसी भी व्यक्ति को बहुत ईमानदार
नहीं होना चाहिए। सीधे वृक्ष और
व्यक्ति पहले काटे जाते हैं।
3)➤अगर कोई सर्प जहरीला नहीं है तब भी उसे
जहरीला दिखना चाहिए वैसे दंश भले ही न
दो पर दंश दे सकने
की क्षमता का दूसरों को अहसास करवाते
रहना चाहिए।
4)➤हर मित्रता के पीछे कोई स्वार्थ जरूर
होता है, यह कड़वा सच है।
5)➤कोई भी काम शुरू करने के पहले तीन सवाल
अपने आपसे पूछो... मैं ऐसा क्यों करने
जा रहा हूँ ? इसका क्या परिणाम होगा ?
क्या मैं सफल रहूँगा?
6)➤भय को नजदीक न आने दो अगर यह नजदीक
आये इस पर हमला कर दो यानी भय से
भागो मत इसका सामना करो।
7)➤दुनिया की सबसे बड़ी ताकत पुरुष
का विवेक और
महिला की सुन्दरता है।
8)➤काम का निष्पादन करो, परिणाम से
मत डरो।
9)➤सुगंध का प्रसार हवा के रुख का मोहताज़
होता है पर अच्छाई सभी दिशाओं में
फैलती है।"
10)➤ईश्वर चित्र में नहीं चरित्र में बसता है
अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।
11)➤व्यक्ति अपने आचरण से महान होता है जन्म
से नहीं।
12)➤ऐसे व्यक्ति जो आपके स्तर से ऊपर या नीचे
के हैंें दोस्त न बनाओ,वह तुम्हारे कष्ट का कारण
बनेगे। समान स्तर के मित्र ही सुखदायक होते
हैं।
13)➤अपने बच्चों को पहले पांच साल तक खूब
प्यार करो। छः साल से पंद्रह साल तक कठोर
अनुशासन और संस्कार दो। सोलह साल से उनके
साथ मित्रवत व्यवहार करो।
आपकी संतति ही आपकी सबसे अच्छी मित्र है।"
14)➤अज्ञानी के लिए किताबें और अंधे के लिए
दर्पण एक समान उपयोगी है।
15)➤शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है। शिक्षित
व्यक्ति सदैव सम्मान पाता है।
शिक्षा की शक्ति के आगे युवा शक्ति और
सौंदर्य
दोनों ही कमजोर ह

बुरी हरकतों केप्रति सजग रहें

"आइये जाने योगी किसे कहते"
किसे कहते हैं योगी? निश्चितही आपआसन औरप्राणायाममें पारंगतकिसी व्यक्ति कोयोगी कहना चाहेंगे, याफिरकिसी योग केचमत्कार को बताने वालों को आप योगीकहतेहोंगे।लेकिनहम आपको बताना चाहते हैं कि योगी होने केलिएआसन या प्राणायाम करनेकी आवश्यकता ही नहीं शरीर शोधन की भी जरुरत होती है
आजकेदौरमेंजितने भी योगाचार्य आपदेखरहे हैं उनमेंसे शायद एक भी व्यक्ति योगी नहींहोगा। तब योग ग्रंथों अनुसार योगी किसे कहतेहैं।आइए, यही जानने का हम प्रयासहम करते हैं।
कृष्ण नेकहाहैकि योगस्थया योगारूढ़व्यक्ति वह है जो स्थितप्रज्ञ हैऔर जो ‍नींद में भी जागा हुआ रहता है। आजके हमारेयोगी तो जागेहुएभी सोते सेलगतेहैं।
योग कामूलमंत्र है चित्त वृत्तियों का निरोधकरमनके पार जाना।कुछलोगआसन-प्राणायाम काअभ्यास करे बगैरभी उस स्थिति को प्राप्तकरलेते हैं, जिसको योगमें समाधि कहा गया है।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम औरप्रत्याहारतो योग में प्रवेश करने की भूमिका मात्रहै, इन्हें साधकरभी कई लोग इनमें ही अटकेरह गए, लेकिन साहसी हैं वेलोग, जिन्होंने धारणा औरध्यान काउपयोगतीर-कमानकी तरह किया और मोक्षनामक लक्ष्य को भेद दिया।
वेदों में जड़बुद्धि सेबढ़कर प्राणबुद्धि, प्राणबुद्धि से बढ़कर मानसिकऔर मानसिकसे बढ़कर'बुद्धि'मेंही जीने वाला श्रेष्ठकहा गया है। बुद्धिमान लोग भुलक्कड़ होते हैं ऐसा जरूरी नहींऔर स्मृतिवान लोग बुद्धिमानहोंयह भी जरूरी नहीं, लेकिनउक्त सबसे बढ़करवह व्यक्ति है जो विवेकवानहै, जिसकी बुद्धि औरस्मृति दोनों ही दुरुस्त हैं।उक्त विवेकवान से भी श्रेष्ठ होताहैवह व्यक्ति जो मन केसारे क्रिया-कलापों, सोच-विचार, स्वप्न-दुखसेपारहोकरपरम जागरण मेंस्थित हो गया है। ऐसा व्यक्तिही मोक्ष के अनंत और आनंदित सागरमें छलाँग लगा सकता है।
कैसे रहेंजाग्रत :योगकहता हैकि अपने शरीरऔर मनकी अच्छी और बुरी हरकतों केप्रति सजग रहेंअर्थात दूरहटकर इन्हेंदेखने का अभ्यासकरतेरहें। समय-समय परइनकी समीक्षाकरते रहें। बस, जैसे-जैसे यह अभ्यास गहराएगा, तुम्हें खुद को समझ में आएगा कि हमारेभीतरकितना कचरा है औरयह सब कितना बचकाना है।
इसे इसतरह समझे मसलनकी आप इसवक्त यह लेख पढ़रहे हैं, लेकिन पढ़तेवक्त भी आपका ध्यानकहींओरहोने के बावजूद भी आपसमझ रहे हैं। आपका हाथकहाँहैसोचें और आपइस वक्तक्या सोच रहेहैंयह भी सोचें।
गहराईसे औरपूरी ईमानदारी सेस्वीकारकरें कि यहाँलिखा गया तब आपको पता चला कि मेरा हाथकहाँ था औरमैंइसके अलावा और क्या सोचरहा था।सिरमें दर्द होता है तभी हमें पता चलता है कि हमारा सिरभी है। आपशरीरऔरविचार के जंजाल सेइस कदरघिरे हुए हैं कि खोए-खोएसे रहतेहैं।

अपनेआत्मतत्व का चितंन करें

ब्रह्माण्ड है, तब सेनाद है, जबसे नाद है तब सेनाथ सम्प्रदाय है।आदि शिवसे आरम्भहोकरअनेकसिध्दों के नाथ योगी शिवरूप देकरसत्य मार्गप्रकाश ही इस धंर्णा पर सिध्दों कीइस अखण्ड परम्परा केअन्तर्गत गुरूअपने शिष्यके इसपरम्परा की शक्ति व अधिकारसौंपते आये है।गूरूदृष्टि, स्पर्श, शब्द या संकल्पके द्वारा शिष्यकी सुप्त कुण्डलिनी शक्ति कोजगा दंतेहै। गोरख बोधवाणी संग्रह मेंसे श्री गुरू-शिष्यशंका समाधानविषयकएक संवाद, जिसमें गोरखनाथजीअपने गुरूदेव श्री मच्छंद्रनाथजी से मन की जिज्ञासाओंका निवारण करनेप्रश्न पूछते हैं औरगुरू मच्छंद्रनाथजी नाथ ज्ञानका बोध कराते हैं। मच्छंद्रउवाचके रूप मेंनाथ-शिक्षाबोधको सरल साहित्य मेंसमाविष्ट किया गया है। पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है प्राचीनभाव-प्रवचन :-
साधक कोचाहिएकि आरंभिकअवस्था में किसी एक जगह जगत प्रपंची में नरहें औरमार्ग, धर्मशाला या किसीवृक्ष की छाया में विश्वासकरें।संसारकि संसृति, ममता, अहंत कामना, क्रोध, लोभ, मोहवृत्ति की धारण्ााओं कोत्याग करअपनेआत्मतत्व का चितंन करें।कम भोजन तथानिद्रआलस्य को जीत कररहें।अपने आप को देखना, अनंत अगोचरको विचारना औरस्वरूपमेंवासकरना, गुरू नामसोहंशब्द ले मस्तकमुंडावेतथा ब्रह्मज्ञान कोलेकर भवसागरपारउतरनाचाहिए।मनका शुन्य रूपहै।पवन निराकार आकारहै, दम कीअलेखदशा औरदसवें द्वारकी साधना करनी चाहिए।वायुबिनापेड़ के डाल (टहनी)है, मन पक्षी बिना पंखों के, धीरजबिना पाल (किनारे)की नार(नदी)बिना काल रूप नींद है। सूर्य स्वरअमावस, चन्द्र स्वरप्रतिपदा, नाभि स्थानका प्राण रस लेकर गगनस्थानचढ़ता है औरदसवें मन अंतर्ध्यानरहता है। आदि का गुरू अनादि है। पृथ्वी का पति आकाश है, ज्ञानका चिंतन मेंनिवासहै और शून्य का स्थानपरचा (ब्रह्म)है।मन केपर्चे (साधे-वश करने)से माया-मोह की निवृति, पवनवश करनेसे चन्द्र स्वर सिध्दि तथा ज्ञान सिध्दि सेयोगबन्ध(जीव-ईश्वर एकता), गुरू कीप्रसन्नता से अजरबन्ध(जीवनमुक्ति तत्व)सिध्दि प्राप्त होती है। शरीरमेंस्वरोदय इडानाड़ी तथा त्रिकूटी स्थानेदो चन्द्र स्थान, पुष्पों मेंचैतन्य सामान्य गंधपूर्ण रहती है।दूधमें घी अन्तरहित व्याप्त तथा इसी प्रकार शरीरके रोमांश में जीवात्मा की अव्यहृतशक्तिरहती है।अन्तरहित साधना मेंगगन (दसवें)स्थान चन्द्र (ज्ञान-ध्येय)औरनिम्ननाभिस्थाने अग्नि-नागनिनाड़ी मे सूर्य का निवासहैं।शब्द का निवास हृदय मेंहै, जो बिन्दू का मूल स्त्रोत केन्द्रहै।जीवात्मा पवन-कसौटी सेदसवेंचढ़करशान्ति बून्द को प्राप्तकरता है। अपनीशक्ति को उलटी कर स्थिरकी गई।मल, विक्षेप सहित दु:साध्य भूमिहो तो योग में कठिनाई है। नाभि के उडियानबंध से सिध्द मुर्ततथा साक्षी चेतन ही उनमुनि में रहता है।मूलाधार सेनाभि-प्रमाणचक्रसिध्दि सेस्वर सिध्दि होकरज्ञानप्रकारकरता है।जालन्धरबंधलगाकरअमृत प्राप्त करना औरनाभि स्थानेस्वाधिष्ठानसिध्दि से प्राणवायुका निरोध करना, हृदय स्थानेअनाहत चक्रमें जीवात्मा''सोहं''ध्वनि का ध्यान औरज्ञानचक्र(आज्ञा)में ज्योति दर्शनोपरांत ब्रह्मरंध्रमें विश्राम कीप्राप्ति होती है।

सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं

सारे संसार में एक मात्र शिव ही हैं जो जन्म, मृत्यू एवं काल के बंधनो से अलिप्त स्वयं महा काल हैं | शिव सृष्टी के मूल कारण हैं, फिर भी स्वयं अकर्ता हैं, तटस्थ हैं| सृष्टी से पहले कुछ नहीं था – न धरती न अम्बर, न अग्नी न वायू, न सूर्य न ही प्रकाश, न जीव न ही देव। था तो केवल सर्वव्यपी अंधकार और महादेव शिव। तब शिव ने सृष्टी की परिकल्पना की ।
सृष्टी की दो आवश्यकतायँ थीं – संचालन हेतु शक्ति एवं व्यवस्थापक । शिव ने स्वंय से अपनी शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति ने व्यवस्था हेतु एक कर्ता पुरूष का सृजन किया जो विष्णु कहलाय। भगवान विष्णु के नाभि से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई। विष्णु भगवान ने ब्रह्मदेव को निर्माण कार्य सौंप कर स्वयं सुपालन का कार्य वहन किया। फिर स्वयं शिव जी के अंशावतार रूद्र ने सृष्टी के विलय के कार्य का वहन किया। इस प्रकार सृजन, सुपालन तथा विलय के चक्र के संपादन हेतु त्रिदेवों की उतपत्ति हुई। इसके उपरांत शिव जी ने संसार की आयू निरधारित की जिसे एक कल्प कहा गया। कल्प समय का सबसे बड़ा माप है। एक कल्प के उपरातं महादेव शिव संपूर्ण सृष्टी का विलय कर देते हैं तथा पुन: नवनिर्माण आरंभ करते हैं जिसकी शुरुआत त्रिदेवों के गठन से होती है| इस प्रकार शिव को छोड शेष सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं| 

शिव के बारह ज्योतिर्लिंग भी

वेदों में शिव का नाम ‘रुद्र’ रूप में आया है। रुद्र संहार के देवता और कल्याणकारी हैं।
विष्णु की भांति शिव के भी अनेक अवतारों का वर्णन पुराणों में प्राप्त होता है।
शिव की महत्ता पुराणों के अन्य सभी देवताओं में सर्वाधिक है। जटाजूटधारी, भस्म भभूत शरीर पर लगाए, गले में नाग, रुद्राक्ष की मालाएं, जटाओं में चंद्र और गंगा की धारा, हाथ में त्रिशूल एवं डमरू, कटि में बाघम्बर और नंगे पांव रहने वाले शिव कैलास धाम में निवास करते हैं।
पार्वती उनकी पत्नी अथवा शक्त्ति है।
गणेश और कार्तिकेय के वे पिता हैं।
शिव भक्त्तों के उद्धार के लिए वे स्वयं दौड़े चले आते हैं। सुर-असुर और नर-नारी—वे सभी के अराध्य हैं।
शिव की पहली पत्नी सती दक्षराज की पुत्री थी, जो दक्ष-यज्ञ में आत्मदाह कर चुकी थी। उसे अपने पिता द्वारा शिव का अपमान सहन नहीं हुआ था। इसी से उसने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी।
'सती' शिव की शक्त्ति थी। सती के पिता दक्षराज शिव को पसंद नहीं करते थे। उनकी वेशभूषा और उनके गण सदैव उन्हें भयभीत करते रहते थे। एक बार दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया और शिव का अपमान करने के लिये शिव को निमन्त्रण नहीं भेजा। सती बिना बुलाए पिता के यज्ञ में गई। वहां उसे अपमानित होना पड़ा और अपने जीवन का मोह छोड़ना पड़ा। उसने आत्मदाह कर लिया। जब शिव ने सती दाह का समाचार सुना तो वे शोक विह्वल होकर क्रोध में भर उठे। अपने गणों के साथ जाकर उन्होंने दक्ष-यज्ञ विध्वंस कर दिया। वे सती का शव लेकर इधर-उधर भटकने लगे। तब ब्रह्मा जी के आग्रह पर विष्णु ने सती के शव को काट-काटकर धरती पर गिराना शुरू किया। वे शव-अंग जहां-जहां गिरे, वहां तीर्थ बन गए। इस प्रकार शव-मोह से शिव मुक्त्त हुए।
बाद में तारकासुर के वध के लिए शिव का विवाह हिमालय पुत्री उमा (पार्वती) से कराया गया। परन्तु शिव के मन में काम-भावना नहीं उत्पन्न हो सकी। तब 'कामदेव' को उनकी समाधि भंग करने के लिए भेजा गया। परंतु शिव ने कामदेव को ही भस्म कर दिया। बहुत बाद में देवगण शिव पुत्र—गणपति और कार्तिकेय को पाने में सफल हुए तथा तारकासुर का वध हो सका।
शिव के सर्वाधिक प्रसिद्ध अवतारों में अर्द्धनारीश्वर अवतार का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मा ने सृष्टि विकास के लिए इसी अवतार से संकेत पाकर मैथुनी-सृष्टि का शुभारम्भ कराया था।
शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों का वर्णन मिलता है।
उनमें
महाकाल,
तारा,
भुवनेश,
षोडश,
भैरव,
छिन्नमस्तक गिरिजा,
धूम्रवान,
बगलामुखी,
मातंग और
कमल नामक अवतार हैं।
भगवान शंकर के ये दसों अवतार तन्त्र शास्त्र से सम्बन्धित हैं। ये अद्भुत शक्त्तियों को धारण करने वाले हैं।
शिव के अन्य ग्यारह अवतारों में
कपाली,
पिंगल,
भीम,
विरुपाक्ष,
विलोहित,
शास्ता,
अजपाद,
आपिर्बुध्य,
शम्भु,
चण्ड तथा
भव का उल्लेख मिलता है। ये सभी सुख देने वाले शिव रूप हैं। दैत्यों के संहारक और देवताओं के रक्षक हैं।
इन अवतारों के अतिरिक्त्त शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है।
शिव के बारह ज्योतिर्लिंग भी अवतारों की ही श्रेणी में आते हैं। ये बारह ज्योतिर्लिंग हैं-
सौराष्ट में ‘सोमनाथ’,
श्रीशैल में ‘मल्लिकार्जुन’,
उज्जयिनी में ‘महाकालेश्वर’,
ओंकार में ‘अम्लेश्वर’,
हिमालय में ‘केदारनाथ’,
डाकिनी में ‘भीमेश्वर’,
काशी में ‘विश्वनाथ’,
गोमती तट पर ‘त्र्यम्बकेश्वर’,
चिताभूमि में ‘वैद्यनाथ’,
दारुक वन में ‘नागेश्वर’,
सेतुबन्ध में ‘रामेश्वर’ और
शिवालय में ‘घुश्मेश्वर’।
अन्य देवगण—पुराणों में ब्रह्मा, वरुण, कुबेर, वायु, सूर्य, यमराज, अग्नि, मरुत, चन्द्र, नर-नारायण आदि देवताओं के अवतारों का वर्णन बहुत कम संख्या में है। उनके प्रसंग प्रायः इन्द्र के साथ ही आते हैं।

ब्रह्मलोक में निवास करते हैं


आइये जानते हैं -----शिव को लिंगाकार मानने का रहस्य ?

अज्ञान के कारण या 'लिंग' के सीमित अर्थ की जानकारी के कारण इसके बारे में अश्लील कल्पना करते हैं। वास्तव में 'लिंग' शब्द के कई अर्थ हैं। एक तो व्याकरण में 'लिंग' शब्द का प्रयोग 'स्त्री वर्ग' या 'पुरुष वर्ग' के विभाजन के लिए होता है। संसार में सभी जीव या तो पुर्लिंग हैं या स्त्रीलिंग या नपुंसक लिंग। क्योंकि शिव पिता भी हैं और माता भी हैं। मनुष्य की समझ में कोई ऐसा शरीर नहीं हो सकता । इसलिए शिव स्त्रीलिंग-पुर्लिंग से भिन्न तथा अशरीरी यानी केवल एक ज्योति बिंदु हैं । किन्तु हम उस ज्योति को देखें कैसे ? बिना प्रतीक के पूजें कैसे ? अतः उसके प्रतीक स्वरूप में ज्योतिर्लिंग की कल्पना की गई। कई लोग कहते हैं कि 'लिंग' शब्द में 'लिं' का अर्थ है अव्यक्त वस्तु और 'गम' का अर्थ है उसे जतलाने वाले चिन्ह । शिव अव्यक्त ज्योति बिंदु हैं और लिंग उनका अव्यक्त चिन्ह है। 
हमारे न्याय दर्शन में कहा गया है कि कामना और प्रयत्न 'आत्मा' के लिंग अर्थात लक्षण या चिन्ह हैं । इसी प्रकार वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि 'पीछे, पहले, एक साथ, देर से और झटपट आदि व्यवहार 'काल के लिंग' अर्थात लक्षण या चिन्ह हैं। ब्रह्म सूत्र में भी 'लिंग' शब्द इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है । 'ज्योतिर्लिंग ‘ अथवा ‘शिव लिंग' का भावार्थ यह है कि परमात्मा ज्योतिस्वरूप है और 'शिवलिंग' उसका स्थूल चिन्ह है । शिव तो ब्रह्म तत्व में निवास करते हैं, जैसे कि हम मनुष्य आकाश (ब्रह्मांड) में निवास करते हैं। जैसे आकाश की कोई प्रतिमा नहीं बनाई जा सकती, परंतु मनुष्यों की बनाई जा सकती है, वैसे ही ब्रह्मा तत्व की कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती, लेकिन ज्योतिर्लिंग की प्रतिमा बनाई जाती है। 
पुराणों में शिव के रूप को अंगुष्ठाकार और दीपक की लौ के समान कहा गया है। इस बारे में 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' के सूत्र की ऐसी व्याख्या मिलती है कि जैसे पिण्ड में आत्मा सर्वव्यापक नहीं है बल्कि भृकुटि में निवास करती है, वैसे ही शिव भी तीनों लोकों में व्याप्त नहीं हैं बल्कि ब्रह्मलोक में निवास करते हैं।

देवता समझा जाता है

सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा की भौहों से उत्पन्न एक प्रकार के देवता, जो क्रोधरूप माने जाते हैं और जिनसे भूत, प्रेत, पिशाच उत्पन्न कहे जाते हैं। 'अज', 'एकपाद्', 'अहिर्बुध्न्य', 'पिनाकी', 'अपराजित', 'त्र्यम्बक', 'महेश्वर', 'वृषाकपि', 'शंभु', 'हरण' और 'ईश्वर', ये ही कुल ग्यारह रुद्र हैं। 'गरुड़पुराण' में इनके जो नाम दिये हैं, वे कुछ भिन्न हैं, पर संख्या ग्यारह ही है। कूर्मपुराणानुसार जब ब्रह्मा सृष्टि उत्पन्न न कर सके, तब मारे क्रोध के उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े, जिससे भूत प्रेतों की सृष्टि हुई और उनके मुख से ग्यारह रुद्र निकल आये। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार ये उत्पन्न होते ही जोर-जोर से रोने लगे थे[4] इसी से इनका नाम रुद्र पड़ा। वैदिक साहित्य में अग्नि को ही रुद्र माना है, जिन्हें अग्नि-रूपी, वृष्टि करने वाला और गरजने वाला कहा गया है। इन्हें आपार्य भी कहते हैं।[
भगवान शंकर का एक रूप रुद्र है, जो उन्होंने कामदेव को भस्म करने के समय और दक्ष का यज्ञ ध्वंस करते समय धारण किया था। शंकर की उपासना जब 'रुद्र' या 'महाकाल' के रूप में की जाती है, तब उन्हें महाप्रलय या सारी सृष्टि को ध्वंस करने वाला देवता समझा जाता है। लेकिन महाप्रलय के पीछे ही नयी सृष्टि का भाव छिपा रहता है। शायद इसी से भगवान शंकर की पूजा लिंग और योनि के रूप में की जाती है, क्योंकि ये अंग ही सृष्टि के द्योतक समझे जाते हैं। लिंग=पुरुष की शक्ति=शिव का पुल्लिंग रूप और योनि=शंकर की उत्पादन शक्ति का स्त्रीलिंग रूप समझना चाहिए। संहार के पश्चात शंकर सृष्टि भी करते हैं। इनके दोनों कार्यों ने ही शंकर को महादेव बना दिया है, जिसे ईश्वर की संज्ञा से विभूषित कर दिया गया है।
विश्वकर्मा के एक पुत्र का नाम भी रुद्र है।

आप भी वैसे ही बन जायेंगे

सब मित्रों का सादर मंगलमय अभिनंदन !
आजकल भगवान की साधना कम और भगवान के नाम पर व्यापार अधिक हो रहा है|
निराकार ब्रह्म की परिकल्पना सब के लिए सम्भव नहीं है अतः साकार साधना सार्थक है| आप भगवान के जिस भी रूप की साधना करते हैं, उनके गुण आपमें निश्चित रूप से आते हैं|
योगसुत्रों में भी कहा है कि किसी वीतराग पुरुष का चिंतन करने से आपका चित्त भी वैसा ही हो जाता है| आप भगवान राम का ध्यान करेंगे तो भगवान राम के कुछ गुण आप में निश्चित रूप से आयेंगे| भगवान श्री कृष्ण, भगवन शिव, हनुमान जी, जगन्माता आदि जिस भी भगवान के या किसी महापुरुष के रूप को आप ध्यायेंगे आप भी वैसे ही बन जायेंगे| अतः आपकी क्या अभीप्सा है और स्वाभाविक रूप से आप क्या चाहते हैं, वैसी ही साधना करें|
भगवान को अपना अहैतुकी परम प्रेम दें| उनके साथ व्यापार ना करें|
भगवान के साथ हम व्यापार कर रहे हैं इसीलिए सारे विवाद उत्पन्न हो रहे हैं|
वर्तमान में चल रहा साईं विवाद भी इसी का रूप है| कई हिन्दू आश्रमों में भगवान् श्री कृष्ण के साथ साथ ईसा मसीह की भी पूजा और आरती होती है| कुछ काली मंदिरों में माँ काली की प्रतिमा के साथ मदर टेरेसा के चित्र की भी पूजा होती है| विदेशी संस्थाएं भी धीरे धीरे हिन्दुओं के आस्था केन्द्रों पर अपना प्रभाव और अधिकार जमा रही हैं| यह एक व्यापार है या एक षड्यन्त्र जिसका निर्णय करने में मेरी अल्प और सीमित बुद्धि असमर्थ है| 
कृपया इससे बचें और भगवान की साधना सिर्फ भगवान के प्रेम के लिए ही करें|
आप सब के हृदयों में स्थित प्रभु को सप्रेम सादर नमन |

Sunday, 29 June 2014

आपको बदलते जायेगें

संसार का त्याग कर या जीवन से भाग कर ईश्वर को नही पाया जा सकता ,बल्कि संसार में रहकर ही ईश्वर में जिया जा सकता है ।कुछ लोगों ने इस विषय को इतना जटिल बना दिया है कि ईश्वर को पाने के लिये बहुत बडे त्याग की जरूरत है , जो लोग अपने को त्यागी और वैरागी मान बैठे है , उन्हें हम भगवान मान बैठे है ।हमारे धर्म -दर्शन को कुछ लोगों ने अपने लाभ के लिये पलायनवादी बना दिया है ।
वैराग्य की धारणा जैसे तत्वों की नासमझ के कारण हम अपने आस - पास के परिवेश की दशा से अपने को अलग रखने की पृवत्ति को बढावा दिया है ।जीवन से पलायन की इसी प्रवत्ति ने कई युवाओं को पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी से भागने के लिये प्रेरित किया है ।श्री राम शर्मा ने बहुत पहले देश में लगभग 36 लाख बाबा होने का अनुमान लगाया था ,और यह विचार दिया था कि 5-6 बाबा प्रति गाँव के विकास एंव खुशहाली के लिये अपना समय दे सके तो देश की प्रगति को बहुत पहले ही सुनिश्चित किया जा सकता था ।
भौतिकता मे लिप्त मानव चेतना को यह कहें कि अगर ईश्वर को पाना है तो दुनिया के सुखों का त्याग करना पडेगा ...,. शायद ही कोई जिसे हम तैयार कर सके । एक गरीब को , एक युवा कभी प्रभावित नही होगा आपसे ।।
ये धर्म का गलत प्रचार है ।
युगों युगों से ढूँढ रहे है ,
सुरपुर के भगवान को 
किन्तु ना खोजा अब तक 
हमने धरती के इंसान को ।
चर्चा ब्रम्ह ज्ञान की करते 
किन्तु पाप से तनिक न डरते,
राम -नाम जपते है दुख में , 
साथी है रावण के सुख में 
प्रतिमायें रच कर देवों की 
पूजा है पाषाण को 
किन्तु न खोजा अब तक हमने धरती के इंसान को ।।
ज्ञान नितनूतन है आज की मानव चेतना की पृवत्तियों को समझ कर जो सत्य को सामने लायेगा उसी को लोग सुनना पसंद करगे ।
हमें लोगो से यह नही कहना कि ये पकडो , ये छोडों , सिर्फ यही कहना है जो तुम कर रहे हो वह ठीक है लेकिन सब कुछ करते हुये तुम्हे सत्य में जीने का अभ्यास भी करना है , जैसे जैसे हम अपने सत्य को देखते जायेगें , वैसे -वैसे हम अपने आपको बदलते जायेगें ।
बुरा जो देखन मै चला
मुझसे बुरा न कोय 

आपस में झगड़ा करेंगे

कलियुग में संसारी मनुष्य दया व सच्चाई छोड़ देने से सामर्थ्यहीन हो जावेंगे और आयु थोड़ी होने में कुछ शुभ कर्म उनसे नहीं बन पड़ेगा ! राजा लोग प्रजा को दुःख देकर अन्न का चारों भाग ले लेंगे ! वर्षा थोड़ी होगी , अन्न कम उत्पन्न होगा ! महँगी पड़ने से सब मनुष्य खाने के बिना दुःख पाकर अपने-अपने वर्ण व आश्रम का धर्म छोड़ देंगे !
कलियुग में मनुष्यों की आयु एकसौ बीस वर्ष की लिखी है , पर अधर्म करने से पूरी आयु न भोगकर उसके भीतर मर जावेंगे ! कलियुग के अंत में बहुत पाप करने के कारण बीस-बाईस वर्ष से अधिक कोई नहीं जीवेगा ! ऐसा चक्रवर्ती व प्रतापी राजा भी कोई नहीं रहेगा जिसकी आज्ञा सातों द्वीपों के राजा पालन करें ! जिनके पास थोड़ासा भी राज्य व देश होगा वे अपने को बड़ा प्रतापी समझेंगे ! 
थोड़ी आयु होने पर भी पृथ्वी व धन लेने के लिए आपस में झगड़ा करेंगे और अपना धर्म व न्याय छोड़कर जो मनुष्य उनको द्रिव्य देगा उसका पक्ष करेंगे ! पाप पुण्य का विचार न रक्खेंगे ! चोरी व कुकर्म करने और झूठ बोलने में अपनी अवस्था बीताकर दमड़ी की कौड़ी के लिए मित्र से शत्रु हो जावेंगे !
गायों के दूध बकरी के समान थोड़ा होगा ! ब्राह्मणों में कोई ऐसा लक्षण नहीं रहेगा जिसे देखकर मनुष्य पहिचान सके कि यह ब्राहम्ण है ! पूछने से उनकी जाति मालूम होगी ! धनपात्र की सेवा सब लोग करेंगे , उत्तम-मध्यम वर्ण का कुछ विचार नहीं रहेगा ! व्यापार में छल अधिक होगा ! स्त्री-पुरुष का चित्त मिलने से ऊँच-नीच जाति आपस में भोग-विलास करेंगे ! ब्राह्मण लोग अपना धर्म-कर्म छोड़कर जनेऊ पहिनने से ब्राह्मण कहलावेंगे !
ब्रह्मचारी व वानप्रस्थ जटा सिर पर बढ़ाकर अपने आश्रम के विचार छोड़ देंगे ! उत्तम वर्ण कंगाल से धनपात्र मध्यम वर्ण को अच्छा समझेंगे ! झूठी बात बनानेवाला मुर्ख मनुष्य सच्चा व ज्ञानी कहलावेगा !
तीनों वर्णों के मनुष्य जप , तप , संध्या व तर्पण करना छोड़कर नहाने के उपरान्त भोजन कर लेंगे ! केवल स्नान करना बड़ा आचार समझेंगे और ऐसी बात करेंगे कि जिससे संसार में यश हो ! अपनी सुन्दरता के लिए शिर पर बाल रखेंगे ! परलोक का सोच न करेंगे !
चोर व डाकू बहुत उत्पन्न होकर सबको दुःख देंगे ! राजा लोग चोर व डाकू से मेल करके प्रजा का धन चुरवा लेंगे ! दश वर्ष की कन्या बालक जानेगी और कुलीन स्त्रियाँ दूसरे पुरुष की चाह रखेंगी ! अपना कुटुम्ब पालनेवाले को सब लोग अच्छा जानेंगे ! केवल अपना पेट भरने से सब छोटे-बड़े प्रसन्न रहेंगे ! बहुत लोग अन्न व वस्त्र का दुःख उठावेंगे !
वृक्ष छोटे होंगे ! औषधों में गुण नहीं रहेगा ! शुद्र के समान चारों वर्णों का धर्म होगा ! राजा लोग थोड़ी सी सामर्थ्य रखने पर सब पृथ्वी लेने की इच्छा रखेंगे ! गृहस्थ लोग माता-पिता को छोड़कर ससुर , साले और स्त्री की आज्ञा में रहेंगे ! निकट के तीर्थो पर विश्वास न रखकर दूर के तीर्थों में जावेंगे , पर तीर्थ में नहाने और दर्शन करने से जो फल मिलता है उस पर उनको निश्चय न होगा !
होम और यज्ञ आदि संसार में कम होंगे ! गृहस्थ लोग दो-चार ब्राह्मण खिला देने को ही बड़ा धर्म समझेंगे ! सब लोग धर्म व दया छोड़कर ऐसे सूम हो जावेंगे कि उनसे अतिथि को भी भोजन व वस्त्र नहीं दिया जाएगा ! सन्यासी लोग अपना धर्म-कर्म छोड़कर गेरुआ वस्त्र पहिनने से दंडी मालूम होंगे !

यही ज्ञान और अज्ञान है

ज्ञानी वही है । जो झूठ पाप अनाचार दुष्टता कपट आदि दुर्गुणों से युक्त दुष्ट बुद्धि को नष्ट कर दे । और काल निरंजन रूपी मन को पहचान कर उसे भुला दे । उसके कहने में न आये । जो ज्ञानी होकर कटु वाणी बोलता है । वह ज्ञानी अज्ञान ही बताता है । उसे अज्ञानी ही समझना चाहिये ।
जो मनुष्य शूरवीर की तरह धोती खोंसकर मैदान में लङने के लिये तैयार होता है । और युद्ध भूमि में आमने सामने जाकर मरता है । तब उसका बहुत यश होता है । और वह सच्चा वीर कहलाता है । इसी प्रकार जीवन में अज्ञान से उत्पन्न समस्त पाप दुर्गुण और बुराईयों को परास्त करके जो ज्ञान बिज्ञान उत्पन्न होता है । उसी को ज्ञान कहते हैं ।
मूर्ख अज्ञानी के ह्रदय में शुभ सतकर्म नहीं सूझता । और वह सदगुरु का सार शब्द और सदगुरु के महत्व को नहीं समझता । मूर्ख इंसान से अधिकतर कोई कुछ कहता नहीं है । यदि किसी नेत्रहीन का पैर यदि विष्ठा ( मल ) पर पङ जाये । तो उसकी हँसी कोई नहीं करता । लेकिन यदि आँख होते हुये भी किसी का पैर विष्ठा से सन जाये । तो सभी लोग उसको ही दोष देते हैं ।
हे धर्मदास ! यही ज्ञान और अज्ञान है । ज्ञान और अज्ञान विपरीत स्वभाव वाले ही होते हैं । अतः ज्ञानी पुरुष हमेशा सदगुरु का ध्यान करे । और सदगुरु के सत्य शब्द ( नाम या महामंत्र ) को समझे । सबके अन्दर सदगुरु का वास है । पर वह कहीं गुप्त तो कहीं प्रकट है । इसलिये सबको अपना मानकर जैसा मैं अविनाशी आत्मा हूँ । वैसे ही सभी जीवात्माओं को समझे । और ऐसा समझकर समान भाव से सबसे नमन करे । और ऐसी गुरु भक्ति की निशानी लेकर रहे ।
रंग कच्चा होने के कारण । इस देह को कभी भी नाशवान होने वाली जानकर भक्त प्रहलाद की तरह अपने सत्य संकल्प में दृण मजबूत होकर रहे । यधपि उसके पिता हिरण्यकश्यप ने उसको बहुत कष्ट दिये । लेकिन फ़िर भी प्रहलाद ने अडिग होकर हरि गुण वाली प्रभु भक्ति को ही स्वीकार किया । ऐसी ही प्रहलाद कैसी पक्की भक्ति करता हुआ । सदगुरु से लगन लगाये रहे । और 84 में डालने वाली मोह माया को त्याग कर भक्ति साधना करे । तब वह अनमोल हुआ हँस जीव अमरलोक सत्यलोक में निवास पाता है । और अटल होकर स्थिर होकर जन्म मरण के आवागमन से मुक्त हो जाता है ।

दुःख , पाप और अज्ञान छूट जाता है

शुकदेवजी ने कहा - हे राजन ! कलियुग में यज्ञ , तप व योगाभ्यास आदि कुछ नहीं बन पड़ता , परन्तु एक बात बहुत अच्छी है कि दूसरे युगों में संसारी मनुष्य सच्चे , धर्मात्मा और दयावान होने पर भी बहुत दिनों तक यज्ञ , तप पूजा और तीर्थ स्नान करने से मुक्त होते थे किन्तु कलियुग में केवल परमेश्वर का नाम जपने , उनकी लीला व कथा सच्चे मन से सुनने और शुभकर्म करने से मनुष्य भवसागर पार उतर जाते हैं ! जिस तरह महापापी अजामिल ब्राह्मण मरते समय नारायण नामक अपने बेटे को पुकारने से वैकुण्ठ को चला गया था उसी तरह कलियुग में परमेश्वर का नाम लेते ही सब पापों से छूटकर मनुष्य पवित्र हो जाते हैं ...
दूसरे युगों में अधर्म कम था , जब किसी से कुछ पाप हो जाता था तब वह उसका प्रायश्चित कर डालता था , कलयुग में बहुत अधर्म होने से कोई प्रायश्चित नहीं कर सकता , इसलिए दीनदयालु परमेश्वर केवल नाम लेने व शुभकर्म करने से सब पापों से छुड़ाकर सहज में मुक्त कर देते हैं ! तिस पर भी कलियुग में अज्ञानी मनुष्य दिनरात संसारी सुख में फँसे रहकर एक क्षण भी नारायणजी का स्मरण नहीं करते ! जिह्वा से वृथा बकते हैं , परमेश्वर का नाम नहीं लेते ! कलियुग में केवल भगवान का नाम लेने , पूजा , ध्यान व भजन करने , उनकी कथा व लीला सुनने और भक्ति रखने से मनुष्यों का सब दुःख , पाप और अज्ञान छूट जाता है ! जब उनके ह्रदय में नारायणजी की कृपा से ज्ञानरूपी दीपक प्रकाशित होता है तब मायारूपी अँधियारे से बाहर निकलकर मुक्ति पाते हैं ! मनुष्य सतयुग में तप , त्रेता में यज्ञ , द्वापर में पूजा , कलियुग में भजन व स्मरण ( सद्कर्म ) करने से कृतार्थ होता है !
सो हे राजन ! तुम भी श्रीकृष्णजी साँवली सूरत का ध्यान हृदय में लगावो तो चतुर्भुजी स्वरुप हो जावोगे ! तुमने कलियुग में उद्धार होने का धर्म जो पुछा था सो संसारीरुपी समुद्र से पार उतरने के लिए परमेश्वर की लीला व कथा सुनना व पढ़ना सहज समझना चाहिए ! 
इससे उत्तम कोई दूसरा उपाय नहीं है ! यह श्रीमद्भागवत पुराण जो ब्रह्माजी से नारदमुनि ने सुनकर वेदव्यासजी को बतलाया और मैंने उनसे पढ़कर तुमको सुनाया ! जब यही कथा सूतजी नैमिषार मिश्रिष शौनक आदिक अट्ठासी हजार ऋषिश्वारों को सुनावेंगे तब यह अमृतरूपी कथा कलियुग में प्रकट होकर संसारी मनुष्यों को भवसागर पार उतारेगी !!

भगवान अंतर्धयान हो गए।

शिव अनादि हैं, अनन्त हैं, विश्वविधाता हैं| सारे संसार में एक मात्र
शिव ही हैं जो जन्म, मृत्यू एवं काल के बंधनो से
अलिप्त स्वयं महा
काल हैं| शिव सृष्टी के मूल कारण हैं, फिर
भी स्वयं अकर्ता हैं, तटस्थ हैं|
सृष्टी से पहले कुछ नहीं था – न
धरती न अम्बर, न अग्नी न वायू, न
सूर्य न ही प्रकाश, न जीव न
ही देव। था तो केवल सर्वव्यपी अंधकार
और महादेव शिव। तब शिव ने
सृष्टी की परिकल्पना की ।
सृष्टी की दो आवश्यकतायँ
थीं – संचालन हेतु शक्ति एवं व्यवस्थापक । शिव ने
स्वंय से अपनी शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं
शक्ति ने व्यवस्था हेतु एक कर्ता पुरूष का सृजन किया जो विष्णु
कहलाय। भगवान विष्णु के नाभि से
ब्रह्मा की उतपत्ति हुई। विष्णु भगवान ने ब्रह्मदेव
को निर्माण कार्य सौंप कर स्वयं सुपालन का कार्य वहन किया।
फिर स्वयं शिव जी के अंशावतार रूद्र ने
सृष्टी के विलय के कार्य का वहन किया। इस प्रकार
सृजन, सुपालन तथा विलय के चक्र के संपादन हेतु
त्रिदेवों की उतपत्ति हुई। इसके उपरांत शिव
जी ने संसार की आयू निरधारित
की जिसे एक कल्प कहा गया। कल्प समय
का सबसे बड़ा माप है। एक कल्प के उपरातं महादेव शिव संपूर्ण
सृष्टी का विलय कर देते हैं तथा पुन: नवनिर्माण
आरंभ करते हैं जिसकी शुरुआत त्रिदेवों के गठन से
होती है| इस प्रकार शिव को छोड शेष
सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं|
इन परमात्मा शिव का अपना कोई स्वरूप नहीं है,
तथा हर स्वरूप इन्हीं का स्वरूप है। शिवलिंग
इन्ही निराकार परमात्मा का परीचायक है
तथा परम शब्द ॐ
इन्हीं की वाणी। 
सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने
अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं
पुरूष लिंग के द्योतक हैं
तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग
की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं
स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर
भी हैं और नारी भी, अतः वे
अर्धनरनारीश्वर हैं|
जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने
पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत
नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन
करना होगा। गहन विचार के उपरांत
भी वो किसी भी निर्णय पर
नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के
हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव
को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया।
ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए।
ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर
स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा।
अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल
प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदा

की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं
स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश
दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान
हो गए।
शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के
द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक
दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के
बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प
सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव
और शक्ति?
शिव कारण हैं; शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर

उसको सर्व सिद्धि को प्राप्त होती है

!! द्वादश ज्योतिर्लिङ्गानि !!

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् |
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम् ||1||

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम् |
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ||२||

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्रयम्बकं गौतमीतटे |
हिमालये तु केदारम् घुश्मेशं च शिवालये ||३||

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायंप्रातः पठेन्नरः |
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ||4||

भगवान शंकर के इस 12 (द्वादश) ज्योतिर्लिंगों का स्मरण प्रत्येक दिन जो कोई भी सांय अर्थात संध्या के समय व प्रात निष्काम भाव से करता है, उसके सात जन्म तक किये हुए पापों का का विनाश भी इस स्त्रोत्र का स्मरण करते ही ही हो जाता है । और उस भक्त के सब पाप नष्ट होकर उसको सर्व सिद्धि को प्राप्त होती है ।

क्या करामात है कुदरत की

तेरी इस दुनिया में ये मंज़र क्यों है,
कहीं ज़ख्म तो कहीं पीठ में खंजर क्यों है...
सुना है तू हर ज़र्रे में है रहता,
फिर ज़मीं पर 
कहीं मस्जिद तो कहीं मंदिर क्यों है...
जब रहने वाले दुनियां के हर बन्दे तेरे हैं, फिर
कोई किसी का दोस्त तो कोई दुश्मन क्यों है...
तू ही लिखता है हर किसी का मुक़द्दर, 
फिर कोई बदनसीब तो कोई मुक़द्दर का सिक्कंदर क्यों है!!! --
कोई रो कर दिल बहलाता है और कोई हँस कर दर्द छुपाता है.
क्या करामात है कुदरत की, 
ज़िंदा इंसान पानी में डूब जाता है और मुर्दा तैर के दिखाता है...

अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दे

यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ...!

कथा महाभारत के युद्ध की है।
अश्वत्थामा ने अपने पिता की छलपूर्ण ह्त्या से कुंठित होकर नारायणास्त्र का प्रयोग कर दिया।

स्थिति बड़ी अजीब पैदा हो गई।
एक तरफ नारायणास्त्र और दुसरी तरफ साक्षात नारायण।

अस्त्र का अनुसंधान होते ही भगवान् ने अर्जुन से कहा - गांडीव को रथ में रखकर नीचे उतर जाओ ...

अर्जुन ने न चाहते हुए भी ऐसा ही किया और श्रीकृष्ण ने भी स्वयं ऐसा ही किया।

नारायणास्त्र बिना किसी प्रकार का अहित किए वापस लौट गया, उसने प्रहार नहीं किया, लेकिन भीम तो वीर था, उसे अस्त्र के समक्ष समर्पण करना अपमान सा लगा।
वह युद्धरथ रहा, उसे छोड़कर सभी नारायणास्त्र के समक्ष नमन मुद्रा में खड़े थे।

नारायणास्त्र पुरे वेग से भीम पर केन्द्रित हो गया।

मगर इससे पहले कि भीम का कुछ अहित हो, नारायण स्वयं दौड़े और भीम से कहा - मूर्खता न कर! इस अस्त्र की एक ही काट है, इसके समक्ष हाथ जोड़कर समर्पण कर, अन्यथा तेरा विध्वंस हो जाएगा।

भीम ने रथ से नीचे उतरकर ऐसा ही किया और नारायणास्त्र शांत होकर वापस लौट गया, अश्वत्थामा का वार खाली गया।

यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ...

जब नारायण स्वयं गुरु रूप में हों, तो विपदा आ ही नहीं सकती, जो विपदा आती है, वह स्वयं उनके तरफ से आती है, इसीलिए कि वह शिष्यों को कसौटी पर कसते है ...

कई बार विकत परिस्थियां आती हैं और शिष्य टूट सा जाता है, उससे लड़ते।
उस समय उस परिस्थिति पर हावी होने के लिये सिर्फ एक ही रास्ता रहता है समर्पण का ...

वह गुरु के चित्र के समक्ष नतमस्तक होकर खडा हो जाए और भक्तिभाव से अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दे और पूर्ण निश्चित हो जाए ...!

धीरे धीरे वह विपरीत परिस्थिति स्वयं ही शांत हो जायेगी...
और फिर उसके जीवन में प्रसन्नता वापस आ जायेगी। 

इनके प्रति सम्मान , सेवा करते जाए


ज्योतिष के कई उपाय इस प्रकार के है कि उनको फलित होने में और समस्या का समाधान देने में समय लगता है लेकिन कुछ उपाय ऎसे भी है जो अचूक है और जिनके लिए रामबाण शब्द का प्रयोग किया जा सकता है । हम उस जगद्गुरू भारत में निवास करते है जहाँ हजारों साल पहले कहा गया कि 'शब्दगुणम् आकाशम्' और आज मोबाइल आपके हाथ में है । कहने का मतलब है कि मंत्र में वो शक्ति है जिसके द्वारा प्रत्येक लाभ प्राप्त किया जा सकता है लेकिन क्या करें कि अनथक उपाय किए , मंत्र जपे लेकिन कोई लाभ नही , क्यों ?
हम में से लगभग कोई भी ऎसे घर में नही रहता होगा जहाँ पूजा पाठ या कम से कम अगरबत्ती नही जलाई जाती होगी पर परिणाम वहीं ढाक के तीन पात ॥
फिर ये सोचकर हार मानकर बैठ गए कि न तो ईश्वर है , न ज्योतिष है और समझदार लोग सोचते है कि मेरा दुर्भाग्य इतना शक्तिशाली है कि कोई उपाय काम नहीं करता । 
पहली बात- हम दिन भर अनेक आनंद के क्षण भोगेंगे लेकिन परमात्मा के सामने खङे होंगे तो यूं जैसेकि वो अहसानमंद हो कि हमने उसके पास जाने का समय निकाला । मन में घूम रहा होता है अलग विचार शरीर है ईश्वर के सामने , मत जाइये मंदिर , आवश्यकता नही है उस शरीर को पहुंचाने की बस घर पर बैठकर आत्मीयता से एक बार खुद को जोङकर देखिये ।
चन्द्र ग्रह माँ का कारक है वो घर में दुखी बैठी है हम सोमवार का व्रत रख उम्मीद करते है कि सब ठीक हो जाएगा ।
युं ही सूर्य - पिता, मंगल - भाई, बुध- बहन आदि के प्रतिनिधि है ।
लाख पते की बात है और ये चैलेंज है ज्योतिष से घृणा करने वालों के लिए कि कोई भी संतान मोटरसाइकिल का आनंद पच्चीस वर्ष से पहले तभी भोगेगी जब उसकी मां का स्नेह उसपे होगा बल्कि युं कहिये कि पच्चीस वर्ष से पहले यदि तीन संताने है तो सबसे पहले वाहन का सुख भोगने का सौभाग्य उसे मिलेगा जिसपर माँ सर्वाधिक स्नेह रखती है ।
पच्चीस वर्ष इसलिए कि उसके बाद जातक भाग्येश काम करने लगता है वो वाहन छीन भी सकता है और एक से ज्यादा भी कर सकता है ।
आर्थिक स्थिति - हालांकि कुंडली में लग्न , धन , आय स्थान आदि मायने रखते है आर्थिक हालात बनाने बिगाङने में लेकिन धन के मामले में सबसे ज्यादा नियंत्रण गुरू ग्रह के हाथ में रहता है तो यदि हम अपनी आर्थिक स्थिति सुधारना चाहे तो सबसे पहले कुंडली की बाधकता किसी योग्य ज्योतिर्विद से दूर करवायें फिर दादा, दादी और गुरू इनके प्रति सम्मान , सेवा करते जाए आपकी तन्मयता, सेवाभावना ज्यों ज्यों बढेगी आपकी समस्यायें घटती चली जायेंगी लेकिन पुनः निवेदन है कि कुंडली की बाधकता नष्ट करवाना आवश्यक है ।
इन बुजुर्गों विशेषतः दादा, दादी , गुरू और अन्य बुजुर्ग की सेवा आपकी अनेक समस्याओं का समाधान कर सकती है ।

कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र


माँ दुर्गा के लोक कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र 

1. सब प्रकार के कल्याण के लिये
“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥” (अ॰११, श्लो॰१०)

अर्थ :- नारायणी! तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।

2. दारिद्र्य-दु:खादिनाश के लिये

“दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो: 
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या 
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता॥” (अ॰४,श्लो॰१७)

अर्थ :- माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:ख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दया‌र्द्र रहता हो।

3॰ बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये
“सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:। 
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥” (अ॰१२,श्लो॰१३)

अर्थ :- मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

4॰ बन्दी को जेल से छुड़ाने हेतु
“राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे।।” (अ॰१२, श्लो॰२७)

5॰ संतान प्राप्ति हेतु
“नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी” (अ॰११, श्लो॰४२)
6॰ अचानक आये हुए संकट को दूर करने हेतु
“ॐ इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्ॐ।।” (अ॰११, श्लो॰५५)

7॰ बाधा शान्ति के लिये
“सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि। 
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥” (अ॰११, श्लो॰३८)

अर्थ :- सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।

8॰ सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति के लिये

पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। 
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥

अर्थ :- मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्‍‌नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।

9॰ भय नाश के लिये
“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। 
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्। 
पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्। 
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥ ” (अ॰११, श्लो॰ २४,२५,२६)

अर्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।

10॰ आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिये
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। 
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

अर्थ :- मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।

11॰ विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिये
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद 
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं 
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

अर्थ :- शरणागत की पीडा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो।

12॰ प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि। 
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥

अर्थ :- विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।

13॰ महामारी नाश के लिये
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। 
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो।

14॰ रोग नाश के लिये
“रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। 
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥” (अ॰११, श्लो॰ २९)

अर्थ :- देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाञ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।

15॰ विपत्ति नाश के लिये
“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। 
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥” (अ॰११, श्लो॰१२)

अर्थ :- शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

16. विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिये
करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी 
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:।

अर्थ :- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।

17॰ भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिये
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

18॰ पापनाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिये
नतेभ्यः सर्वदा भक्तया चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

19 स्वप्न में सिद्धि-असिद्धि जानने के लिये

दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।
मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय॥

20॰ प्रबल आकर्षण हेतु
“ॐ महामायां हरेश्चैषा तया संमोह्यते जगत्,
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।” (अ॰१, श्लो॰५५)

 कार्य सिद्धि के लिये स्वतंत्र रुप से भी इनका पुरश्चरण किया जा सकता है। 

मेरा सामना मेरी काबिलियत से

किसी जंगल
में एक बहुत बड़ा तालाब था .
तालाब के पास एक बागीचा था ,
जिसमे अनेक प्रकार के पेड़ पौधे
लगे थे . दूर- दूर से लोग वहाँ आते
और बागीचे की तारीफ करते .
गुलाब के पेड़ पे लगा पत्ता हर रोज
लोगों को आते-जाते और
फूलों की तारीफ करते देखता, उसे
लगता की हो सकता है एक दिन कोई
उसकी भी तारीफ करे. पर जब
काफी दिन बीत जाने के बाद
भी किसी ने उसकी तारीफ
नहीं की तो वो काफी हीन महसूस
करने लगा . उसके अन्दर तरह-तरह के
विचार आने लगे—” सभी लोग गुलाब
और अन्य फूलों की तारीफ करते
नहीं थकते पर मुझे कोई देखता तक
नहीं , शायद मेरा जीवन किसी काम
का नहीं …कहाँ ये खूबसूरत फूल
और कहाँ मैं… ” और ऐसे विचार सोच
कर वो पत्ता काफी उदास रहने
लगा.
दिन यूँही बीत रहे थे कि एक दिन
जंगल में बड़ी जोर-जोर से
हवा चलने लगी और देखते-देखते
उसने आंधी का रूप ले लिया.
बागीचे के पेड़-पौधे तहस-नहस
होने लगे , देखते-देखते सभी फूल
ज़मीन पर गिर कर निढाल हो गए ,
पत्ता भी अपनी शाखा से अलग
हो गया और उड़ते-उड़ते तालाब में
जा गिरा.
पत्ते ने देखा कि उससे कुछ ही दूर
पर कहीं से एक चींटी हवा के
झोंको की वजह से तालाब में आ
गिरी थी और अपनी जान बचाने के
लिए संघर्ष कर रही थी.
चींटी प्रयास करते-करते
काफी थक चुकी थी और उसे
अपनी मृत्यु तय लग
रही थी कि तभी पत्ते ने उसे
आवाज़ दी, ” घबराओ नहीं, आओ , मैं
तुम्हारी मदद कर देता हूँ .”, और
ऐसा कहते हुए अपनी उपर
बैठा लिया. आंधी रुकते-रुकते
पत्ता तालाब के एक छोर पर पहुँच
गया; चींटी किनारे पर पहुँच कर
बहुत खुश हो गयी और बोली, “ आपने
आज मेरी जान बचा कर बहुत
बड़ा उपकार किया है , सचमुच आप
महान हैं, आपका बहुत-बहुत
धन्यवाद ! “
यह सुनकर पत्ता भावुक हो गया और
बोला,” धन्यवाद तो मुझे
करना चाहिए,
क्योंकि तुम्हारी वजह से आज
पहली बार
मेरा सामना मेरी काबिलियत से
हुआ , जिससे मैं आज तक अनजान
था. आज पहली बार मैंने अपने जीवन
के मकसद और अपनी ताकत को पहचान
पाया हूँ … .’
ईश्वर ने हम
सभी को अनोखी शक्तियां दी हैं ;
कई बार हम खुद अपनी काबिलियत से
अनजान होते हैं और समय आने पर
हमें इसका पता चलता है, हमें इस
बात को समझना चाहिए
कि किसी एक काम में असफल होने
का मतलब हमेशा के लिए अयोग्य
होना नही है . खुद की काबिलियत
को पहचान कर आप वह काम कर सकते
हैं , जो आज तक किसी ने
नही किया है

अब कुछ भी असंभव नहीं है

श्रीविद्या - परिचयएक बार पराम्बा पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि आपके द्वारा प्रकाशित तंत्रशास्त्र की साधना से मनुष्य समस्त आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता से मुक्त हो जायेगा। किंतु सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, उन्नति, समृद्धि के साथ जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति कैसे प्राप्त हो इसका कोई उपाय बताईये।भगवती पार्वती के अनुरोध पर कल्याणकारी शिव ने श्रीविद्या साधना प्रणाली को प्रकट किया। श्रीविद्या साधना भारतवर्ष की परम रहस्यमयी सर्वोत्कृष्ट साधना प्रणाली मानी जाती है। ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म आदि समस्त साधना प्रणालियों का समुच्चय (सम्मिलित रूप) ही श्रीविद्या-साधना है।श्रीविद्या साधना की प्रमाणिकता एवं प्राचीनताजिस प्रकार अपौरूषेय वेदों की प्रमाणिकता है उसी प्रकार शिव प्रोक्त होने से आगमशास्त्र (तंत्र) की भी प्रमाणिकता है। सूत्ररूप (सूक्ष्म रूप) में वेदों में, एवं विशद्रूप से तंत्र-शास्त्रों में श्रीविद्या साधना का विवेचन है।शास्त्रों में श्रीविद्या के बारह उपासक बताये गये है- मनु, चन्द्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य अग्नि, सूर्य, इन्द्र, स्कन्द, शिव और दुर्वासा ये श्रीविद्या के द्वादश उपासक है।श्रीविद्या के उपासक आचार्यो में दत्तात्रय, परशुराम, ऋषि अगस्त, दुर्वासा, आचार्य गौडपाद, आदिशंकराचार्य, पुण्यानंद नाथ, अमृतानन्द नाथ, भास्कराय, उमानन्द नाथ प्रमुख है।इस प्रकार श्रीविद्या का अनुष्ठान चार भगवत् अवतारों दत्तात्रय, श्री परशुराम, भगवान ह्यग्रीव और आद्यशंकराचार्य ने किया है। श्रीविद्या साक्षात् ब्रह्मविद्या है।श्रीविद्या साधनासमस्त ब्रह्मांड प्रकारान्तर से शक्ति का ही रूपान्तरण है। सारे जीव-निर्जीव, दृश्य-अदृश्य, चल-अचल पदार्थो और उनके समस्त क्रिया कलापों के मूल में शक्ति ही है। शक्ति ही उत्पत्ति, संचालन और संहार का मूलाधार है।जन्म से लेकर मरण तक सभी छोटे-बड़े कार्यो के मूल में शक्ति ही होती है। शक्ति की आवश्यक मात्रा और उचित उपयोग ही मानव जीवन में सफलता का निर्धारण करती है, इसलिए शक्ति का अर्जन और उसकी वृद्धि ही मानव की मूल कामना होती है। धन, सम्पत्ति, समृद्धि, राजसत्ता, बुद्धि बल, शारीरिक बल, अच्छा स्वास्थ्य, बौद्धिक क्षमता, नैतृत्व क्षमता आदि ये सब शक्ति के ही विभिन्न रूप है। इन में असन्तुलन होने पर अथवा किसी एक की अतिशय वृद्धि मनुष्य के विनाश का कारण बनती है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है कि शक्ति की प्राप्ति पूर्णता का प्रतीक नहीं है, वरन् शक्ति का सन्तुलित मात्रा में होना ही पूर्णता है। शक्ति का सन्तुलन विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। वहीं इसका असंतुलन विनाश का कारण बनता है। समस्त प्रकृति पूर्णता और सन्तुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है।मनुष्य के पास प्रचुर मात्र में केवल धन ही हो तो वह धीरे-धीरे विकारों का शिकार होकर वह ऐसे कार्यों में लग जायेगा जो उसके विनाश का कारण बनेगें। इसी प्रकार यदि मनुष्य के पास केवल ज्ञान हो तो वह केवल चिन्तन और विचारों में उलझकर योजनाएं बनाता रहेगा। साधनों के अभाव में योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं हो पायेगा। यदि मनुष्य में असिमित शक्ति हो तो वह अपराधी या राक्षसी प्रवृत्ति का हो जायेगा। इसका परिणाम विनाश ही है।जीवन के विकास और उसे सुन्दर बनाने के लिये धन-ज्ञान और शक्ति के बीच संतुलन आवश्यक है। श्रीविद्या-साधना वही कार्य करती है, श्रीविद्या-साधना मनुष्य को तीनों शक्तियों की संतुलित मात्रा प्रदान करती है और उसके लोक परलोक दोनों सुधारती है।जब मनुष्य में शक्ति संतुलन होता है तो उसके विचार पूर्णतः पॉजिटिव (सकारात्मक, धनात्मक) होते है। जिससे प्रेरित कर्म शुभ होते है और शुभ कर्म ही मानव के लोक-लोकान्तरों को निर्धारित करते है तथा मनुष्य सारे भौतिक सुखों को भोगता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है।श्रीविद्या-साधना ही एक मात्र ऐसी साधना है जो मनुष्य के जीवन में संतुलन स्थापित करती है। अन्य सारी साधनाएं असंतुलित या एक तरफा शक्ति प्रदान करती है। इसलिए कई तरह की साधनाओं को करने के बाद भी हमें साधकों में न्यूनता (कमी) के दर्शन होते है। वे कई तरह के अभावों और संघर्ष में दुःखी जीवन जीते हुए दिखाई देते है और इसके परिणाम स्वरूप जन सामान्य के मन में साधनाओं के प्रति अविश्वास और भय का जन्म होता है और वह साधनाओं से दूर भागता है। भय और अविश्वास के अतिरिक्त योग्य गुरू का अभाव, विभिन्न यम-नियम-संयम, साधना की सिद्धि में लगने वाला लम्बा समय और कठिन परिश्रम भी जन सामान्य को साधना क्षेत्र से दूर करता है। किंतु श्रीविद्या-साधना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अत्यंत सरल, सहज और शीघ्र फलदायी है। सामान्य जन अपने जीवन में बिना भारी फेरबदल के सामान्य जीवन जीते हुवे भी सुगमता पूर्वक साधना कर लाभान्वित हो सकते है। परम पूज्य गुरूदेव डॉ. सर्वेश्वर शर्मा ने चमत्कारी शीघ्र फलदायी श्रीविद्या-साधना को जनसामान्य तक पहुचाने के लिए विशेष शोध किये और कई निष्णात विद्ववानों, साधकों और सन्यासियों से वर्षो तक विचार-विमर्श और गहन अध्ययन चिंतन के बाद यह विधि खोज निकाली जो जनसामान्य को सामान्य जीवन जीते हुए अल्प प्रयास से ही जीवन में सकारात्मक परिवर्तन कर सफलता और समृद्धि प्रदान करती है।  श्रीविद्या-साधना जीवन के प्रत्येक क्षे़त्र नौकरी, व्यवसाय, आर्थिक उन्नति, सामाजिक उन्नति, पारिवारिक शांति, दाम्पत्य सुख, कोर्ट कचहरी, संतान-सुख, ग्रह-नक्षत्रदोष शांति में साधक को पूर्ण सफलता प्रदान करती है। यह साधना व्यक्ति के सर्वांगिण विकास में सहायक है। कलियुग में श्रीविद्या की साधना ही भौतिक, आर्थिक समृद्धि और मोक्ष प्राप्ति का साधन है।श्रीविद्या-साधना के सिद्धांतसंतुलन का सिद्धांत- शक्ति के सभी रूपों में धन-समृद्धि, सत्ता, बुद्धि, शक्ति, सफलता के क्षेत्र में।संपूर्णता का सिद्धांत- धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति।सुलभता का सिद्धांत- मिलने में आसान।सरलता का सिद्धांत- करने में आसान।निर्मलता का सिद्धांत- बिना किसी दुष्परिणाम के साधना।निरंतरता का सिद्धांत- सदा, शाश्वत लाभ और उन्नति।सार्वजनिकता का सिद्धांत - हर किसी के लिए सर्वश्रेष्ठ साधना ।देवताओं और ऋषियों द्वारा उपासित श्रीविद्या-साधना वर्तमान समय की आवश्यकता है। यह परमकल्याणकारी उपासना करना मानव के लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। आज के युग में बढ़ती प्रतिस्पर्धा, अशांति, सामाजिक असंतुलन और मानसिक तनाव ने व्यक्ति की प्रतिभा और क्षमताओं को कुण्ठित कर दिया है। क्या आपने कभी सोचा है कि हजारों प्रयत्नों के बाद भी आप वहां तक क्यों नहीं पहुच पाये जहां होना आपकी चाहत रही है ? आप के लिए अब कुछ भी असंभव नहीं है, चाहें वह सुख-समृद्धि हो, सफलता, शांति ऐश्वर्य या मुक्ति (मोक्ष) हो। ऐसा नहीं कि साधक के जीवन में विपरीत परिस्थितियां नहीं आती है। विपरीत परिस्थितियां तो प्रकृति का महत्वपूर्ण अंग है। संसार में प्रकाश है तो अंधकार भी है। सुख-दुःख, सही-गलत, शुभ-अशुभ, निगेटिव-पॉजिटिव, प्लस-मायनस आदि। प्रकाश का महत्व तभी समझ में आता है जब अंधकार हो। सुख का अहसास तभी होता हैं जब दुःख का अहसास भी हो चुका हो। श्रीविद्या-साधक के जीवन में भी सुख-दुःख का चक्र तो चलता है, लेकिन अंतर यह है कि श्रीविद्या-साधक की आत्मा व मस्तिष्क इतने शक्तिशाली हो जाते है कि वह ऐसे कर्म ही नहीं करता कि उसे दुःख उठाना पड़े किंतु फिर भी यदि पूर्व जन्म के संस्कारों, कर्मो के कारण जीवन में दुःख संघर्ष है तो वह उन सभी विपरीत परिस्थितियों से आसानी से मुक्त हो जाता है। वह अपने दुःखों को नष्ट करने में स्वंय सक्षम होता है।

Saturday, 28 June 2014

तो तुम्हेँ सुख मिलेगा

मैं कौन हूँ ? जिस नाम से सगे-संबंधी य मित्र आदि तुमें पुकारते है अथवा जानते हैं, क्या वही तुम्हारा वास्तविक नाम या स्वरुप है अथवा तुम कोई और हो?

मैं कौन हूँ- स्वयं से अन्तर क्रिया में जाकर पूछें? आपके सवालों का जबाब तुम्हें स्वयं मिल जायेगा। परन्तु मैं तुम्हें फिर भी तुम्हारे वास्तविक स्वरुप से परचित कराने क प्रयास करुंगा...

परब्रह्म परमात्मा ॐकार स्वरुप है। जिसे तीन भागों में विभाजित किया गया हैं (१) अकार (२) उकार (३) मकार, (१) अकार का तत्यप्राय: (ब्रह्मा) (२) उकार का तत्यप्राय: विष्णु (३) मकार का तत्यप्राय: शिव से हैं, जो हमारे शरीर से संबंधित हैं। हमारे शरीर का प्रथम भाग ब्रह्मा (सर से कंठ तक) द्वितीय भाग विष्णु (कंठ से नाभि तक) तृतीय भाग शिव (कमर से निचे तक)

ब्रह्मा का तत्यप्राय: "ब्राह्मण" से है, विष्णु का तत्यप्राय: "वैश्य" से है तथा शिव का तत्यप्राय: "शूद्र" से है। हमारे शरीर के तीनों भागों को ही ब्रह्मा-विष्णु एवं शिव कहा गया है, जो पूर्णतय: सत्य हैं।

तुम स्वयं पूर्ण ब्रह्म हों, ब्रह्म की कोइ जाति अथवा सम्प्रदाय नही होता है फ़िर तुम जातिवाद या सम्प्रदायवाद के झगड़े में क्यों फंसे हुए हों।

पूर्ण ब्रह्म का कार्य तो सभी को प्यार-स्नेह करना हैं। हम सब परब्रह्म भगवन सूर्यदेव की संतान हैं। सूर्यदेव अपनी किसी भी सांतन के साथ भेद-भाव नहीं करते है। कौन किस जाती या सम्प्रदाय का है, इस बात पर वह कभी भी ध्यान नहीं देते है, वह तो सभी को अपनी संतान मान कर प्रेम करतें है, फिर तुम एक दूसरे के साथ भेदभाव या घृणा क्यों करते हों।

अपने से बड़ों कि सेवा और अपने से छोटों को प्यार करोगेँ, तो तुम्हेँ सुख मिलेगा। जातिवाद या सम्प्रदायवाद में प्यार, सुख: और शांति नहीं है और न ही कभी भी मिलने वाली ही हैं।

स्वार्थी तथा अज्ञानी तत्त्वों द्वारा फैलाया गया सब मायाजाल हैं, इससे बचेँ और स्वयं को जानें।

संसार जितने भी जीव-पशु-पंछी-वृक्ष आदि हैं, सभी परमात्मा स्वरुप हैं। परमात्मा ने सभी को एक दूसरें की सेवा के लिये बनाया हैं।

तुम स्वयं "ब्रह्म" हो और चराचर जगत में जो भी तुम्हारी आखेँ देख रही है वह सब ब्रह्म रुप हैं। सभी से निष्काम प्रेम करें। इसी में तुम्हारा मंगल और कल्याण होगा।

बुद्धिमान लोगों से मित्रता करना चाहिये

बुद्धिमान व्यक्ति के प्रति अपराध कर कोई दूर भी चला जाये तो चैन से न बैठे क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति की बाहें लंबी होती है और समय आने पर वह अपना बदला लेता है।

संक्षिप्त व्याख्या-कई मूर्ख लोग सभ्य और बुद्धिमान व्यक्तियों को अहिंसक समझकर उनका अपमान करते हैं। उनके प्रति अपराध करते हुए उनको लगता है कि यह तो अहिंसक व्यक्ति है क्या कर लेगा? आजकल तो हिंसा के प्रति लोगों का मोह ऐसा बढ़ गया है कि लोग बुद्धिमान से अधिक बाहूबलियों का आसरा लेना पसंद करते हैं। एक सभ्य और बुद्धिमान युवक की बजाय लोग दादा टाईप के आदमी से मित्रता करने को अधिक तरजीह देते हैं। ऐसा करना लाभदायक नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति शारीरिक रूप से हिंसक नहीं होते पर उनकी बुद्धि इतनी तीक्ष्ण होती है कि उससे उनकी कार्य करने की क्षमता व्यापक होती है अर्थात उनकी बाहें लंबी होती है। अपने स्वयं ये मित्र के प्रति अपराध या अपमान किये जाने का समय आने पर वह बदला लेते हैं। हमें इसलिये बुद्धिमान लोगों से मित्रता करना चाहिये न कि उनके प्रति अपराध।

जो विश्वास का पात्र नहीं है उसका तो कभी विश्वास किया ही नहीं जाना चाहिये पर जो विश्वास योग्य है उस पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जाना चाहिये। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल उद्देश्य का भी नाश कर डालता है।

सच तो यह है कि जहां विश्वास है वहीं धोखा है। इसलिये विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये। किसी कार्य या उद्देश्य के लिये अपनी शक्ति पर निर्भर रहना ही अच्छा है पर अगर करना भी पड़े तो अधिक विश्वास नहीं करना चाहिये। जहां हमने अपने कार्य या उद्देश्य के लिये पूरी तरह किसी पर विश्वास किया तो उसके पूर्ण होने की संभावना नगण्य ही रह जाती है।

तब नारायणजी धर्म की रक्षा करने के लिए


परलोक का सोच न करेंगे !
चोर व डाकू बहुत उत्पन्न होकर सबको दुःख देंगे ! राजा लोग चोर व डाकू से मेल करके प्रजा का धन चुरवा लेंगे ! दश वर्ष की कन्या बालक जानेगी और कुलीन स्त्रियाँ दूसरे पुरुष की चाह रखेंगी ! अपना कुटुम्ब पालनेवाले को सब लोग अच्छा जानेंगे ! केवल अपना पेट भरने से सब छोटे-बड़े प्रसन्न रहेंगे ! बहुत लोग अन्न व वस्त्र का दुःख उठावेंगे !
वृक्ष छोटे होंगे ! औषधों में गुण नहीं रहेगा ! शुद्र के समान चारों वर्णों का धर्म होगा ! राजा लोग थोड़ी सी सामर्थ्य रखने पर सब पृथ्वी लेने की इच्छा रखेंगे ! गृहस्थ लोग माता-पिता को छोड़कर ससुर , साले और स्त्री की आज्ञा में रहेंगे ! निकट के तीर्थो पर विश्वास न रखकर दूर के तीर्थों में जावेंगे , पर तीर्थ में नहाने और दर्शन करने से जो फल मिलता है उस पर उनको निश्चय न होगा !
होम और यज्ञ आदि संसार में कम होंगे ! गृहस्थ लोग दो-चार ब्राह्मण खिला देने को ही बड़ा धर्म समझेंगे ! सब लोग धर्म व दया छोड़कर ऐसे सूम हो जावेंगे कि उनसे अतिथि को भी भोजन व वस्त्र नहीं दिया जाएगा ! सन्यासी लोग अपना धर्म-कर्म छोड़कर गेरुआ वस्त्र पहिनने से दंडी मालूम होंगे !

इतनी कथा सुनाकर शुकदेवजी ने कहा - हे परीक्षित ! जब कलियुग के अंत में इसी तरह घोर पाप होगा तब नारायणजी धर्म की रक्षा करने के लिए सम्भल देश में ( आज का उत्तर भारतीय क्षेत्र ) गौढ़ ब्राह्मण के घर कल्कि अवतार लेंगे !
यह उनका २४वा अवतार कहलायेगा ( गयात्री की चौबीस शक्तियों सहित ) 
नीले घोड़े  पर चढ़कर ( लेखनी द्वारा युग साहित्य सृजन करके )
हजारों राजाओं , अधर्मियों और पापियों को ( भ्रष्ट चिंतन व भ्रष्ट आचरण करने वाले मनुष्यों को )
खड्ग से ( विवेकशील व श्रेष्ठ विचारों द्वारा )  मार डालेंगे ( अर्थात दृष्टिकोण परिवर्तन ) !
जब उनके दर्शन ( जीवन दर्शन ) मिलने से बचे हुए मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त हो जावेगा तब वे लोग पाप करना छोड़कर अपने धर्म से चलेंगे 
उसके उपरान्त सतयुग होगा  सब छोटे-बड़े अपना धर्म-कर्म करेंगे !

हे राजन ! इसी तरह ब्राह्मण क्षत्रिय , वेश्य , शूद्र चारों वर्णों का वंश बराबर चला आता है ! सतयुग के आदि में राजा देवापि चन्द्रवंशी जो बद्रिकाश्रम में और राजा मरू सूर्यवंशी जो मन्दराचल पहाड़ पर ( हिमालय की गोद ) बैठे हुए तप कर रहे हैं , सूर्यवंशी कुल को उत्पन्न करेंगे ! सतयुग के प्रवेश करने से कलियुग का धर्म जाता रहेगा !
देखो , इतने बड़े-बड़े राजा पृथ्वी पर होकर मिट्टी में मिल गये , भलाई-बुराई के सिवा कुछ उनके साथ नहीं गया ! यह शरीर मरने के उपरान्त कुछ काम न आवेगा ! इसको यूँ ही छोड़ देने से कौवे व कुत्ते खा जाते हैं ! कीड़े पड़ने व दुर्गन्ध आने से कोई उसके पास खड़ा नहीं होता ! जला देने से राख हो जाता है ! जो लोग नाश होनेवाले शरीर को पुष्ट करने के लिए जीवहिंसा करते हैं उनको बड़ा मुर्ख समझना चाहिए !
बड़े-बड़े प्रतापी राजाओं का नाश हो गया , केवल उनका यश-अपयश रह गया ! यह शरीर लाखों यत्न करने पर भी किसी तरह स्थिर नहीं रहता , इसलिए मनुष्य को उचित है कि अपने शरीर से अधिक प्रीती व अहंकार छोड़कर हरिचरणों ( शुभ संकल्प व सत्कर्मों ) में ध्यान लगावे और परमेश्वर का भजन व स्मरण ( श्रेष्ठ चिंतन व मनन ) करके भवसागर पार उतर जावे ! मनुष्यतनु पाने का यही फल है ! नहीं तो पीछे बहुत पछ्तावेगा !
हे परीक्षित ! तुम बड़े भाग्यवान हो जो अंत समय परमेश्वर की कथा व लीला सुनने में तुम्हारा मन लगा है !!

धर्म छोड़ देंगे




राजा परीक्षित ने इतनी कथा सुनकर विनय किया - हे मुनिनाथ ! आपने कहा कि जिस दिन श्रीकृष्णजी वैकुण्ठ को गये उसी दिन सत्य व धर्म संसार से उठ गया , क्या उनके पीछे कोई ऐसा धर्मात्मा राजा नहीं हुआ जो धर्म को स्थिर रखता ? अब यह बतलाइए कि फिर किसके वंश में राजगद्दी रही थी !
शुकदेवजी ने कहा - हे परीक्षित ! श्यामसुन्दर के रहने तक द्वापरयुग था , उनके पीछे कलियुग में जो राजा हुए उन्होंने सत्य व धर्म को छोड़ दिया ! थोड़ी आयु रहने से कुछ शुभ कर्म भी नहीं कर सकते थे ! जब श्रीकृष्णजी महाराज वैकुण्ठधाम को गये तब पांडवों के वंश में तुम चक्रवर्ती राजा हुए और तुम्हारे उपरान्त ब्रजनाभ व जन्मेजय च्रक्रवर्ती राजा होंगें ...
जरासन्ध का बेटा जो सहदेव था , उसके वंश में पुरुजित नाम का राजा होगा ! उसे चाणक मंत्री मारकर अपने पुत्र प्रदवेत को राज्य देगा ! उसके वंश में तीनसों अड़तीस वर्ष तक राजगद्दी रहेगी ! फिर शिशुनाग नाम राजा होगा ! उसके कुल में काकौरन व क्षेमधर्मा आदि उत्पन्न होकर तीनसों साठ वर्ष राज्य करेंगे ! फिर महानन्दी राजा के बिन्द नाम का बेटा शुद्री से उत्पन्न होकर बरजोरी सब क्षत्रियों का धर्म नष्ट करेगा ! उसके डर से सब कुलीन क्षत्रीय भागकर पंजाब में जा बसेंगे ! पर्वत पर रहनेवाले क्षत्रिय शुद्रधर्म रखेंगे ! राजा बिन्द के आठ बेटे राज्य करेंगे ! उन आठों को चंद्रगुप्त नामक दास मारकर आप राजगद्दी पर बैठ जाएगा ! उसके वंश में वारीचारी व देवहूति आदि उत्पन्न होकर हजार वर्ष तक राजा रहेंगे ...
फिर देवहूति का मंत्री कणव अपने राजा को स्त्री के विषय में फँसे रहने से मारकर आप राज्य करेगा ! उसी कुल में वसुदेव , बहुमित्र और नारायण आदि उत्पन्न होंगे ! उनके वंश में तीनसों पैंतालीस वर्ष तक राज्य रहेगा ! फिर कनल नामक शुद्र नारायण राजा को मारकर आप राजगद्दी पर बैठ जाएगा ! उसके वंश में कृष्ण व पूर्णमास आदिक उत्पन्न होकर तीस पीढ़ी साढ़े आठसौ वर्ष तक राज्य करेंगे ...
फिर उभरती शहर के रहनेवाले सात अहीर राजा होंगे ! उन्हें मारने के उपरान्त कावों का राज्य होगा ! उनके पीछे चौदह पीढ़ी तक मुसलमान राजा होकर बादशाह कहलावेंगे ! एक हजार निन्नानवे वर्ष तक उनका राज्य रहेगा ! मुसलमानों को जीतकर दश पीढ़ी गोरंड (अंग्रेज) राज्य करेंगे ! उनके पीछे ग्यारह पीढ़ी निन्नानवे वर्ष तक मौन (प्रजातंत्र) का राज्य होगा !
इतने लोग कलियुग में नामी राजा होकर फिर अहीर , शुद्र और मलेच्छ राजा होंगे ! कलियुग में राजा अपना कर्म व धर्म छोड़कर स्त्री , बालक व गौ का वध करेंगे ! दूसरे का धन , स्त्री , व पृथ्वी बरजोरी छीनकर काम , क्रोध , लोभ अधिक रखेंगे ! उनकी दशा देखकर प्रजा लोग अपने कर्म व धर्म से न रहकर बहुत पाप करेंगे ...

शुकदेवजी ने कहा - हे परीक्षित ! कलियुग में संसारी मनुष्य दया व सच्चाई छोड़ देने से सामर्थ्यहीन हो जावेंगे और आयु थोड़ी होने में कुछ शुभ कर्म उनसे नहीं बन पड़ेगा ! राजा लोग प्रजा को दुःख देकर अन्न का चारों भाग ले लेंगे ! वर्षा थोड़ी होगी , अन्न कम उत्पन्न होगा ! महँगी पड़ने से सब मनुष्य खाने के बिना दुःख पाकर अपने-अपने  वर्ण व आश्रम का धर्म छोड़ देंगे !
कलियुग में मनुष्यों की आयु एकसौ बीस वर्ष की लिखी है , पर अधर्म करने से पूरी आयु न भोगकर उसके भीतर मर जावेंगे ! कलियुग के अंत में बहुत पाप करने के कारण बीस-बाईस वर्ष से अधिक कोई नहीं जीवेगा ! ऐसा चक्रवर्ती व प्रतापी राजा भी कोई नहीं रहेगा जिसकी आज्ञा सातों द्वीपों के राजा पालन करें ! जिनके पास थोड़ासा भी राज्य व देश होगा वे अपने को बड़ा प्रतापी समझेंगे ! 
थोड़ी आयु होने पर भी पृथ्वी व धन लेने के लिए आपस में झगड़ा करेंगे और अपना धर्म व न्याय छोड़कर जो मनुष्य उनको द्रिव्य देगा उसका पक्ष करेंगे ! पाप पुण्य का विचार न रक्खेंगे ! चोरी व कुकर्म करने और झूठ बोलने में अपनी अवस्था बीताकर दमड़ी की कौड़ी के लिए मित्र से शत्रु हो जावेंगे !
गायों के दूध बकरी के समान थोड़ा होगा ! ब्राह्मणों में कोई ऐसा लक्षण नहीं रहेगा जिसे देखकर मनुष्य पहिचान सके कि यह ब्राहम्ण है ! पूछने से उनकी जाति मालूम होगी ! धनपात्र की सेवा सब लोग करेंगे , उत्तम-मध्यम वर्ण का कुछ विचार नहीं रहेगा ! व्यापार में छल अधिक होगा ! स्त्री-पुरुष का चित्त मिलने से ऊँच-नीच जाति आपस में भोग-विलास करेंगे ! ब्राह्मण लोग अपना धर्म-कर्म छोड़कर जनेऊ पहिनने से ब्राह्मण कहलावेंगे !
ब्रह्मचारी व वानप्रस्थ जटा सिर पर बढ़ाकर अपने आश्रम के विचार छोड़ देंगे ! उत्तम वर्ण कंगाल से धनपात्र मध्यम वर्ण को अच्छा समझेंगे ! झूठी बात बनानेवाला मुर्ख मनुष्य सच्चा व ज्ञानी कहलावेगा !
तीनों वर्णों के मनुष्य जप , तप , संध्या व तर्पण करना छोड़कर नहाने के उपरान्त भोजन कर लेंगे ! केवल स्नान करना बड़ा आचार समझेंगे और ऐसी बात करेंगे कि जिससे संसार में यश हो ! अपनी सुन्दरता के लिए शिर पर बाल रखेंगे ! 

पूछने से उनकी जाति मालूम होगी

धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश करने हेतु कल्कि अवतार का प्राकट्य ...

राजा परीक्षित ने इतनी कथा सुनकर विनय किया - हे मुनिनाथ ! आपने कहा कि जिस दिन श्रीकृष्णजी वैकुण्ठ को गये उसी दिन सत्य व धर्म संसार से उठ गया , क्या उनके पीछे कोई ऐसा धर्मात्मा राजा नहीं हुआ जो धर्म को स्थिर रखता ? अब यह बतलाइए कि फिर किसके वंश में राजगद्दी रही थी !
शुकदेवजी ने कहा - हे परीक्षित ! श्यामसुन्दर के रहने तक द्वापरयुग था , उनके पीछे कलियुग में जो राजा हुए उन्होंने सत्य व धर्म को छोड़ दिया ! थोड़ी आयु रहने से कुछ शुभ कर्म भी नहीं कर सकते थे ! जब श्रीकृष्णजी महाराज वैकुण्ठधाम को गये तब पांडवों के वंश में तुम चक्रवर्ती राजा हुए और तुम्हारे उपरान्त ब्रजनाभ व जन्मेजय च्रक्रवर्ती राजा होंगें ...
जरासन्ध का बेटा जो सहदेव था , उसके वंश में पुरुजित नाम का राजा होगा ! उसे चाणक मंत्री मारकर अपने पुत्र प्रदवेत को राज्य देगा ! उसके वंश में तीनसों अड़तीस वर्ष तक राजगद्दी रहेगी ! फिर शिशुनाग नाम राजा होगा ! उसके कुल में काकौरन व क्षेमधर्मा आदि उत्पन्न होकर तीनसों साठ वर्ष राज्य करेंगे ! फिर महानन्दी राजा के बिन्द नाम का बेटा शुद्री से उत्पन्न होकर बरजोरी सब क्षत्रियों का धर्म नष्ट करेगा ! उसके डर से सब कुलीन क्षत्रीय भागकर पंजाब में जा बसेंगे ! पर्वत पर रहनेवाले क्षत्रिय शुद्रधर्म रखेंगे ! राजा बिन्द के आठ बेटे राज्य करेंगे ! उन आठों को चंद्रगुप्त नामक दास मारकर आप राजगद्दी पर बैठ जाएगा ! उसके वंश में वारीचारी व देवहूति आदि उत्पन्न होकर हजार वर्ष तक राजा रहेंगे ...
फिर देवहूति का मंत्री कणव अपने राजा को स्त्री के विषय में फँसे रहने से मारकर आप राज्य करेगा ! उसी कुल में वसुदेव , बहुमित्र और नारायण आदि उत्पन्न होंगे ! उनके वंश में तीनसों पैंतालीस वर्ष तक राज्य रहेगा ! फिर कनल नामक शुद्र नारायण राजा को मारकर आप राजगद्दी पर बैठ जाएगा ! उसके वंश में कृष्ण व पूर्णमास आदिक उत्पन्न होकर तीस पीढ़ी साढ़े आठसौ वर्ष तक राज्य करेंगे ...
फिर उभरती शहर के रहनेवाले सात अहीर राजा होंगे ! उन्हें मारने के उपरान्त कावों का राज्य होगा ! उनके पीछे चौदह पीढ़ी तक मुसलमान राजा होकर बादशाह कहलावेंगे ! एक हजार निन्नानवे वर्ष तक उनका राज्य रहेगा ! मुसलमानों को जीतकर दश पीढ़ी गोरंड (अंग्रेज) राज्य करेंगे ! उनके पीछे ग्यारह पीढ़ी निन्नानवे वर्ष तक मौन (प्रजातंत्र) का राज्य होगा !
इतने लोग कलियुग में नामी राजा होकर फिर अहीर , शुद्र और मलेच्छ राजा होंगे ! कलियुग में राजा अपना कर्म व धर्म छोड़कर स्त्री , बालक व गौ का वध करेंगे ! दूसरे का धन , स्त्री , व पृथ्वी बरजोरी छीनकर काम , क्रोध , लोभ अधिक रखेंगे ! उनकी दशा देखकर प्रजा लोग अपने कर्म व धर्म से न रहकर बहुत पाप करेंगे ...

शुकदेवजी ने कहा - हे परीक्षित ! कलियुग में संसारी मनुष्य दया व सच्चाई छोड़ देने से सामर्थ्यहीन हो जावेंगे और आयु थोड़ी होने में कुछ शुभ कर्म उनसे नहीं बन पड़ेगा ! राजा लोग प्रजा को दुःख देकर अन्न का चारों भाग ले लेंगे ! वर्षा थोड़ी होगी , अन्न कम उत्पन्न होगा ! महँगी पड़ने से सब मनुष्य खाने के बिना दुःख पाकर अपने-अपने वर्ण व आश्रम का धर्म छोड़ देंगे !
कलियुग में मनुष्यों की आयु एकसौ बीस वर्ष की लिखी है , पर अधर्म करने से पूरी आयु न भोगकर उसके भीतर मर जावेंगे ! कलियुग के अंत में बहुत पाप करने के कारण बीस-बाईस वर्ष से अधिक कोई नहीं जीवेगा ! ऐसा चक्रवर्ती व प्रतापी राजा भी कोई नहीं रहेगा जिसकी आज्ञा सातों द्वीपों के राजा पालन करें ! जिनके पास थोड़ासा भी राज्य व देश होगा वे अपने को बड़ा प्रतापी समझेंगे ! 
थोड़ी आयु होने पर भी पृथ्वी व धन लेने के लिए आपस में झगड़ा करेंगे और अपना धर्म व न्याय छोड़कर जो मनुष्य उनको द्रिव्य देगा उसका पक्ष करेंगे ! पाप पुण्य का विचार न रक्खेंगे ! चोरी व कुकर्म करने और झूठ बोलने में अपनी अवस्था बीताकर दमड़ी की कौड़ी के लिए मित्र से शत्रु हो जावेंगे !
गायों के दूध बकरी के समान थोड़ा होगा ! ब्राह्मणों में कोई ऐसा लक्षण नहीं रहेगा जिसे देखकर मनुष्य पहिचान सके कि यह ब्राहम्ण है ! पूछने से उनकी जाति मालूम होगी ! धनपात्र की सेवा सब लोग करेंगे , उत्तम-मध्यम वर्ण का कुछ विचार नहीं रहेगा ! व्यापार में छल अधिक होगा ! स्त्री-पुरुष का चित्त मिलने से ऊँच-नीच जाति आपस में भोग-विलास करेंगे ! ब्राह्मण लोग अपना धर्म-कर्म छोड़कर जनेऊ पहिनने से ब्राह्मण कहलावेंगे !
ब्रह्मचारी व वानप्रस्थ जटा सिर पर बढ़ाकर अपने आश्रम के विचार छोड़ देंगे ! उत्तम वर्ण कंगाल से धनपात्र मध्यम वर्ण को अच्छा समझेंगे ! झूठी बात बनानेवाला मुर्ख मनुष्य सच्चा व ज्ञानी कहलावेगा !
तीनों वर्णों के मनुष्य जप , तप , संध्या व तर्पण करना छोड़कर नहाने के उपरान्त भोजन कर लेंगे ! केवल स्नान करना बड़ा आचार समझेंगे और ऐसी बात करेंगे कि जिससे संसार में यश हो ! अपनी सुन्दरता के लिए शिर पर बाल रखेंगे ! परलोक का सोच न करेंगे !
चोर व डाकू बहुत उत्पन्न होकर सबको दुःख देंगे ! राजा लोग चोर व डाकू से मेल करके प्रजा का धन चुरवा लेंगे ! दश वर्ष की कन्या बालक जानेगी और कुलीन स्त्रियाँ दूसरे पुरुष की चाह रखेंगी ! अपना कुटुम्ब पालनेवाले को सब लोग अच्छा जानेंगे ! केवल अपना पेट भरने से सब छोटे-बड़े प्रसन्न रहेंगे ! बहुत लोग अन्न व वस्त्र का दुःख उठावेंगे !
वृक्ष छोटे होंगे ! औषधों में गुण नहीं रहेगा ! शुद्र के समान चारों वर्णों का धर्म होगा ! राजा लोग थोड़ी सी सामर्थ्य रखने पर सब पृथ्वी लेने की इच्छा रखेंगे ! गृहस्थ लोग माता-पिता को छोड़कर ससुर , साले और स्त्री की आज्ञा में रहेंगे ! निकट के तीर्थो पर विश्वास न रखकर दूर के तीर्थों में जावेंगे , पर तीर्थ में नहाने और दर्शन करने से जो फल मिलता है उस पर उनको निश्चय न होगा !
होम और यज्ञ आदि संसार में कम होंगे ! गृहस्थ लोग दो-चार ब्राह्मण खिला देने को ही बड़ा धर्म समझेंगे ! सब लोग धर्म व दया छोड़कर ऐसे सूम हो जावेंगे कि उनसे अतिथि को भी भोजन व वस्त्र नहीं दिया जाएगा ! सन्यासी लोग अपना धर्म-कर्म छोड़कर गेरुआ वस्त्र पहिनने से दंडी मालूम होंगे !

इतनी कथा सुनाकर शुकदेवजी ने कहा - हे परीक्षित ! जब कलियुग के अंत में इसी तरह घोर पाप होगा तब नारायणजी धर्म की रक्षा करने के लिए सम्भल देश में ( आज का उत्तर भारतीय क्षेत्र ) गौढ़ ब्राह्मण के घर कल्कि अवतार लेंगे !
यह उनका २४वा अवतार कहलायेगा ( गयात्री की चौबीस शक्तियों सहित ) 
नीले घोड़े पर चढ़कर ( लेखनी द्वारा युग साहित्य सृजन करके )
हजारों राजाओं , अधर्मियों और पापियों को ( भ्रष्ट चिंतन व भ्रष्ट आचरण करने वाले मनुष्यों को )
खड्ग से ( विवेकशील व श्रेष्ठ विचारों द्वारा ) मार डालेंगे ( अर्थात दृष्टिकोण परिवर्तन ) !
जब उनके दर्शन ( जीवन दर्शन ) मिलने से बचे हुए मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त हो जावेगा तब वे लोग पाप करना छोड़कर अपने धर्म से चलेंगे ( २१ वीं सदी का संविधान हमारा युग निर्माण सत्संकल्प ) !
उसके उपरान्त सतयुग होगा ( २१ वीं सदी उज्जवल भविष्य ) , सब छोटे-बड़े अपना धर्म-कर्म करेंगे !

हे राजन ! इसी तरह ब्राह्मण क्षत्रिय , वेश्य , शूद्र चारों वर्णों का वंश बराबर चला आता है ! सतयुग के आदि में राजा देवापि चन्द्रवंशी जो बद्रिकाश्रम में और राजा मरू सूर्यवंशी जो मन्दराचल पहाड़ पर ( हिमालय की गोद ) बैठे हुए तप कर रहे हैं , सूर्यवंशी कुल को उत्पन्न करेंगे ! सतयुग के प्रवेश करने से कलियुग का धर्म जाता रहेगा !
देखो , इतने बड़े-बड़े राजा पृथ्वी पर होकर मिट्टी में मिल गये , भलाई-बुराई के सिवा कुछ उनके साथ नहीं गया ! यह शरीर मरने के उपरान्त कुछ काम न आवेगा ! इसको यूँ ही छोड़ देने से कौवे व कुत्ते खा जाते हैं ! कीड़े पड़ने व दुर्गन्ध आने से कोई उसके पास खड़ा नहीं होता ! जला देने से राख हो जाता है ! जो लोग नाश होनेवाले शरीर को पुष्ट करने के लिए जीवहिंसा करते हैं उनको बड़ा मुर्ख समझना चाहिए !
बड़े-बड़े प्रतापी राजाओं का नाश हो गया , केवल उनका यश-अपयश रह गया ! यह शरीर लाखों यत्न करने पर भी किसी तरह स्थिर नहीं रहता , इसलिए मनुष्य को उचित है कि अपने शरीर से अधिक प्रीती व अहंकार छोड़कर हरिचरणों ( शुभ संकल्प व सत्कर्मों ) में ध्यान लगावे और परमेश्वर का भजन व स्मरण ( श्रेष्ठ चिंतन व मनन ) करके भवसागर पार उतर जावे ! मनुष्यतनु पाने का यही फल है ! नहीं तो पीछे बहुत पछ्तावेगा !
हे परीक्षित ! तुम बड़े भाग्यवान हो जो अंत समय परमेश्वर की कथा व लीला सुनने में तुम्हारा मन लगा है !!

मेरा अपराध क्षमा कीजिए

जब भृगु ऋषीश्वर ने रजोगुणवश ब्रह्मा को अपने ऊपर क्रोधित देखा तब वहाँ से उठकर कैलास पर्वत पर , जहाँ गौरीशंकर विराजते थे , गए ! जैसे भोलानाथ ने अपने भाई भृगु ऋषीश्वर को आते देखा वैसे ही खड़े हो गए और हाथ पसार कर गले मिलना चाहा ! तब ऋषीश्वर ने महादेवजी से कहा कि
तुम अपना कर्म व धर्म छोड़कर श्मशान पर बैठे रहते हो , इसलिए मुझे मत छुओ !
यह अभिमानपूर्वक वचन सुनते ही जब गौरीपति ने क्रोध से त्रिशूल उठाकर भृगु ऋषीश्वर को मारना चाहा तब पार्वतीजी ने शिवजी से हाथ जोड़कर विनय किया -
महाराज ! यह ऋषीश्वर तुंहारा छोटा भाई है उसका अपराध क्षमा कीजिए !
पार्वती के कहने से भृगु ऋषीश्वर के प्राण बचे तब भोलानाथ को तमोगुणवश देखकर वहाँ से विष्णु भगवान की परीक्षा लेने के लिए वैकुण्ठ को गए ! वह वैकुण्ठ कैसा है कि जहाँ सूर्य व चन्द्रमा का प्रकाश दिन रात बराबर बना रहता है ! वहाँ सब पृथ्वी सोनहली व रत्नजटित है ! बारहों महीने तुलसी के वृक्ष सुगन्धित फूल व उत्तम-उत्तम फल लगे रहते हैं ! अच्छे-अच्छे तड़ाग व बावली आदि बने हैं ! उसके किनारे अनेक रंग के पक्षी बोलते हैं !
जब भृगु ऋषीश्वर ने बेधड़क बीच महल में , जहाँ वैकुण्ठनाथ जड़ाऊ पलंग पर सो रहे थे और लक्ष्मीजी उनका पैर दबाती थीं , घुसकर एक लात बाईं ओर छाती में मारी तब वैकुण्ठनाथ नींद से चौंककर ऋषीश्वर को देखते ही उनका पैर दबाने लगे और चरणों पर गिरकर विनयपूर्वक बोले -
हे द्विजराज ! मेरा अपराध क्षमा कीजिए ! मेरी छाती बड़ी कड़ी है , आपके कोमल चरण को अवश्य दुःख पहुँचा होगा ! मुझे तुम्हारे आने का समाचार मालूम होता तो आगे से पहुँचता ! आपने दया करके मेरा लोक पवित्र किया ! यह जो लात मारी है , इस चरण का चिन्ह सदा अपनी छाती पर बना रहने दूँगा ! इसमें मुझे कुछ लज्जा नहीं है !
जब भृगु ऋषीश्वर ने ऐसी क्षमा त्रिभुवनपति में देखकर मीठा वचन सुना तब लज्जित होकर उनकी स्तुति करने लगे ! लक्ष्मीजी ने लात मारते समय मन में क्रोध किया था , पर वैकुण्ठनाथ के डर से ऋषीश्वर को कुछ शाप नहीं दिया ! जब त्रिभुवनपति ने भृगु ऋषीश्वर का पूजन करके उन्हें विदा किया तब उन्होंने सरस्वती के किनारे जाकर तीनों देवताओं का हाल अपने साथियों से कह दिया ! यह समाचार पाते ही सब ऋषीश्वर नारायणजी का स्मरण व ध्यान सच्चे मन से करने लगे !! 

आकाश में सूर्य देवता अपना तेज

शुकदेवजी का अग्नि , जल और वायु आदि का हाल राजा परीक्षित से कहना ...

शुकदेवजी ने कहा - हे परीक्षित ! ब्रह्मा के एक दिन में चौदह इन्द्र राज्य भोगते हैं ! सन्ध्यासमय प्रलय होने से तीनों लोकों में सब जीवों का नाश हो जाता है ! उनके दिन के प्रमाण रात भी होती है ! रात के समय ब्रह्मा सो रहते हैं ! जब ब्रह्मा की आयु पूरी होकर महाप्रलय होता है तब सैंकडों वर्ष पहिले से अवर्षण होकर काल पड़ता है ! अन्न न उत्पन्न होने से सब जीव मारे भूख के मर जाते हैं ! पाताल में शेषनागजी विष उगलकर और आकाश में सूर्य देवता अपना तेज प्रकट करके चौदहों लोकों को जला देते हैं ! फिर मेघपति के पानी बरसाने से पृथ्वी पर जल के सिवा और कुछ दिखलाई नहीं देता !
जल , अग्नि , वायु , आकाश में , आकाश शब्द में , यह पाँच तत्व अहंकार में , अहंकार महतत्व में , महतत्व माया में और माया ईश्वर के रूप में समा जाती है ! केवल नारायणजी अविनाशी पुरुष , जिनका आदि-अन्त कोई नहीं जानता और उनके पास मन , शब्द , सतोगुण , रजोगुण , तमोगुण आदि पहुँच नहीं सकते , वर्तमान रहते हैं ! ये लक्षण महाप्रलय के हैं !
जागना , सोना , सुषुप्ति और संसारी उत्पत्ति माया के गुणों से समझनी चाहिए ! आदिपुरुष भगवान को ज्ञानरुपी आँख से देखने पर मायारूपी संसार झूठा मालूम होता है ! जिस तरह कपड़े में सूत के तार होते हैं उसी तरह सब जीवों में परमेश्वर की शक्ति व्यापत रहती है ! जिसने सूर्यरुपी ज्ञान समझा उसके ह्रदय में काम , क्रोध , मोह और लोभ का अँधियारा नहीं रहता ! वह देवता , मनुष्य , दैत्य और पशु आदि चौरासी लाख योनि को बराबर समझकर किसी के साथ शत्रुता व मित्रता नहीं रखता !
जिस तरह बत्ती जलने से दीपक का तेल कम होता और तेल चुक जाने से दीया बुझ जाता है , तेल का जलना कुछ मालूम नहीं होता उसी तरह कालपुरुष प्रतिदन तेज , बल , आयु क्षीण करते-करते मृत्यु आने पर सब जीवों को मार डालता है ! अज्ञानी मनुष्य अपना मरना याद नहीं रखता ! जो कोई कालपुरुष से बचना चाहे वह हरिभजन ( सद्कर्म ) व स्मरण ( सद्चिन्तन ) करके भवसागर पार उतर जावे !!