Friday, 27 June 2014

यही उसकी परीक्षा है।

जीव को परमेश्वर का अंश कहा गया है। जिस प्रकार जल के प्रपात में से पानी के अनेक छोटे-छोटे झरने उत्पन्न होते और विलय होते हैं, उसी प्रकार विभिन्न जीवधारी परमात्मा में से उत्पन्न होकर उसी में लय होते रहते हैं। आस्तिकता वह शुद्ध दृष्टि है जिसके आधार पर मनुष्य अपने जीवन की रीति-नीति का क्रम ठीक प्रकार बना सकने में समर्थ होता हैं। ‘‘हम ईश्वर के पुत्र हैं, महान् महत्ता, शक्ति एवं सामर्थ्य के पुंज हैं। अपने पिता के उत्तराधिकार में हमें वह प्रतिभा उपलब्ध है, जिससे अपने संबंधित जगत का, समाज एवं परिवार का सुव्यवस्थित संचालन कर सकें। ईश्वर की विशेष प्रसन्नता, अनुकंपा एवं सहायता प्राप्त करने के लिए हमें परमेश्वर का आज्ञानुवर्ती धर्म परायण होना चाहिए। प्रत्येक प्राणी में भगवान् व्याप्त है, इसलिए हमें हर किसी के साथ सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए। संसार के पदार्थों का निर्माण सभी के लिए है, इसलिए अनावश्यक उपयोग न करें। पाप से बचें, क्योंकि पाप करना अपने ईश्वर के साथ ही दुर्व्यवहार करना है। कर्म का फल ईश्वरीय विधान का अविच्छिन्न अंग है। इसलिए सत्कर्म करें और सुखी रहें, दुष्कर्मों से बचें ताकि दुःख न सहन पड़ें। ये भावनाएँ एवं मान्यताएँ जिसके मन में जितनी ही गहरी होंगी, जो इन्हीं मान्यताओं के अनुरूप अपनी रीति-नीति बना रहा होगा, वह उसी अनुपात में आस्तिक कहलाएगा। ’’

मनुष्य को अनंत प्रतिभा प्रदान करने के उपरांत परमात्मा ने उसकी बुद्धिमत्ता परखने का भी एक विधान बनाया है। उपलब्ध प्रतिभा का वह सदुपयोग कर सकता है या नहीं, यही उसकी परीक्षा है। जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, उसे वे उपहार मिलते हैं, जिन्हें जीवन मुक्ति, परमपद, अनंत ऐश्वर्य, सिद्धावस्था, ऋषित्व एवं देवत्व आदि नामों से पुकारते हैं, जो असफल होता है, उसे कक्षा में अनुत्तीर्ण विद्यार्थी की तरह एक वर्ष और पढ़ने के लिए चौरासी लाख योनियों का एक चक्कर पूरा करने के लिए रोक लिया जाता है। यह बुद्धिमत्ता की परीक्षा इस प्रकार होती है कि चारों ओर पाप, प्रलोभन, स्वार्थ, लोभ, अहंकार एवं वासना, तृष्णा के शस्त्रों से सज्जित शैतान खड़ा रहता है और दूसरी ओर धर्म, कर्तव्य, स्नेह, संयम की मधुर मुस्कान के साथ विहँसता हुआ भगवान्। इन दोनों में से जीव किसे अपनाता है, यही उसकी बुद्धि की परीक्षा है, यह परीक्षा ही ईश्वरीय लीला है। इसी प्रयोजन के लिए संसार की ऐसी विलक्षणता द्विविधापूर्ण स्थिति बनी है। हम में से अनेक दुर्बल व्यक्ति शैतान के प्रलोभन में फँसते और गला कटाते हैं। विवेक कुंठित हो जाता है। भगवान् पहचानने में नहीं आता, सन्मार्ग पर चलना नहीं बन पड़ता और हम चौकड़ी चूक कर मानव जीवन में उपलब्ध हो सकने वाले स्वर्णिम सौभाग्य से वंचित रह जाते हैं। ईश्वर पर अटूट विश्वास और उसकी अविच्छिन्न समीपता का अनुभव, इसी स्थिति को आस्तिकता कहते हैं। उसका नाम ‘उपासना’ है। परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त है, कोई गुप्त, प्रकट स्थान उसकी उपस्थिति से रहित नहीं, वह सर्वांतर्यामी घट-घट की जानता है। सत्कर्म ही उसे प्रिय है। धर्म मार्ग पर चलने वाले को ही वह प्यार करता है। इतना ही मान्यता तो ईश्वर भक्त में विकसित होनी ही चाहिए। इस प्रकार की निष्ठा जिसमें होगी वह न शरीर से दुष्कर्म करेगा और न मान में दुर्भावों को स्थान देगा। इसी प्रकार जिसको ईश्वर के सर्वव्यापक और न्यायकारी होने का विश्वास है, वह कुमार्ग पर पैर कैसे रखेगा? आस्तिक कुकर्मी नहीं हो सकता। जो कुकर्मी है उसकी आस्तिकता को एक विडंबना या प्रवंचना ही कहना चाहिए।

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