यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ...!
कथा महाभारत के युद्ध की है।
अश्वत्थामा ने अपने पिता की छलपूर्ण ह्त्या से कुंठित होकर नारायणास्त्र का प्रयोग कर दिया।
स्थिति बड़ी अजीब पैदा हो गई।
एक तरफ नारायणास्त्र और दुसरी तरफ साक्षात नारायण।
अस्त्र का अनुसंधान होते ही भगवान् ने अर्जुन से कहा - गांडीव को रथ में रखकर नीचे उतर जाओ ...
अर्जुन ने न चाहते हुए भी ऐसा ही किया और श्रीकृष्ण ने भी स्वयं ऐसा ही किया।
नारायणास्त्र बिना किसी प्रकार का अहित किए वापस लौट गया, उसने प्रहार नहीं किया, लेकिन भीम तो वीर था, उसे अस्त्र के समक्ष समर्पण करना अपमान सा लगा।
वह युद्धरथ रहा, उसे छोड़कर सभी नारायणास्त्र के समक्ष नमन मुद्रा में खड़े थे।
नारायणास्त्र पुरे वेग से भीम पर केन्द्रित हो गया।
मगर इससे पहले कि भीम का कुछ अहित हो, नारायण स्वयं दौड़े और भीम से कहा - मूर्खता न कर! इस अस्त्र की एक ही काट है, इसके समक्ष हाथ जोड़कर समर्पण कर, अन्यथा तेरा विध्वंस हो जाएगा।
भीम ने रथ से नीचे उतरकर ऐसा ही किया और नारायणास्त्र शांत होकर वापस लौट गया, अश्वत्थामा का वार खाली गया।
यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ...
जब नारायण स्वयं गुरु रूप में हों, तो विपदा आ ही नहीं सकती, जो विपदा आती है, वह स्वयं उनके तरफ से आती है, इसीलिए कि वह शिष्यों को कसौटी पर कसते है ...
कई बार विकत परिस्थियां आती हैं और शिष्य टूट सा जाता है, उससे लड़ते।
उस समय उस परिस्थिति पर हावी होने के लिये सिर्फ एक ही रास्ता रहता है समर्पण का ...
वह गुरु के चित्र के समक्ष नतमस्तक होकर खडा हो जाए और भक्तिभाव से अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दे और पूर्ण निश्चित हो जाए ...!
धीरे धीरे वह विपरीत परिस्थिति स्वयं ही शांत हो जायेगी...
और फिर उसके जीवन में प्रसन्नता वापस आ जायेगी।
कथा महाभारत के युद्ध की है।
अश्वत्थामा ने अपने पिता की छलपूर्ण ह्त्या से कुंठित होकर नारायणास्त्र का प्रयोग कर दिया।
स्थिति बड़ी अजीब पैदा हो गई।
एक तरफ नारायणास्त्र और दुसरी तरफ साक्षात नारायण।
अस्त्र का अनुसंधान होते ही भगवान् ने अर्जुन से कहा - गांडीव को रथ में रखकर नीचे उतर जाओ ...
अर्जुन ने न चाहते हुए भी ऐसा ही किया और श्रीकृष्ण ने भी स्वयं ऐसा ही किया।
नारायणास्त्र बिना किसी प्रकार का अहित किए वापस लौट गया, उसने प्रहार नहीं किया, लेकिन भीम तो वीर था, उसे अस्त्र के समक्ष समर्पण करना अपमान सा लगा।
वह युद्धरथ रहा, उसे छोड़कर सभी नारायणास्त्र के समक्ष नमन मुद्रा में खड़े थे।
नारायणास्त्र पुरे वेग से भीम पर केन्द्रित हो गया।
मगर इससे पहले कि भीम का कुछ अहित हो, नारायण स्वयं दौड़े और भीम से कहा - मूर्खता न कर! इस अस्त्र की एक ही काट है, इसके समक्ष हाथ जोड़कर समर्पण कर, अन्यथा तेरा विध्वंस हो जाएगा।
भीम ने रथ से नीचे उतरकर ऐसा ही किया और नारायणास्त्र शांत होकर वापस लौट गया, अश्वत्थामा का वार खाली गया।
यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ...
जब नारायण स्वयं गुरु रूप में हों, तो विपदा आ ही नहीं सकती, जो विपदा आती है, वह स्वयं उनके तरफ से आती है, इसीलिए कि वह शिष्यों को कसौटी पर कसते है ...
कई बार विकत परिस्थियां आती हैं और शिष्य टूट सा जाता है, उससे लड़ते।
उस समय उस परिस्थिति पर हावी होने के लिये सिर्फ एक ही रास्ता रहता है समर्पण का ...
वह गुरु के चित्र के समक्ष नतमस्तक होकर खडा हो जाए और भक्तिभाव से अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दे और पूर्ण निश्चित हो जाए ...!
धीरे धीरे वह विपरीत परिस्थिति स्वयं ही शांत हो जायेगी...
और फिर उसके जीवन में प्रसन्नता वापस आ जायेगी।
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