Monday, 2 June 2014

सबमें एकमात्र वही तो भास रहा है

एक संत द्वारा कही गयी कथा स्मरण होती है कि एक स्थान पर बड़े भारी जन-समुदाय के मध्य श्रीमदभागवत कथा चल रही थी। अनेक संत भी उपस्थित थे। कथा समाप्ति पर आरती के पश्चात प्रसाद वितरण के लिये मंच से किसी सज्जन विशेष का नाम लेकर उनसे कहा गया कि वह समस्त श्रद्धालुओं को फ़ल वितरण करें। नम्रता-पूर्वक वह सज्जन उठे, व्यास-पीठ और मंचस्थ संतों को प्रणाम कर इस सेवा के लिये आभार व्यक्त किया। श्रद्धालु पंक्तिबद्ध थे और प्रसाद के बाद उन सज्जन के द्वारा फ़ल-प्रसाद भी ले रहे थे। अचानक उन सज्जन ने देखा कि पंक्ति में लगे, अपने कुछ परिचित मित्र-रिश्तेदार भी समीप आ रहे हैं, अब उनका भाव परिवर्तित होने लगा और पारिवारिक मित्रों का नंबर आने पर हाथ से टोकरी में रखे सुंदर और बड़े फ़ल टटोलकर उन्हें देने लगे जबकि इसके पूर्व वह बिना टोकरी में देखे जो फ़ल हाथ में आता, उसे उठाकर प्रसादी दे रहे थे। यही हमारा स्वभाव है कि जब श्रीहरि कृपा कर हमें कुछ बाँटने के लिये कहते हैं; जिसमें कुछ भी हमारा अर्जित किया हुआ नहीं है तब भी नम्रता का आचरण दिखाने के बाद भी हमारा अभिमान मस्तक उठा ही लेता है कि "मैं बाँटता हूँ।" यह "मैं" ही परिचित और अपरिचित का भेद डाल देता है और सत्कर्म होते-होते भी पाप-कर्म हो जाता है। दृष्टि सम नहीं होती। अपना-पराया रह ही जाता है। जब यह भली-भाँति ज्ञात है कि इसमें मेरा कुछ भी नहीं है तब यह स्थिति होती है तो जो हमने "परिश्रम से कमाया" है उसे बिना किसी चाटुकारिता के, बिना अपना बड़प्पन दिखाये कैसे दे दें? श्रीमदभागवत-गीता के वचनों को रटकर सुनाना एक बात है और बिना सुनाये आचरण में लाना दूसरी। तुम क्या लाये थे? जो बाँटोगे ! सब उसी ने दिया है ! सब उसी का है ! तुम पर तो कृपा कर बाँटने के लिये कहा था और तुम भेद कर बैठे ! श्रीहरि की अहैतुकी कृपा से सत्कर्म का अवसर मिला और बुद्धि ने उसे पाप-कर्म में बदल दिया। श्रीहरि बार-बार अवसर देते हैं और हम बार-बार कोई न कोई भूल कर बैठते हैं। सब उनका ! सब उनके ! सब उन्हीं के लिये ! उनमें सब ! सब उनके ! जगत उन्हीं का तो रुप है ! सबमें एकमात्र वही तो भास रहा है ! और है ही कौंन ? 

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