Saturday, 14 June 2014

और क्या देखना शेष रहा

कभी-कभी चित्त की सुई एक ही स्थान पर अटक जाती है। जितनी बार चिंतन होता है, प्रत्येक बार एक नवीन अर्थ, भाव-विहवल कर देने वाला। कल से सुई अटक गयी है कि "भरत भाई ! कपि से उऋण हम नाहीं।"
कैसा अदभुत, प्रेम-विहवल कर देने वाला दृश्य ! इस दृश्य को देखने के लिये भी श्रीरामजी, श्रीभरतजी अथवा श्रीहनुमानजी की कृपा की महती आवश्यकता है अन्यथा इसका मूल तत्व गोपन ही रह जायेगा ! एक परम भक्त दास, एक प्रेम-रस की साक्षात दिव्य देह और एक इन दोनों के नितान्त अपने श्रीभगवान ! आपस में भक्ति और प्रेम का परिचय करा रहे हैं; नेत्रों में अश्रु भरे ! दोनों को प्रगाढ़ आलिंगन में लिये हुए ! आजानुभुज भुजाओं ने मानो प्रेम-रस और भक्ति को अपने गुरुत्वाकर्षण से बाँध रखा है ! कैसा अदभुत आनन्द है श्रीरामजी को भी ! नेत्र उस परमानन्द का बखान करने से स्वयं को रोक पाने में असमर्थ अनुभव करते हैं और नीलमणि के नयनों से बरसते हुए दोनों भक्तों के काँधों का आश्रय लेकर श्रीअयोध्या की पवित्र धरती में समाहित हो रहे हैं ! ऐसा आनन्द कि जिसका धरती पर रहना असंभव सो पृथ्वी माता की गोद का आश्रय ही अभीष्ट है ! तीनों ही परमानन्द से भरे ! तीनों ही हिचकियाँ लेकर अश्रु बहाते ! तीनों ने ही वह पाया है जो उनका मनोवांछित है ! श्रीहनुमानजी को अपने प्रभु श्रीरामजी का प्रगाढ़ आलिंगन प्राप्त हुआ है ! श्रीभरतजी को अपने स्वामी और भ्राता, अपने इष्ट का आलिंगन वर्षों के बाद प्राप्त हुआ है ! और श्रीरामजी को? श्रीरामजी इन दोनों स्वरुपों में विराजमान स्वयं से मिलकर मानो पूर्ण हो रहे हैं ! पूर्ण अपनी पूर्णता का रसास्वादन कर रहा है !
इसका वर्णन असंभव ! देह का ज्ञान नहीं ! कौन सा काल है ? कौन सा लोक है ? कौन देख रहा है ? कुछ भी भान नहीं ! भान है तो इतना कि देह जड़ हो गयी है और वाणी स्तम्भित ! परमानन्द से ! दिव्य-भाव से ! प्रेम-रस से भरे साक्षात दिव्य स्वरुपों को, उनकी ही कृपा के अवलम्बन से निहारते हुए ! यही दृश्य अंतिम दृश्य हो और क्या देखना शेष रहा ?

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