Wednesday, 11 June 2014

कैसी अदभुत दिव्य कांति है

श्रीधाम वृन्दावन ! खिंचे चले आते हैं हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन। निहारने को श्री बाँके बिहारी की अदभुत छटा ! मंत्र-मुग्ध कर देने वाली ! चित्त को हर लेने वाली ! मनमोहन, मन को सहज ही तो मोह लेते हैं। श्रद्धालुओं में एक नयी प्राण-ऊर्जा भर देता है श्रीधाम का प्रवास। वहीं अनेक श्रद्धालु व्यथित दिखते हैं श्रीधाम के वर्तमान स्वरुप को लेकर। कंक्रीट का जंगल होता जा रहा है श्रीधाम वृन्दावन।
कौन उत्तरदायी है इसके लिये? हम ही तो हैं। तीर्थ, व्यापार और पर्यटन का केन्द्र बनता जा रहा है और अधिकाधिक विलासितापूर्ण भवन बनाये जा रहे हैं। श्रीधाम की प्राकृतिक हरीतिमा को नष्ट कर दिया गया है। वृन्दावन [तुलसी-वन] अब कहीं दिखायी नहीं देता। बड़े-बड़े मंदिरों में भी तुलसी के कुछ ही पौधे दिखायी देते हैं। धर्माचार्यों के बड़े-बड़े वैभवशाली प्रासाद; जो उनके भक्त/शिष्यों द्वारा अपने और उनके देह-सुख के लिये बनाये गये हैं। मंचों पर बैठकर सभी चिंतन करते हैं किन्तु किसी को भी श्रीधाम के प्राचीन स्वरुप की स्थापना करने से अधिक श्रेयस्कर अपना वैभवशाली "आश्रम" बनाना अधिक रुचिकर है। धन और सेवा की यहाँ कोई कमी नहीं, भाव ही नहीं रहा। श्रीजी की निज राजधानी में "श्री" का अभाव हो भी कैसे सकता है। प्रवचन सबके पास हैं; आचरण का लोप हो रहा है। किन्तु यह तो केवल दृश्य वृन्दावन है ! दृश्य वृन्दावन ? तो क्या कोई और भी वृन्दावन है? अवश्य ही !
एक वस्त्र में जीवन-यापन करने वाले कुछ अलभ्य [ जिनसे मिलन केवल श्रीजी की कृपा के द्वारा ही संभव है] रसिक/संत इस स्थिति से निर्विकार अपने श्रीश्यामा-श्याम की मानसी-सेवा में लगे रहते हैं और वर्णन करते हैं कि श्रीधाम वृन्दावन में कैसे-कैसे अदभुत कुँज-निकुँज हैं ! प्राकृतिक हरीतिमा की कैसी अदभुत छटा है ! श्री यमुना-पुलिन से उठने वाली वायु में कैसी दिव्य सुगंध का वास है ! वंशी की कैसी अदभुत चित्त को हरने वाली ध्वनि गूँज रही है ! दिव्य सुगंध से भरे पुष्पों के बगीचे हैं ! ब्रज-रज की कैसी अदभुत दिव्य कांति है !
तो फ़िर कौन सा रुप सही है? जैसा पात्र, वैसा स्वरुप ! "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन देखी तैसी।"
जिस प्रकार दृश्य देह अलग है और आत्मा अलग; उसी प्रकार श्रीधाम का वर्तमान दृश्य स्वरुप अलग है और श्रीधाम की आत्मा अलग ! जिस प्रकार देह पर काल का प्रभाव होने से किशोरावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था प्रतीत होती है किन्तु आत्मा तो नित्य-नवीन ही रहती है, काल से परे। "नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि, नैंन दहति पावक:...।" दृश्य जगत में और काल के आधीन होने के कारण हम देह-धर्म से ऊपर नहीं उठ पाते। अत्यन्त सीमित दृष्टि होने के कारण हम दिव्य जगत को नहीं देख सकते। 
श्रीधाम वृन्दावन तो श्रीजी और लालजी की नित्य विहार-स्थली है। असंख्य कल्पों से यहाँ आज भी श्रीयुगलकिशोर नित्य-नवीन लीला की रचना करते हैं ! कोई भी लीला दूसरी बार दोहराई नहीं जाती ! श्रीधाम वृन्दावन नित्य है, शाश्वत है और श्रीयुगलकिशोर की कृपा से स्वयं भी कोई भी रुप धरने में समर्थ है। तो जिन्हें श्रीयुगलसरकार से प्रेम है, विरहा-दग्ध हैं; उन्हें तो निश्चय ही श्रीजी के चरणों का आश्रय लेना चाहिये क्योंकि उनकी कृपा के बिना श्रीधाम की आत्मा को हम कभी नहीं देख पायेंगे और अमृत-कलश के हाथ में होने पर भी मरण-धर्मा ही बने रहेंगे। श्रीविग्रह की नित्य-सेवा करना और श्रीविग्रह से आत्मीय संबध मानते हुए वार्तालाप करना और प्रत्यक्ष अनुभव करना ये दोनों ही बहुत अलग स्थितियाँ हैं। कभी तो कहो कि आज मुझे तुमसे कुछ माँगना नहीं है, मैं तो केवल तुमसे मिलने और बातें करने आया हूँ और देखना कि स्थिति में अंतर दृष्टिगोचर होने लगेगा ! 

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