Tuesday, 17 June 2014

गीता में इसी को श्री कृष्ण ने

                                             विचार शुन्य
 ''वास्तव में हमारे मन मस्तिक में अनंत विचार चलते रहते है ,गीता में इसी को श्री कृष्ण ने ''इन्द्रिय कि चेतना '' कहते , हम विचारो का एक समुच्चय कह सकते है ..जिस के पास जैसे विचारो का संकलन है उन का व्यक्तित्व भी वैसा ही है .ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए 'राज योग' में ८ अंग है जो क्रमशः यम ,नियम . आहार , प्रत्याहार ,आसन , ध्यान , योग , समाधि है . यहाँ पर अंतिम अवस्था समाधि है .
राज योग कुंडली जाग्रत कर देता है . मूलाधार चक्र से सुरु हुआ सफ़र जो योग से आरम्भ होता है अन्तिम चक्र सहस्त्रार चक्र (कमल चक्र )पर प्राण को उस चक्र पर केन्द्रित कर अनन्त का द्वार हमारे लिए खोल देता है .
भक्ति योग भी ईष्ट के ध्यान से आरम्भ हो कर अंततः समाधि पर ही जाता है .
हमारे मष्तिस्क में प्रति सकेंड लगभग ३ विचार तरंग प्रकति के माध्यम से आते है पर उन में से कुछ ही हमारी वृत्ति के अनुसार हमारी अन्तः प्रकति से संयोग कर के विचार तरंग में प्रकट हो जाते है .
ये ठीक ऐसा है जैसे की रेडियो का रिसीवर जिस आवृत्ति पर सेट किया गया हो उसी आवृत्ति की तरंगे ग्रहण करता है .
इन विचारो के आने के क्रम में जो समयान्तराल होता है वह विचार शून्य होता है यही वह समय है जब आत्मा अपने मूल स्वरुप के अत्यंत निकट होती है.
अर्थात समय से परे
समय घटनाओ के सापेछ होता है और विचार शून्य की अवस्था हमें समय से परे कर देती है .यही समाधी है .इसी लिए कभी कभी तो साधक कई दिनों तक भी समाधी में रह लेता है और समय का उसे पता नही चलता है .
समय से परे ही तो ईश्वर है .और समाधी हमें वह अनुभव देती है . इस दुनिया का सवसे कठिन कार्य जो हमारी सीमा से अन्दर है विचार शून्य होना ही है .यदि आप सोचते है की मैं कुछ नही विचार करूँगा तो यह भी एक विचार है.
आंख बंद कर किसी पर ध्यान लगाना भी विचार है .
यदि आप सोचते है की आप सोते में विचार शून्य है तो भी आप गलत है .क्यों की उस वक्ते हमारा मष्तिस्क हमारी अतृप्त इच्छाओ को जो हमारे अचेतन मन में है 

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