श्रीधाम वृन्दावन ! मेरी किशोरीजी का वृन्दावन ! श्रीजी का निज-महल ! श्री श्यामा-श्याम की नित्य विहार-स्थली ! अदृश्य और दृश्य लोक ! श्रीजी की अहैतुकी कृपा-प्राप्त रसिक संतों के लिये सहज दृश्य ! अन्य के लिये भी दिव्य-अनुभूति से, दिव्य-प्रेम-रस की उत्ताल तरंगों को उत्पन्न करने वाला ! नाम-रुप-लीला-धाम ! सब एक ही तो है ! दृश्य में अवश्य ही काल की गति है किन्तु अदृश्य में यह लोक काल से परे है। दृश्य से अदृश्य में जाने के लिये किसी विशेष परिश्रम की भी आवश्यकता नहीं है। सहज होना है। प्रार्थना नहीं आती? शब्द नहीं हैं ! देव-वाणी नहीं आती ! मंत्र नहीं जानते ! गुरु नहीं हैं ! कोई बाधा नहीं; समय पर वे सब व्यवस्था करवा देंगे, विश्वास रखो ! श्री श्यामा-श्याम के अतिरिक्त मेरा कोई नहीं; केवल यह दृढ़ विश्वास। वे मुझे अपनावेंगे ही। वे अकारणकरुणावरुणालय, मुझे ठुकरा सकते ही नहीं ! अपने सहज स्वभाव के विपरीत वह जा सकते ही नहीं ! देखना है तो केवल यह कि मेरा विश्वास कितना दॄढ़ है; क्या जगत की मृग-मरीचिकायें अभी भी मुझे भटकाने में सक्षम हैं? यदि हाँ, तो स्वयं को ही छल रहा हूँ "मैं"?
अहा ! श्रीधाम वृन्दावन की रज ! देव-मुनि-गंधर्व जिसके लिये तरसते हैं, मेरी श्रीजी की कृपा से मुझे सुलभ है तो क्यों न बारंबार इसे माथे से न लगाऊँ ! इस रज को श्री युगलकिशोर के चरणों का स्पर्श-प्राप्त है तो क्यों न इसमें लौट लगाऊँ ! जहाँ के वृक्ष बनने के लिये सिद्ध मुनि-गण लालायित रहते हैं, जहाँ कीट-पतंगा बनकर वास करने के लिये भी करोड़ों जन्मों के सुकृत कम पड़ते हैं और एकमात्र श्रीजी की कृपा का वरद-हस्त ही इस स्थिति को दिलाने में सक्षम है। श्रीधाम के कीट की भी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। स्वर्ग? देव-योनि? इन शब्दों का यहाँ कोई अर्थ भी नहीं जानना चाहता। अरे ! वह देखो ! लताओं के मध्य उस तमाल-वृक्ष का आलिंगन कर अश्रु बहाते हुये वह उद्धव ही तो हैं। श्रीधाम की रज से आपाद-मस्तक सराबोर ! कांधे तक झूलती केश-राशि में भी ब्रज-रज की कैसी अनुपम शोभा है ! कपोलों पर ढरकते हुये अश्रुओं के संयोग से ब्रज-रज, बहती हुयी उनके चरणों को प्रक्षालित कर रही है। किसी अदभुत लीला में ही तो खोये हुये हैं ! आओ न ! तुम भी आओ न ! तुम्हारे, तुमको पुकार रहे हैं ! कब आवोगे?
अहा ! श्रीधाम वृन्दावन की रज ! देव-मुनि-गंधर्व जिसके लिये तरसते हैं, मेरी श्रीजी की कृपा से मुझे सुलभ है तो क्यों न बारंबार इसे माथे से न लगाऊँ ! इस रज को श्री युगलकिशोर के चरणों का स्पर्श-प्राप्त है तो क्यों न इसमें लौट लगाऊँ ! जहाँ के वृक्ष बनने के लिये सिद्ध मुनि-गण लालायित रहते हैं, जहाँ कीट-पतंगा बनकर वास करने के लिये भी करोड़ों जन्मों के सुकृत कम पड़ते हैं और एकमात्र श्रीजी की कृपा का वरद-हस्त ही इस स्थिति को दिलाने में सक्षम है। श्रीधाम के कीट की भी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। स्वर्ग? देव-योनि? इन शब्दों का यहाँ कोई अर्थ भी नहीं जानना चाहता। अरे ! वह देखो ! लताओं के मध्य उस तमाल-वृक्ष का आलिंगन कर अश्रु बहाते हुये वह उद्धव ही तो हैं। श्रीधाम की रज से आपाद-मस्तक सराबोर ! कांधे तक झूलती केश-राशि में भी ब्रज-रज की कैसी अनुपम शोभा है ! कपोलों पर ढरकते हुये अश्रुओं के संयोग से ब्रज-रज, बहती हुयी उनके चरणों को प्रक्षालित कर रही है। किसी अदभुत लीला में ही तो खोये हुये हैं ! आओ न ! तुम भी आओ न ! तुम्हारे, तुमको पुकार रहे हैं ! कब आवोगे?
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