Sunday, 15 June 2014

अंधकार से प्रकाश की ओर

शून्य से शून्य की यात्रा ! अज्ञानी से ज्ञानी होने की उपलब्धि ! अंतर के शून्य को विवेक से पाट देने की यात्रा ! और फ़िर ? फ़िर वापसी; जहाँ से यात्रा आरम्भ की थी ! यह कैसी यात्रा ? इस मूर्खतापूर्ण कार्य को कौन करे ? 
हमें ही करनी है यह यात्रा ! और मूर्खतापूर्ण नहीं; यह स्वयं को पहिचानने की यात्रा है और हमें करनी ही होगी ! आज? कल? करोड़ो जन्मों के बाद भी ! जब तक स्वयं का स्वयं से परिचय न हो जाये तब तक? निरे बुद्धू से ज्ञानवान और फ़िर निरा बुद्धू हो जाना है !
यात्रा अति आवश्यक है। हम क्या हैं? क्यों हैं? क्या लक्ष्य है? क्या पाना है? देह क्यों धारण की? क्या कमी रह गयी थी पूर्व में? इन प्रश्नों के उत्तर ही हमें श्रीहरि-कृपा से मूल तक ले जायेंगे और तब ज्ञान होगा कि "मैं कौन, मेरा कौन?"
इस ज्ञान के बाद; इस ज्ञान को भी छोड़ देना है, पकड़ना नहीं है। पकड़ा तो लक्ष्य से भटक जायेंगे। अब जाना जा चुका है, जो जानना था ! जिसके लिये आये थे ! अंतर एक दिव्य अनुभूति से भरा है। स्वभाव में सहजता और बाल-सुलभता है। बड़ा नहीं बनना है, बच्चा हो जाना है। क्या पाना था? कुछ नहीं ! कितनी क्षमता है? है ही नहीं ! यह तो स्वयं की खोज है ! भटकना नहीं है; अब विदित है कि जो भी पाना था, वह तो श्रीहरि ने सदा से ही दे रखा है; ज्ञान अब हुआ है ! शून्य से महाशून्य की ओर ! अज्ञान से ज्ञान की ओर ! मृत्यु से अमृत की ओर ! अंधकार से प्रकाश की ओर ! चलोगे ना?

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