Thursday, 24 July 2014

ईश्वर से प्रेम कीजिये,

माँ के पास धन का कितना भी भंडार क्यो न हो किन्तु नन्हा सा बालक माता के प्रति अपने अकृत्रिम सहज प्रेम के चलते, केवल और केवल माँ को ही चाहता है, उनका प्रेम ही चाहता है, उनकी गोद मे स्थान , दुलार चाहता है। क्या धन के लिए या अन्य किसी भी वस्तु के लिए वह बालक अपनी माता से दूर रहना या दूर होना पसंद कर सकता है? नहीं...क्यो कि बालक का प्रेम स्वार्थ वश नहीं है, स्वभावत: है। बालक के इसी भाव से माता हदय में प्रकट, आत्मस्फूर्त प्रगाढ़ प्रेम वात्सल्य की वर्षा से बालक को आनंदित कर देती है ..यहा न स्वार्थ है , न कामना है , न लालच है , न छल है, न कपट है, न ढोंग है, न दिखावा है । 

ईश्वर के प्रति भी हमारा प्रेम बिलकुल इस नन्हें बालक के समान ही होना चाहिए। माँ तो इस धरती पर हमारे इस जन्म का माध्यम मात्र बनी है । अनादि काल से हमे जन्म देने वाला, हमारा ध्यान रखने वाला तो वह ईश्वर ही है। अपने इस जन्मप्रदाता परमपिता के प्रति हमारा प्रेम भी निस्वार्थ भाव का ही होना चाहिए, जिसमे कामनाए न हो , दिखावा न हो । जो इस विषय मे भी आजकल के साईभक्तो की तरह स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, लालच को सर पर सवार रखता है, कामना ही कामना करता है और केवल अपनी तृणतुल्य इच्छाओ के लिए ही ईश्वर के प्रति प्रेम विश्वास का नाटक करता है उससे अधिक अभागा कौन होगा ? 

       ईश्वर से प्रेम कीजिये, शास्त्रो के प्रति श्रद्धा रखिए.... आपको वह सब प्राप्त होगा, जो आपके लिए सर्वथा योग्य है , श्रेयस्कर है। ईश्वर से बेहतर कौन जानता है कि आपके लिए सबसे बेहतर क्या है? अतः ये उन पर ही छोड़ देना चाहिए । जय श्री कृष्ण।

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