Sunday, 15 June 2014

हम उसे स्वीकार नहीं करते

संसार का सौन्दर्य सर्वथा मिथ्या है, पर सुख की छिपी आशा से हम संसार के मिथ्या सौन्दर्य के प्रति लुब्ध हो रहे हैं! संसारके किसी भी प्राणी-पदार्थ में सौन्दर्य नहीं है -- इस सत्य पर विश्वास करके हम अपनी भ्रान्ति से जितनी जल्दी छुट्टी पा लें, उसीमें हमारा भला है ! 
कोई अपनी किसी साधाना से भगवान् को खरीदना चाहे तो यह उसकी मुर्खता के सिवा और कुछ नहीं है ! कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसके विनिमय में भगवान् मिल सकें ! भगवान् मिलते हैं अपनी सहज कृपासे ही ! कृपा पर विश्वास नहीं तथा कृपा को ग्रहण करने का दैन्य नहीं है ! ऐसी स्थितिमें कैसे काम बने? 'मैंने अभिमान का त्याग कर दिया, मुझमें अभिमान नहीं है' -- इन उक्तियोंमें भी अभिमान की सत्ता विधमान है ! 
'दैन्य' भक्त की शोभा है! यह उसका पहला लक्षण है ! भक्त अपने को सर्वथा अकिंचन -- अभावग्रस्त पाता है और भगवान् को यही चाहिये! बस, भगवान् ऐसे भक्त के सामने प्रकट हो जाते हैं !
भगवान् का बल निरन्तर हमारे पास रहने पर भी सक्रिय नहीं होता, इसका कारण है कि हम उसे स्वीकार नहीं करते ! जब भी हम भगवान् के बलको अनुभव करने लगेंगे, तभी वह बल सक्रिय हो जायगा और हम निहाल हो जाँयगे !

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