गायत्री तुम्हारे भीतर छिपी है, भगवद गीता भी। कुरान की आयते तुम्हारे भीतर मचल रही हैं, तडूफ रही है—मुक्त करो! तुम्हारे भीतर बड़ा रुदन है; जैसे किसी वृक्ष मे हो, जिसके फूल नहीं खिले; जैसे किसी नदी में हो, चट्टानों के कारण जो बह न सकी और सागर से मिल न सकी।
जिस वृक्ष में फूल नहीं आते, उसकी पीड़ा जानते हो? है और नहीं जैसा। जब तक फूल न आएं और जब तक सुगंध छिपी है जो पड़ी प्राणों में, जड़ों से जो मुक्त होना चाहती है, जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है। आकाश में, जो पंख फैलाना चाहती है, जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है आकाश में, जो पंख फैलाना चाहती है, जो चांद—तारो से बात करना चाहती है—बहुत दिन हो गये कारागृह में जड़ों की पड़े—पड़े—जों छूट जाना चाहती है सब जंजीरों से, जब तक वह सुगंध फूलों से मुक्त न हो जाए, तब तक वृक्ष तृप्त कैसे हो! तब तक कैसी तृप्ति, कैसा संतोष, कैसी शांति, कैसा आनंद! तब तक वृक्ष उदास है। ऐसे ही वृक्ष तुम हो।
तुम्हारे भीतर ओंकार पड़ा है—बंधन में, जंजीरों में। मुक्त करो उसे! गाओ! नाचो! ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए और नाच ही रह जाए —उस क्षण नाचो! ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट और नाच ही रह जाए—उस क्षण पहचान होगी ओंकार से। ऐसे गाओ कि गायक न बचे; गीत ही रह जाए—उस क्षण तुम भगवदगीता हो गये। जिस क्षण गाने वाला भीतर न हो और गान अपनी सहज स्फुरणा से बहे, उस क्षण तुम कुरान हो गये। उस दिन तुम्हारे भीतर परम काव्य का जन्म हुआ। उस दिन जीवन साधारण न रहा, असाधारण हुआ। उस दिन जीवन में दीप्ति आयी, आभा उपजी। इसलिए ओम से प्रारंभ है।
इस ओम में इशारा है कि तुम अभी ऐसे वृक्ष हो जिसके फूल नहीं खिले हैं। और बिना फूल खिले कोई संतुष्टि नहीं है, कोई परितोष नहीं है।
ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा।
और यह तुम्हें खयाल में आ जाए कि मेरे फूल अभी खिले नहीं, कि मेरे फल अभी लगे नहीं; कि मेरा वसंत आया नहीं है; कि मैं जो गीत लेकर आया था, मैंने अभी गाया नहीं; कि जो नाच मेरे पैरों में पड़ा है, मैंने घूंघर भी नहीं बाधे, वह नाच अभी उन्मुक्त भी नहीं हुआ—यह तुम्हें समझ में आ जाए तो, अथातोभक्तिजिज्ञासा’ फिर भक्ति की जिज्ञासा। उसके पहले भक्ति उसके पहले भक्ति की कोई जिज्ञासा नहीं हो सकती।
भक्ति की जिज्ञासा का अर्थ ही यह है। कि मैं टूटा—फूटा हूं अभी, मुझे जुड़ना है; मैं अधूरा—अधूरा हूं अभी, मुझे पूरा होना है; कमियां हैं, सीमाएं हैं हजार मुझ पर, सब सीमाओं को तोड़ कर बहना है; बूंद हूं अभी और सागर होना है।... अथातोभक्तिजिज्ञासा!... तभी तो तुम जिज्ञासा में लगोगे।
समझें, भक्ति अर्थात क्या?
एक तत्व हमारे भीतर है, जिसको प्रीति कहें। यह जो तत्व हमारे भीतर है— प्रीति—इसी के आधार पर हम जीते है। चाहे हम गलत ही जीएं, तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है। कोई आदमी धन कमाने में लगा है; धन तो ऊपर की बात है, भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है— धन से उसकी प्रीति है। कोई आदमी पद के पीछे पागल है; पद तो गौण है, प्रतिष्ठा की प्रीति है। जंहा भी खोजोगे, तो तुम प्रीति को ही पाओगे। कोई वेश्यालय चला गया है और किसी ने किसी की हत्या कर दी—पापी में और पुण्यात्मा में, तुम एक ही तत्व को एक साथ पाओगे, वह तत्व प्रीति है। फिर प्रीति किससे लग गयी, उससे भेद पड़ता है। धन से लग गयी तो तुम धनी होकर रह जाते हो। ठीकरे हो जाते हो। कागज के सड़े—गले नोट होकर मरते हो। जिससे प्रीति लगी, वही हो जाओगे; यह बड़ा बुनियादी सत्य है; इसे हृदय में सम्हालकर रखना।
प्रीति महंगा सौदा है, हर किसी से मत लगा लेना। जिससे लगायी वैसे ही हो जाओगे —वैसा होना हो तो ही लगाना। प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि मैं यह होना चाहता हूं। राजनेता गांव में आया और तुम भीड़ करके पहुंच गये, फूलमालाएं सजाकर—किस बात की खबर है? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो, प्रतिष्ठा हो; इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है। कोई फकीर गांव मे आया और तुम पहुंच गये; उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तडूफ रहे हो फकीर होने को—कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण, जब सब छोड़—छाड़... जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी। कोई संगीत सुनता है तो धीरे—धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है।
तुम जिससे प्रीति करोगे, वैसे हो जाओगे : जिनसे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे। तो प्रीति का तत्व रूपातरकारी है। प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है। और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता। प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे श्वास। जैसे शरीर श्वास से जीता, आत्मा प्रीति से जीती। इसलिए अगर तुम्हारे जीवन मे कोई प्रीति न हो, तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए, तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। घर में आग लग गयी। और सारा धन जल गया और तुमने आत्महत्या कर ली; क्या तुम कह रहे हो? तुम यह कहते हो : यह घर ही मैं था, यह मेरी प्रीति थी। अब यही न रहा तो मेरे रहने का क्या अर्थ! तुम्हारी पत्नी मर गयी और तुमने आत्महत्या कर ली;तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो : यह मेरी प्रीति का आधार था। जब मेरी प्रीति उजड़ गयी, मेरा संसार उजड़ गया। अब मेरे रहने में कोई सार नहीं।... हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते है।
बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता। जीना संभव ही प्रीति के सहारे है। जैसे बिना श्वास लिए शरीर नहीं रहेगा, वैसे बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी। प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है—फिर प्रीति गलत से भी हो तो भी आत्मा टिकी रहती है। मगर चाहिए, प्रीति तो चाहिए—
जिस वृक्ष में फूल नहीं आते, उसकी पीड़ा जानते हो? है और नहीं जैसा। जब तक फूल न आएं और जब तक सुगंध छिपी है जो पड़ी प्राणों में, जड़ों से जो मुक्त होना चाहती है, जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है। आकाश में, जो पंख फैलाना चाहती है, जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है आकाश में, जो पंख फैलाना चाहती है, जो चांद—तारो से बात करना चाहती है—बहुत दिन हो गये कारागृह में जड़ों की पड़े—पड़े—जों छूट जाना चाहती है सब जंजीरों से, जब तक वह सुगंध फूलों से मुक्त न हो जाए, तब तक वृक्ष तृप्त कैसे हो! तब तक कैसी तृप्ति, कैसा संतोष, कैसी शांति, कैसा आनंद! तब तक वृक्ष उदास है। ऐसे ही वृक्ष तुम हो।
तुम्हारे भीतर ओंकार पड़ा है—बंधन में, जंजीरों में। मुक्त करो उसे! गाओ! नाचो! ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए और नाच ही रह जाए —उस क्षण नाचो! ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट और नाच ही रह जाए—उस क्षण पहचान होगी ओंकार से। ऐसे गाओ कि गायक न बचे; गीत ही रह जाए—उस क्षण तुम भगवदगीता हो गये। जिस क्षण गाने वाला भीतर न हो और गान अपनी सहज स्फुरणा से बहे, उस क्षण तुम कुरान हो गये। उस दिन तुम्हारे भीतर परम काव्य का जन्म हुआ। उस दिन जीवन साधारण न रहा, असाधारण हुआ। उस दिन जीवन में दीप्ति आयी, आभा उपजी। इसलिए ओम से प्रारंभ है।
इस ओम में इशारा है कि तुम अभी ऐसे वृक्ष हो जिसके फूल नहीं खिले हैं। और बिना फूल खिले कोई संतुष्टि नहीं है, कोई परितोष नहीं है।
ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा।
और यह तुम्हें खयाल में आ जाए कि मेरे फूल अभी खिले नहीं, कि मेरे फल अभी लगे नहीं; कि मेरा वसंत आया नहीं है; कि मैं जो गीत लेकर आया था, मैंने अभी गाया नहीं; कि जो नाच मेरे पैरों में पड़ा है, मैंने घूंघर भी नहीं बाधे, वह नाच अभी उन्मुक्त भी नहीं हुआ—यह तुम्हें समझ में आ जाए तो, अथातोभक्तिजिज्ञासा’ फिर भक्ति की जिज्ञासा। उसके पहले भक्ति उसके पहले भक्ति की कोई जिज्ञासा नहीं हो सकती।
भक्ति की जिज्ञासा का अर्थ ही यह है। कि मैं टूटा—फूटा हूं अभी, मुझे जुड़ना है; मैं अधूरा—अधूरा हूं अभी, मुझे पूरा होना है; कमियां हैं, सीमाएं हैं हजार मुझ पर, सब सीमाओं को तोड़ कर बहना है; बूंद हूं अभी और सागर होना है।... अथातोभक्तिजिज्ञासा!... तभी तो तुम जिज्ञासा में लगोगे।
समझें, भक्ति अर्थात क्या?
एक तत्व हमारे भीतर है, जिसको प्रीति कहें। यह जो तत्व हमारे भीतर है— प्रीति—इसी के आधार पर हम जीते है। चाहे हम गलत ही जीएं, तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है। कोई आदमी धन कमाने में लगा है; धन तो ऊपर की बात है, भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है— धन से उसकी प्रीति है। कोई आदमी पद के पीछे पागल है; पद तो गौण है, प्रतिष्ठा की प्रीति है। जंहा भी खोजोगे, तो तुम प्रीति को ही पाओगे। कोई वेश्यालय चला गया है और किसी ने किसी की हत्या कर दी—पापी में और पुण्यात्मा में, तुम एक ही तत्व को एक साथ पाओगे, वह तत्व प्रीति है। फिर प्रीति किससे लग गयी, उससे भेद पड़ता है। धन से लग गयी तो तुम धनी होकर रह जाते हो। ठीकरे हो जाते हो। कागज के सड़े—गले नोट होकर मरते हो। जिससे प्रीति लगी, वही हो जाओगे; यह बड़ा बुनियादी सत्य है; इसे हृदय में सम्हालकर रखना।
प्रीति महंगा सौदा है, हर किसी से मत लगा लेना। जिससे लगायी वैसे ही हो जाओगे —वैसा होना हो तो ही लगाना। प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि मैं यह होना चाहता हूं। राजनेता गांव में आया और तुम भीड़ करके पहुंच गये, फूलमालाएं सजाकर—किस बात की खबर है? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो, प्रतिष्ठा हो; इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है। कोई फकीर गांव मे आया और तुम पहुंच गये; उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तडूफ रहे हो फकीर होने को—कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण, जब सब छोड़—छाड़... जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी। कोई संगीत सुनता है तो धीरे—धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है।
तुम जिससे प्रीति करोगे, वैसे हो जाओगे : जिनसे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे। तो प्रीति का तत्व रूपातरकारी है। प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है। और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता। प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे श्वास। जैसे शरीर श्वास से जीता, आत्मा प्रीति से जीती। इसलिए अगर तुम्हारे जीवन मे कोई प्रीति न हो, तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए, तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। घर में आग लग गयी। और सारा धन जल गया और तुमने आत्महत्या कर ली; क्या तुम कह रहे हो? तुम यह कहते हो : यह घर ही मैं था, यह मेरी प्रीति थी। अब यही न रहा तो मेरे रहने का क्या अर्थ! तुम्हारी पत्नी मर गयी और तुमने आत्महत्या कर ली;तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो : यह मेरी प्रीति का आधार था। जब मेरी प्रीति उजड़ गयी, मेरा संसार उजड़ गया। अब मेरे रहने में कोई सार नहीं।... हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते है।
बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता। जीना संभव ही प्रीति के सहारे है। जैसे बिना श्वास लिए शरीर नहीं रहेगा, वैसे बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी। प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है—फिर प्रीति गलत से भी हो तो भी आत्मा टिकी रहती है। मगर चाहिए, प्रीति तो चाहिए—
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