Sunday, 8 June 2014

तब तक देर हो चुकी होती है।

कुछ चीजें शुरुआत में बड़ी आकर्षक लगती हैं
जिसके वशीभूत व्यक्ति उसमें रम
जाना चाहता है। अध्यात्म
हो या ज्योतिष या कोई दूसरा क्षेत्र
या विषय सब में बातें कुछ ऐसी ही हैं। शुरू में
आकर्षक होता है। यात्रा प्रारम्भ
हो जाती है। आनंद भी आता है। मजा इसलिए
भी आता है क्योंकि प्रारम्भ में
सहयात्री भी होते हैं और उनसे
अपनी तुलना कर सकते हैं। स्वभाववश मानव
तुलनात्मक रूप में अपनी प्रगति में अधिक
आनंद प्राप्त करता है। हाँ, मानवीय
स्वभाव ऐसा ही है। पर, कुछ
यात्रा हो जाने के बाद भीड़ पीछे छटने
लगती है, जिस माहौल का वह आदी था वह
भी पीछे रह जाता है। कुछ वक्त जैसे-तैसे
तो बीतता है लेकिन धीरे-धीरे
नीरसता आने लगती है क्योंकि जिस गंतव्य
का आकर्षण था उसको अकेले के संघर्ष में भूलने
लगता है। संक्रमण काल में उसका एकाकीपन
सवाल उठाने लगती है – कहाँ जा रहे हो,
क्यूँ जा रहे हों, क्या है वहाँ जो मिल
जाएगा, जो तुम्हारा था उसे छोड़ कर
क्या हासिल हो जाएगा, चलो लौट चलते
हैं। और संक्रमण काल की असहजता और अकेले
के संघर्ष से डरकर जब वह वापस आता है
तो वही व्यक्ति उस गंतव्य की यात्रा,
जो कभी उसके लिए आकर्षक हुई थी, के
विरोध में खड़ा होता है। खड़ा इसलिए
होता है क्योंकि स्वभाव वश वह
अपनी नकारात्मकता को प्रश्रय
देना चाहता है। वह ऐसा इसलिए
भी करता है
क्योंकि उसकी नकारात्मकता उसके
अस्तित्व संरक्षण में खड़ी प्रतीत होती है।
उसकी नकारात्मकता कहती है तुम
तो लाजवाब हो तुममें कोई कमी नहीं है।
कमी तो उस यात्रा में है, वो बेकार
की थी। धत, वो भी कोई गंतव्य था?
जबकि सत्य तो यह है कि आधे रास्ते से
लौटा ऐसा व्यक्ति अपने लिए बेकार है और
दूसरों के लिए भी। खंडित
यात्रा को प्राप्त
ऐसा व्यक्ति दूसरों को भी उसी नकारात्मकता के
अंधेरे में धकेलता है जिसमें वह होता है। वह
कभी भी अंधेरे से होकर जानेवाले उस मार्ग
के लिए किसी को प्रेरित नहीं कर सकता है
जिसका गंतव्य प्रकाशपूर्ण है। ऐसे
अप्रकाशित और अंधेरे में गुम अपने अस्तित्व
को टटोलते व्यक्ति की स्थिति दयनीय है।
लेकिन जबतक वह उसे समझ पाता है तब तक
देर हो चुकी होती है। समय
कहाँ किसी का इंतज़ार करती है।

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