(१) संसार में सुख की खोज सब दुःखों का कारण है| मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा और सुख की अपेक्षा सदा दुःखदायी है|
(२) परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम -- आनंददायी है| उस आनंद की एक झलक पाने के पश्चात ही संसार की असारता का बोध होता है|
(३) प्रभुप्रेमी की सबसे बड़ी सम्पत्ति --- "उनके" श्री-चरणों में आश्रय पाना है|
जो योग-मार्ग के पथिक हैं उनके लिए सहस्त्रार ही गुरुचरण है| आज्ञाचक्र का भेदन और सहस्त्रार में स्थिति बिना गुरुकृपा के नहीं होती| जब चेतना उत्तर सुषुम्ना यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य विचरण करने लगे तब समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा हो रही है|
जब स्वाभाविक और सहज रूप से सहस्त्रार में व उससे ऊपर की ज्योतिर्मय विराटता में ध्यान होने लगे तब समझ लेना चाहिए कि श्रीगुरुचरणों में अर्थात प्रभुचरणों में आश्रय प्राप्त हो गया है| तब भूल से भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए| एक सिद्ध योगी की चेतना वैसे भी अनाहत चक्र से ऊपर ही रहती है|
सहस्त्रार व उससे ऊपर की स्थायी स्थिति ही "परमहंस" होने का लक्षण है|
(४) एकमात्र मार्ग है ------ परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम | इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है|
(२) परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम -- आनंददायी है| उस आनंद की एक झलक पाने के पश्चात ही संसार की असारता का बोध होता है|
(३) प्रभुप्रेमी की सबसे बड़ी सम्पत्ति --- "उनके" श्री-चरणों में आश्रय पाना है|
जो योग-मार्ग के पथिक हैं उनके लिए सहस्त्रार ही गुरुचरण है| आज्ञाचक्र का भेदन और सहस्त्रार में स्थिति बिना गुरुकृपा के नहीं होती| जब चेतना उत्तर सुषुम्ना यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य विचरण करने लगे तब समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा हो रही है|
जब स्वाभाविक और सहज रूप से सहस्त्रार में व उससे ऊपर की ज्योतिर्मय विराटता में ध्यान होने लगे तब समझ लेना चाहिए कि श्रीगुरुचरणों में अर्थात प्रभुचरणों में आश्रय प्राप्त हो गया है| तब भूल से भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए| एक सिद्ध योगी की चेतना वैसे भी अनाहत चक्र से ऊपर ही रहती है|
सहस्त्रार व उससे ऊपर की स्थायी स्थिति ही "परमहंस" होने का लक्षण है|
(४) एकमात्र मार्ग है ------ परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम | इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है|
No comments:
Post a Comment