पूर्व कालमें गृहस्थ पचास-साठ वर्षके पश्चात अपनी सारे उत्तरदायित्वको अपनी युवा पीढीको सौंप साधनाको प्राधान्य देने लगते थे | आजकल धर्मशिक्षणके अभावमें सेवानिवृत्त होनेके पश्चात कुछ व्यक्ति ‘हंसोड संस्थान’ (laughter club) में सहभागी होते है तो कुछ आजके नीतिशून्य, आदर्शहीन नेताओंके चर्चे कर समय गंवाते हैं तो कुछ ताशके पत्ते खेलने हेतु अपना गुट बना लेते हैं तो कुछ दूरदर्शन संचपर खेलके भिन्न प्रकार और मायावी एवं तमोगुणी धारावाहिकको देखकर समय व्यर्थ कर देते है, कुछ व्यापारी जब तक शरीर काम न करना छोड दे तब तक अपने तिजोरीकी चाभी और उसके पैसेकी रखवाली करते रहते हैं ! अर्थात इतना अनमोल मनुष्य जीवन यूं ही 'हाय माया हाय माया' कर व्यतीत कर देते हैं , ध्यान रहे जैसे विचार सारे जीवन करेंगे मृत्यु समय उसी विचारका अन्तर्मनमें प्राबल्य रहेगा ! कहते हैं न 'अंत मति सो गति' अतः कमसे कम वानप्रस्थमें पहुंचनेपर तो अपनी मृत्युकी पूर्वतैयारी करें, ध्यान रहे मृत्युके समय और उसके उपरांत मायाकी वस्तु और मान-सम्मान काम नहीं आता, काम आता है साधना और वह ही साथ जाती है क्योंकि वह सूक्ष्मतम होती है ! अब समझमें आया मृत्यु उपरांत जीवोंको योग्य गति क्यों नहीं मिलती है !
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