तुरीय की प्राप्ति का उपाय है वासनारूपी विषयोच्छिष्ट का नाश । विषयग्रहण के समय उससे प्रभावित न होने से ही यह सम्भव है । इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण काल में भी उनसे प्रभावित न होना क्यों आवश्यक है ? क्यों कि विषय बहुत शीघ्र मनुष्य को जर्जरित कर देते हैं । यथा पर्वत श्रृङ्गों पर वायु के निरन्तर तेजी से चलते रहने से वृक्ष शीघ्र जीर्ण होते हैं । इसी प्रकार मन दि अपने वेग से चलता रहे तो वह जर्जरित होकर इतना शक्तिहीन हो जाता है कि परमात्म तत्व को प्राप्त करने की शक्ति खो देता है । अतः अन्तर्दृष्टि को शास्त्रों ने साधन बताया । इसे कैसे किया जाय ?
मेरे नारायण ! मन में एक विलक्षण शक्ति है कि एक साथ कई कार्य कर सकता है । उसकी शक्ति को अभ्यास से बढ़ाया जा सकता है । यथा कोई व्यक्ति मोटर चलाते हुए पास में बैठे हुए व्यक्ति से तरह - तरह की बाते भी करता जाता है और मौटर चलाने पर भी ध्यान रखता है । शतावधानि भी सुने जाते हैं । अनुभव के अन्दर जो काल आता है उसमें युगपत् मन की दो जगह प्रतीति हो रही है । प्रत्येक ज्ञान में ही मन के दो तीन रूप बन ही जाते हैं । पीला घड़ा देखना एक ऐसी क्रिया है कि इसमें रंग का ज्ञान , घड़े का ज्ञान और मैं देख रहा हूँ यह ज्ञान युगपत् हो रहा है । यदि इसके विपरीत करे तो ज्ञान नहीं होगा । एक साथ वाक्य बोलने से जो ज्ञान होता है उसमें यद्यपि शब्द अलग - अलग हैं पर उन्हें एक साथ सुनते है तो अर्थ बोध होता है । मन इकट्ठे ही उस सारे वाक्य का अर्थ ग्रहण करता है । सारे वाक्य के अन्दर भिन्न - भिन्न पदार्थ होने पर भी उनके द्वारा मन युगपत् ज्ञान करता है । ठीक इसी प्रकार यहाँ भी युगपत् अनुभूति अभ्यास के कारण होती है । शिशुकक्षा का बालक एक एक अक्षर को अलग अलग बांच कर अभ्यास करता है , पर बहुत से लोग एक उपच्छेद या एक पृष्ट को युगपत् बांचते हैं । इसी प्रकार से यहाँ भी होता है । प्रत्यगात्मा की तरफ लक्ष्य और बाहर के विषय को अन्दर जाने से रोकना इसका अभ्यास अलग - अलग करना पड़ता है। जिस काल में प्रत्यगात्मा का अन्दर ग्रहण करेगा उस समय बाहर नहीं देख पायेगा । बाहर के विषयों को देखने का अभ्यास तो पहले से ही पक्का है । उसे सीखना नहीं है । केवल प्रत्यगात्मा को देखने का ही अभ्यास करना है । जैसे बात करना तो पहले से आता ही है , केवल मोटर चलाने का पूर्ण अभ्यास कर लें तो मोटर चलाते हुए बात कर सकेंगे । प्रारम्भ से ही अभ्यास ऐसा हो जाय कि व्यवहार करते हुए वृत्ति एकाग्र रहे यह असम्भव है । अतः अन्तर्लक्ष्य का तात्पर्य अभ्यास या प्रयत्न के द्वारा उसे दृढ़ करना है । अपने अन्दर लक्ष्य में चित्त को एकाग्र करने के लिये शास्त्र ने कई उपाय बतलाये है । नाड़ी में चित्त का निरोध , प्राणायाम द्वारा चित्त का निरोध आदि । ऐसा हम मानते हैं कि सारा शरीर हमारा है । लेकिन क्या कभी आपने विचार किया कि आप कितने थोड़े से हिस्से के मालिक हैं । ये इन्द्रियें अपन काम ठीक - ठीक करें इसमें भी आप स्वतन्त्र नहीं हैं । पेट या यकृत को आप हुक्म नहीं दे सकते । हृदय पर आप शासन नहीं कर सकते । नख से आप कह नहीं सकते कि तुम बढ़ना बन्द कर दो । शरीर के एक छोटे से भाग पर ही हमारा अधिकार है । ठीक यही हालत हमारे मन का भी है । मनोविज्ञान के अन्वेषकों ने पता लगाया है कि मन के बहुत बड़े भाग पर हमारा अधिकार नहीं है । वासनायें न मालूम कहाँ से आती हैं और हमें बहा ले जाती है । जब मन पर हमारा अधिकार ही नहीं तो उसका निरोध कैसे करें ?
मेरे प्रभु ! आज कल लोग कह देते हैं कि मन को लगाना है । चाहे जैसे लगावें , बैठ कर या लेटकर । पर शरीर में दो प्रकार का नाड़ी संस्थान है । यदि हम इन पर अधिकार नहीं कर पाते तो हम उन्हें संचालित नहीं कर सकते । इन्हें क्रियास्थान एवं ज्ञप्तिस्थान अंगेजी भाषा में Afferent , Efferent कहा जाता है । प्राण का निरोध हमें ज्ञान - क्रिया में स्वतन्त्र करता है । प्राण वायु समस्त नाड़ी संस्थानों में जाकर अपना प्रभाव डालती है । प्राणायाम को इसी लिये करते है । सभी नियमन का तात्पर्य अपने शरीर और मन का शासक बनने में है । विचार के द्वारा , चिन्तन के द्वारा , मनन के द्वारा हम समझ तो जाते हैं , पर समझी हुई बात व्यवहार में नहीं आ पाती । जैसा अर्जुन ने गीता में कहा कि मानो कोई जबरदस्ती हमको प्रवृत्त कर रहा है । यह प्रत्येक साधक का अनुभव है । जब आप वेदान्त की कथा सुनते हैं तो क्रोध व्यर्थ लगता है । फिर थोड़ी देर बाद क्रोध प्रकट हो जाता है ।
एक शराब पीने वाला शराबी क्यों लड़खड़ता है ? उसका अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं है । ऐसे ही हम व्यवहार में लड़खड़ाते हैं । क्यों लड़खड़ाते हैं ? कामादि विकारों के कारण । हम बार बार विचार करते हैं कि शरीर और मन पर नियन्त्रण करेंगे । पर नियन्त्रण का मार्ग साधना का मार्ग है । उस पर घीरे धीरे चलना पड़ता है । यथा बारहखड़ी लिखने में बच्चे को बहुत समय लगता है । प्रत्येक अक्षर , उसको अलग अलग समझना पड़ता है । शास्त्रकारों ने तो केवल सामान्य रूप से निर्देश कर दिया कि यदि मन संसार के भोगों की तरफ जाने लगे तो विचार से रोके । पर विचार कैसे हो ? विषयों के विकार ज्ञान से विचार आसान हो जाता है । इसी प्रकार प्राणायाम में वायु का निरोध है जिसे चक्रों में करना पड़ता है । मन की प्रत्येक वासना को एक एक करके सुखाना पड़ता है , जैसे समुद्र बून्द बून्द सुखाया जाय ।
नारायण ! शास्त्रों में अविद्या शब्द कर्म मार्ग के लिये बताया गया है । अन्तःकरण के लिये भाव रूप क्रिया की अपेक्षा है । आत्म तत्त्व की प्राप्ति तो ज्ञान से होगी पर मल को दूर करने का उपाय भी तो उपाय करना पड़ेगा । परमेश्वर का वास्तविक प्रेम तब तक उपलब्ध नहीं होगा जब तक मल रूपी दोष न हटेगा । ज्ञान का साधक समझता है कि ज्ञान के उत्पन्न होते ही सारे दोष अपने आप दूर हो जायेंगे। पर ज्ञान उत्पन्न होगा कैसे ? शास्त्रों को सुन कर और पढ़ कर एक वृत्ति का आभास उत्पन्न होता है । उससे ज्ञान की प्रतीति तो बनी , पर " असतो निवृत्तिः " यदि नहीं हुई ; काम क्रोधादि यदि अपने अन्दर रहे , तो ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ ही ऐसा समझें ।
ज्ञान की अग्नि उत्पन्न हो कैसे ? यदि लकड़ी ने आग पकड़ ली तो लकड़ी के ऊपर रखे बटलोई { भोजन बनाने का एक पात्र } के पानी को भी उड़ा देगी । पर यदि लकड़ी ही स्वयं गीली है तो आग पकड़ेगी ही नहीं । ज्ञानाग्नि सभी कर्मनाश में समर्थ है पर यदि पाप कर्म का मल हृदय में है तो ज्ञान उत्पन्न होगा ही नहीं । यद्यपि अविद्या और कर्म से बन्धन है तथापि " अविद्याप्युपकाराय नृणां जायते विषवत् " जैसे जहर रोग को दूर कर देता है वैसे ही अविद्या रूपी जहर मल को काटने के लिये आवश्यक है । यदि अच्छी चीज को भी गलत तरीके से करें तो वह खराब हो जाती है । ज्ञान भी यदि ठीक समय पर न हो तो बन्धन का हेतु हो जायेगा । यथा संग्रहणी का रोगी यदि घी पीले तो ताकतवर होने के बजाय मौत के घाट उतरेगा । अगर विद्या का गलत प्रकार से अनुष्ठान करेंगे तो बन्धन होगा । यह ध्रुव सत्य है ।
पहले शास्त्र का श्रवण करने से तब रुचि उत्पन्न होगी । परमेश्वर परमशिव की तरफ रुची उत्पन्न होते ही कई लोग कर्मों का त्याग कर देते हैं । जब तक मल दोष दूर नहीं होगा तब तक " तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि " की ही दशा रहेगी । कर्म में लगे रहना पड़ेगा । ज्ञान और ध्यान श्रेष्ठ है पर उसके लिये अधिकारी बने तभी । मल दोष दूर कर ज्ञान ध्यान के अधिकारी बनेंगे । तब तक कर्म करना है जब तक अन्तःकरण में तीव्र शक्ति नहीं आ जाती । अन्तर्लक्ष्य प्राप्तव्य है सही पर यह शक्ति मन को शोध कर ही मिलती है ।
मेरे नारायण ! जब मन वासनाओं से आवृत रहता है तो अन्तःकरण पाप के मल से उसी तरह आच्छादित रहता है जिस प्रकार दर्पण मल से आच्छादित रहता है । पाप का मूलस्रोत इन्द्रिय है । इन्द्रियों द्वारा जब चित्त विषयों में न लगा रहे तभी उस परमशिव तत्व की प्राप्ति होती है । अतः अर्न्तदृष्टिर्बहिलक्ष्य की क्रिया बतलाई । अन्तःकरण के संस्कारोँ के द्वारा ही अन्तःकरण में शक्ति आती है । संस्कृत अन्तःकरण के लिये ही यज्ञोपवितादि सारे संस्कार हैं । आज इन संस्कारों के न होने के कारण जीवन दुःखमय हो गया है । परमात्मा ने संसार का निर्माण जीव को दुःखी बनाने के लिये किया हो यह सम्भव नहीं । लड़के को पिता पाठशाला इसलिये नहीं भेजता कि वह वहाँ जाकर निष्फल हो जाय । लड़का यह कह सकता है कि न तुम मुझे पाठशाला भेजते न मैं निष्फल होकर दुःखी होता। पिता कहेगा " बेटा ! भेजा विद्याध्यन के लिये था , पर तूने वहाँ जाकर विपरीत अभ्यास किया " । जीव में आणवदोष आना ही उसका फेल होना है । ईक्षण इस लिये नहीं किया था कि वह संस्कार हीन होकर सृष्टि में फँसे । सृष्टि के द्वारा संस्कार मय होकर वह अपने स्वरूप को पहचाने इस लिये संसार है। जब जीव शास्त्र विरुद्ध क्रियाओं में लग गया तो आणव के ऊपर मल दोष भी छा गया । आज हमने संसार को दुःख का जाल मान लिया है । संसार में हम चिन्तित बने रहते हैं । मकान , दूकान , नौकरी, वेतन बढ़ने आदि की चिन्ता से सभी चिन्ता ग्रस्त हैं । शिव ने संसार को निश्चिन्त रहने का साधन बनाया था । हम यहाँ आकर चिन्ता करने लगे । इससे अधिक निश्चिन्त बनने में प्रमाण क्या कि बच्चा उत्पन्न होने से पहले ही मां के स्तनों में दूध का निर्माण कर दिया । शिव ने प्रारब्ध का नियम ही ऐसा बनाया कि प्रारब्ध के रहते हुए हम कभी मर नहीं सकते । यदि कोई तपस्या करने लगा तो इन्द्र घबरा उठता है । इसका मतलब यह है कि साधक की साधना से मन रूपी इन्द्र को तकलीफ होती है। इन्द्र को पता तो है कि 100 वर्ष तक मैं इन्द्रासन पर आसीन रहूंगा । फिर दूसरे को तपस्या करते देख क्यों चिन्तित होता है ? ठीक जैसे आपको पता है कि जब तक प्रारब्ध है योग क्षेम बने रहेंगे फिर क्यों चिन्ता करते हैं ?
मेरे नारायण ! मन में एक विलक्षण शक्ति है कि एक साथ कई कार्य कर सकता है । उसकी शक्ति को अभ्यास से बढ़ाया जा सकता है । यथा कोई व्यक्ति मोटर चलाते हुए पास में बैठे हुए व्यक्ति से तरह - तरह की बाते भी करता जाता है और मौटर चलाने पर भी ध्यान रखता है । शतावधानि भी सुने जाते हैं । अनुभव के अन्दर जो काल आता है उसमें युगपत् मन की दो जगह प्रतीति हो रही है । प्रत्येक ज्ञान में ही मन के दो तीन रूप बन ही जाते हैं । पीला घड़ा देखना एक ऐसी क्रिया है कि इसमें रंग का ज्ञान , घड़े का ज्ञान और मैं देख रहा हूँ यह ज्ञान युगपत् हो रहा है । यदि इसके विपरीत करे तो ज्ञान नहीं होगा । एक साथ वाक्य बोलने से जो ज्ञान होता है उसमें यद्यपि शब्द अलग - अलग हैं पर उन्हें एक साथ सुनते है तो अर्थ बोध होता है । मन इकट्ठे ही उस सारे वाक्य का अर्थ ग्रहण करता है । सारे वाक्य के अन्दर भिन्न - भिन्न पदार्थ होने पर भी उनके द्वारा मन युगपत् ज्ञान करता है । ठीक इसी प्रकार यहाँ भी युगपत् अनुभूति अभ्यास के कारण होती है । शिशुकक्षा का बालक एक एक अक्षर को अलग अलग बांच कर अभ्यास करता है , पर बहुत से लोग एक उपच्छेद या एक पृष्ट को युगपत् बांचते हैं । इसी प्रकार से यहाँ भी होता है । प्रत्यगात्मा की तरफ लक्ष्य और बाहर के विषय को अन्दर जाने से रोकना इसका अभ्यास अलग - अलग करना पड़ता है। जिस काल में प्रत्यगात्मा का अन्दर ग्रहण करेगा उस समय बाहर नहीं देख पायेगा । बाहर के विषयों को देखने का अभ्यास तो पहले से ही पक्का है । उसे सीखना नहीं है । केवल प्रत्यगात्मा को देखने का ही अभ्यास करना है । जैसे बात करना तो पहले से आता ही है , केवल मोटर चलाने का पूर्ण अभ्यास कर लें तो मोटर चलाते हुए बात कर सकेंगे । प्रारम्भ से ही अभ्यास ऐसा हो जाय कि व्यवहार करते हुए वृत्ति एकाग्र रहे यह असम्भव है । अतः अन्तर्लक्ष्य का तात्पर्य अभ्यास या प्रयत्न के द्वारा उसे दृढ़ करना है । अपने अन्दर लक्ष्य में चित्त को एकाग्र करने के लिये शास्त्र ने कई उपाय बतलाये है । नाड़ी में चित्त का निरोध , प्राणायाम द्वारा चित्त का निरोध आदि । ऐसा हम मानते हैं कि सारा शरीर हमारा है । लेकिन क्या कभी आपने विचार किया कि आप कितने थोड़े से हिस्से के मालिक हैं । ये इन्द्रियें अपन काम ठीक - ठीक करें इसमें भी आप स्वतन्त्र नहीं हैं । पेट या यकृत को आप हुक्म नहीं दे सकते । हृदय पर आप शासन नहीं कर सकते । नख से आप कह नहीं सकते कि तुम बढ़ना बन्द कर दो । शरीर के एक छोटे से भाग पर ही हमारा अधिकार है । ठीक यही हालत हमारे मन का भी है । मनोविज्ञान के अन्वेषकों ने पता लगाया है कि मन के बहुत बड़े भाग पर हमारा अधिकार नहीं है । वासनायें न मालूम कहाँ से आती हैं और हमें बहा ले जाती है । जब मन पर हमारा अधिकार ही नहीं तो उसका निरोध कैसे करें ?
मेरे प्रभु ! आज कल लोग कह देते हैं कि मन को लगाना है । चाहे जैसे लगावें , बैठ कर या लेटकर । पर शरीर में दो प्रकार का नाड़ी संस्थान है । यदि हम इन पर अधिकार नहीं कर पाते तो हम उन्हें संचालित नहीं कर सकते । इन्हें क्रियास्थान एवं ज्ञप्तिस्थान अंगेजी भाषा में Afferent , Efferent कहा जाता है । प्राण का निरोध हमें ज्ञान - क्रिया में स्वतन्त्र करता है । प्राण वायु समस्त नाड़ी संस्थानों में जाकर अपना प्रभाव डालती है । प्राणायाम को इसी लिये करते है । सभी नियमन का तात्पर्य अपने शरीर और मन का शासक बनने में है । विचार के द्वारा , चिन्तन के द्वारा , मनन के द्वारा हम समझ तो जाते हैं , पर समझी हुई बात व्यवहार में नहीं आ पाती । जैसा अर्जुन ने गीता में कहा कि मानो कोई जबरदस्ती हमको प्रवृत्त कर रहा है । यह प्रत्येक साधक का अनुभव है । जब आप वेदान्त की कथा सुनते हैं तो क्रोध व्यर्थ लगता है । फिर थोड़ी देर बाद क्रोध प्रकट हो जाता है ।
एक शराब पीने वाला शराबी क्यों लड़खड़ता है ? उसका अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं है । ऐसे ही हम व्यवहार में लड़खड़ाते हैं । क्यों लड़खड़ाते हैं ? कामादि विकारों के कारण । हम बार बार विचार करते हैं कि शरीर और मन पर नियन्त्रण करेंगे । पर नियन्त्रण का मार्ग साधना का मार्ग है । उस पर घीरे धीरे चलना पड़ता है । यथा बारहखड़ी लिखने में बच्चे को बहुत समय लगता है । प्रत्येक अक्षर , उसको अलग अलग समझना पड़ता है । शास्त्रकारों ने तो केवल सामान्य रूप से निर्देश कर दिया कि यदि मन संसार के भोगों की तरफ जाने लगे तो विचार से रोके । पर विचार कैसे हो ? विषयों के विकार ज्ञान से विचार आसान हो जाता है । इसी प्रकार प्राणायाम में वायु का निरोध है जिसे चक्रों में करना पड़ता है । मन की प्रत्येक वासना को एक एक करके सुखाना पड़ता है , जैसे समुद्र बून्द बून्द सुखाया जाय ।
नारायण ! शास्त्रों में अविद्या शब्द कर्म मार्ग के लिये बताया गया है । अन्तःकरण के लिये भाव रूप क्रिया की अपेक्षा है । आत्म तत्त्व की प्राप्ति तो ज्ञान से होगी पर मल को दूर करने का उपाय भी तो उपाय करना पड़ेगा । परमेश्वर का वास्तविक प्रेम तब तक उपलब्ध नहीं होगा जब तक मल रूपी दोष न हटेगा । ज्ञान का साधक समझता है कि ज्ञान के उत्पन्न होते ही सारे दोष अपने आप दूर हो जायेंगे। पर ज्ञान उत्पन्न होगा कैसे ? शास्त्रों को सुन कर और पढ़ कर एक वृत्ति का आभास उत्पन्न होता है । उससे ज्ञान की प्रतीति तो बनी , पर " असतो निवृत्तिः " यदि नहीं हुई ; काम क्रोधादि यदि अपने अन्दर रहे , तो ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ ही ऐसा समझें ।
ज्ञान की अग्नि उत्पन्न हो कैसे ? यदि लकड़ी ने आग पकड़ ली तो लकड़ी के ऊपर रखे बटलोई { भोजन बनाने का एक पात्र } के पानी को भी उड़ा देगी । पर यदि लकड़ी ही स्वयं गीली है तो आग पकड़ेगी ही नहीं । ज्ञानाग्नि सभी कर्मनाश में समर्थ है पर यदि पाप कर्म का मल हृदय में है तो ज्ञान उत्पन्न होगा ही नहीं । यद्यपि अविद्या और कर्म से बन्धन है तथापि " अविद्याप्युपकाराय नृणां जायते विषवत् " जैसे जहर रोग को दूर कर देता है वैसे ही अविद्या रूपी जहर मल को काटने के लिये आवश्यक है । यदि अच्छी चीज को भी गलत तरीके से करें तो वह खराब हो जाती है । ज्ञान भी यदि ठीक समय पर न हो तो बन्धन का हेतु हो जायेगा । यथा संग्रहणी का रोगी यदि घी पीले तो ताकतवर होने के बजाय मौत के घाट उतरेगा । अगर विद्या का गलत प्रकार से अनुष्ठान करेंगे तो बन्धन होगा । यह ध्रुव सत्य है ।
पहले शास्त्र का श्रवण करने से तब रुचि उत्पन्न होगी । परमेश्वर परमशिव की तरफ रुची उत्पन्न होते ही कई लोग कर्मों का त्याग कर देते हैं । जब तक मल दोष दूर नहीं होगा तब तक " तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि " की ही दशा रहेगी । कर्म में लगे रहना पड़ेगा । ज्ञान और ध्यान श्रेष्ठ है पर उसके लिये अधिकारी बने तभी । मल दोष दूर कर ज्ञान ध्यान के अधिकारी बनेंगे । तब तक कर्म करना है जब तक अन्तःकरण में तीव्र शक्ति नहीं आ जाती । अन्तर्लक्ष्य प्राप्तव्य है सही पर यह शक्ति मन को शोध कर ही मिलती है ।
मेरे नारायण ! जब मन वासनाओं से आवृत रहता है तो अन्तःकरण पाप के मल से उसी तरह आच्छादित रहता है जिस प्रकार दर्पण मल से आच्छादित रहता है । पाप का मूलस्रोत इन्द्रिय है । इन्द्रियों द्वारा जब चित्त विषयों में न लगा रहे तभी उस परमशिव तत्व की प्राप्ति होती है । अतः अर्न्तदृष्टिर्बहिलक्ष्य की क्रिया बतलाई । अन्तःकरण के संस्कारोँ के द्वारा ही अन्तःकरण में शक्ति आती है । संस्कृत अन्तःकरण के लिये ही यज्ञोपवितादि सारे संस्कार हैं । आज इन संस्कारों के न होने के कारण जीवन दुःखमय हो गया है । परमात्मा ने संसार का निर्माण जीव को दुःखी बनाने के लिये किया हो यह सम्भव नहीं । लड़के को पिता पाठशाला इसलिये नहीं भेजता कि वह वहाँ जाकर निष्फल हो जाय । लड़का यह कह सकता है कि न तुम मुझे पाठशाला भेजते न मैं निष्फल होकर दुःखी होता। पिता कहेगा " बेटा ! भेजा विद्याध्यन के लिये था , पर तूने वहाँ जाकर विपरीत अभ्यास किया " । जीव में आणवदोष आना ही उसका फेल होना है । ईक्षण इस लिये नहीं किया था कि वह संस्कार हीन होकर सृष्टि में फँसे । सृष्टि के द्वारा संस्कार मय होकर वह अपने स्वरूप को पहचाने इस लिये संसार है। जब जीव शास्त्र विरुद्ध क्रियाओं में लग गया तो आणव के ऊपर मल दोष भी छा गया । आज हमने संसार को दुःख का जाल मान लिया है । संसार में हम चिन्तित बने रहते हैं । मकान , दूकान , नौकरी, वेतन बढ़ने आदि की चिन्ता से सभी चिन्ता ग्रस्त हैं । शिव ने संसार को निश्चिन्त रहने का साधन बनाया था । हम यहाँ आकर चिन्ता करने लगे । इससे अधिक निश्चिन्त बनने में प्रमाण क्या कि बच्चा उत्पन्न होने से पहले ही मां के स्तनों में दूध का निर्माण कर दिया । शिव ने प्रारब्ध का नियम ही ऐसा बनाया कि प्रारब्ध के रहते हुए हम कभी मर नहीं सकते । यदि कोई तपस्या करने लगा तो इन्द्र घबरा उठता है । इसका मतलब यह है कि साधक की साधना से मन रूपी इन्द्र को तकलीफ होती है। इन्द्र को पता तो है कि 100 वर्ष तक मैं इन्द्रासन पर आसीन रहूंगा । फिर दूसरे को तपस्या करते देख क्यों चिन्तित होता है ? ठीक जैसे आपको पता है कि जब तक प्रारब्ध है योग क्षेम बने रहेंगे फिर क्यों चिन्ता करते हैं ?
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