Saturday, 5 July 2014

साधो सहज समाधि भली

निद्रा और समाधि मेँ अन्तर है फिर भी बहुत कुछ साम्य भी है। समाधि मेँ मन सभी विषयोँ से निवृत्त हो जाता है और चित्तवृत्ति का निरोध होता है । निँद्रा मेँ भी मन संसार को भूल जाता है । संसार भूलने पर ही निँद्रा आती है । नीँद मेँ भी मन सांसारिक विषयो से परे हो जाता है । किन्तु निद्रावस्था मेँ पूर्णतः निर्विषय नहीँ हो पाता। किन्तु निद्रावस्था मेँ मन पूर्णतः निर्विषय नहीँ हो पाता । निद्रा का सुख तामसी है । उसमेँ अहमभाव शेष रह जाता है । अहमभाव का लय नहीँ होता है ।
समाधि की अवस्था मे मन पूर्णतः निर्विषय हो जाता है , अहमभाव भी लुप्त हो जाता है शिवमानसपूजा स्तोत्र मे लिखा है >
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचरा प्राणाः शरीर गृहं ।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।|
हे शम्भु ! तुम मेरी आत्मा हो, बुद्धि पार्वती है प्राण आपके गण हैँ । शरीर आपका मन्दिर है । सभी विषय भोगो की रचना आपकी पूजा है । निद्रा समाधि है , मेरा हलन चलन आपकी परिक्रमा है मेरे सभी शब्द आपके स्तोत्र हैँ । इस भाँति मेरी सभी क्रियाएँ आपकी आराधना रुप बनेँ ।
निद्रा के समय भी समाधि सा ही आनन्द मिलता है किन्तु वह आनन्द तामस है । निद्रा मे सब कुछ मिट जाता है किन्तु अहंकार बना रहता है जबकि समाधि अवस्था मेँ नाम रुप और अहंभाव मिट जाता है ।
योगी मन को बलपूर्वक वश करके प्राण को ब्रह्मरंध्र मेँ स्थापित करता है यह जड़ समाधि है किन्तु बलपूर्वक के बदले मन को प्रेम से समझा बुझाकर विषयो से हटा लेना अधिक श्रेयस्कर है और यही चेतन समाधि है ।
विश्वामित्र की साठ हजार वर्षो की तपस्या मेनका के सौन्दर्य पर भंग हो गयी । क्योँकि उनकी समाधि जड़ थी।
समाधि तो साहजिक होनी चाहिए । " साधो सहज समाधि भली " । और साहजिक समाधि तो श्रीकृष्णलीला मे ही है । कृष्णकथा और बाँसुरी के श्रवण करते समय , चाहे आँखे खुली ही क्योँ न होँ , समाधि लग ही जाती है । गोपियो ने आँखे मूँद कर नाक पकड़ कर समाधि लगाने का प्रयत्न कभी नहीँ किया । गोपियोँ की समाधि स्वाभाविक , साहजिक समाधि थी 

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