Saturday, 5 July 2014

सब एकमात्र ब्रह्म ही है

ब्रजहिं बसें आपुहि बिसरायौ l 
प्रकृति पुरुष एकै करि जानौ, बातन भेद करायौ ll १ ll 
जल थल जहाँ रहौं तुम्ह बिन नहिं, बेद उपनिषद गायौ l 
द्वै तन जीव एक हम दोऊ, सुख कारन उपजायौ ll २ ll 
ब्रह्म रूप द्वितिया नहिं कोऊ, तब मन तिया जनायौ l 
सूर स्याम मुख देखि अलप हँसि, आनँद पुंज बढ़ायौ ll ३ ll
सूरदासजीके शब्दोंमें श्रीराधिकाजी कहती हैं – (श्यामसुन्दर !) व्रजमें रहते हुए (मैंने अपने) स्वयं – (अहंता- ) को भुला दिया है l (वास्तवमें तो) यों जानना (समझना) चाहिये कि प्रकृति-पुरुष (रूप हम-तुम) दोनों एक ही हैं (केवल) शब्दोंने (प्रकृति-पुरुषरूप हमारा-तुम्हारा) भेद कराया है l (मैं) जलमें अथवा स्थलपर – जहाँ भी रहूँ (वहाँ) आपके बिना नहीं (रह सकती – यही) वेद और उपनिषदोंने गाया है; (क्योंकि) हम-तुम दोनों दो देह और एक प्राण हैं, (जो) एक-दूसरेको सुख देनेके लिये प्रकट हुए हैं l उस समय स्त्रीरूपिणी श्रीराधाके मनमें वह ज्ञान हो गया कि सब एकमात्र ब्रह्म ही है, (उनसे भिन्न) दूसरा कोई नहीं है l (तब) श्यामसुन्दरने (यह सब सुनकर प्रियाके) मुखको निरखते हुए तनिक-सा हँसकर (उनके) आनंदके समूहको और बढ़ा दिया l

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