Thursday, 3 July 2014

प्रभु दर्शन के रूप में मिलती है

(भक्ति की साधना )
सतत समर्पण ही भक्ति है .आत्मा का परमात्मा के प्रति ,व्यक्ति का समाज के प्रति ,शिष्य कगुरु के प्रति समर्पण में भक्ति की यथार्थता और साथर्कता है .निष्काम और निस्वार्थ भक्ति ही फलती है .तभी भक्त भगवान को देख सकता है .तभी व्यक्ति जनचेतना अथवा राष्ट्रभावना का पर्याय बन जाता है .तभी शिष्य में गुरुत्व कृतार्थ हो उठता है .भक्ति कभी अकारथ होती ही नहीं .
साधक और सिद्धि की एकरूपता ही भक्ति है .इस सायुज्य में दो एक हो जाते है -------शरीर ,मन प्राण और आत्मा से .जो तू है वह मै हूँ ,जो मै हूँ वह तू है .तेरे मेरे का भेद जहाँ जितने अंश में समाप्त होता है ,भक्ति की सिद्धि उतनी निकट आती है .यह सिद्धि भक्त को प्रभु दर्शन के रूप में मिलती है .भक्त अपने भगवान से तदातकार हो जाता है .भक्ति ;भक्ति है .
मार्ग अनेक है ,मंजिल एक है .भक्त न उलझता है ,न चिंतित होता है .वह सहज रूप में अनेक और अनन्त को को भी अपना एक बना लेता है और एक कपड़ा बुनते हुए कबीर को ,कपड़ा सिलते हुए नामदेव को ,जूते बुनते हुए रेदास को ,हजामत बनाते हुए सेन नाई को भी मिल जाता है .
भक्त के लिए तो जीवन का हर कर्म पूजा होती है ,सृष्टी का हर प्राणी भगवान होता है .धरती का कण -कण मंदिर होता है .

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