राम कृष्ण के जीवन में एक अद्भुत घटना है। रामकृष्ण को जो लोग बहुत निकट से जानते थे, उन सबको यह बात जानकर अत्यंत कठिनाई होती थी कि रामकृष्ण जैसा परमहंस, रामकृष्ण जैसा समाधिस्थ व्यक्ति भोजन के संबंध में बहुत लोलुप था। रामकृष्ण भोजन के लिए बहुत आतुर होते थे, और भोजन के लिए इतनी प्रतीक्षा करते थे कई बार उठकर चोंके में पहुंच जाते थे। और पूछते शारद को, बहुत देर हो गई। क्या बन रहा है आज? ब्रह्म की चर्चा चलती और बीच में ब्रह्म-चर्चा छोड़कर पहु्ंच जाते चोंके में। और खोजने लगते कि शारदा आज क्या बना रहा है? शारद ने भी उन्हें कई बार कहा की लोग क्या सोचते होंगे? क्या कहते होंगे? ब्रह्म की चर्चा छोड़ कर एक दम अन्न की चर्चा पर उतर आते हो। रामकृष्ण हंसते और चुप रह जाते। उनके शिष्यों ने भी उन्हें अनेक बार कहां। इससे बड़ी बदनामी होती है। लोग कहते है कि ऐसा व्यक्ति क्या ज्ञान को उपलब्ध होगा। जिसकी अभी वासना , रसना, जीभ की भी पूरी नहीं हुई है।
एक दिन शारदा ने (रामकृष्ण की पत्नी) ने बहुत भला-बुरा कहा, तो रामकृष्ण ने कहा कि तुझे पागल, पता नहीं, जिस दिन मैं भोजन के प्रति अरूचि प्रकट करूं, तू समझ लेना कि अब मेरे जीवन की यात्रा केवल तीन दिन शेष रह गई है। बस तीन दिन से ज्यादा फिर मैं जीऊूंगा नहीं। जिस दिन भोजन के प्रति मेरी उपेक्षा हो, समझ लेना कि तीन दिन बाद मेरी मौत आ गई है। शारदा कहने लगी, इसका अर्थ? रामकृष्ण कहने लगे, मेरी सारी वासनाएं क्षीण हो गई है। मेरी सारी इच्छाएं विलीन हो गई है। मेरे सारे विचार नष्ट हो गये है। लेकिन जगत के हित के लिए मैं रुका रहना चाहता हूं। मैं एक वासना को जबर्दस्ती पकड़े हुए हूं। जैसे किसी नाव की सारी ज़ंजीरें खुल जाएं एक जंजीर से नाव अटकी रह गई है। और वह एक जंजीर और टूट जाए तो नाव अपनी अनंत यात्रा पर निकल जाएगी। मैं चेष्टा करके रुका हुआ हूं। नहीं किसी की समझ में शायद उस दिन यह बात आई, लेकिन रामकृष्ण की मृत्यु के तीन दिन पहले शारदा थाली लगाकर रामकृष्ण के कमरे में गई। वे बैठे हुए देख रहे थे। उन्होंने थाली देखकर आँख बंद कर ली। लेट गए, और पीठ कर ली शारदा की तरफ। उसे एकदम से ख्याल आया कि उन्होंने कहां था कि तीन दिन बाद मौत हो जाएगी। जिस दिन भोजन के प्रति अरूचि करूंगा। उसके हाथ से थाली छूट गई। वह छाती पीटकर रोने लगी। राम कृष्ण ने कहा रोओ मत, तुम जो कहती थी वह बात भी अब पूरी हो गई।
ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हो गई। एक छोटी सी वासना को प्रयास करके वे रोके हुए थे। उतनी छोटी सी वासना जीवन यात्रा का आधार बनी थी। वह वासना भी चली गई जो जीवन यात्रा का सारा आधार समाप्त हो गया।
जिन्हें हम तीर्थकर कहते है, जिन्हें हम बुद्ध कहते है। जिन्हें हम ईश्वर के पुत्र कहते है। जिन्हें हम अवतार कहते है। उनकी भी एक ही वासना शेष रह गई होती है। और उस वासना को वे शेष रखना चाहते है करूणा के हित, सर्वमंगला के हित, सर्व लोक के हित। जिस दिन वह वासना भी शेष हो जाती है, उसी दिन जीवन की यह यात्रा समाप्त और अनंत की अंतहीन यात्रा शुरू हो जाती है। उसके बाद जन्म नहीं है, उसके बाद मरण नहीं है। उसके बाद….उसके बाद न एक है, न अनेक है।
एक दिन शारदा ने (रामकृष्ण की पत्नी) ने बहुत भला-बुरा कहा, तो रामकृष्ण ने कहा कि तुझे पागल, पता नहीं, जिस दिन मैं भोजन के प्रति अरूचि प्रकट करूं, तू समझ लेना कि अब मेरे जीवन की यात्रा केवल तीन दिन शेष रह गई है। बस तीन दिन से ज्यादा फिर मैं जीऊूंगा नहीं। जिस दिन भोजन के प्रति मेरी उपेक्षा हो, समझ लेना कि तीन दिन बाद मेरी मौत आ गई है। शारदा कहने लगी, इसका अर्थ? रामकृष्ण कहने लगे, मेरी सारी वासनाएं क्षीण हो गई है। मेरी सारी इच्छाएं विलीन हो गई है। मेरे सारे विचार नष्ट हो गये है। लेकिन जगत के हित के लिए मैं रुका रहना चाहता हूं। मैं एक वासना को जबर्दस्ती पकड़े हुए हूं। जैसे किसी नाव की सारी ज़ंजीरें खुल जाएं एक जंजीर से नाव अटकी रह गई है। और वह एक जंजीर और टूट जाए तो नाव अपनी अनंत यात्रा पर निकल जाएगी। मैं चेष्टा करके रुका हुआ हूं। नहीं किसी की समझ में शायद उस दिन यह बात आई, लेकिन रामकृष्ण की मृत्यु के तीन दिन पहले शारदा थाली लगाकर रामकृष्ण के कमरे में गई। वे बैठे हुए देख रहे थे। उन्होंने थाली देखकर आँख बंद कर ली। लेट गए, और पीठ कर ली शारदा की तरफ। उसे एकदम से ख्याल आया कि उन्होंने कहां था कि तीन दिन बाद मौत हो जाएगी। जिस दिन भोजन के प्रति अरूचि करूंगा। उसके हाथ से थाली छूट गई। वह छाती पीटकर रोने लगी। राम कृष्ण ने कहा रोओ मत, तुम जो कहती थी वह बात भी अब पूरी हो गई।
ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हो गई। एक छोटी सी वासना को प्रयास करके वे रोके हुए थे। उतनी छोटी सी वासना जीवन यात्रा का आधार बनी थी। वह वासना भी चली गई जो जीवन यात्रा का सारा आधार समाप्त हो गया।
जिन्हें हम तीर्थकर कहते है, जिन्हें हम बुद्ध कहते है। जिन्हें हम ईश्वर के पुत्र कहते है। जिन्हें हम अवतार कहते है। उनकी भी एक ही वासना शेष रह गई होती है। और उस वासना को वे शेष रखना चाहते है करूणा के हित, सर्वमंगला के हित, सर्व लोक के हित। जिस दिन वह वासना भी शेष हो जाती है, उसी दिन जीवन की यह यात्रा समाप्त और अनंत की अंतहीन यात्रा शुरू हो जाती है। उसके बाद जन्म नहीं है, उसके बाद मरण नहीं है। उसके बाद….उसके बाद न एक है, न अनेक है।
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