भगवान की सेवा मेँ जो व्यक्ति अपना शरीर लगा देता है , उसका देहाभिमान कम हो जाता है । भक्तिमार्ग मेँ धन या तन नहीँ मन ही प्रधान है । जब से भक्तिमार्ग मे धन की प्रधानता हो गयी है तब से भक्ति छिन्न भिन्न हो रही है । सर्वप्रथम कहना चाहिए कि मेरा मन सदा कृष्ण के चरण कमलोँ मेँ ही रहे । हे प्रभू आप मेरी रक्षा करेँ >
" तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष परमेश्वर " ।
सेवा का अर्थ है सेव्य श्रीकृष्ण को मन बसाए रखना , सेवा का सम्बन्ध मन से है । शरीर से जो क्रिया की जाय , यदि उसमेँ मन सहायक नहीँ होगा तो वह व्यर्थ हो जाएगी ।
सेवा का आरम्भ मन से होता है । मन सूक्ष्म होता है । चंचल होता है । वह जगत ओर ईश्वर के साथ एक साथ सम्बन्ध नहीँ रख सकता ।
" ये मन बड़ा चंचल है ,...
जितना इसे समझाऊँ
उतना ही मचल जाये ।"
मन किसी के उपदेश से नही मानता उसे स्वयं समझाना पड़ेगा । मन को अपने अतिरिक्त और कौन समझा सकता है ?
दास्य भाव मेँ सेवा ही मुख्य है । पेट उसी का भरता है जो भोजन स्वयं करता है । जो भजन और सेवा स्वयं करता है उसे ही फल मिलता है ।
भोजन , विवाह , ठाकुरजी की सेवा और मृत्यु स्वयं ही करना पड़ता है ।
दूसरे के द्वारा किये गये भोजन से अपनी भूख शांत नहीँ होती , दूसरे के विवाह करने से अपनी गृहस्थी नहीँ बसती , दूसरे द्वारा ठाकुर जी की सेवा करने से उसका फल स्वयं को नहीँ मिलता , अपनी मृत्यु का समय आ जाने पर किसी की अदला बदली नही चलती । गाँव मे कहावत है >
" खेती बारी विनती और घोड़े की तंग ।
अपने हाथ सवाचिए लाख लोग रहे संग ।।"
" तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष परमेश्वर " ।
सेवा का अर्थ है सेव्य श्रीकृष्ण को मन बसाए रखना , सेवा का सम्बन्ध मन से है । शरीर से जो क्रिया की जाय , यदि उसमेँ मन सहायक नहीँ होगा तो वह व्यर्थ हो जाएगी ।
सेवा का आरम्भ मन से होता है । मन सूक्ष्म होता है । चंचल होता है । वह जगत ओर ईश्वर के साथ एक साथ सम्बन्ध नहीँ रख सकता ।
" ये मन बड़ा चंचल है ,...
जितना इसे समझाऊँ
उतना ही मचल जाये ।"
मन किसी के उपदेश से नही मानता उसे स्वयं समझाना पड़ेगा । मन को अपने अतिरिक्त और कौन समझा सकता है ?
दास्य भाव मेँ सेवा ही मुख्य है । पेट उसी का भरता है जो भोजन स्वयं करता है । जो भजन और सेवा स्वयं करता है उसे ही फल मिलता है ।
भोजन , विवाह , ठाकुरजी की सेवा और मृत्यु स्वयं ही करना पड़ता है ।
दूसरे के द्वारा किये गये भोजन से अपनी भूख शांत नहीँ होती , दूसरे के विवाह करने से अपनी गृहस्थी नहीँ बसती , दूसरे द्वारा ठाकुर जी की सेवा करने से उसका फल स्वयं को नहीँ मिलता , अपनी मृत्यु का समय आ जाने पर किसी की अदला बदली नही चलती । गाँव मे कहावत है >
" खेती बारी विनती और घोड़े की तंग ।
अपने हाथ सवाचिए लाख लोग रहे संग ।।"
No comments:
Post a Comment