ईश्वर के सिवा जो कुछ भी दिखायी देता है , वह असत्य है । अस्तित्व न होने पर भी जो दिखाई देता है और सभी मेँ व्याप्त होते हुए भी ईश्वर दिखाई नहीँ देता , यह ईश्वर की माया ही है । उसे ही महापुरुष आवरण और विक्षेप कहते हैँ । सभी का मूल उपादान कारण प्रभु हैँ । प्रभु मे भासमान संसार सत्य नहीँ है , किन्तु माया के कारण आभासित होता है । माया की दो शक्तियाँ है - (1) आवरण शक्ति > माया की आवरण शक्ति परमात्मा को छिपाए रहती है। (2) विक्षेप शक्ति > माया की विक्षेप शक्ति ईश्वर के अधिष्ठान मेँ भी जगत् का भास कराती है ।
आत्मस्वरुप का विस्मरण ही माया है । अपने स्वरुप की विस्मृति स्वप्न ही है , जो स्वप्न देखता है , वह देखने वाला सच्चा है । स्वप्न मेँ एक ही पुरुष दो दिखाई देता है । तात्विक दृष्टि से देखेँ तो स्वप्न का और प्रमाता एक ही है । वह जब जागता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि मै घर मे विस्तर पर सोया हुआ हूँ ।
माया का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान कब से शुरु हुआ . यह जानने की कोई जरुरत नही है । माया जीव से कब लगी है , उसका भी विचार करने की जरुरत नहीँ है ।
माया का अर्थ विस्मरण है । "मा" निषेधात्मक है और "या" हकारात्मक । इस प्रकार जो न हो , उसे दिखाए वह माया है । माया के तीन प्रकार हैँ - (1) स्वमोहिका । (2) स्वजन मोहिका ।(3) विमुखजन मोहिका ।
जो सतत् ब्रह्मदृष्टि रखता है, उसे माया पकड़ नहीँ सकती ।
माया नर्तकी है जो सबको नचाती है । नर्तकी माया के मोह से छूटना है तो नर्तकी शब्द को उलट देना चाहिए तब होगा कीर्तन । कीर्तन करने से माया छूटेगी । कीर्तन भक्ति मेँ हरेक इन्द्रिय को काम मिलता है । इसीलिए महापुरुषोँ ने कीर्तन भक्ति को श्रेष्ठ माना है । माया का पार पाने के लिए माया जिसकी दासी है , उस मायापति परमात्मा को पाने का प्रयत्न करना चाहिए । माया की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए माधवराय की शरण मेँ जाना होगा , भगवान स्वयं कहते हैँ - - मामेव ये प्रपद्यन्ते तरन्ति ते ।
मुझे जो भजते हैँ , वे इस दुस्तर माया अथवा संसार को पार कर जाते है ।
इसलिए हमेँ हर किसी स्थान मेँ और हर किसी समय , अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि की कथाओँ का श्रवण , कीर्तन एवं स्मरण करना चाहिए --
आत्मस्वरुप का विस्मरण ही माया है । अपने स्वरुप की विस्मृति स्वप्न ही है , जो स्वप्न देखता है , वह देखने वाला सच्चा है । स्वप्न मेँ एक ही पुरुष दो दिखाई देता है । तात्विक दृष्टि से देखेँ तो स्वप्न का और प्रमाता एक ही है । वह जब जागता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि मै घर मे विस्तर पर सोया हुआ हूँ ।
माया का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान कब से शुरु हुआ . यह जानने की कोई जरुरत नही है । माया जीव से कब लगी है , उसका भी विचार करने की जरुरत नहीँ है ।
माया का अर्थ विस्मरण है । "मा" निषेधात्मक है और "या" हकारात्मक । इस प्रकार जो न हो , उसे दिखाए वह माया है । माया के तीन प्रकार हैँ - (1) स्वमोहिका । (2) स्वजन मोहिका ।(3) विमुखजन मोहिका ।
जो सतत् ब्रह्मदृष्टि रखता है, उसे माया पकड़ नहीँ सकती ।
माया नर्तकी है जो सबको नचाती है । नर्तकी माया के मोह से छूटना है तो नर्तकी शब्द को उलट देना चाहिए तब होगा कीर्तन । कीर्तन करने से माया छूटेगी । कीर्तन भक्ति मेँ हरेक इन्द्रिय को काम मिलता है । इसीलिए महापुरुषोँ ने कीर्तन भक्ति को श्रेष्ठ माना है । माया का पार पाने के लिए माया जिसकी दासी है , उस मायापति परमात्मा को पाने का प्रयत्न करना चाहिए । माया की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए माधवराय की शरण मेँ जाना होगा , भगवान स्वयं कहते हैँ - - मामेव ये प्रपद्यन्ते तरन्ति ते ।
मुझे जो भजते हैँ , वे इस दुस्तर माया अथवा संसार को पार कर जाते है ।
इसलिए हमेँ हर किसी स्थान मेँ और हर किसी समय , अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि की कथाओँ का श्रवण , कीर्तन एवं स्मरण करना चाहिए --
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