Friday 31 October 2014

गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन

नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।
1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।

2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था।इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।

3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए।
सतयुग में वो लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार हरभुज में और कलियुग में गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।

4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।

5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।

6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।

7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।

8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।

9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। "गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी " में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।

11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पुरान पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।

12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे।

विभिन्न मान्यताओं को तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुये ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरक्षनाथ जी का जीवन काल तेरहवीं शताब्दी से पहले का नहीं था।
Gorakhnath living spiritual life
Nath sect written about law enforcement Gorakhnath mention is found in our mythology. There are various stories related to mythology. Many traditional stories and legends, as well as to circulate in society. Uttar Pradesh, Uttaranchal, West Bengal, western India, Sindh and Punjab in India and Nepal are also prevalent these stories. Being described here are just a few legends.
1. Gorakhnath law relating to the introduction of the spiritual life stories are found in various places. There are various assumptions with respect to their Guru. But the values are unanimous about having two Guruo. These were-Adinath and Matsyendranath. They were considered a divine male followers of the Gorakhnath live, so they give them information about the time of birth and have always refused. But Gorakhnath statements are lots of live tour. Gorakhnath Nepalvasion believes that the arrival in Kathmandu, Nepal, or at least outside of Punjab was from. Pashupatinath temple in Kathmandu that have also recognized that it was his residence. Somewhere it has been considered a saint of Oudh.

2. Some of the Nath sect of saints that the world came into existence even before the foundation of the world according to their sect existed Thalis are recognized when Vishnu appeared in the lotus, the Gorakhnath were living in the Table. Lord Vishnu and thatch were horrified by the destruction of frozen and turned to live Gorakhnath. Fumigation Gorakhnath handful of law and of grace, the ash over the water to the Bbhuti sprayed, it will be able to create the world. Gorakhnath Minister stated, vice happened and then Brahma, Vishnu and Shiva became the first disciple of Mr. Gore-Nath Ji.

3. More than a human teacher Mr. Gorakhnath ordinary rules of law beyond the period which was seen as the embodiment of the various places in different periods appeared on Earth.
They are in the Golden Age in Peshawar Punjab Lahore cross, Tretayaug lived in Gorakhpur, Gorakhpur in Kali Yuga in Daparyug Hrbhuj across Dwarka in the west Kathiawar Gorkmdhi (Gorkmondi) travels to three months.

4lwartman recognition Matsyendranath the teacher called Mr. Gorakhnath law. Gorakhnath Kabir's Gorakhnath conspired live in Matsyendranath preceding yogi they were themselves, but is now considered one of the Shiva and Shiva, ie using the name origin aiming to best yogi under sect is used.

5. close aide of Gorakhnath Matsyendranath are more interested in the people. If the teacher is considered the god of the rulers of Nepal. The Buddhist saint (Monk) has also been considered, who was the embodiment of Pdmpwani Aryavlikiteshwar name. Lila is the site of some of them out of state and called Nepal Ltd Nepal visited him at the behest of Lord Buddha. It is believed that Shiva Yoga taught by Aryavlikiteshwar Pdmpani Bodhisattva. He orders his way back home on the coast, Shiva Parvati had knowledge of it. Shiva Parvati went to sleep between the statement, but the fish (fish) are held as lokeshvar heard it. Later came to be known as the Matsyendranath.

6. According to Mr. Gorakhnath superimposed by another recognized standing twelve year drought to protect Nepal Matsyendranath Kpotl mountain was called in Assam.

7.ak recognition is considered part of the Hindu tradition to Matsyendranath. In the Golden Age, an absolute ontological Udodhar were king. He was cremated after his death but his navel was intact. Unburnt part of his body that was flowing into the river, which made a fish on his diet. After that from the belly of the fish was born Matsyendranath. By virtue of his former life she was born into the fruit became a great saint.

Been recognized once per 8.ak Matsyendranath Lanka and became enamored of the Queen. When Gorakhnath Minister Adoptn heard of his master in his quest he reached Lanka. Found in the royal court and sought a response from the Matsyendranath. Matsyendranath abandoned the queen, but originated from the Queen took her two sons. The son later came to be known as Nath and Nimnath who founded Jainism.

9. According to the Nepalese recognition, Matsyendranath force of its total strength to sacrifice his body and left him in the care of his disciple Gorakhnath died immediately and entered the body of a king. The stage was tempted to Matsyendranath. Fortunately Gorakhnath supervised his master's body brought back to live consciously them and their master returned to his body.

10. A devotee of the fifteenth century poet saint Kabir. Guru Nanak had also benefited from his teachings. Sant Kabir are also considered contemporary Gorakhnath law. "Gorakhnath G conspired" Kabir and Gorakhnath also describes the polemical. On the basis of the fifteenth century historian Wilson admits Gorakhnath law.

11. According to a recognized standing in Punjab and his half-brother King Rsalu Gorakhnath were related to the old saw Bhagat. Kudos to Rsalu stretched from Afghanistan to Bengal and Punjab old saw was a famous saint. He became a disciple of both old saw a famous yogi Gorakhnath became law. The wells are near the old saw years, he still sits in Sialkot. Rsalu Sialkot was the son of the famous Salvahn.

West Bengal, India, from 12 in the Punjab and Sindh, finally, the recognition is attached to the Queen Pingala and Bhrartruhari. Accordingly, finally, is considered to be the sister of the mother Bhrartruhari to Manwati. Bhrartruhari his throne after the death of his wife, Queen Pingala brother Vikramaditya of Ujjain (Channdragupt II) had been called. Later became Bhrartruhari Gorkshnathy.


Considering the various assumptions and other factors that could certainly be said that Gorakhnath did not live life before the thirteenth century.

बच्चो की नजर उतारने के उपाय

बच्चो की नजर उतारने के उपाय
१॰ बच्चे ने दूध पीना या खाना छोड़ दिया हो, तो रोटी या दूध को बच्चे पर से‘आठ’बार उतार के कुत्ते या गाय को खिला दें।
२॰ नमक, राई के दाने, पीली सरसों, मिर्च, पुरानी झाडू का एक टुकड़ा लेकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर से ‘आठ’ बार उतार कर अग्नि में जला दें।‘नजर’लगी होगी, तो मिर्चों की धांस नहीँ आयेगी।
३॰ जिस व्यक्ति पर शंका हो, उसे बुलाकर‘नजर’लगे व्यक्ति पर उससे हाथ फिरवाने से लाभ होता है।
४॰ पश्चिमी देशों में नजर लगने की आशंका के चलते‘टच वुड’कहकर लकड़ी के फर्नीचर को छू लेता है। ऐसी मान्यता है कि उसे नजर नहीं लगेगी।
५॰ गिरजाघर से पवित्र-जल लाकर पिलाने का भी चलन है।
६॰ इस्लाम धर्म के अनुसार ‘नजर’ वाले पर से‘अण्डा’या‘जानवर की कलेजी’उतार के ‘बीच चौराहे’ पर रख दें। दरगाह या कब्र से फूल और अगर-बत्ती की राख लाकर ‘नजर’ वाले के सिरहाने रख दें या खिला दें।
७॰ एक लोटे में पानी लेकर उसमें नमक, खड़ी लाल मिर्च डालकर आठ बार उतारे। फिर थाली में दो आकृतियाँ- एक काजल से, दूसरी कुमकुम से बनाए। लोटे का पानी थाली में डाल दें। एक लम्बी काली या लाल रङ्ग की बिन्दी लेकर उसे तेल में भिगोकर ‘नजर’ वाले पर उतार कर उसका एक कोना चिमटे या सँडसी से पकड़ कर नीचे से जला दें। उसे थाली के बीचो-बीच ऊपर रखें। गरम-गरम काला तेल पानी वाली थाली में गिरेगा। यदि नजर लगी होगी तो, छन-छन आवाज आएगी, अन्यथा नहीं।
८॰ एक नींबू लेकर आठ बार उतार कर काट कर फेंक दें।
९॰ चाकू से जमीन पे एक आकृति बनाए। फिर चाकू से ‘नजर’ वाले व्यक्ति पर से एक-एक कर आठ बार उतारता जाए और आठों बार जमीन पर बनी आकृति कोकाटता जाए।
१०॰ गो-मूत्र पानी में मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पिलाए और उसके आस-पास पानी में मिलाकर छिड़क दें। यदि स्नान करना हो तो थोड़ा स्नान के पानी में भी डाल दें।
११॰ थोड़ी सी राई, नमक, आटा या चोकर और ३, ५ या ७ लाल सूखी मिर्च लेकर, जिसे ‘नजर’ लगी हो, उसके सिर पर सात बार घुमाकर आग में डाल दें। ‘नजर’-दोष होने पर मिर्च जलने की गन्ध नहीं आती।
१२॰ पुराने कपड़े की सात चिन्दियाँ लेकर, सिर पर सात बार घुमाकर आग में जलाने से ‘नजर’ उतर जाती है।
१३॰ झाडू को चूल्हे / गैस की आग में जला कर, चूल्हे / गैस की तरफ पीठ कर के, बच्चे की माता इस जलती झाडू को 7 बार इस तरह स्पर्श कराए कि आग की तपन बच्चे को न लगे। तत्पश्चात् झाडू को अपनी टागों के बीच से निकाल कर बगैर देखे ही, चूल्हे की तरफ फेंक दें। कुछ समय तक झाडू को वहीं पड़ी रहने दें। बच्चे को लगी नजर दूर हो जायेगी।
१४॰ नमक की डली, काला कोयला, डंडी वाली 7 लाल मिर्च, राई के दाने तथा फिटकरी की डली को बच्चे या बड़े पर से 7 बार उबार कर, आग में डालने से सबकी नजर दूर हो जाती है।
१५॰ फिटकरी की डली को, 7 बार बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर आग में डालने से नजर तो दूर होती ही है, नजर लगाने वाले की धुंधली-सी शक्ल भी फिटकरी की डली पर आ जाती है।
१६॰ तेल की बत्ती जला कर, बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर दोहाई बोलते हुए दीवार पर चिपका दें। यदि नजर लगी होगी तो तेल की बत्तीभभक-भभक कर जलेगी। नजर न लगी होने पर शांत हो कर जलेगी।

जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है

रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच एक दुर्लभ संवाद
स्वामी विवेकानंद : मैं समय नहीं निकाल पाता. जीवन आप-धापी से भर गया है.
रामकृष्ण परमहंस : गतिविधियां तुम्हें घेरे रखती हैं. लेकिन उत्पादकता आजाद करती है.
स्वामी विवेकानंद : आज जीवन इतना जटिल क्यों हो गया है?
रामकृष्ण परमहंस : जीवन का विश्लेषण करना बंद कर दो. यह इसे जटिल बना देता है. जीवन को सिर्फ जिओ.
स्वामी विवेकानंद : फिर हम हमेशा दुखी क्यों रहते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : परेशान होना तुम्हारी आदत बन गयी है. इसी वजह से तुम खुश नहीं रह पाते.
स्वामी विवेकानंद : अच्छे लोग हमेशा दुःख क्यों पाते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है. सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है. अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं. इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है, बेकार नहीं होता.
स्वामी विवेकानंद : आपका मतलब है कि ऐसा अनुभव उपयोगी होता है?
रामकृष्ण परमहंस : हां. हर लिहाज से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है. पहले वह परीक्षा लेता है और फिर सीख देता है.
स्वामी विवेकानंद : समस्याओं से घिरे रहने के कारण, हम जान ही नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं...
रामकृष्ण परमहंस : अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो. अपने भीतर झांको. आखें दृष्टि देती हैं. हृदय राह दिखाता है.
स्वामी विवेकानंद : क्या असफलता सही राह पर चलने से ज्यादा कष्टकारी है?
रामकृष्ण परमहंस : सफलता वह पैमाना है जो दूसरे लोग तय करते हैं. संतुष्टि का पैमाना तुम खुद तय करते हो.
स्वामी विवेकानंद : कठिन समय में कोई अपना उत्साह कैसे बनाए रख सकता है?
रामकृष्ण परमहंस : हमेशा इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाए, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना बाकी है. जो कुछ पाया है, हमेशा उसे गिनो; जो हासिल न हो सका उसे नहीं.
स्वामी विवेकानंद : लोगों की कौन सी बात आपको हैरान करती है?
रामकृष्ण परमहंस : जब भी वे कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं, "मैं ही क्यों?" जब वे खुशियों में डूबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते, "मैं ही क्यों?"
स्वामी विवेकानंद : मैं अपने जीवन से सर्वोत्तम कैसे हासिल कर सकता हूँ?
रामकृष्ण परमहंस : बिना किसी अफ़सोस के अपने अतीत का सामना करो. पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालो. निडर होकर अपने भविष्य की तैयारी करो.
स्वामी विवेकानंद : एक आखिरी सवाल. कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैं.
रामकृष्ण परमहंस : कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती. अपनी आस्था बनाए रखो और डर को परे रखो. जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है. यह कोई समस्या नहीं जिसे तुम्हें सुलझाना है. मेरा विश्वास करो- अगर तुम यह जान जाओ कि जीना कैसे है तो जीवन सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है.

Do you find that life is a mystery
A rare dialogue between Ramakrishna and Swami Vivekananda
Swami Vivekananda: I do not get enough time. Life is full of you-Dhapi.
Ramakrishna: activities that surround you are. But productivity is free.
Swami Vivekananda: Why is this life so complicated?
Ramakrishna: Stop analyzing life. It makes it complicated. Just live life.
Swami Vivekananda: Why are we sad?
Ramakrishna: be upset if your habit. It is why you will not be happy.
Swami Vivekananda: Why do good people always get hurt?
Ramakrishna: only shines on diamond rub. Glow of the fire has to be pure gold. Nice guys do not hurt but undergo examinations. His life is better than the experience, do not waste.
Swami Vivekananda: Do you mean that this experience would be useful?
Ramakrishna: Yes. By all accounts, the experience is like a harsh teacher. Before he takes the test and then makes learning.
Swami Vivekananda: embattled stay, we just do not know where are the ...
Ramakrishna: If you will not know where you're going Jancoge out. Look within yourself. While eyes sight. Road shows heart.
Swami Vivekananda: the failure of the right path is more painful?
Ramakrishna: success is the yardstick to determine other people. If you decide the scale of satisfaction.
Swami Vivekananda: How can maintain their enthusiasm in tough times?
Ramakrishna: Always pay attention to the fact that you still have so much going on, rather than just running and how much is left. Whatever is found, always count; Not that it did not achieve.
Swami Vivekananda: Which ones would you be surprised?
Ramakrishna: whenever they are in trouble then ask, "why me?" So never think they are immersed in happiness, "why me?"
Swami Vivekananda: How do I get the best out of your life do?
Ramakrishna: Face your past without regret of. Brace your present with confidence. Prepare for your future fearlessly.
Swami Vivekananda: One last question. Sometimes I feel that my prayers are being wasted.

Ramakrishna: No prayer is useless. Keep your faith and keep beyond fear. Do you find that life is a mystery. This is a problem that you solve. Get-A if you know how to live my belief is that life is really quite amazing.

Thursday 30 October 2014

कहाँ तक आपकी महिमा कोई कहे

किसने बनवाई 'पहली बार' श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की मूर्ति और क्यों ?

भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंश के राजा श्रीसत्राजित की कन्या श्रीमती सत्यभामा जी से विवाह किया था। वही सत्यभामा जी, भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की लीला में श्रीमती विष्णुप्रिया जी के रूप में आईं व राजा सत्राजित, श्रीमती विष्णुप्रिया जी के पिताजी श्रीसनातन मिश्र के रूप में प्रकट हुए।

आप बचपन से ही पिता-माता और विष्णु-परायणा थीं। आप प्रतिदिन तीन बार गंगा-स्नान करती थीं। गंगा-स्नान को जाने के दिनों में ही शचीमाता के साथ आपका मिलन हुआ था। आप उनको प्रणाम करतीं तो शचीमाता आपको आशीर्वाद देतीं।

आपके और भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के विवाह की कथा को जो सुनता है, उसके तमाम सांसारिक बन्धन कट जाते हैं।

श्रीमन्महाप्रभु जी के द्वारा 24 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करने पर आप अत्यन्त विरह संतप्त हुईं थीं।

आपने अद्भुत भजन का आदर्श प्रस्तुत किया था।

आप मिट्टी के दो बर्तन लाकर अपने दोनों ओर रख लेतीं थीं। एक ओर खाली पात्र और दूसरी ओर चावल से भरा हुआ पात्र रख लेतीं थीं। सोलह नाम तथा बत्तीस अक्षर वाला मन्त्र (हरे कृष्ण महामन्त्र) एक बार जप कर एक चावल उठा कर खाली पात्र में रख देतीं थीं। इस प्रकार दिन के तीसरे प्रहर तक हरे कृष्ण महामन्त्र का जाप करतीं रहतीं और चावल एक बर्तन से दूसरे बर्तन में रखती जातीं। 

इस प्रकार जितने चावल इकट्ठे होते, उनको पका कर श्रीचैतन्य महाप्रभु 

 को भाव से अर्पित करतीं। और वहीं प्रसाद पातीं।

कहाँ तक आपकी महिमा कोई कहे, आप तो श्रीमन्महाप्रभु की प्रेयसी हैं और निरन्तर हरे कृष्ण महामन्त्र करती रहती हैं। 

आपने ही सर्वप्रथम श्रीगौर-महाप्रभु जी की मूर्ति (विग्रह) का प्रकाश कर उसकी पूजा की थी।

कोई-कोई भक्त ऐसा भी कहते हैं --- श्रीमती सीता देवी के वनवास काल में एक पत्नीव्रती भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने सोने की सीता का निर्माण करवाकर यज्ञ किया था, पर दूसरी बार विवाह नहीं किया था। श्रीगौर-नारायण लीला में श्रीमती विष्णुप्रिया देवी ने उस ॠण से उॠण होने के लिए ही श्रीगौरांग महाप्रभु जी की मूर्ति का निर्माण करा कर पूजा की थी। 

श्रीमती विष्णुप्रिया देवी द्वारा सेवित श्रीगौरांग की मूर्ति की अब भी श्रीनवद्वीप में पूजा की जाती है।

भक्ति में मस्त होकर नाच रहा है



हरि बोल हरि बोल नदी पर कपड़े धोते हुए धोबी ने कहा, बाबा आगे जाओ हरि बोल हरि बोल बाबा कह तो दिया आगे जाओ मेरे पास तुम्हे देने को कुछ भी नही है । हरि बोल हरि बोल अब धोबी गुस्से से भर उठा मैने कहा न मै बहुत गरीब आदमी हु । कपड़े धोकर किसी तरह गुजारा करता हुँ । मैं कहा से भिक्षा दू ?

अब साधू बाबा ने कहा मै तुमसे कुछ नही मांगता | बस केवल यह चाहता हू कि तुम हर काम करते समय बस केवल एक ही मंत्र जपो एक ही धुन निकालो 'हरि बोल '।

जाने क्या हुआ ? धोबी सिर से पैर तक कॉप उठा और तुरंत साधू बाबा के चरणों मॅ गिर कर क्षमा मांगने लगा । साधु बाबा ने उसे उठाते हुए कहा "बेटा ! कहो हरि बोल तुम्हारा कल्याण होगा"|

अब तो धोबी हाथ ऊपर करके चिल्लाने लगा हरि बोल,हरि बोल वह बोलता जाता और नाचते हुए उसी धुन को रटता 'हरि बोल ,हरि बोल' |
तभी उसकी पत्नी भी वहा पर उसके लिये भोजन लेकर आ गयी | उसने सोचा कि उसके पति के शरीर में भूत ने प्रवेश कर लिया है । वह उल्टे पैर गाव मै दौडी गई और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगी 'बचाओ ! बचाओ मेरे पति को किसी भूत ने घेर लिया है| " जब लोग उसे देखने के लिये घाट पर पहुचे तो देखते क्या है कि धोबी भक्ति में मस्त होकर नाच रहा है"।

सबने उन्हे रोकना चाहा लेकिन यह क्या वह भी उनके साथ हरि बोल, हरि बोल कहकर नाचने लगे और देखते ही देखते सभी लोग हरि के प्रेम में आत्म विभोर होकर नाचने गाने लगे यह संयासी थे गौरांग चैतन्य महाप्रभु जो कृष्ण भक्ति के मूर्त रूप माने जाते हैं । इनका बचपन का नाम था विशम्भर । पंडित जगननाथ मिश्र और उनकी पत्नी पूर्व बंगाल के सिलहट जिले से नवदीप (नादिया ) आकर बस गये थे । उनके दो पुत्र हुए विश्व रूप तथा विशम्भर । विशम्भर का जन्म १४८५ ईस्वी में फाल्गुन मास की पूर्णिमा को हुआ और शायद इसीलिये विशम्भर पूर्णिमा के चाँद के समान ही गौरवर्ण उन्न्त मस्तक दर्शनीये आकृति एवं विलक्षण बुद्धिवाला हुआ ।

इसी कारण माता - पिता के बहुत ज्यादा लाड से बालक विश्वभर अपने समान किसी को भी न समझता उनकी प्रतिमा ही विलक्षण थी । उसके तर्क अकाट्य होते और लोग उसकी विद्धता से आशचर्यचकित होकर दातों तले उंगली दबा लेते ।

एक बार बहुत बड़े आचार्य केशवदेव कश्मीर से नवदीप पधारे । वे समझते थे कि उनकी प्रतिमा के सामने कोई भी नेही टिक सकता । आचार्य केशवदेव गंगा के तट पर प्रवचन कर रहे थे तभी किसी बात पर विश्वधर के साथ उनका विवाद छिड़ गया विशम्भर ने उन्हे चुनौती देते हुए अपनी विदता सिद्ध करने कई लिये गंगा पर ही एक कविता लिखी विशम्भर ने उसने कई काव्यदोष निकाल कर दिखाये । केशवदेव लजजित होकर वह से कश्मीर वापस चले गये ।

विशम्भर के कड़वे सवभाव के कारण लोग उन्हे निमई पंडित कहते क्योकि वे नीम के समान ही कड़वे थे परन्तु सबका भला ही
चाहते थे । धीरे धीरे विशम्भर के भक्तों की संख्या बढ़ने लगी । निमई पंडित के सिर पर पढ़ने का भूत सवार रहता । उन्होने संस्कृत कै सभी शास्त्र व्याकरण तर्क,न्याय,साहित्य,काव्य,दर्शन और उपनिषिद आदि पढ डाले ।

विद्धता में उनका जवाब नही था । उन्होने न्यायशास्त्र पर लिखना शुरू किया एक दिन वेह नाव से नदी पार कर रहे थे उनके पास ही न्यायी के उदभट विधमान प्रो. रघुनाथ भी बैठे थे वे भी न्यायी पर दीधिति टीका लिख रहै थे,उत्सुक्तावश परिचय के बाद उन्होने निमई पंडित को अपनी टीका दिखाने के लिये कहा निमई पंडित ने तुरंत अपने थैले में से पंछी टीका की पांडुलिपि थमा दी । पंडित रघुनाथ टीका पढ़ते जाते और उनकी आंखो से आँसू बहते जाते ।

निमई एकदम घबरा गये और उनके पास जा कर बोले भाई तुम रो क्यों रहै हो ? "पंडित रघुनाथ ने वहा " में भी इसी शास्त्र पर दीघीति टीका लिख रहा हू । में सोचता था कि नयायै पर टीका लिखने वाला मै पहला विधमान कहलाओगा । परन्तु आपकी टीका के सामने मेरी टीका के लिये कोई स्थान ही नेही बचा |
"निमई पंडित का ह्रदय पसीज़ गया और वह उनको धीरज बांधते हुए बोले 'बस इतनी सी बात है लोग अब आपकी ही टीका को पड़ेगे " और यह कहकर उन्होने आचार्य के रूप पांडुलिपि को नदी मे प्रवाहित कर दीया ।

१६ वर्ष कि आयु मे उन्होने एक पाठशाला की स्थापना की और उसमे सब शास्त्रो को पढ़ाना शुरू किया । इस प्रकार वे आयु में सबसे छोटे आचार्य के रूप में प्रसिद्द हुऐ ।

१८ वर्ष की आयु में ही माता - पिता ने उनका विवाह लक्ष्मी देवी से कर दिया । निमई पंडित घर पर कम रहते और एक बार जब वे प्रवचन के लिये बाहर गये हुए थे कि लक्ष्मी को साँप ने डस लिया और उनकी मृत्यु हो गयी ।

माता - पिता ने निमई की वैराग्य भावना को देखते हुए उन्हे फिर से ग्रहस्त के बन्धन में जकड़ना चाहा और उनका विवाह विष्णुप्रिया नाम की दूसरी कन्या से कर दिया गया लेकिन उनका मन न पहले गर्हस्ती में लगता था और न अब वे निरंतर अपने अधययन और अधयापन में लगे रहते ।

निमई पंडित का मन घर पर नेही लगता अतः उन्होने माँ से संन्यास लेने की आज्ञा माँगी । लाचार माँ और नववधू विष्णुप्रिया ने हृदय़े पर पत्थर रखकर उन्हे संन्यास की अनुमति दे दी । नदी के किनारे आचार्य केशवभारती के आश्रम में उन्होने संन्यास की दीक्षा ली और अब वे चैतन्य महाप्रभु कहलाने लगै । क्योकि वे अत्यादिक गौर वर्ण के थे अत वे गौरांग चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रसिद्ध हुए ।

अब वे निरंतर भ्रमण केरते हुए जगन्नाथ पुरी जा पहुचे । पुरी के मंदिर की सीडियो पर एक कोढ़ी बैठा हुआ थे उसके सारे शरीर में गहरे घाव थे घावो सेइ पीप बहती उनमे से बुलबुलाते हुए कीड़े बाहर निकलकर भागते पैर कोढ़ी उन्हे फिर से अपने जख्मो के अंदर डाल देता और कहता "अरे क्यों बहार मरने के लिये जाते हो , दुर्गंध के मारे कोई उस कोढ़ी के पास न फटकता" |

लोग दूर दूर से मुख पैर कपडा रेख केर निकलते ।तभि चैतन्य महाप्रभु मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे । कोढ़ी की दुर्दशा देखकर उनका हर्दियै रो उठा । उन्होने प्रेम से विहल होकर उस कोढ़ी को गले से लगा लिया और वह उसके घावो की मरहम पट्टी केरने लगे |

Wednesday 29 October 2014

श्रीकृष्ण की प्रेमपूर्वक सेवा करना ही भक्ति है

एक महान वैष्णव आचार्य श्रील वृन्दावन दास ठाकुर जी श्रीमन नित्यानंद प्रभु जी के मन्त्र शिष्य हैं और जिन्होंने श्री चैतन्य भागवत की रचना की | इन्होंने चैतन्य भागवत में भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु जी की विभिन्न लीलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया | १६ वर्ष की आयु में इन्होंने नित्यानंद प्रभु जी से दीक्षा ग्रहण की | वे श्रीमन नित्यानंद प्रभु जी के प्रियतम शिष्य थे |
श्री वृन्दावन दास ठाकुर जी की माता का नाम श्री नारायणी देवी था जो श्रीवास पंडित जी के भाई की कन्या थी | जिस समय भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने श्रीवास पंडित के घर में 'महाभाव प्रकाश' लीला की और वहां एकत्रित भक्तों को अपने स्वरूप के दर्शन करवाए उस समय नारायणी देवी केवल ४ वर्ष की बच्ची थी | चैतन्य भागवत में इस लीला का वर्णन इस प्रकार है : "जिस समय श्री गौरांग महाप्रभु जी ने श्रीवास पंडित जी के घर में अपने स्वरूप को प्रकाशित किया उसी समय महाप्रभु जी ने नारायणी को कृष्ण नाम उच्चारण करने को कहा, नारायणी उस समय मात्र ४ वर्ष की थी और वह 'कृष्ण-कृष्ण' उच्चारण करती हुई कृष्ण प्रेम में पागल होकर, नेत्रों से अश्रुधारा बहाती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी |"
नारायणी देवी के पुत्र हुए वृन्दावन दास ठाकुर, नारायणी को किस प्रकार महाप्रभु जी की कृपा प्राप्त हुई इसका उल्लेख चैतन्य भागवत में किया गया है : "नारायणी की भगवान में बहुत निष्ठा थी, वह केवल एक छोटी बच्ची थी किन्तु स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास पंडित के घर उनकी भतीजी नारायणी को अपना महाप्रसाद देकर विशेष कृपा प्रदान की |"
निश्चित ही यह भगवान चैतन्य महाप्रभु की कृपा थी जो वृन्दावन दास ठाकुर जी ने नारायणी के गर्भ से जन्म लिया | श्री गौरांग और नित्यानंद जी तो वृन्दावन दास ठाकुर जी का जीवन व प्राण हैं |
श्रीगौर गणोंदेश दीपिका ग्रन्थ में लिखा है कि ब्रज लीला में कृष्ण की स्तन-धात्री अम्बिका की छोटी बहन किलिम्बिका ही नारायणी देवी के रूप में चैतन्य लीला में अवतरित हुई और अम्बिका श्रीवास पंडित जी की पत्नी मालिनी देवी के रूप में आईं | इस प्रकार अम्बिका और किलिम्बिका, दोनों बहनें पुनः गौरांग महाप्रभु जी की लीला में मालिनी देवी और नारायणी देवी के रूप में अवतरित हुई |
नारायणी देवी पर महाप्रभु जी की कृपा
नारायणी देवी ४ वर्ष की थी जब महाप्रभु जी ने उसे कृष्ण प्रेम प्रदान किया, उस समय नारायणी श्रीवास पंडित और मालिनी देवी के साथ श्रीवास आंगन में ही रहती थी | एक दिन अचानक महाप्रभु जी श्रीवास पंडित को सशंकित देखकर उनके घर में गए और दरवाज़े को लात मारकर खोलते हुए श्रीवास से पूछने लगे, "तुम किसकी पूजा व ध्यान कर रहे हों, जिसकी तुम पूजा कर रहे हों, देखो ! वह तो मैं ही हूँ |" ऐसा कहकर महाप्रभु जी बैठ गए तथा उन्होंने श्रीवास की स्त्री, पुत्र, नारायणी और समस्त सम्बन्धियों को अपने ईश्वर रूप का दर्शन करवाया |
तत्पश्चात महाप्रभु जी ने सबको आश्वासन दिया की चाँद काज़ी से भय करने की कोई आवश्यकता नहीं है और परमात्मा रूप में महाप्रभु जी ने काज़ी का ह्रदय परिवर्तित कर दिया और सर्वत्र हरिनाम संकीर्तन का, कृष्ण नाम : "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ||" का प्रचार किया, महाप्रभु जी ने सभी बद्ध जीवों से, यहाँ तक कि जानवरों से भी हरे कृष्ण महामंत्र करवाया और सबको कृष्ण प्रेम में विभोर कर दिया | श्रीवास पंडित के घर महाप्रभु जी ने नारायणी को बोला, "नारायणी ! कृष्ण नाम उच्चारण करो |" ऐसा सुनते ही नारायणी 'कृष्ण-कृष्ण' बोलते हुए प्रेम में पागल हों गयी और पृथ्वी पर गिर पड़ी |
गौरहरि ने सदैव नारायणी पर विशेष कृपा की और स्वयं अपना उच्छिष्ट नारायणी को दिया | महाप्रभु जी के मायापुर से जाने के कुछ समय बाद नारायणी का विवाह हो गया, जिस समय वह गर्भवती थी तो उनके पति का देहांत हो गया और उसी समय मालिनी देवी उन्हें लेकर मामगाछी आ गई |
गौर लीला में वृन्दावन दास ठाकुर जी का आविर्भाव
श्री वृन्दावन दास ठाकुर जी श्रीकृष्णद्वैपयान वेदव्यास जी का ही अवतार हैं | वेदव्यास जी ने वेदों की रचना की और भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रीमद भागवतम में वर्णन किया उसी प्रकार श्री वृन्दावन दास ठाकुर जी ने श्री चैतन्य भागवत ग्रन्थ में गौर लीला का (भगवान श्रीकृष्ण जो गौरहरि के रूप में इस कलियुग में अवतरित हुए) वर्णन किया | श्री चैतन्य भागवत ग्रन्थ का नाम पहले श्रीचैतन्य मंगल था | चैतन्य भागवत में वृन्दावन दास ने भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु जी की लीलाओं को अति मनोहर रूप से बताते हुए श्रीमद भागवतम की सर्वोत्तम शिक्षा प्रदान की : भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमपूर्वक सेवा करना ही भक्ति है |
श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य भागवत की व्याख्या करते हुए लिखा, "मामगाछी में वृन्दावन दास ठाकुर का जन्म हुआ और बाल्यावस्था में नारायणी देवी ने यहीं पर ही उनका पालन-पोषण किया |" उन्होंने १६ वर्ष की आयु में नित्यानंद प्रभु से मंत्र दीक्षा ग्रहण की और उसके बाद वे नित्यानंद प्रभु के साथ प्रचार में गए | जब वे देनूर ग्राम में पहुंचे तो नित्यानंद प्रभु के आदेशानुसार उन्होंने वहां रहकर प्रचार किया और उन्हें कभी भी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु के साक्षात् रूप से दर्शन नहीं हुए | वह सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु जी की शक्ति श्री जाह्नवा देवी जी के साथ गौर पूर्णिमा की शुभ तिथि पर खेतरी ग्राम गए |
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने चैतन्य चरितामृत की अंत्य लीला के २०वे अध्याय के ८२वे श्लोक में वृन्दावन दास ठाकुर जी की महिमा वर्णन करते हुए लिखा : "वृन्दावन दास ठाकुर नित्यानंद प्रभु जी के प्रिय पार्षद हैं और उन्हें श्रीचैतन्य लीला का व्यासदेव कहा जाता है |"
जिस प्रकार व्यासदेव जी ने श्रीकृष्ण लीलाओं का श्रीमद भागवतम और अन्य पुराणों में वर्णन किया उसी प्रकार श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने श्रीचैतन्य भागवत में चैतन्य लीला का वर्णन किया |

Tuesday 28 October 2014

धैर्य से प्राप्त विश्वास ही निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचाता है

भगवान चैतन्य महाप्रभु के लिए भगवद-भजन ही सर्वस्व था। वे नृत्य करते हुए कीर्तन करते और मग्न रहते थे। उन्हें भौतिक दुिनया के लोगों से सरोकार नहीं रहता था और इसी कारण उनके जान-पहचान का दायरा सीमित था। बात उन दिनों की है जब चैतन्य महाप्रभु श्रीवास पंडित के आवास में रहते थे। श्रीवास पंडित के आंगन में उनका नृत्य-कीर्तन चलता रहता। श्रीवास पंडित के घर के सारे सदस्य और नौकर-चाकर चैतन्य महाप्रभु को जानते थे और उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते थे, किंतु महाप्रभु कभी आगे रहकर किसी से बातचीत नहीं करते थे। वहीं पर एक सेविका काम करती थीं, जो चैतन्य महाप्रभु के लिए प्रतिदिन जल लेकर आती थी। महाप्रभु ने तो कभी उस पर ध्यान नहीं दिया, किंतु वह उनके प्रति अत्यंत श्रद्धा-भाव से भरी हुई थी और सोचती थी कभी तो भगवान उसे आशीष देंगे। उसकी सेवा तो साधारण थी, किंतु धैर्य अटल था और इस कारण विश्वास भी प्रबल था। अंतत: एक दिन महाप्रभु को बहुत गर्मी लगने लगी और उन्होंने स्नान करने की इच्छा प्रकट की। तब उपस्थित भक्तों ने उसी सेविका को जल लाने के लिए कहा। वह दौड़-दौड़कर अनेक घड़े भरकर लाई और फिर श्रीवास आंगन में भक्तों ने मिलकर महाप्रभु को स्नान कराया। उस दिन महाप्रभु ने स्वयं के लिए इतना परिश्रम करने वाली सेविका को देखा, उसके श्रद्धा भाव व सेवा-कर्म को पहचाना और उसके सिर पर हाथ रखकर हार्दिक आशीर्वाद दिया। सेविका धन्य हो गई, क्योंकि उसका अभिलाषित सुख उसे प्राप्त हो गया। धैर्य धारण करने पर मन में विश्वास की ऐसी अखंड जोत जलती है, जो कृपा में अवश्य ही परिणति होती है। वस्तुत: धैर्य से प्राप्त विश्वास ही निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचाता है।

Gaining confidence with patience reaches the target set

The Bhagavad-hymn was the supreme Lord Chaitanya Mahaprabhu. They Kept dancing and chanting. He was not concerned with the physical world and the people that had limited the scope of their acquaintance. Matter of days when Chaitanya Pandit Sriwas lived in housing. His dance moves in the courtyard of the priest Sriwas recommendation. All members of the household and domestic scholars Sriwas Chaitanya knew and had the attitude of reverence, but never Proactive Mahaprabhu did not talk to anyone. While a worker were working on, which brings water Chaitanya was the day. Mahaprabhu sometimes ignored him, but he was full of the spirit of the utmost reverence and never thought God would bless him. His service was so simple, but patience was adamant and had strong reason to believe this. Finally one day, and he looked so hot to Mahaprabhu expressed the desire to bathe. The present devotees asked to bring water to the worker. He brought the race to fill the pitcher and then Sriwas court-ran many devotees bathed together to Mahaprabhu. Mahaprabhu himself so hard for that day saw the worker, price and service-karma recognize his faith and placed his hands on his head heartfelt blessing. Nurse was blessed, because his Abhilasit well received him. Holding a monolithic tolerate burning belief in the mind, which is the culmination of course in favor. Indeed, the goal of faith from patience fires.

शिक्षा देने लगे की मुक्ति ही सर्वोत्तम है

श्रीअद्वैत आचार्य जी एक वृद्ध भक्त की लीला की। किन्तु वे जानते थे की श्रीचैतन्य महाप्रभु जी कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं अर्थात भगवान हैं और इसी भावना से वे हमेशा उन्हें सम्मान देने का प्रयास करते थे जिसकी महाप्रभु जी अनुमति नहीं देते थे और कहते थे, "आप बड़े हैं और मेरे पिता समान हैं, आप मुझे प्रणाम क्यों करते हैं बल्कि मुझे आपको सम्मान देना चाहिए|"

ऐसा कह कर श्रीमहाप्रभु जी ज़बरदस्ती उनकी चरण धूलि लेते जिससे अद्वैत आचार्य जी को अत्यंत दुःख होता । वे यह सोचते, "मुझे कुछ योजना बनानी पड़ेगी जिससे मुझे महाप्रभु जी द्वारा दण्ड प्राप्त हो|"

एक बार श्रीअद्वैत आचार्य जी अपने घर शांतिपुर चले गए और वहां जाकर ज्ञान-मार्ग का प्रचार करने लगे । वे यह शिक्षा देने लगे की मुक्ति ही सर्वोत्तम है और भक्ति का स्तर मुक्ति से नीचे है|

"भक्ति सिद्धांत के अनुसार भगवान स्वतन्त्र हैं, हम उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करेंगे किन्तु यह भगवान पर निर्भर करता है कि वे हमारी सेवा से प्रसन्न होंगे भी या नहीं इसलिए ऐसी निरर्थक चेष्टा करने से भगवान कि कृपा प्राप्त होगा या नहीं इसमें संदेह है किन्तु मुक्ति प्राप्त करना हमारे हाथों में है, हम अभ्यास करते करते समाधी में प्रवेश कर लेंगे इसलिए मुक्ति प्राप्त करना ही हमारा एकमात्र प्रयोजन है|" इस प्रकार से अद्वैत आचार्य जी शांतिपुर में प्रचार करने लगे|

श्रील भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी महाराज
यह समाचार भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी तक पहुँचा कि अद्वैत आचार्य जी आपके भक्ति-सिद्धान्तों के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं|

ऐसे में एक दिन श्रीनित्यानंद प्रभु और भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी शांतिपुर जा पहुंचे ।

पहुँचते ही श्रीमहाप्रभु जी ने वृद्ध आचार्य कि जम कर पिटाई की और कहने लगे " क्यों ! आपने मेरा आवाहन किया और मुझे अवतीर्ण होने के लिए पुकारा ? केवल आपकी पुकार से ही आकर्षित होकर मैं इस धरातल पर आया हूँ और अब आप ही मेरे विरुद्ध जा रहे हैं, इसका क्या कारण है?"

श्रीलहरिदास ठाकुर यह दृश्य देखकर काँप उठे और कहने लगे, "ये सब क्या हो रहा है, कैसा अविश्वसनीय दृश्य देख रहा हूँ मैं|"

अन्तर्यामी श्री नित्यानंद प्रभु जी वहां खड़े हो कर इस लीला का आनंद लेते रहे।

यह सब होता देख, श्रीअद्वैताचार्य जी की पत्नी श्रीमतीसीता ठकुरानी विरोध करते हुए बोलीं, "नहीं, नहीं ! इतनी कठोरता से इस वृद्ध को मत मारो, यह मर जायेंगे ! रुक जाओ !"

तभी श्री अद्वैत आचार्य जी जोर से हँसने लगे और कहने लगे,: "प्रभो ! आज मैंने आपसे बदला लिया, आप हमेशा मेरी चरण धूलि लेने आते थे किन्तु अब देखिये आप स्वयं मुझे दण्ड देने आए हैं तो बताइये की बड़ा कौन हुआ, मैं या आप ?"

यह सुनते ही श्रीमहाप्रभु जी थोड़ा लज्जित हो गए और श्रीअद्वैत प्रभु हँसने लगे|
जय श्री राम

Monday 27 October 2014

जिसे संत बनना है, उसे संसार की बातें सहन करनी पड़ेंगी। तभी श्रेष्ठता आती है

संत ज्ञानेश्वर के माता-पिता ने चार संतानें उत्पन्न कीं और चारों संतानें परमयोगी हुईं। तीन भाई और एक बहन। सबसे छोटी मुक्ता, सोपान, ज्ञानेश्वर और सबसे बड़े निवृत्तिनाथ। ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों को कोई पाठशाला में भर्ती करने को तैयार नहीं था, क्योंकि उनके पिता संन्यासी होने के बाद वापस गृहस्थ हो गए थे। पिता ने पंडितों से प्रार्थना की,‘मेरे बच्चों को ज्ञान दिया जाए।’गुरुकुल के मुख्य आचार्य ने कहा,‘अगर आप प्रायश्चित के तौर पर जल-समाधि ले लें, तभी हम बच्चों को पढ़ाएंगे।’बच्चों की पढ़ाई ठीक से हो सके, इसलिए माता-पिता दोनों ने नदी में उतर कर जल-समाधि ले ली। उस समय बच्चे बहुत छोटे थे। सबसे बड़े भाई निवृत्तिनाथ 11 साल के थे। तीन भाई और एक बहन। इन चार अनाथ बच्चों ने अपने दिवंगत माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए फिर से गुरुकुल में जाकर प्रार्थना की-‘हमें शिक्षा दीजिए।’पर उस समय के क्रूर, निष्ठुर आचार्यों ने उन्हें बेइज्जत करके निकाल दिया। वे बोले,‘तुम संन्यासी के बच्चे हो, इसलिए हम तुम्हें गुरुकुल में नहीं लेंगे।’उस समय ज्ञानेश्वर ने कहा,‘आप मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य को नीचा क्यों समझते हैं? हर प्राणी में एक ही परमात्मा वास करता है।’
कहते हैं कि उस समय एक किसान अपने भैंसे को ले जा रहा था। उसने अपने भैंसे का नाम‘ज्ञानू’रखा था। यह देख कर एक आचार्य ने ज्ञानेश्वर को कहा,‘क्या उस ज्ञानू में और तुममें कोई भेद नहीं?’ज्ञानेश्वर ने कहा,‘बिलकुल नहीं। उसका शरीर भी पंचतत्त्व का है, मेरा भी शरीर पंचतत्त्व का है। उसके अंदर वही चेतना है, जो मेरे अंदर है। उसके अंदर भी ब्रह्म है, मेरे अंदर भी ब्रह्म है। इसलिए हम दोनों में कोई भेद नहीं।’वह शास्त्री फिर से बोला,‘अगर ऐसी ही बात है तो इस भैंसे से वेद बुलवा कर दिखा।’ज्ञानेश्वर गुरु निवृत्तिनाथ की आज्ञा लेकर आगे बढ़े, भैंसे के सिर पर हाथ रखा। जैसे ही ज्ञानेश्वर ने भैंसे के सिर पर हाथ रखा, भैंसा ऋग्वेद की ऋचाओं का उच्चारण करने लगा। देखने वाले दंग रह गए कि यह कैसे संभव है! भैंसा मनुष्य की आवाज में बोल रहा है!
इस तरह के कई चमत्कार उनके जीवन में घटित हुए, परन्तु योगी, ब्रह्मज्ञानी, परमभक्त ज्ञानेश्वर इन चमत्कारों की वजह से नहीं जाने जाते। समाज-मानस में भरे हुए अज्ञान, तथाकथित पंडितों द्वारा फैलाए गए पाखंड और भेदभाव की वृत्ति, इनमें गरीब और भीरु समाज पीसा जा रहा था। योगेश्वर श्रीकृष्ण की कही गीता और अन्य वेदांत ग्रंथों पर पंडित लोग कुंडली मार कर बैठे हुए थे, इसलिए भगवद्गीता जैसी वेदांत ज्ञान की सरिता को ज्ञानेश्वर महाराज ने गुरु की आज्ञा से मराठी में‘ज्ञानेश्वरी’के रूप में अवतरित किया। इस ग्रंथ की महिमा का वर्णन करते हुए संत एकनाथ महाराज ने कहा है,‘ज्ञानेश्वरी ग्रंथ परम गहन है, परन्तु गुरुपुत्र (ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य) के लिए यह सुगम सोपान (सीढ़ी) की तरह है। भावपूर्वक इसका श्रवण और मनन करने वाला अखंड समाधन को प्राप्त होता है।’चांगदेव जैसे परमयोगी के अहंकार को नष्ट कर उसे भक्तिमार्ग पर चलाने वाले योगीराज ज्ञानेश्वर ने‘अमृतानुभव’नामक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना की।
उनके द्वारा रचे गए ग्रंथों की भाषा अति मधुर, अति रसपूर्ण है। उन्होंने हजारों अभंग (भजन) रचे, जिनमें ज्ञान, वैराग्य, गुरुप्रेम, ईश्वर अनुराग, विरह इत्यादि के बारे में उनकी श्रेष्ठ भावदशा का दर्शन होता है। संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित‘हरिपाठ’ने घर-घर में भागवत-धर्म (भक्तिमार्ग) को प्रतिष्ठित किया। उनके समकालीन संत नामदेव, जनाबाई, सावतामाली, सेना नाई, नरहरि सुनार, गोरा कुम्हार इन सभी संतों ने उन्हें अपनी ज्ञानदात्री माउली (माता) के रूप में देखा है। सन्त जनाबाई ने कहा है,‘यह ज्ञान का सागर ज्ञानेश्वर मेरा सखा है। दिल करता है कि मर कर फिर से इस माउली की गोद में जन्म लूं। हे सखा ज्ञानदेव! मेरे भाव को पूरा करिये।’21 वर्ष की आयु में इस महान योगी ने गुरुआज्ञा लेकर अपना जीवनकार्य पूरा किया और सभी तत्कालीन संतों व अपने गुरुदेव के समक्ष संजीवन समाधि में प्रवेश किया।
ये बडे दयालु प्रवृत्ति के थे..
इस विषय में ज्ञानेश्वरजी की छोटी बहन मुक्ताबाईका ही अधिकार बड़ा है। ऐसी किंवदंती है कि एक बार किसी नटखट व्यक्ति ने ज्ञानेश्वरजी का अपमान कर दिया। उन्हें बहुत दुख हुआ और वे कक्ष में द्वार बंद करके बैठ गए।
जब उन्होंने द्वार खोलने से मना किया, तब मुक्ताबाई ने उनसे जो विनती की वह मराठी साहित्यमें ताटीचे अभंग(द्वार के अभंग) के नाम से अतिविख्यात है।
मुक्ताबाई उनसे कहती हैं- हे ज्ञानेश्वर! मुझ पर दया करो और द्वार खोलो। जिसे संत बनना है, उसे संसार की बातें सहन करनी पड़ेंगी। तभी श्रेष्ठता आती है, जब अभिमान दूर हो जाता है। जहां दया वास करती है वहीं बड़प्पन आता है। आप तो मानव मात्र में ब्रह्मा देखते हैं, तो फिर क्रोध किससे करेंगे? ऐसी समदृष्टि कीजिए और द्वार खोलिए।
यदि संसार आग बन जाए तो संत मुख से जल की वर्षा होनी चाहिए। ऐसे पवित्र अंतःकरण का योगी समस्त जनों के अपराध सहन करता है।

एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी संत बन सका,

तुकाराम का जन्म पुणे जिले के अंतर्गत देहू नामक ग्राम में शके 1520; सन्‌ 1598 में हुआ। इनकी जन्मतिथि के संबंध में विद्वानों में मतभेद है तथा सभी दृष्टियों से विचार करने पर शके 1520 में जन्म होना ही मान्य प्रतीत होता है। पूर्व के आठवें पुरुष विश्वंभर बाबा से इनके कुल में विट्ठल की उपासना बराबर चली आ रही थी। इनके कुल के सभी लोग पंढरपुर की यात्रा (वारी) के लिये नियमित रूप से जाते थे। देहू गाँव के महाजन होने के कारण वहाँ इनका कुटूंब प्रतिष्ठित माना जाता था। इनकी बाल्यावस्था माता कनकाई व पिता बहेबा की देखरेख में अत्यंत दुलार से बीती, किंतु जब ये प्राय: 18 वर्ष के थे इनके मातापिता का स्वर्गवास हो गया तथा इसी समय देश में पड़ भीषण अकाल के कारण इनकी प्रथम पत्नी व छोटे बालक की भूख के कारण तड़पते हुए मृत्यु हो गई। विपत्तियों की ज्वालाओं में झुलसे हुए तुकाराम का मन प्रपंच से ऊब गया। इनकी दूसरी पत्नी जीजा बाई बड़ी ही कर्कशा थी। ये सांसारिक सुखों से विरक्त हो गए। चित्त को शांति मिले, इस विचार से तुकाराम प्रतिदिन देहू गाँव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर जाते और भगवान्‌ विट्ठल के नामस्मरण में दिन व्यतीत करते।

प्रपचपराड्म़ुख हो तन्मयता से परमेश्वर प्राप्ति के लिये उत्कंठित तुकाराम को बाबा जी चैतन्य नामक साधु ने माघ शुद्ध 10 शके 1541 में 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया। इसके उपरांत इन्होंने 17 वर्ष संसार को समान रूप से उपदेश देने में व्यतीत किए। सच्चे वैराग्य तथा क्षमाशील अंत:करण के कारण इनकी निंदा करनेवाले निंदक भी पश्चताप करते हूए इनके भक्त बन गए। इस प्रकार भगवत धर्म का सबको उपदेश करते व परमार्थ मार्ग को आलोकित करते हुए अधर्म का खंडन करनेवाले तुकाराम ने फाल्गुन बदी (कृष्ण) द्वादशी, शके 1571 को देवविसर्जन किया।

तुकाराम के मुख से समय समय पर सहज रूप से परिस्फुटित होनेवाली 'अभंग' वाणी के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति नहीं है। अपने जीवन के उत्तरार्ध में इनके द्वारा गाए गए तथा उसी क्षण इनके शिष्यों द्वारा लिखे गए लगभग 4000 अभंग आज उपलब्ध हैं।

संत ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई 'ज्ञानेश्रवरी' तथा श्री एकनाथ द्वारा लिखित 'एकनाथी भागवत' के बारकरी संप्रदायवालों के प्रमुख धर्मग्रंथ हैं। इस वांड्मय की छाप तुकाराम के अंभंगों पर दिखलाई पड़ती हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में इन पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया। इन तीनों संत कवियों के सहित्य में एक ही आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है तथा तीनों के पारमार्थिक विचारों का अंतरंग भी एकरूप है। ज्ञानदेव की सुमधुर वाणी काव्यालंकार से मंडित है, एकनाथ की भाषा विस्तृत और रस्प्लावित है पर तुकाराम की वाणी सूत्रबद्ध, अल्पाक्षर, रमणीय तथा मर्मभेदक हैं।

तुकाराम का अभंग वाड्मय अत्यंत आत्मपर होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का संपूर्ण दर्शन होता है। कौटुंबिक आपत्तियों से त्रस्त एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी संत बन सका, इसका स्पष्ट रूप उनके अभंगों में दिखलाई पड़ता है। उनमें उनके आध्यात्मिक चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएँ दिखलाई पड़ती हैं।

प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम मन में किए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत तथा परमार्थ की ओर प्रवृत दिखलाई पड़ते हैं।

दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस चनम नैराश्य का जो सविस्तार चित्रण अंभंग वाणी में हुआ हैं उसकी हृदयवेधकता मराठी भाषा में सर्वथा अद्वितीय है।

किंकर्तव्यमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत हुआ और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम ब्रह्मानंद में विभोर हो गए। उनके आध्यात्मिक जीवनपथ की यह अंतिम एवं चिरवांछित सफलता की अवस्था थी।

इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरांत तुकाराम के मुख से जो उपदेशवाणी प्रकट हुई वह अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है। स्वभावत: स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था। इन्होने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्मसंरंक्षण के साथ साथ पाखंडखंडन का कार्य निरंतर चलाया। दाभिक संत, अनुभवशून्य पोथीपंडित, दुराचारी धर्मगुरु इत्यादि समाजकंटकों की उन्होने अत्यंत तीव्र आलोचना की है।

तुकाराम मन से भाग्यवादी थे अत: उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराशा, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होने सांसारिकों के लिये 'संसार का त्याग करो' इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए।

काव्य दृष्टि से भाग्यवादी थे अत: उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराश, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होनें सांसारिकों के लिये 'संसार का त्याग करो' इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए।

तुकाराम की अधिकांश काव्यरचना कैबल अभंग छंद में ही है, तथापि उन्होंने रूपकात्मक रचनाएँ भी की हैं। सभी रूपक काव्य की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इनकी वाणी श्रोताओं के कान पर पड़ते ही उनके हृदय को पकड़ लेने का अद्भुत सामर्थ्य रखती है। इनके काव्यों में अलंकारों का या शब्दचमत्कार का प्राचुर्य नहीं है। इनके अभंग सूत्रबद्ध होते हैं। थोड़े शब्दों में महान्‌ अर्थों को व्यक्त करने का इनका कौशल मराठी साहित्य में अद्वितीय है।

तुकाराम की आत्मनिष्ठ अभंगवाणी जनसाधारण को भी परम प्रिय लगती है। इसका प्रमुख कारण है कि सामान्य मानव के हृदय में उद्भूत होनेवाले सुख, दु:ख, आशा, निराशा, राग, लोभ आदि का प्रकटीकरण इसमें दिखलाई पड़ता है। तुकाराम के वाड्मंय ने जनका के हृदय में ध्रुव स्थान प्राप्त कर लिया है। ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि संतों ने भागवत धर्म की पत्ताका को अपने कंधों पर ही लिया था किंतु तुकाराम ने उसे अपने जीवनकाल ही में अधिक ऊँचे स्थान पर फहरा दिया। उन्होने अध्यात्मज्ञान को सुलभ बनाया तथा भक्ति का डंका बजाते हुए आवाल वृद्धो के लिये सहज सुलभ साध्य ऐसे भक्ति मार्ग को अधिक उज्वल कर दिया।

आत्मा को परमात्मा के समीप ले आता है

शरीर के अंदर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विद्यमान है। जिसमेंतीनों काल छुपे हैं; भूत, वर्तमान और भविष्य- सबहममें ही निहित हैं।मनुष्य के भीतर स्थित पाँच-कोषों को खोलकरही आत्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। इनपाँचों कोशों में सबसे निम्न स्तर पर है, अविद्या। इस अन्न-जलरुपी ‘अन्नमय-कोष’ से मनुष्य कभी बाहरनिकल ही नहीं पाता।इसकी प्रत्येक परत मानो किसी पुष्पकी कोंपल के समान होती है। जैसे-जैसेइसकी पंखुड़ियाँ खुलती हैं, आत्म-ज्ञानकी सुगंध उतनी ही अधिकमिलती है। ‘मूलाधार चक्र’ को योग द्वारा सक्रिय करकेइस अन्नमय कोष से बाहर निकला जा सकता है।अन्नमय कोष से मुक्ति पाकर मनुष्य ‘प्राणमय कोष’ के स्तर परपहुँचता है। इस कोष को प्राण-वायु फलीभूत करता हैऔर अधिकांश मनुष्य प्राण-वायु के विकार के कारणही ‘अज्ञान और अहंकार’ से ग्रस्त होते हैं। नाभि मेंस्थित ‘स्वाधिष्ठान चक्र’ को जागृत करके ‘प्राणमय कोष’ से मानुषको मुक्ति मिल सकती है।इससे ऊपर ‘मनोमय कोष’ है। जिसके द्वारा मनुष्य द्वेष के अंकुश मेंउलझ जाता है; और स्वार्थ उसकी जीवन-शैली का अभिन्न अंग बन जाता है। ‘ह्रदय चक्र’ केसमीप पहुँचते ही मनुष्य अपने विचारों औरचिंतन को एक गंतव्य तक निर्धारित कर सकता है। ऐसा करके मनोमयकोष को नियंत्रित किया जा सकता है।इससे ऊपर स्थित ‘विज्ञानमय कोष’ मनुष्य के ‘अहं-भाव’ के कारकहोते हैं, जिससे ‘अहंकार’ भाव उत्पन्न होते हैं। कंठ में स्थित‘आनंदमय चक्र’ को जागृत करके मनुष्यअपनी अधीरता और व्याकुलता को नियंत्रितकर सकता है। ऐसे व्यक्ति सुख-दुःख, प्रत्येक परिस्थिति में भाव-विभोर और तन्मय रहते हैं।ललाट के मध्य में स्थित है सबसे शक्तिशाली चक्र,‘आज्ञा-चक्र’। इस चक्र को जागृत करके मनुष्यअपनी छठीं इन्द्रिय को गतिशीलकरते हुए, आत्मा को परमात्मा के समीप ले आता है।जब मनुष्य सुख्कारका भाव अथवा दुःख-कारक भाव को तटस्थ करनेके योग्य हो जाता है, तब वह आनंद-कोष को प्राप्त कर जाता है!... और फिर मनुष्य अपने गंतव्य, शिव को प्राप्त करता है! शिवोsहं! शिवोsहं! 

यही आत्मा जब ब्रह्म की और आकर्षित होती है

आत्मा ज्ञान का विषय है
आत्मा देह दनित कर्म नहीं अपितु समर्पण का विषय है
आत्मा की माया से युक्ति ही देह धारण का कारण बनती है
आत्मा परमात्मा व् परमात्मा की दिव्या शक्ति माया दोनों की और आकर्षित हो सकती है
माया साधन सुख की धनी व् परमात्मा ब्रह्मा सुख का सूत्र है
आत्मा का केंद्र अहंकार में निहित है इसी कारण वह माया की और प्रभावित हो कर देह धारण कर सुख व् दुःख का पात्र बनती है
यही आत्मा जब ब्रह्म की और आकर्षित होती है तो ब्रह्म सुख में लीन हो मोक्ष की गति को प्राप्त करती है यहाँ समर्पण की ही सत्ता है
जीव कदाचित ब्रह्मा के अति समीप पहुच कर भी मोक्ष से वंचित रह जाता है की वह अपनी स्वयं की गति को निर्मूल नहीं करता
आत्मा भू लोक का भोग पञ्च भूत जनित शारीर धारण कर करती है पर दुःख सुख के भोग उसे शारीर त्याग कर भी शुक्ष्म शारीर से प्राप्त होते है जैसे जीव स्वप्न में सुख व् दुःख की अनुभूति करती है अतार्थ जीव मृत्यु उपरांत भी भी सुख दुःख का भागी रहता है
आत्मा का मूल वाहन कारण शरीर है जो नियत अहंकार से निर्मित है जिसकी कोई भोतिक सत्ता तो नहीं पर परोपूर्ण रूप से आत्मा के बंधन का कारण है
कारण शरीर से मुक्ति ही जीव को पञ्च मुक्ति कोष तक ले जाती है जहा जीव मात्र भक्ति प्रेम व् समर्पण से ब्रह्मा गति को प्राप्त होता है जिसे केवलम मोक्ष की संज्ञा प्राप्त है

इस पथ पर चले बिना कौन मुक्त होता है

वास्तव में तत्व व्याख्या में नारी जीव नहीं है | वह तो शक्ति का रूपांतरण है | अतः नारी तो सदा मुक्त है | वह बंधन में होती ही कब है | वह तो स्वयं बंधन है | जीव, पुरुष रूपी ब्रह्म को बांधने वाली | पुरुष ही बंधन में होता है | ब्रह्म, पुरुष रूप में, जीव रूप में आकर स्वयं ही माया-बंधन में बंधता है ताकि संसार का क्रम चलता रहे | नारी तो स्वयं ही माया है, प्रकृति है | पुरुष –ब्रह्म को बाँध कर नचाने वाली| यद्यपि माया स्वयं ब्रह्म की इच्छा पर ही कार्य करती है स्वतंत्र रूप से नहीं क्योंकि वह उसी का अंश है....... ...
स्त्री स्वयं ही पथ है मुक्ति का, इस पथ पर चले बिना कौन मुक्त होता है | स्त्री ही तो सदा मुक्ति हेतु पथ-दीप का कार्य करती है | पथ की भी कभी मुक्ति होती है ? संसार के हितार्थ कुछ तत्व कभी मुक्त नहीं होते मूलतः प्रकृति-तत्व, अन्यथा संसार कैसे चलेगा |’
नारी प्रकृति है, माया है | स्त्री द्विविधा भाव है | वही मोक्ष से रोकती भी है अर्थात संसारी भाव में जीव अर्थात पुरुष का जीना हराम भी करती है और और वही मोक्ष का द्वार भी है जीना आरामदायक भी करती है | काली के रूप में शिव को शव बनादेती है, सती के रूप में शिव को उन्मत्त करती है तो पार्वती बन कर शिव को चन्द्रचूड बना देती है और तुलसी को तुलसीदास | नारी को गौ रूप कहा जाता है अर्थात वह प्रकृति में पृथ्वी है, गाय है, इन्द्रिय है, संसार हेतु अविद्या है तो तत्व रूप में विद्या, ज्ञान व बुद्धि |
बंधन में तो पुरुष अर्थात जीव रूप में ब्रह्म या पुरुष रहता है| उसी को मुक्त होना होता है | नारी, प्रकृति, माया तो बद्ध-पुरुष को मुक्ति के पथ पर लेजाती है| तभी तो ईशोपनिषद में मोक्ष मन्त्र कहा गया है....... 

Sunday 26 October 2014

दुर्जनों की संगति से बचो

रामकृष्ण के उपदेश
ईश्वर है। वह अकेला और एक है। उसका प्रकाश बहुविध है। सब मत ईश्वर प्राप्ति के पन्थ हैं। वह साकार भी है और निराकार भी। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। माया चलते हुए साँप की तरह है और ब्रह्म स्थिर साँप की तरह। सब शास्त्र जूठे हैं क्योंकि बहुत से लोगों ने उनको अपने मुख से कहा है। किन्तु ब्रह्म जूठा नहीं है क्योंकि वह वाणी से नहीं कहा जा सकता। ईश्वर के प्रति हमारी विकलता वैसी ही होनी चाहिये जैसी कृपण की अपने धन के प्रति। कलिकाल में ईश्वर का नाम मुक्ति का एक मात्र निश्चित साधन है।
भक्तिपूर्वक प्रदत्त छोटे से छोटे दान को भी ईश्वर ग्रहण करते हैं। वह सर्वत्र और सबमें है। परमेश्वर को प्राप्त मनुष्य पार्थिव विषयों से निर्लिप्त होता है। ज्ञान और भक्ति नित्य हैं। ज्ञान का अर्थ है- परोक्षरूप से जानना। विज्ञान का अर्थ है-साक्षात् प्रत्यक्ष रूप से जानना। विज्ञान के अनन्तर जिस भाव का उदय होता है वही असली भक्ति है। विशुद्धज्ञान और भक्ति एक ही वस्तु है। अपने धर्म का पालन करो। अन्य धर्मों से द्वेष मत करो। वितण्डा मत करो। पहले ईश्वर की प्राप्ति करो, फिर संसार का सेवन करो। दुर्जनों की संगति से बचो। साधक को एकान्त सेवन करना चाहिए। झूठे साधुओं से बचो। लाखों में कोई एक सिद्ध होता है। परमहंस ने इसी प्रकार दृष्टान्त के साथ प्राय: छ सौ विषयों पर चर्चा करते हुए अपने उपदेशामृत से सबको तृप्त किया।

Saturday 25 October 2014

बाल सफेद हो जाने या अवस्था अधिक हो जाने से कोई बड़ा आदमी नहीं बन जाता

 अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्तका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'अष्टावक्र' का अर्थ 'आठ जगह से टेढा' होता है। कहते हैं कि अष्तावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढा था।
परिचय
उद्दालकऋषि के पुत्र का नाम श्वेतकेतुथा। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम कहोड़था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान देने के पश्चात् उद्दालक ऋषि ने उसके साथ अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हो गई। एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे तो गर्भ के भीतर से बालक ने कहा कि पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित होकर बोले कि तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा है इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो जायेगा।
हठात् एक दिन कहोड़ राजा जनकके दरबार में जा पहुँचे। वहाँ बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी हार हो गई। हार हो जाने के फलस्वरूप उन्हें जल में डुबा दिया गया। इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ। पिता के न होने के कारण वह अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्वेतकेतु को अपना भाई समझता था। एक दिन जब वह उद्दालक की गोद में बैठा था तो श्वेतकेतु ने उसे अपने पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट जा तू यहाँ से, यह तेरे पिता का गोद नहीं है। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर अपने पिता के विषय में पूछताछ की। माता ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं।
अपनी माता की बातें सुनने के पश्चात् अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक के यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें रोकते हुये कहा कि यज्ञशाला में बच्चों को जाने की आज्ञा नहीं है। इस पर अष्टावक्र बोले कि अरे द्वारपाल! केवल बाल सफेद हो जाने या अवस्था अधिक हो जाने से कोई बड़ा आदमी नहीं बन जाता। जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धि में तेज हो वही वास्तव में बड़ा होता है। इतना कहकर वे राजा जनक की सभा में जा पहुँचे और बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा।
राजा जनक ने अष्टावक्र की परीक्षा लेने के लिये पूछा कि वह पुरुष कौन है जो तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अक्षरों वाली वस्तु का ज्ञानी है? राजा जनक के प्रश्न को सुनते ही अष्टावक्र बोले कि राजन्! चौबीस पक्षों वाला, छः ऋतुओं वाला, बारह महीनों वाला तथा तीन सौ साठ दिनों वाला संवत्सर आपकी रक्षा करे। अष्टावक्र का सही उत्तर सुनकर राजा जनक ने फिर प्रश्न किया कि वह कौन है जो सुप्तावस्था में भी अपनी आँख बन्द नहीं रखता? जन्म लेने के उपरान्त भी चलने में कौन असमर्थ रहता है? कौन हृदय विहीन है? और शीघ्रता से बढ़ने वाला कौन है? अष्टावक्र ने उत्तर दिया कि हे जनक! सुप्तावस्था में मछली अपनी आँखें बन्द नहीं रखती। जन्म लेने के उपरान्त भी अंडा चल नहीं सकता। पत्थर हृदयहीन होता है और वेग से बढ़ने वाली नदी होती है।
अष्टावक्र के उत्तरों को सुकर राजा जनक प्रसन्न हो गये और उन्हें बंदी के साथ शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी। बंदी ने अष्टावक्र से कहा कि एक सूर्यसारे संसार को प्रकाशित करता है, देवराज इन्द्रएक ही वीर हैं तथा यमराजभी एक है। अष्टावक्र बोले कि इन्द्र और अग्निदेवदो देवता हैं। नारदतथा पर्वतदो देवर्षि हैं, अश्वनीकुमारभी दो ही हैं। रथ के दो पहिये होते हैं और पति-पत्नी दो सहचर होते हैं। बंदी ने कहा कि संसार तीन प्रकार से जन्म धारण करता है। कर्मों का प्रतिपादन तीन वेद करते हैं। तीनों काल में यज्ञहोता हे तथा तीन लोकऔर तीन ज्योतियाँ हैं। अष्टावक्र बोले कि आश्रमचार हैं, वर्णचार हैं, दिशायें चार हैं और ओंकार, आकार, उकार तथा मकार ये वाणी के प्रकार भी चार हैं। बंदी ने कहा कि यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं, यज्ञ की अग्नि पाँच हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं, पंच दिशाओं की अप्सरायें पाँच हैं, पवित्र नदियाँ पाँच हैं तथा पंक्ति छंद में पाँच पद होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दक्षिणा में छः गौएँ देना उत्तम है, ऋतुएँ छः होती हैं, मन सहित इन्द्रयाँ छः हैं, कृतिकाएँ छः होती हैं और साधस्क भी छः ही होते हैं। बंदी ने कहा कि पालतू पशु सात उत्तम होते हैं और वन्य पशु भी सात ही, सात उत्तम छंद हैं, सप्तर्षिसात हैं और वीणामें तार भी सात ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि आठ वसु हैं तथा यज्ञ के स्तम्भक कोण भी आठ होते हैं। बंदी ने कहा कि पितृ यज्ञ में समिधानौ छोड़ी जाती है, प्रकृति नौ प्रकार की होती है तथा वृहती छंद में अक्षर भी नौ ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दिशाएँ दस हैं, तत्वज्ञ दस होते हैं, बच्चा दस माह में होता है और दहाई में भी दस ही होता है। बंदी ने कहा कि ग्यारह रुद्रहैं, यज्ञ में ग्यारह स्तम्भ होते हैं और पशुओं की ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं। अष्टावक्र बोले कि बारह आदित्यहोते हैं बारह दिन का प्रकृति यज्ञ होता है, जगती छंद में बारह अक्षर होते हैं और वर्ष भी बारह मास का ही होता है। बंदी ने कहा कि त्रयोदशी उत्तम होती है, पृथ्वी पर तेरह द्वीप हैं।...... इतना कहते कहते बंदी श्लोक की अगली पंक्ति भूल गये और चुप हो गये। इस पर अष्टावक्र ने श्लोक को पूरा करते हुये कहा कि वेदों में तेरह अक्षर वाले छंद अति छंद कहलाते हैं और अग्नि, वायु तथा सूर्य तीनों तेरह दिन वाले यज्ञ में व्याप्त होते हैं।
इस प्रकार शास्त्रार्थ में बंदी की हार हो जाने पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन्! यह हार गया है, अतएव इसे भी जल में डुबो दिया जाये। तब बंदी बोला कि हे महाराज! मैं वरुणका पुत्र हूँ और मैंने सारे हारे हुये ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं अभी उन सबको आपके समक्ष उपस्थित करता हूँ। बंदी के इतना कहते ही बंदी से शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद जल में डुबोये गये सार ब्राह्मण जनक की सभा में आ गये जिनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।
अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किये।

Friday 24 October 2014

जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार को पड़ा रहन दो

एक बार जयपुर नरेष महाराजा मानसिंह ने संत सिरोमनी श्री अग्रदासजी से काफी अनुनय विनय कर उनके उपदेष को सुनने के लिए श्री नाभादासजी को जयपुर लिवा लाए। महाराज उनका उपदेष सुनकर काफी प्रसन्न और प्रभावित भी हुए। लेकिन दरवारी पंडितों को उनका इस कदर नाभादास जी से प्रभावित होना रास नहीं आया। श्री नाभादास जी का यह प्रभाव उनके लिए इष्र्या का कारण बन गया। उन्होंने नाभादास का अपमान करने की ठानी। सभी दरवारी विद्वानों ने महाराज के सामने उनसे तरह तरह के प्रष्न किए। नाभादास जी ने उनके सभी प्रष्नों का समुचित और सटीक उत्तर दिए। आंत मे उन पंडितों ने जब अपनी न चलती देखी तो उनसे जान बूझकर जाति संबंधि प्रष्न किया। इसके पीछे उनकी मंषा थी कि नाभादास का मान भंग किया जाय। लेकिन उनके प्रष्न को नाभादास जी ने पहले तो महत्त्वहीन समझा और उसपर कुछ भी बोलने से परहेज किया। फिर उनके जिद को देखते हुए उसे व्यर्थ ठहराया। यथा- जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार को पड़ा रहन दो म्यान।। पुनष्च- अर्चावतारोपादानम् वैष्णवोत्पत्तिचिन्तनम्। मातृयोनिपरीक्षां च तुल्यमाहुर्मनीषिणः।। अर्थत भगवद्विग्रह मी उत्पत्ति का उपादान कारण् कि यह धातु की है या पाषाण की, वैष्णवों की उत्पत्ति और मातृयानि की परीक्षा करना, इन तीनों को पंडितजन तुल्य कहते हैं। यानि ये महापाप है। फिर नाभादास जी ने कहा- मृतक चीर, जूठनि वचन, काक विष्ट अरू मित्र। षिव निरमायल आदि दै, ये सब वस्तु पवित्र।। अर्थात- काक विष्ठा से उत्पन्न हुआ पीपल का पेड़ मनुष्यों की बात ही क्या देवताओं द्वारा भी पूज्य है। यानि- काक विष्ठा समुत्पन्नो अष्वत्थं प्रोच्यते बुधैः। दैवैरपि नरैर्वापि पूज्य एव न संषयः। (पद्मपुराण) मृतक मृगा का चीर, उसका चर्म अर्थात मृगछाला सदा पवित्र होता है। बछड़ों का जूठन दूध सदा पवित्र होता है। षिवनिर्माल्य श्रीगंगाजी सदा परम- पावनी हैं। मधुमक्खी और भौंरे सभी फूलों को सूंघते हैं परंतु वह सदा पवित्र ही होते हैं। वे पुष्प् और उन पुष्पों से बना इत्र भगवान को चढ़ता है। ऐसे ही वैष्णव किसी भी कुल मे उत्पन्न हों वे सदा पूज्यतम ही होते हैं। श्री नाभादासजी के इस षास्त्र सम्मत वचन को सुनकर पंडित लोग बड़े ही लज्जित हुए, तब उनका सोच मिटाने के लिए परम साधु श्री नाभाजी ने बात का पैंतरा बदलकर बोले- आप लोग तो सर्वषास्त्र ज्ञाता हैं। सब जानते हैं परंतु हमारे मुख से सुनने के लिए ऐसा प्रष्न किए। आप लोगों के साथ षास्त्र संबंधी विचारकर मैं अपने को धन्य मानता हूं। धीर नाभाजी के इन गंभीर वचनों से ब्राह्मण भी बड़े प्रभावित हुए।

हमारे ह्रदय मे ही बसा हुआ है

किसी जंगल मे एक गर्भवती हिरणी थी जिसका प्रसव होने को ही था . उसने एक तेज धार वाली नदी के किनारे घनी झाड़ियों और घास के पास एक जगह देखी जो उसे प्रसव हेतु सुरक्षित स्थान लगा.
अचानक उसे प्रसव पीड़ा शुरू होने लगी, लगभग उसी समय आसमान मे काले काले बादल छा गए और घनघोर बिजली कड़कने लगी जिससे जंगल मे आग भड़क उठी .
वो घबरा गयी उसने अपनी दायीं और देखा लेकिन ये क्या वहां एक बहेलिया उसकी और तीर का निशाना लगाये हुए था, उसकी बाईं और भी एक शेर उस पर घात लगाये हुए उसकी और बढ़ रहा था अब वो हिरणी क्या करे ?,
वो तो प्रसव पीड़ा से गुजर रही है ,
अब क्या होगा?,
क्या वो सुरक्षित रह सकेगी?,
क्या वो अपने बच्चे को जन्म दे सकेगी ?,
क्या वो नवजात सुरक्षित रहेगा?,
या सब कुछ जंगल की आग मे जल जायेगा?,
अगर इनसे बच भी गयी तो क्या वो बहेलिये के तीर से बच पायेगी ?
या क्या वो उस खूंखार शेर के पंजों की मार से दर्दनाक मौत मारी जाएगी?
जो उसकी और बढ़ रहा है,
उसके एक और जंगल की आग, दूसरी और तेज धार वाली बहती नदी, और सामने उत्पन्न सभी संकट, अब वो क्या करे?
लेकिन फिर उसने अपना ध्यान अपने नव आगंतुक को जन्म देने की और केन्द्रित कर दिया .
फिर जो हुआ वो आश्चर्य जनक था .
कडकडाती बिजली की चमक से शिकारी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया, और उसके हाथो से तीर चल गया और सीधे भूखे शेर को जा लगा . बादलो से तेज वर्षा होने लगी और जंगल की आग धीरे धीरे बुझ गयी.
इसी बीच हिरणी ने एक स्वस्थ शावक को जन्म दिया .
ऐसा हमारी जिन्दगी मे भी होता है, जब हम चारो और से समस्याओं से घिर जाते है, नकारात्मक विचार हमारे दिमाग को जकड लेते है, कोई संभावना दिखाई नहीं देती , हमें कोई एक उपाय करना होता है.,
उस समय कुछ विचार बहुत ही नकारात्मक होते है, जो हमें चिंता ग्रस्त कर कुछ सोचने समझने लायक नहीं छोड़ते .
ऐसे मे हमें उस हिरणी से ये शिक्षा मिलती है की हमें अपनी प्राथमिकता की और देखना चाहिए, जिस प्रकार हिरणी ने सभी नकारात्मक परिस्तिथियाँ उत्पन्न होने पर भी अपनी प्राथमिकता "प्रसव "पर ध्यान केन्द्रित किया, जो उसकी पहली प्राथमिकता थी. बाकी तो मौत या जिन्दगी कुछ भी उसके हाथ मे था ही नहीं, और उसकी कोई भी क्रिया या प्रतिक्रिया उसकी और गर्भस्थ बच्चे की जान ले सकती थी
उसी प्रकार हमें भी अपनी प्राथमिकता की और ही ध्यान देना चाहिए .
हम अपने आप से सवाल करें,
हमारा उद्देश्य क्या है, हमारा फोकस क्या है ?,
हमारा विश्वास, हमारी आशा कहाँ है,
ऐसे ही मझधार मे फंसने पर हमें अपने इश्वर को याद करना चाहिए ,
उस पर विश्वास करना चाहिए जो की हमारे ह्रदय मे ही बसा हुआ है .
जो हमारा सच्चा रखवाला और साथी है..

Thursday 23 October 2014

उनका प्रत्यक्ष दर्शन होता है

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे..

नाम महाराज के अनन्योपासक, साक्षात नामी स्वरुप श्री हरिदास जी महाराज के पादपंकजों में अति तुच्छ किंकर का सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण ......
जय श्री राम

श्रील हरिदास ठाकुर

मंगलाचरण
वन्दे गुरूनीशभक्तानीशमीशावतारकान।
ततप्रकाशांश्च तच्छक्ती: कृष्णचैतन्यसंज्ञकम।।1।।
नमामि हरिदासं तं चैतन्यं तंच ततप्रभुम।
संसिथतामपि यन्मूर्ति स्वांके कृत्वा ननत्र्त य:।।2।।
जयाति जयति नामानन्दरूपं मुरारे:,
विरमित निजधर्म-ध्यान पूजादियत्नम।
कथमपि सकृदातं मुक्तिदं प्राणिनां यत,
परमममृतमेकं जीवनं भूषण मे।।3।।
कलोर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान गुण:।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंग: परं व्रजेत।।4।।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।5।।
श्री श्री गुरूगोरांगो जयति
श्री श्री राधारमणो जयति
जय निताइ गौर राधे श्याम
जय हरे कृष्ण हरे राम

निवेदन
ठाकुर हरिदासजीकी निर्वाण लीलाने, प्रेमावतार श्रीगौरहरिके भक्त वात्सल्यकी जो स्थापना की है वह अपूर्व है। भगवान अनन्त गुणों की खान हैं। पर उनका भक्त वात्सल्य गुण निराला ही है। शास्त्रोंमें भगवान की जिन-जिन गुणों की चर्चा सुनी जाती है, गौरांग लीलामें उनका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। शास्त्रानुसार भगवान भक्ताधीन हो जाते है पर इसका प्रमाण श्रीश्रीमहाप्रभु के अवतरण एवं न चाहते हुए भी ठाकुर हरिदासजी की निर्वाण इच्छाको पूर्ण करना उनके पार्थिव देह को गोद में लेकर नृत्य करना आदिसे प्रमाणित होता है।
श्रीगौरांगप्रभुका अवतारका प्रयोजन कृष्ण युगल प्रेम, गोपी कृष्ण प्रेम रसादिका ज्ञापनके साथ-साथ हरिनाम वितरण भी था। उनके नामदानसे स्थावर-जंगमादि सब प्रकारके जीवों का कल्याण हुआ है।
श्रीनामकी महिमा श्रीमहाप्रभुने,श्रीहरिदास ठाकुरके माध्यमसे प्रकाशित की है। नाम की कैसी अदभुत महिमा है! यवनों द्वारा चाबुकसे, बाइस बाजारोंमें उनको ताडित किया गया। नामके प्रभावसे वे सारे चाबुकों के वज्राघातको सहन करते गये। वास्तवमें उन सब आधातोंको महाप्रभु स्वयं अपने ऊपर ले रहे थे। तीव्र वृष्टि एवं आतप से ठाकुर हरिदासकी रक्षा करनेके लिए बकुल वृक्षके रूपमें प्रभु ही रक्षक बने और अंतमें उनकी मृतदेह पर भी प्रभुने महान अनुग्रह किया। उनकी देह को लेकर नृत्य करना, यानमें उसे सागर तट पर ले जाना, स्वयं उनकी समाधि के निर्माणमें कार्यरत होना एवं उनके उत्सव के लिए स्वयं भिक्षाकर, भक्तकी महिमा को प्रत्यक्ष किया एवं भक्तवात्सल्यके चरम दृष्टान्त का ज्ञापन किया।
भक्ति, श्रद्धा, साधन, निष्ठा, प्रेम आदिके महासागर थे ठाकुर हरिदास। नाम निष्ठा इतनी कि एक ब्राह्राणके द्वारा, नामके द्वारा मुक्तिप्रप्ति पर संदेह व्यक्त करने पर ठाकुर हरिदास ने कहा कि यदि नाम से मुक्ति प्राप्त नही हो तो वह ब्रह्राण उनकी नाक काट सकता है। ऐसा अटूट विश्वास था उनका हरिनाम के ऊपर। इसी दृढता और विश्वास ने उन्हें नामाचार्य के रुप में जगत्प्रसिद्धि प्रदान की.. 

श्री श्री गुरू गोरांगो जयत:
श्री श्रीनामाचार्य हरिदास ठाकुर की जय

बाल्यकाल
वर्तमान बगंलादेशके खुलना जिलान्तरगत वनग्रामके नजदीक बूढ़न नामका एक छोटासा गाँव है। हरिदास ठाकुरने उसी ग्राममें एक मुसलमानके घर जन्म लिया था।
बूढ़न ग्राम ते अवतीर्ण हरिदास।
से सोभाग्ये से सब देशे कीर्तन प्रकाश।।
चै.भा.आ. 11श
वे पितृ गृहमें कब तक रहे और किस पारसमणिके स्पर्शसे उन्होंने सम्पूर्ण सांसारिक बंधनोंको छिन्न-भिन्न किया और श्री हरिके पादपदमोंका आश्रय लिया, इस बातके कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नही हैं। एक मुसलमान हिन्दूधर्मका आश्रय लेकर भक्तचूड़ामणि, नामाचार्य पदको प्राप्त हए, यह अपने आपमें विचित्र घटना थी। कालान्तरमें इतिहासके पृष्ठोंसे यह तो स्पष्ट होता है कि मुसलमान सम्राटोंके अत्याचारों से शत-शत हिन्दुओं ने मुसलमान धर्म स्वीकार किया परन्तु एक मुसलमानने, हिन्दूधर्मकी शरणगति पाकर भक्ताकाश को, भक्त शिरोमणि बन कर सुशोभित किया।
भक्त चूड़ामणि प्रहलाद राक्षस कुलमें जन्म लेकर, श्रीकृष्ण द्वेशी पिता और शिक्षक के सानिध्य में रहकर, पंकस्थ राजीवकी तरह अपनी भक्तिमती वृतिके कारण ऐसे श्री विष्णुभक्त बने कि कोई भी उनको भक्ति-पथसे च्युत नही कर सका। पिता एवं अन्य राक्षसोंके कठोर उत्पीड़न एवं कुशिक्षकोंके प्रयासेंको सहते हुए भगवत शरणागति प्राप्त कर सके। ठाकुर हरिदास भी उसी श्रेणीके भक्त हुए है

श्रीगुरुभक्ति बढती ही रहै


श्री सद्गुरुदेव की शरणागति प्राप्त करनौ साधु कौ सर्वप्रथम कर्त्तव्य है ।
श्री सद्गुरुदेव में अधिक सौं अधिक श्रद्धा भाव राखनौ ।
दिन व दिन श्रद्धा कूँ बढाते रहनौ ।
यह देखते रहनौं कि श्रद्धा में कमी तो नहीं आय रही है ।
अपनी बुद्धिमत्ता कौ त्याग करिकैं इनकी आज्ञा के अनुसार अपनी धारणा बनानी ।
इनकी आज्ञा के विरुद्ध कोई काम नहीं करनौ ।

समस्त साधन तथा साध्य प्राप्ति कौ मूल श्री गुरु भक्ति ही है ।
ऐसे उपाय करते रहनौं जासौं श्रीगुरुभक्ति बढती ही रहै ।

साधन के विषय में जो कछु समझनौ होय, यहीं सौं समझि लेनौ चहिये, फिर कछु जानिवे की इच्छा ही न रह जाय , तो फिर कहूँ अन्यत्र जिज्ञासा करनी परे ।

जब ताँई पूर्णबोध न है जाय, पूछिवे में संकोच न करै ।
श्री गुरु में मनुष्य भाव रखनa महा पाप है ।
बिना बिचारे , बिना तर्क किये इनकी सद् आज्ञा को पालन करनौ ही साधु कौ परम कर्त्तव्य है ।
शीघ्रातिशीघ्र साधन सम्बन्धी समस्त विषयन कूँ समझि लेनौ उचित है ।
पवित्र कार्य तथा सदाचार पालन सौं श्रद्धा की पुष्टि होय है ।
श्रद्धा सम्पन्न साधक के ताँई लोक तथा परलोक में कछु दुर्लभ नहीं ।
अपने सद्गुरु भगवान में अधिक सौं अधिक श्रद्धा होनौ ही उचित है , किन्तु साथ ही यहू विचार रहै कि अन्य सन्तन में अवज्ञा बुद्धि न हौन पावै ।
सबरे सन्त महापुरुष श्री भगवत् तुल्य माननीय तथा आदरणीय हैं ।
जानेहु सन्त अनन्त समाना ।
चाहै जा देश के हौयँ , चाहे जा जाति के हौयँ , सन्त सबही परम माननीय हैं ।
सब में उच्च भाव राखै । सबकौ सम्मान करै । सबकी सेवा करै । सबकी वणीन को अध्ययन करै । सबके उपदेश सुनै । सबके महाप्रसाद हू लै सकै है (जहाँ इच्छा होय )
किन्तु साधन अपने श्रीसद्गुरु देव की आज्ञा के अनुसार ही करै ।

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर

* एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥3॥
भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥3॥
* जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥4॥
भावार्थ:-पतितों को पवित्र करना जिनका महान्‌ (प्रसिद्ध) बाना है, ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं- रेमन! कुटिलता त्याग कर उन्हीं को भज। श्री राम को भजने से किसने परम गति नहीं पाई?॥4॥
छंद :
*पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥
भावार्थ:-अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को भजकर किसने परमगति नहीं पाई? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥1॥
* रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै॥2॥
भावार्थ:-जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्री रामजी का यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुग के पाप और मन के मल को धोकर बिना ही परिश्रम श्री रामजी के परम धाम को चले जाते हैं। (अधिक क्या) जो मनुष्य पाँच-सात चौपाइयों को भी मनोहर जानकर (अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्य का सच्चा निर्णायक) जानकर उनको हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्री रामजी हरण कर लेते हैं, (अर्थात्‌ सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयों को भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्री रामचंद्रजी हर लेते हैं)॥2॥
* सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥
भावार्थ:-(परम) सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्री रामचंद्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करने वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से मंदबुद्धि तुलसीदास ने भी परम शांति प्राप्त कर ली, उन श्री रामजी के समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं॥3॥
दोहा :
* मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥130 क॥
भावार्थ:-हे श्री रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीजिए॥130 (क)॥
* कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥130 ख॥
भावार्थ:-जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥130 (ख)॥

ह्रदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम्


श्रीकृष्ण मधुराष्टकम्
अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
ह्रदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥1॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम् ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥2॥
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरम्।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥3॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥4॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥5॥
गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीथी मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥6॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥7॥
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ॥8॥
इति श्रीमद्वल्लभाचार्यकृतं मधुराष्टकम् सम्पूर्णम् ।

ह्रदय में स्थित श्री सदगुरू के दर्शन कर आत्म ज्ञान सम्पन्न हो जाता है

 भजन के समय अपने मालिक का अपने अन्दर स्पष्ट दर्शन नहीं हो पाता । जिससे असन्तोष बना रहता है । मालिक के स्वरूप के दर्शन में चित्त कैसे स्थिर हो ? कृपा कर समझाने का कष्ट करें ।

उत्तर - भजन । सुमिरन । ध्यान के अभ्यास के समय श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा से अन्दर में श्री सदगुरू का दर्शन यदा कदा होता रहता है । यदि श्री सदगुरूके स्थूल रूप का ध्यान करता है । तो श्री सदगुरू के स्थूल रूप के दर्शन होते हैं । श्री सदगुरू के नाम के भजन । ध्यान के अभ्यासी को अन्दर में मालिक का दर्शन हो । तो साधक अपने को धन्य धन्य मानने लगता है । गुरू मूर्ति का दर्शन ध्यान तथा गुरू के नाम का जप । गुरू की आज्ञा का पालन करना सदा कर्त्तव्य है ।तथा गुरू के सिवाय और किसी का चिन्तन करना अनुचित है ।
मन में थोडा बहुत प्रेम उनके प्रति उत्पन्न हो सकता है । गुरू स्वरूप का तो उनके सामने जाने से साक्षात दर्शन होता है । यदि गुरू का ध्यान कोई साधक अन्दर में करे । तो सूफ़ी भाषा में इसे सदव्वुरे शेख कहते हैं । यह योग है । योग का अभ्यास गुरू के सानिध्य में करना चाहिये ।विशेषत: तंत्र योग के बारे में यह बात अत्यन्त आवश्यक है कि सचमुच में योग्यता वाला शिष्य नम्रता पूर्वक गुरू के पास आता है । गुरू को आत्म समर्पण करता है । गुरू की सेवा करता है । और गुरू के सान्निध्य में योग सीखता है । साधक की उन्नति के लिये विश्व में अवतरित परात्पर सत्ता सदगुरू ही हैं । गुरू को परमात्मा मानो । और उन्हीं के ध्यान में डूबे रहो । तभी आपको वास्तविक लाभ होगा । गुरू की अथक सेवा । भजन । सुमिरन । ध्यान करो । वे स्वयं ही आप पर ध्यान में जो दर्शन होने की कामना है ।उसको पूरा करने के लिये सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद की बरसात करेंगे । सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त ( सन्तुष्ट ) एवं शान्त चित्त वाले साधकों को जो सुख प्राप्त है । वह धन के लोभ से इधर उधर दौडने वाले लोगों को कहां प्राप्त हो सकता है ? गुरू अपने शिष्य को अपनी अमृत मयी वाणी की वर्षा कर करके । उसे आन्तरिक ज्ञान समझा समझा कर । अन्दर में ध्यान के द्वारा दर्शन की महिमा को बतला बतलाकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कराते हैं । तभी तो पापों का विनाश होता है । जिस प्रकार एक ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्ज्वलित होती है । उसी प्रकार श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने मंत्र के भजन, सुमिरन और ध्यान में दर्शन देने के रूप में अपने दिव्य शक्ति शिष्य में संक्रमित करते हैं । शिष्य सन्तुष्ट होकर
अभ्यास करता है । बृह्मचर्य का पालन करता है । और शान्त चित्त होकर श्री सदगुरू के मंत्र के सदा सदा भजन । सुमिरन । ध्यान में सदगुण स्वरूप का दर्शन कर अपने जीवन को शीलवान, सन्तोषवान बनाता है । सन्तोष ही जीवन का सबसे बडा सुख है । अत: सुख चाहने वाले साधक सदा सन्तोष करते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में ही तो सारा सुख है । सुख शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत करना मनुष्य या जिज्ञासु की मौलिक इच्छा है ।
जग का जीना है भला । जब लग हिरदय नाम ।नाम बिना जग जीवना । सो दादू किस काम ।
जीव को यह जो मनुष्य जन्म मिला है । तो इस जन्म को पा करके उसका फ़ायदा क्या है ? लाभ क्या है ? अगर साधक ने अपने ह्रदय में मालिक का नाम व रूप बसा लिया । यानी अन्दर में मालिक के नाम के सुमिरन और ध्यान में श्री सदगुरू देव जी महाराज का दर्शन कर लिया । तो समझो मालिक की भक्ति कर
लिया । और उसका जीवन सार्थक हो गया । साधक के जीवन की सार्थकता श्रीसदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान तथा मालिक की भक्ति करने में ही है । क्योंकि साधक ने भक्ति का सच्चा धन जमा कर लिया है । जो कि लोक परलोक का संगी साथी है । भक्ति का सच्चा धन साधक के लिये सदगुरू का भजन, भक्ति तथा अन्दर में ध्यान के माध्यम से सदगुरू का दर्शन पाना ही है । और इसके करने से ही चित्त शुद्ध, पवित्र तथा निर्मल हो जाता है । चित्त के शुद्ध व पवित्र हो जाने पर श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा व दया से मन सहज ही एकाग्र चित्त हो जाता है । और एकाग्रता को पाप्त हुआ मन अपने ही ह्रदय में स्थित श्री
सदगुरू के दर्शन कर आत्म ज्ञान सम्पन्न हो जाता है ।मन को एकाग्र होकर जब आत्मा की ओर अग्रसर होने लगता है । तो कर्म आपसे आप छूटने लग जाते हैं । जिस अनुपात में ज्ञान उपलब्ध होता जाता है । उसी अनुपात में कर्म के बन्धन शिथिल होते जाते हैं ।
गुरू कृपा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं हो पाता है । इसलिये सभी सन्त आन्तरिक दर्शन के लिये गुरू शरणागति की अनिवार्यता पर जोर देते हैं । यदि कभी कभार गुरू स्वरूप ध्यान में प्रगट न भी हो । तो उसकी कोशिश करके ध्यान पर ध्यान लगाते रहने से ह्रदय में मालिकके प्रति प्रेम, श्रद्धा की प्रगाढता बढती है । यह बात भली भांति समझ लेना चाहिये कि जो श्री सदगुरू का स्वरूप खुली आंखों के सामने देखते हैं । वह पंच महा भूतों का बना है । किन्तु जिस सदगुरू स्वरूप के अन्दर में दर्शन होते हैं । वह पंच महा भूतों का बना हुआ नहीं है । वरन वह चैतन्य है । चैतन्य मण्डल में अन्तर्यामी प्रभु अपने भक्तजनों के लिये श्री सदगुरू स्वरूप का आकार धारण करते हैं ।कहा है - जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।
वह चैतन्य आकार स्वरूप बराबर अभ्यासी के साथ साथ पथ प्रदर्शक बनकर सहायता करता रहेगा । और जितना जितना अभ्यासी ऊंचे चक्रों का ध्यान करेगा । उतना ही स्वरूप भी ऊंचे चक्रों में अधिक से अधिक निर्मल चैतन्य और ज्योतिर्मय होता जायेगा ।
सारांश यह है किश्री सदगुरू देव जी महाराज के स्वरूप का दर्शन । भजन और ध्यान के माध्यम से अन्दर होता रहे । तो शब्द स्वरूप । प्रकाश स्वरूप । गुरू स्वरूप अभ्यासी के साथ साथ रहेगा । और रास्ते में मन तथा सुरत के मिटाव और चढाई में बराबर सहाय के रूप में सदा साथ साथ रहेगा ।
श्री सदगुरू के ध्यान में सतत लीन रहने वाला शिष्य गुरू में उसी प्रकार विलीन हो जाता है ।

Wednesday 22 October 2014

दर्शन देकर मनचाहा वर मांगने को कहा

भक्त नरसी महेता का जन्म १५ वीं शताब्दी में सौराष्ट्र के एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बालक नरसी आरम्भ में गूंगे थे। आठ वर्ष के नरसी को उनकी दादी एक सिद्ध महात्मा के पास लेकर गयीं। महात्मा ने बालक को देखते ही भविष्यवाणी की कि भविष्य में यह बालक बहुत बड़ा भक्त होगा। जब दादी ने उसके गूंगा होने कि बात बताई तो महात्मा ने बालक के कान में कहा " बच्चा, कहो राधा-कृष्ण" और देखते ही देखते नरसी "राधा-कृष्ण" का उच्चारण करने लगा।
बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण नरसी का पालन-पोषण उनकी दादी और बड़े भाई ने किया। बालक नरसी बचपन से ही साधु-संतों की सेवा किया करते थे और जहां कहीं भजन-कीर्तन होता था, वहीं जा पहुंचते थे। रात को भजन-कीर्तन में जाते तो उन्हें समय का ख्याल न रहता। रात को देर से घर लौटते तो भाभी की जली-कटी सुननी पड़ती; परन्तु वह उसपर कुछ भी ध्यान न देते और जो भी ठंडा-बासी खाना रखा रहता, उसे खाकर सो जाते।
छोटी अवस्था में ही नरसी का विवाह माणिकबाई नामक किशोरी के साथ कर दिया गया। माणिकबाई जब घर में आईं तो उन्हें भी भाभी की जली कटी सुननी पड़ी। उन्हें अपनी चिन्ता न थी, परन्तु अपने पति को सुनाई जाने वाली भली-बुरी बातों को सुनकर उन्हें बहुत दु:ख होता। उन्होंने पति को कुछ काम-धंधा करने को बहुत समझाया, परन्तु उन पर कुछ भी असर न हुआ। एक बार एक साधु-मंडली आई हुई थी। नरसी उसके साथ भजन-कीर्तन में ऐसे रम गये कि आधी रात बीत जाने पर भी उन्हें घर की सुध नहीं आई। जब वह घर लौटे तो घर के सब लोग सो गये थे। बस माणिकबाई जाग रही थीं। उन्होंने किवाड़ खोले। आहट पाकर भाभी जाग गईं और नींद में खलल पड़ने के कारण उन्होंने वह खरी-खोटी सुनाई कि नरसी के दिल पर उसकी गहरी चोट पहुँची। दूसरे दिन सूरज निकलने से पहले ही वह घर छोड़कर चले गए। घरवालों ने बहुत खोजा लेकिन उनका पता न चला। कुछ दिनों तक वह लापता रहे।
नरसी को उस रात की घटना से बड़ी ग्लानि हुई। उन्हें अपने पर क्रोध आया और दुनिया से उनकी मोह-ममता टूट गई। उन्हें अपने जीवन का भी मोह न रहा। जूनागढ़ से निकलकर जंगल की ओर चल दिये। जूनागढ़ गिरनार (रैवतक) पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ है। गिरनार का जंगल शेर-चीते आदि हिंसक जानवरों के लिए प्रसिद्ध है। उसी घने जंगल में वह घूमते रहे। शायद यह चाह रहे थे कि कोई शेर या चीता आ जाये और उन्हें खत्म कर दे। इतने में उन्हें एक मंदिर दिखाई दिया। मंदिर टूटा-फूटा था, परन्तु उसमें शिवलिंग अखंड था। कई वर्षो से उसकी पूजा नहीं हुई थी। शिवलिंग को देखकर नरसी का हृदय भक्ति से भर गया। उन्होंने शिवलिंगको अपनी बांहों में भर लिया और निश्चय किया कि जब तक शिवजी प्रसन्न होकर दर्शन न देंगे तब तक मैं अन्न -जल ग्रहण नहीं करूंगा। कहते हैं कि उनकी भक्ति तथा अटल निश्चय को देखकर शिवजी प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन देकर मनचाहा वर मांगने को कहा। नरसी का हृदय निर्मल था। उसमें काम, क्रोध आदि बुराइयां नहीं थीं। इसलिए उन्होंने शिवजी से कहा, "भगवान जो आपको सबसे अधिक प्रिय हो, वही दे दें।" शिवजी 'तथास्तु' कहकर उन्हें अपने साथ ले गये। नरसी को बैकुंठ के दर्शन हुए। वहां रासलीला चल रही थी। गोपियों के बीच कृष्ण लीला कर रहे थे। रात के समय का दृश्य अत्यंत सुन्दर था। शिवजी हाथ में मशाल लिये प्रकाश फैला रहे थे। उन्होंने अपने हाथ की मशाल नरसी को दे दी। मशाल पकड़े नरसी रासलीला देखने में इतने लीन हो गए कि जब मशाल की लौ से उनका हाथ जलने लगा तब भी उनको इसका पता न चला। श्रीकृष्ण ने अपने भक्त को देखा और उनके हाथ को ठीक किया। श्रीकृष्ण ने नरसी को भक्तिरस का पान कराया और उन्हें आज्ञा दी कि जैसी रासलीला उन्होंने देखी, उसका गान करते हुए संसार के नर-नारियों को भक्ति-रस का पान कराये। नरसी की वाणी की धारा बहने लगी। उनके भक्ति-भाव-भरे भजन सुनकर लोग लोग मंत्र-मुग्ध होने लगे और उन्हें जगह-जगह गाने लगे।
भक्त नरसी स्वभाव के बड़े नरम थे। जिस भाभी के कठोर वचनों के कारण उन्हें घर छोड़कर जाना पड़ा था, उन्हें भी उन्होंने अपना गुरु माना। नरसी ने कहा कि उन्हीं की वजह से उन्हें भगवान के दर्शन हुए इसलिए उनके उपकार को कैसे भूलूं।
नरसी जूनागढ़ लौट आये और साधु-संतों की सेवा और भजन-कीर्तन करने लगे। घर माणिकबाई संभालती थीं। उनके दो बच्चे थे, एक लड़का और एक लड़की। लड़के का नाम श्रीकृष्ण के नाम पर शामल रखा गया और लड़की का कुंवरबाई।
भजन-कीर्तन के नाम पर जब और जहां चाहो, नरसी महेता को रोक लो। एक बार पिता के श्राद्ध के दिन वह घी लेने बाज़ार गये। वहां कीर्तन की बात चली तो वहीं जम गये। ऐसे जमे कि घर, श्राद्ध, घी और भोजन के लिए बुलाये लोगों को भूल गये। तब भक्तों की विपदा हरने वाले भगवान श्रीकृष्ण को स्वयं नरसी का रूप रखकर उनके घर जाना और श्राद्ध का काम करना पड़ा। नरसी जब घर लौटे तब तक ब्राह्मण खा-पीकर जा चुके थे।
नरसी भजन के लिए हरिजनों के घर भी जाते थे। एक बार जूनागढ़ के अछूत माने जाने वाले लोगों ने नरसी से विनती की कि वह उनके घर में आकर भजन-कीर्तन करें। हरिभक्तों का प्यार भरा बुलावा नरसी कैसे अस्वीकार कर सकते थे? उन्होंने कहा, "जहां छुआ-छूत होती है, वहां परमेश्वर नहीं होते। गोमूत्र छिड़कना, गोबर से लीपना-पोतना और तुलसी का पौधा लगाकर तैयारी करना। मैं रात को अवश्य आऊंगा।"
रात को जाकर उन्होंने सबेरे तक भजन-कीर्तन किया। अपने साथ प्रसाद ले गये थे, उसे बांटा और हरिकथा कहते अपने घर लौट आये।
विवाह के कुछ दिन बाद ही उनके पुत्र शामल का देहांत हो गया। बेटी ससुराल चली गई। अब माणिक अकेली रह गईं। नरसी तो भजन करते रहते और माणिक घर चलाती। घर में आये साधु-संतों की सेवा में ही उसका समय बीतता। एक दिन इस संसार को छोड़कर अपने पति के चरणों का ध्यान करती हुई चल बसीं। नरसी अब एकदम मुक्त हो गये । उन्होंने कहा, "अच्छा हुआ, यह झंझट भी मिट गया। अब सुख से श्रीगोपाल का भजन करेंगे। "नरसी भक्त थे, सरल थे, सबका भला चाहते थे