Monday 30 March 2015

भोर भई दिन चढ गया मेरी अँबे

भोर भई दिन चढ गया मेरी अँबे
भोर भई दिन चढ गया मेरी अँबे - २

हो रही जयजयकार मन्दर विच, आरती जय माँ

हे दरबाराँ वाली, आरती जय माँ
हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ

काहे की मय्या तेरी आरती बनाऊँ
काहे की पाँवाँ विच बाती मन्दर विच

आरती जय माँ

सूहे चोलेयाँवाली, आरती जय माँ
हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ

सर्व सोने दी तेरी आरती बनावाँ - २
अगर कपूर पाँवाँ, बाती मन्दर विच

आरती जय माँ

हे माँ पिंडी वाली, आरती जय माँ
हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ

कौन सुहागन दीवा बालेया मेरी मय्या - २
कौन जागेगा सारी रात, मन्दर विच

आरती जय माँ,

सच्चियाँ जोताँ वाली, आरती जय माँ
हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ

सर्व सुहागन दीवा बालेया मेरी मय्या - २
जोत जागेगी सारी रात, मन्दर विचा

आरती जय माँ

हे माँ त्रिघ्टा रानी, आरती जय माँ
हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ

जुग जुग जीवे तेरा जमुए द राजा - २
जिस तेरा भवन बनाया, मन्दर विच

हे मेरी अँबे रानी, आरती जय माँ
हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ

सिमर चरण तेरा ध्यानू यश गावे
जो ध्यावे, सोइओ फल पावे

रख बाणे दी लाज मन्दर विच
आरती जय माँ

सोणे मन्दराँ वाली, आरती जय माँ
भोर भई दिन चढ गया मेरी अँबे - २

हो रही जयजयकार मन्दर विच, आरती जय माँ

हे दरबाराँ वाली, आरती जय माँ
हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ

Sunday 29 March 2015

रोम रोम पे लिख दे मेरे, रसिया रास बिहारी

वाह रे कृष्ण और उनकी प्रेम लीलाएँ ( कथा सार )

एक समय की बात है, जब किशोरी जी को यह पता चला कि कृष्ण पूरे गोकुल में माखन चोर कहलाता है तो उन्हें बहुत बुरा लगा उन्होंने कृष्ण को चोरी छोड़ देने का बहुत आग्रह किया। 
पर जब ठाकुर अपनी माँ की नहीं सुनते तो अपनी प्रियतमा की कहा से सुनते। उन्होंने माखन चोरी की अपनी लीला को जारी रखा। 
एक दिन राधा रानी ठाकुर को सबक सिखाने के लिए उनसे रूठ गयी। अनेक दिन बीत गए पर वो कृष्ण से मिलने नहीं आई। 

जब कृष्णा उन्हें मनाने गया तो वहां भी उन्होंने बात करने से और मिलने से भी इनकार कर दिया। तो अपनी राधा को मनाने के लिए इस लीलाधर को एक लीला सूझी।।

ब्रज में लील्या गोदने वाली स्त्री को लालिहारण कहा जाता है। 
तो कृष्ण घूंघट ओढ़ कर एक लालिहारण का भेष बनाकर बरसाने की गलियों में पुकार करते हुए घूमने लगे। 
जब वो बरसाने, राधा रानी की ऊंची अटरिया के नीचे आये तो आवाज़ देने लगे।। 

मै दूर गाँव से आई हूँ, देख तुम्हारी ऊंची अटारी,
दीदार की मैं प्यासी, दर्शन दो वृषभानु दुलारी।
हाथ जोड़ विनंती करूँ, अर्ज मान लो हमारी,
आपकी गलिन गुहार करूँ, लील्या गुदवा लो प्यारी।। 

जब किशोरी जी ने यह आवाज सुनी तो तुरंत विशाखा सखी को भेजा और उस लालिहारण को बुलाने के लिए कहा। 
घूंघट में अपने मुँह को छिपाते हुए कृष्ण किशोरी जी के सामने पहुंचे और उनका हाथ पकड़ कर बोले कि 
कहो सुकुमारी तुम्हारे हाथ पे किसका नाम लिखूं। 
तो किशोरी जी ने उत्तर दिया कि केवल हाथ पर नहीं मुझे तो पूरे श्री अंग पर लील्या गुदवाना है और 
क्या लिखवाना है, किशोरी जी बता रही हैं।।

माथे पे मदन मोहन, पलकों पे पीताम्बर धारी 
नासिका पे नटवर, कपोलों पे कृष्ण मुरारी 
अधरों पे अच्युत, गर्दन पे गोवर्धन धारी 
कानो में केशव, भृकुटी पे चार भुजा धारी 
छाती पे छलिया, और कमर पे कन्हैया 
जंघाओं पे जनार्दन, उदर पे ऊखल बंधैया 
गुदाओं पर ग्वाल, नाभि पे नाग नथैया 
बाहों पे लिख बनवारी, हथेली पे हलधर के भैया 
नखों पे लिख नारायण, पैरों पे जग पालनहारी 
चरणों में चोर चित का, मन में मोर मुकुट धारी 
नैनो में तू गोद दे, नंदनंदन की सूरत प्यारी
और 
रोम रोम पे लिख दे मेरे, रसिया रास बिहारी।। 

जब ठाकुर जी ने सुना कि राधा अपने रोम रोम पर मेरा नाम लिखवाना चाहती है, तो ख़ुशी से बौरा गए प्रभू ।।
उन्हें अपनी सुध न रही, वो भूल गए कि वो एक लालिहारण के वेश में बरसाने के महल में राधा के सामने ही बैठे हैं। वो खड़े होकर जोर जोर से नाचने लगे। उनके इस व्यवहार से किशोरी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ की इस लालिहारण को क्या हो गया। और तभी उनका घूंघट गिर गया और ललिता सखी को उनकी सांवरी सूरत का दर्शन हो गया और वो जोर से बोल उठी कि अरे..... ये तो बांके बिहारी ही है। 
अपने प्रेम के इज़हार पर किशोरी जी बहुत लज्जित हो गयी और अब उनके पास कन्हैया को क्षमा करने के आलावा कोई रास्ता न था। 
ठाकुरजी भी किशोरी का अपने प्रति अपार प्रेम जानकर गदगद् और भाव विभोर हो गए ।। 

संतोंमें यह विलक्षणता आ जाती है


 लाखों रुपयोंका बहुत बड़ा कीमती रत्न हो; परंतु पासमें रहनेपर भी उससे कोई लाभ नहीं मिलता, जबतक उसका मूल्य न ले लिया जाय । पासमें रहनेपर भी उससे रोटी नहीं मिलती, कपड़ा नहीं मिलता, मकान नहीं मिलता, सवारी नहीं मिलती, दवाई नहीं मिलती; पर उस रत्नको बेचकर दाम खड़े कर लिये जायँ तो रुपये खर्च करनेपर किसी बातकी कमी नहीं रहती । अकेला रत्न पड़ा रहे तो कुछ काम नहीं निकलता । ऐसे दरिद्रता दूर नहीं होती । ऐसे ही जबतक वह आनन्द प्रकट नहीं किया जाता, अर्थात् नाम नहीं लिया जाता, तबतक वह आनन्द प्रकट नहीं होता । नामसे वह प्रकट हो जाता है; फिर किसी बातकी कमी नहीं रहती । जाननेसे उसका मूल्य प्रकट होता है ।

हमने एक कहानी सुनी है । एक संत बाबा थे । वे कहीं भिक्षाके लिये गये । जाकर आवाज लगायी राम ! राम ! जिसके घर बाबाजी गये थे, वह रोने लग गया । बाबाजीने पूछा‒‘भैया ! रोते क्यों हो ?’ वह बोला‒ ‘महाराज ! भगवान्‌ने मेरेको ऐसे ही पैदा कर दिया है । तीन दिन हो गये चूल्हा नहीं जला है । घरमें कुछ खानेको नहीं है । भूखे मरता हूँ । आज संत पधारे, भिक्षा देनेको मन भी करता है, पर देऊँ कहाँसे ?’ संतने कहा‒‘तू घबराता क्यों है ? तू तो बड़ा भारी धनी है । तू चाहे तो त्रिलोकीको धनी बना सकता है ।’ वह गृहस्थी कहता है‒‘महाराज ! आप आशीर्वाद दे दें तो ऐसा हो जाऊँ । अभी तो मेरी परिस्थिति ऐसी है कि मुझे खानेको अन्न नहीं मिलता । आप कहते हैं कि लोगोंको धनी बना सकता है, तो यह कैसे सम्भव है महाराज !’

बाबाने संकेत करते हुए कहा‒‘वह सामने क्या वस्तु पड़ी है ?’ ‘वह तो सिलबट्टा है महाराज ! पत्थर है, जब रोटी मिल जाती है तो इसपर चटनी पीस लेते हैं ।’ बाबा कहते हैं‒‘वह पत्थर नहीं है, वह पारस है । पारसका नाम सुना है?’ ‘हाँ सुना है ।’ तो पूछा‒‘पारस क्या होता है महाराज !’ ‘लोहेको छुआनेसे सोना हो जाय, वह पारस होता है’, ‘पर महाराज ! यदि यह पारस होता तो मैं भूखा क्यों मरता ?’ संत कहते हैं कि ‘तू भूखा इसलिये मरता है कि उसको जानता नहीं । घरमें कुछ लोहा है क्या ?’ ‘हाँ महाराज ! लोहेका चिमटा है । रसोई बनाते हैं तो चिमटा काममें आता है ।’ वह ले आया तथा उसको पारससे छुआया, पर लोहा सोना बना नहीं । बाबाने कहा‒‘इसपर जमी हुई चटनी, मिर्च, मिट्टी साफ कर दे ।’ उसे साफ करके छुआया तो चिमटा सोना बन गया । संत बोले‒‘बता, अब तू धनी है कि नहीं !’ लोहेको सोना बनानेवाला पारस मिल गया, अब धनी होते कितनी देर लगे । पारस तो पासमें ही था, परंतु जानकारी न होनेसे उसे मामूली पत्थर समझता था । अब वह केवल आप ही धनी नहीं बना, बल्कि चाहे जिसको धनी बना दे ।

इसी तरह भगवान्‌का नाम मौजूद है, भगवान् विद्यमान हैं । ‘राम’ नाम लेते भी हैं; परंतु ऊपर-ऊपरसे लेते हैं, भीतरी भावसे नहीं लेते । निष्कपट होकर सरलतापूर्वक भीतरसे लिया जाय तो नाम महाराज दुनियामात्रका दुःख दूर कर दें । संत-महात्मा, भगवान्‌के प्रेमी भक्त जहाँ जाते हैं, वहाँ दुनियाका दुःख दूर हो जाता है । उनके दर्शन, भाषण, चिन्तनसे दुःख दूर होता है, धन देनेसे दूर नहीं होता । जिनके पास लाखों-करोड़ोंकी सम्पत्ति है, बहुत वैभव है, वे भीतरसे जलते रहते हैं; परंतु नाम-प्रेमी संत-महात्माओंके दर्शनसे वे भी निहाल हो जाते हैं । संतोंके मिलनेसे शान्ति मिलती है; क्योंकि नाम जपनेसे उनमें आनन्दराशि प्रभु प्रकट हो गये । प्रभुके प्रकट होनेसे उन संतोंमें यह विलक्षणता आ जाती है ।

निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार ।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥

Saturday 28 March 2015

दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया

दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया
दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया,
राम एक देवता पुजारी सारी दुनिया
पुजारी सारी दुनिया

द्वारे पे उसके जा के कोई भी पुकारता,
द्वारे पे उसके जा के कोई भी पुकारता

परम कृपा दे अपनी भव से उबारता
परम कृपा दे अपनी भव से उबारता

ऐसे दीनानाथ पे
ऐसे दीनानाथ पे बलिहारी सारी दुनिया
बलिहारी सारी दुनिया
दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया
दाता एक राम

दो दिन का जीवन, प्राणी कर ले विचार तू
कर ले विचार तू

प्यारे प्रभु को अपने मन में निहार तू
प्यारे प्रभु को अपने मन में निहार तू
मन में निहार तू

बिना हरि नाम के
बिना हरि नाम के दुखियारी सारी दुनिया
दुखियारी सारी दुनिया
दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया
दाता एक राम

नाम का प्रकाश जब अंदर जगाएगा
नाम का प्रकाश जब अंदर जगाएगा

प्यारे श्रीराम का तू दर्शन पाएगा
प्यारे श्रीराम का तू दर्शन पाएगा

ज्योति से जिसकी है
ज्योति से जिसकी है उजियारी सारी दुनिया
उजियारी सारी दुनिया
दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया
दाता एक राम

दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया

Friday 27 March 2015

मंत्र सिद्ध है

शाबर महाकाली साधना.

मंत्र सिद्ध है फिर भी मन मे येसा कुछ ना आये के मुज़े अनुभव कैसे मिलेगा ईसलिये किसी भी मंगलवार के दिन शाम को 6:30 से 7:30 के समय मे मंत्र का 108 बार जाप कर लिजिये और 21 आहुती घी का दे साथ मे एक नींबू मंत्र का जाप करके चाकू से काटे तो बलि विधान भी पूर्ण हो जायेगा,नींबू को हवन कुंड मे डालना ना भूले.
अब जब भी आपको अपनी मनोकामना पूर्ण करने हेतु विधान करना हो तब जमीन पर थोडासा कुछ बुंद जल डाले और हाथ से जमीन को पौछ लिजिये.
साफ़ जमीन पर कपूर कि टिकिया रखे और मन ही मन अपनी कामना बोलिये.अब तीन बार "ओम नम: शिवाय" बोलकर कपूर जलाये और माहाकाली मंत्र का जाप करे,यहा पर मंत्र जाप संख्या का गिनती नही करना है और जाप करते समय ध्यान कपूर के ज्योत मे होना चाहिये इसलिये मंत्र भी पहिले ही याद करना जरुरी है.
कम से कम 3-4 टिकिया कपूर का इस्तेमाल करे और कपूर इस क्रिया मे बुज़ना नही चाहिये जब तक आपका जाप पूर्ण ना हो और इतने समय तक जाप करे अन्दाज से के आपका 21 बार मंत्र जाप होना चाहिये.अब आपही सोचिये आपको रोज कितना कपूर जलाना है.
साधना तब तक करना है जब तक आपका इच्छा पूर्ण ना हो और इच्छा पूर्ण होने के बाद कुछ गरिब बच्चो मे कुछ मिठा बाटे क्युके इच्छा पूर्ण होने के खुशी मे..
मंत्र-
ll ओम नमो आदेश माता-पिता-गुरू को l आदेश कालिका माता को,धरती माता-आकाश पिता को l ज्योत पर ज्योत चढाऊ ज्योत कालिका माता को,मन की इच्छा पुरन कर,सिद्धी कारका l दुहाई माहादेव कि ll

प्रभु अब तो अपने चरणों में ले लो ।।


 सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रम का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा ह्रदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं अथवा सुनने को मिलती है । और निरन्तर उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होता है 
मोक्षमार्ग को जानने की इच्छा जबतक ह्रदय में न जगे, तबतक आपकी श्रद्धा अचल नहीं हो पायेगी । और हमारे धर्म हमारी संस्कृति के प्रति हमारी श्रद्धा जबतक चलायमान रहेगी, किसी के प्रति भी प्रेम का विकास नहीं हो पायेगा । “आई लव यू” कह देने से प्रेम सिद्ध नहीं हो जाता । नारद भक्तिसूत्र में भक्ति के परम आचार्य नारद जी कहते हैं – तत्सुखे सुखित्वं – अर्थात् उसके सुख में सुखी होना तथा उसके दुःख से दु:खी होना ये सच्चे प्रेम का प्रमाण है । मेरे रोने से आये जो तुझको हँसी, तो मैं रो-रोके तुझको हँसाया करूँ । आजकल तो लोग “आई लव यू” बोलकर तथा एक और शब्द है – “सौरी” ये बोलकर कितने भी बड़े गुनाह को क्षमा करने की उम्मीद करते हैं ।।

मित्रों, जहाँ सच्चा प्रेम ही नहीं है, वहां भक्ति की तो बात ही क्या कर सकते हैं । लेकिन ये सबकुछ सम्भव है, परन्तु कहाँ से ? सत्संग से जी हाँ सत्संग से । और ये बात महर्षि कपिल अपनी माता देवहूति को उपदेश करते हुए कहते हैं । सत्पुरुषों के समागम से भगवान क्या है ? कैसा है और वो क्या-क्या कर सकता है ? इस बात का यथार्थ ज्ञान सुनने को मिलता है । फिर ये समझ में आता है, कि यही वो स्थान है, जहाँ से हमें शान्ति अथवा सुरक्षा मिल सकती है ।।

और जब ये निश्चित हो जाय, कि हमारा कल्याण इसके बिना अन्यत्र कही से संभव ही नहीं है तो वहां पे हमारी श्रद्धा रुकती है । और श्रद्धा टिक जाय तो सच्चा प्रेम उत्पन्न होता है । तब जबकि किसी के प्रति सच्चा प्रेम ह्रदय में जगे तो उसी को भक्ति कहते हैं । और ये प्रेमलक्षणा भक्ति ही हमारा कल्याण कर सकती है दूसरा कोई अन्य उपाय नहीं हमारे कल्याण का ।।
एक महा कंजूस व्यक्ति था । उसने जीवन में कभी एक पैसा भी किसी को दान नहीं किया था । कोई अगर कहे तो तरह-तरह की दलीलें देता था और दूसरों की श्रद्धा को भी अश्रद्धा में परिवर्तित कर देने में निपुण था । लेकिन कुछ पड़ोसियों के कहने से एक दिन दान करने शनिवार को हनुमान जी के मन्दिर में गया । अब आपको पता तो है ही, कि शनिवार को हनुमान जी के मन्दिर में कितना भीड़ होता है । एक रुपया का एक सिक्का मुट्ठी में दबाये हुए सुबह से लाइन में खड़ा था बेचारा, कि जब नंबर आये तो आज मैं भी दान करूं । और जब उसका नम्बर आया और जैसे ही मुट्ठी खोला दान पेटी में पैसा डालने के लिए, पैसा पसीने से तर-बतर हुआ था । बोला मुझे पता है, कि तूं भी मुझे छोड़कर जाना नहीं चाहता, इसीलिए तो रो रहा है ।।

और वहीँ से उलटे पाँव घर लौट आया, लोगों ने पूछा – क्या हुआ दान किया ? उसने जबाब दिया – रुपया भी रो रहा था, इसलिए दान नहीं किया । सन्त और सत्संग की महिमा ! एक दिन एक सन्त आये उन्होंने उसके इस व्यवहार को जाना । उन्हें दया आई, सोंचा, हे प्रभु इसका भी कल्याण तो होना ही चाहिए । मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूँ, बाकी आप संभाल लेना ।।
सबलोग सन्त से गुरुदीक्षा ले रहे थे, सबने कहा तुम भी शिष्य बन जाओ । लेकिन वो अपने स्वभाव के वजह से घबरा रहा था, तब सन्त ने कहा- भईया ! आ जाओ । और उसे मानसिक पूजा का विधान बताया और कहा – कि इसमें कोई खर्च नहीं है, सुबह-शाम आधा-आधा घंटा करना है । वो इस बात के लिए सहर्ष तैयार हो गया और मानसिक पूजा करने लगा । सुबह-शाम आराम से बैठकर भगवान को स्नान करवाता, वस्त्रादि पहनाता, धुप-दीप दिखाता, भोग लगाता ।।
अब एक दिन हुआ यूँ, कि भोग लगाने के लिए दूध का ग्लास भरके तैयार था । दूध में शक्कर डाला, तो शक्कर थोडा ज्यादा गिर गया । अब बहुत तर्क-वितर्क मन में करने लगा, बोला अब क्या करें शक्कर तो ज्यादा गिर गया । ये तो बहुत गड़बड़ बात है, एक कि बात थोड़ी न है, रोज-रोज ऐसे इतना – इतना ज्यादा गिरते रहा तब तो हो गया कल्याण । नहीं-नहीं ये तो बहुत ही गलत बात है, हम ऐसा नहीं होने देंगे । तब दुसरे मन ने कहा – कि छोडो ना जाने दो, अब गिर गया तो गिर गया, अब कर भी क्या सकते हैं ? तब उसने कहा – वाह ऐसे कैसे जाने दें, एक दिन की बात थोड़ी न है । तो करोगे क्या ? करेंगे क्यों नहीं ? अभी-अभी तो डाला है, इतना जल्दी घुला थोड़ी न होगा निकाल लेते हैं ।।
और जैसे ही ग्लास में हाथ डाला शक्कर निकालने के लिए ! बालकृष्ण प्रकट हो गए और हाथ पकड़ लिया । भगवान ने कहा – अरे भाई क्या कर रहा है ? उसने कहा ज्यादा शक्कर गिर गया है, उसे ही निकाल रहा हूँ । भगवान ने कहा – पर क्यों ? उसने कहा इतना ज्यादा खर्च करेंगे रोज-रोज तो कहाँ से आएगा ? भगवान ने कहा – कि अरे भाई इसमें तेरा लगा क्या है, ये तो मानस पूजा है न । वो महा कंजूस व्यक्ति अपने सामने भगवान को प्रत्यक्ष देखकर दांग रहा गया और उनके श्री चरणों में गिरकर कहा – प्रभु अब तो अपने चरणों में ले लो ।।
सत्संग की महिमा और सन्त एवं भगवन्त कृपा से उस महा कंजूस स्वभाव वाले व्यक्ति का भी कल्याण हो गया । 

आज भी भगवान यहाँ रात्रि को रास रचाने आते है


♻एक बार कलकत्ता का एक भक्त अपने गुरु की सुनाई हुई भागवत कथा से इतना मोहित हुआ कि वह हर समय वृन्दावन आने की सोचने लगा उसके गुरु उसे निधिवन के बारे में बताया करते थे और कहते थे कि आज भी भगवान यहाँ रात्रि को रास रचाने आते है उस भक्त को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था
और एक बार उसने निश्चय किया कि वृन्दावन जाऊंगा और ऐसा ही हुआ श्री राधा रानी की कृपा हुई और आ गया वृन्दावन उसने जी भर कर बिहारी जी का राधा रानी का दर्शन किया लेकिन अब भी उसे इस बात का यकीन नहीं था कि निधिवन में रात्रि को भगवान रास रचाते है उसने सोचा कि एक दिन निधिवन रुक कर देखता हू इसलिए वो वही पर रूक गया और देर तक बैठा रहा और जब शाम होने को आई तब एक पेड़ की लता की आड़ में छिप गया 

♻जब शाम के वक़्त वहा के पुजारी निधिवन को खाली करवाने लगे तो उनकी नज़र उस भक्त पर पड गयी और उसे वहा से जाने को कहा तब तो वो भक्त वहा से चला गया लेकिन अगले दिन फिर से वहा जाकर छिप गया और फिर से शाम होते ही पुजारियों द्वारा निकाला गया और आखिर में उसने निधिवन में एक ऐसा कोना खोज निकाला जहा उसे कोई न ढूंढ़ सकता था और वो आँखे मूंदे सारी रात वही निधिवन में बैठा रहा और अगले दिन जब सेविकाए निधिवन में साफ़ सफाई करने आई तो पाया कि एक व्यक्ति बेसुध पड़ा हुआ है और उसके मुह से झाग निकल रहा है

♻तब उन सेविकाओ ने सभी को बताया तो लोगो कि भीड़ वहा पर जमा हो गयी सभी ने उस व्यक्ति से बोलने की कोशिश की लेकिन वो कुछ भी नहीं बोल रहा था लोगो ने उसे खाने के लिए मिठाई आदि दी लेकिन उसने नहीं ली और ऐसे ही वो ३ दिन तक बिना कुछ खाएपीये ऐसे ही बेसुध पड़ा रहा और ५ दिन बाद उसके गुरु जो कि गोवर्धन में रहते थे बताया गया तब उसके गुरूजी वहा पहुचे और उसे गोवर्धन अपने आश्रम में ले आये आश्रम में भी वो ऐसे ही रहा और एक दिन सुबह सुबह उस व्यक्ति ने अपने गुरूजी से लिखने के लिए कलम और कागज़ माँगा गुरूजी ने ऐसा ही किया और उसे वो कलम और कागज़ देकर मानसी गंगा में स्नान करने चले गए जब गुरूजी स्नान करके आश्रममें आये
तो पाया कि उस भक्त ने दीवार के सहारे लग कर अपना शरीर त्याग दिया थाऔर उस कागज़ पर कुछ लिखा हुआ था

उस पर लिखा था- 

♻ "गुरूजी मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई है,पहले सिर्फ आपको ही बताना चाहता हू ,आप कहते थे न कि निधिवन में आज भी भगवान रास रचाने आते है और मैं आपकी कही बात पर यकीन नहीं करता था, लेकिन जब मैं निधिवन में रूका तब मैंने साक्षात बांके बिहारी का राधा रानी के साथ गोपियों के
साथ रास रचाते हुए दर्शन किया और अब मेरी जीने की कोई भी इच्छा नहीं है ,इस जीवन का जो लक्ष्य था वो लक्ष्य मैंने प्राप्त कर लिया है और अब मैं जीकर करूँगा भी क्या?

♻ श्याम सुन्दर की सुन्दरता के आगे ये दुनिया वालो की सुन्दरता कुछ भी नहीं है,इसलिए आपके श्री चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार कीजिये"

♻वो पत्र जो उस भक्त ने अपने गुरु के लिए लिखा था आज भी मथुरा के सरकारी संघ्रालय में रखा हुआ है और बंगाली भाषा में लिखा हुआ है

♻कहा जाता है निधिवन के सारी लताये गोपियाँ है जो एक दूसरे कि बाहों में बाहें डाले खड़ी है जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती है तो वहाँ की लताये गोपियाँ बन जाती है, और फिर रास लीला आरंभ होती है,इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु बंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की "परम दिव्यातिदिव्य लीला" है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.

♻जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि में शयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलत...े है तो जल पीला मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है.राधे..........राधे.............

Tuesday 24 March 2015

स्त्रियां पूरे शरीर में गर्माहट सी महसूस करती है।

संभोग क्रिया करने के दौरान अगर स्त्री को मिलने
वाला यौनसुख केवल शरीर को सुकून पहुंचाने को स्रोत
नहीं होता बल्कि यह किसी भी बदसूरत व्यक्ति को खूबसूरत
बना सकता है। यौनसुख बस एक साधारण शारीरिक
प्रतिक्रिया होती है। थोड़े समय में रोजाना यौनसुख भोगने
वाली स्त्री में सिर से लेकर पैरों के नाखूनों तक बदलाव
आता है। संभोग क्रिया करते समय ग्रंथियों में उत्तेजना बढ़
जाती है और इस क्रिया के अन्त में मुश्किल प्रतिक्रियाएं
होती है तथा पिट्यूररी ग्रन्थि खून में हार्मोन्स का स्राव
करती है जो यौन अंगो में प्रतिक्रियाओं को बढ़ाते है। संभोग
करने की इच्छा के लिये यौन हार्मोन्स होना जरूरी है।
पिट्यूटरी ग्रन्थि को मास्टर यौन ग्रथि कहा जाता है
क्योंकि इसके हार्मोन्स शरीर की दूसरी यौन ग्रंथियों पर
अधिकार रखते है। यह ग्रन्थि अलग-अलग हार्मोन्स
को अलग-अलग यौन ग्रन्थियों तक इस सन्देश के साथ
भेजती है कि वो अपने खुद के हार्मोन्स को भरने के लिये तैयार
रहे। ये यौन ग्रन्थिया जब एक बार खुद एक बार हार्मोन्स से
भर जाती है तो पिट्यूटरी ग्रन्थि को सन्देश भेजती है, अब हम
खुद सावधान है और हमे तुम्हारी मदद की कोई जरूरत नहीं है।
इन सब ग्रन्थियों का व्यक्ति को जवान बनाए रखने और
उसकी खूबसूरती बनाए रखने से सीधा संबध होता है। सहवास
करने के दौरान खून को बहाने वाली नसों पर काबू रखने
वाली छोटी मांसपेशियां अनैच्छिक रुप से सिकुड़ जाती है जिसके
कारण स्त्रियां अपनी पूरे शरीर में गर्माहट सी महसूस करती है।
छोटी खून को बहाने वाली नसें शान्त रहकर शरीर में बहुत
ज्यादा खून और गर्माहट लाती है। इसी कारण से कभी-
कभी पूरे शरीर की त्वचा में लालपन आ जाता है। यह
प्रक्रिया त्वचा के लिए बहुत अच्छी चिकित्सा का काम
करती है क्योंकि यह त्वचा की परतों में खून के बहाव
को बढ़ा देती है तथा शरीर के रोम छिद्रों में तेल और
नमी को पहुंचाती है जिससें त्वचा को जवानी और चमक
मिलती है। त्वचा के अन्दर नमी के जमा होने से त्वचा के
कमजोर होने की प्रक्रिया रूक जाती है जिससे त्वचा मुलायम
और खूबसूरत बनी रहती है। संभोग क्रिया त्वचा के
अलावा बाकी शरीर को भी स्वस्थ और चुस्त बनाए रखने में
मदद करती है।

वजन बढ़ने तक की समस्या का समाधान हो सकता है.

              पति या पत्नी के साथ सोने के हैं कई फायदे!
कई बार ऐसा होता है कि आप
अपने पार्टनर के साथ सोना नहीं चाहते हैं
लेकिन हाल ही में हुए एक रिसर्च में
जो बातें सामने आयी हैं उन्हें जानने के
बाद शायद आप ऐसा नहीं करेंगे
क्योंकि रिसर्च से इस बात का पता लगा है कि साथ सोने
के बड़े फायदे हैं.
कुछ दिनों पहले इस बात का पता लगाने के लिए कई
रिसर्च किए गए कि अपने पार्टनर के साथ सोना फायदेमंद
है या हानिकारक?
इस स्टडी के अनुसार जो महिलाएं लंबे और
अच्छे रिश्ते में होती हैं उन्हें
जल्दी और
गहरी नींद
आती है
वहीं जो अकेली या कमजोर
रिश्ते में होती हैं उनके साथ बिल्कुल
उल्टा होता है. वहीं इस रिसर्च से
जुड़ी एक प्रोफेसर का कहना है
कि मनोवैज्ञानिक दबाव झेल रहे लोगों के लिए साथ
सोना बहुत फायदेमंद है.
इनसे जुड़े कारणों के बारे में प्रोफेसर का कहना है
कि जब जोड़े साथ सोते हैं तो एक-दूसरे से
सुरक्षा की भावना से जुड़े होते हैं. जिससे
उन्हें तसल्ली से नींद
आती है. वहीं 2010 के एक
रिसर्च में यह बात सामने आई थी कि जब
जोड़े रात को साथ सोते हैं, उनकी सुबह
अच्छी गुजरती है.
आपको बता दे कि इस स्टडी के अनुसार साथ
सोने से नींद नहीं आने से
लेकर वजन बढ़ने तक
की समस्या का समाधान हो सकता है.

Monday 23 March 2015

उन्होंने अंधकार को कभी देखा ही नहीं

भगवान हैं तो दिखते क्यों नही ? दिव्य को प्राकृत रुप से अनुभव नहीं किया जा सकता। प्राण-वायु के बिना हम जीवित नहीं रह सकते परन्तु वह दिखती नहीं। हम कह सकते हैं कि भले ही वह दिखती नहीं परन्तु उसका अनुमान लगाया जा सकता है, उसका अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है क्योंकि वृक्षों की डालियाँ और पत्ते हिल रहे हैं और शीतल मंद समीर हमारे देह को स्पर्श कर रहा है ठीक उसी प्रकार उस दिव्य की सांकेतिक अनुभूति तो हमें होती है पर अपनी चेतना के ऊपर जमे हुए कल्मष को क्रमश: धोते हुए जब चेतना अपने वास्तविक दिव्य स्वरुप में आ जावेगी तब उबके दर्शन ऐसे ही सुलभ होंगे जैसे हम प्राकृत जगत को देखते हैं। सांकेतिक ही सही, जब तक यह अनुभूति हो रही है तब तक आत्म-सुधार का मार्ग प्रशस्त है और हम अपना मार्ग चुन सकते हैं।
अखिल विश्व के उल्लुओं का यदि कोई सम्मेलन हो और उसमें यह प्रस्ताव पारित हो जावे कि प्रकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं तो क्या यह सत्य हो जावेगा ? उन्होंने नहीं देखा तो सूर्यनारायण के अस्तित्व पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लग सकता ? किन्तु यदि भगवान सूर्यनारायण से पूछा जावे कि प्रभो ! अंधकार कैसे दूर हो ? तो वे क्या उत्तर देंगे क्योंकि उन्होंने अंधकार को कभी देखा ही नहीं। उनके प्रकाश की पहली किरण के उदय के साथ ही अंधकार न जाने कहाँ छुप जाता है।
अपने घर में प्रकाश के लिये हमने एक स्विच/बटन दबाया और घर प्रकाश से भर गया किन्तु जब तक स्विच/बटन न दबायें तब तक इस प्रकाश का अनुभव नहीं कर सकते। प्रकाश, स्विच/बटन में नहीं है; वह तो आ रहा है विद्युत-केन्द्र से। परन्तु जिन तारों में होकर आता है, वह तो प्रकाश से नहीं चमकते तो क्या उनमें विद्युत नहीं है?
हमें प्रभु की सहज कृपा प्राप्त है यही कारण है कि हम उसका सही अर्थ नहीं समझते। जो प्राणवायु हमें बिना किसी प्रयत्न के मिल रही है, बिना किसी परिश्रम के स्वयं प्रभु कृपा से संचालित हो रही है उसकी कीमत तब समझ आती है जब चिकित्सालय में पड़े होने पर "आक्सिजन सिलैन्डर" लगाने के बाद भी श्वाँस लेने में असुविधा होती है। यही कारण है कि संतो/भक्तों को उनकी कृपा के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता। जितना हम अनुभव करेंगे, जैसा भाव होगा, उससे कहीं अधिक वह हम पर लुटाने को तत्पर बैठे हैं परन्तु उस आनन्द की अनुभूति के लिये हम उनके सम्मुख तो हो जावें, विमुख कैसे जाने कि "पीछे कौन" है ? पलट ! देख पलटकर ! वह कहाँ नहीं है ? जिस दिन "भाव" बन जाये तो उन्हें तो कहीं से आना-जाना तो है नहीं, बस प्रकट होना है। वह वैकुन्ठ में भी है, गोलोक में भी, साकेत में भी, अनन्तानन्त ब्रहमान्डों में जो बसे हैं, वह क्षणार्ध में खंभ फ़ाड़कर भी प्रकट हो जाते हैं। अग्नि केवल काठ या माचिस की तीली में नहीं है, अग्नि सभी स्थानों में व्याप्त है, यहाँ तक कि देह में भी। उसे तो बस घर्षण से प्रकट होना होता है।
 जय श्री राधे !

Sunday 22 March 2015

मूर्खों के सामने हीरा भी पत्थर होता है

भगवान्‌के दो स्वरूप हैं । वे कौन-कौन-से हैं ? एक तो है दारुगत । जैसे काठमें आग होती है, दियासलाईमें आग होती है, पत्थरमें आग होती है, पर वह आग दीखती नहीं । ऐसे यह भगवान्‌का अगुणरूप सर्वत्र रहनेवाला है, पर यह दीखता नहीं । दूसरा रूप वह है, जो देखनेमें आता है । जैसे आग जलती हुई दीखती है, वह अग्निका प्रकटरूप है, ऐसे ही सगुण भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं, वह सगुणरूप प्रकट अग्निकी तरह है । भगवान् मनुष्योंकी तरह ही आचरण करते हैं । मनुष्यरूपमें प्रकट होनेके कारण वे प्रत्यक्ष दीखते हैं । एक दीखनेमें न आनेवाला और एक दीखनेमें आनेवाला‒दो रूप अग्निके हुए; परंतु अग्नि एक ही तत्त्व है । दीखने और न दीखने से आग दो नहीं हुई । ऐसे ही अगुण अर्थात् अप्रकट और सगुण अर्थात् प्रकट‒ये दो रूप परमात्मा के हुए, परंतु परमात्मा एक ही हैं ।

काठमें अथवा दियासलाईमें आग रहती है, वह आग दूसरी है और सुलगती है, वह आग दूसरी है‒ऐसा कोई नहीं कह सकता । दोनों एक ही हैं । एक तो दीखती है और एक नहीं दीखती । केवल इतना अन्तर है । ऐसे नहीं दीखनेवाले परमात्माके रूपको अगुण कह देते हैं दीखनेवाले रूपको सगुण कह देते हैं, पर परमात्मा दो नहीं हैं, तत्त्व एक ही है । इस तत्त्वको समझना ही ‘ब्रह्म बिबेकू’ है ।

‘उभय अगम जुग सुगम नाम तें’‒दोनों ही परमात्माके रूप अगम्य हैं । इनकी प्राप्ति करना चाहें तो निर्गुणकी प्राप्ति भी कठिन है और सगुणकी प्राप्ति भी कठिन है । इनको जानना चाहें तो अगुण और सगुण दोनोंको जानना कठिन है । इन दोनोंमें भी गोस्वामीजी महाराज आगे चलकर कहेंगे कि सगुणका जानना और भी कठिन है । अवतार लेकर मनुष्य जैसे चरित्र करते हैं‒इस कारण उनको जाननेमें कठिनता है ।

“निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥“
…………..(मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ७३ ख)

अगुणरूपको तो हर कोई जान सकता है, पर सगुण-रूपको हर कोई नहीं जानता । मनुष्यकी तरह आचरण करते देखकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंके मनमें भी भ्रम हो जाता है । वे भगवान्‌को मनुष्य ही मान लेते हैं । वे कहते हैं, यह तो मनुष्य ही है । गीतामें भी भगवान्‌ने कहा है‒‘देवता और महर्षि भी मेरे परम अविनाशी भावको नहीं जानते, इसलिये अवतार लेकर घूमते हुए मुझको मूढ़ लोग साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं अर्थात् मेरा तिरस्कार, अपमान, निन्दा करते हैं[*] ।’ उन मूर्खों के सामने हीरा भी पत्थर होता है । न जानने के कारण वे निन्दा करते हैं । उनकी निन्दा का कोई मूल्य नहीं है । कारण कि वे बेचारे जानते नहीं, अनजान हैं ।

Saturday 21 March 2015

निर्गुण-तत्त्वमें स्थिति होनी बड़ी कठिन है

निर्गुणरूप को सुलभ बताया है । दोनों रूपोंको देखा जाय तो निर्गुण का स्वरूप सुगम है । कारण कि निर्गुणस्वरूप में दोषबुद्धि होने की गुंजाइश नहीं है । युक्तियों से भी उसकी सिद्धि की जा सकती है । पर सगुण में दोषबुद्धि होनेकी गुंजाइश है और युक्तियों से सिद्ध भी नहीं हो सकता ।

परंतु जहाँ साधना की चर्चा हुई है, वहाँ गोस्वामीजी ने भक्ति के साधन को सुगम बताया है ‘सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी’… और ज्ञान के पंथ को कृपाण की धारा बताया है । तलवारकी धारपर चलना बड़ा मुश्किल होता है । इस तरहसे निर्गुणका मार्ग बड़ा कठिन है और सगुण परमात्माका मार्ग अर्थात् उनकी भक्ति सुगम है ।

यहाँ कहते हैं कि ‘निर्गुन रूप सुलभ अति’ निर्गुणरूपको सुलभ ही नहीं, अत्यन्त सुलभ बताया और सगुणको कोई जानता नहीं, ऐसा कहा । इस कारण कहा जा सकता है कि दोनों बातोंमें विरोध आता है । एक जगह निर्गुणको अति सुलभ बता रहे हैं तो दूसरी जगह ‘ग्यान पंथ कृपान कै धारा’ । इसी तरह ‘सगुन जान नहि कोई’ कह रहे हैं और फिर सुगमता बताकर भक्तिकी महिमा गा रहे हैं ।

दोनों बातोंमें विरोध दीखता है; परंतु वास्तवमें विरोध नहीं है । निर्गुणरूप समझनेमें बड़ा सुगम है, उसमें दोषबुद्धि सम्भव नहीं है । उसे तर्क-वितर्कसे समझा जा सकता है; परंतु सगुणरूपमें दोषबुद्धि हो सकती है तथा तर्क-वितर्क भी वहाँ चलता नहीं । इसलिये सगुणरूपके समझनेमें कठिनता है । परंतु प्राप्तिके मार्गमें चला जाय तो सगुणका मार्ग बड़ा सरल है, सीधा है । सगुण भगवान्‌की लीला गाकर, पढ़कर, सुनकर मनुष्य बड़ी सरलतासे भगवत्प्राप्ति कर सकता है । निर्गुण पंथ बड़ा कठिन है, कारण कि देहाभिमानी मनुष्यकी निर्गुण-तत्त्वमें स्थिति होनी बड़ी कठिन है (गीता १२ । ५) ।

इससे निष्कर्ष निकला कि मार्ग तो सगुणवाला श्रेष्ठ है । साधक उसके द्वारा जल्दी पहुँचता है और विचारसे एवं तर्कसे निर्गुण स्वरूपको सुगमतासे समझ सकते हैं, पर सगुणमें तर्क नहीं चलता । इसलिये अपनी-अपनी जगह दोनों ही श्रेष्ठ हैं, दोनों ही उत्तम हैं ।

खास बात यह है कि पात्रके अनुसार सुगमता और कठिनता होती है । जिसकी रुचि, योग्यता, विश्वास निर्गुणमें है, उसके लिये निर्गुणरूप सुलभ है । जिसकी रुचि, विश्वास, योग्यता सगुणमें है, उसके लिये सगुण सुलभ है । इसलिये पात्रके अनुसार दोनों ही कठिन हैं और दोनों ही सुगम हैं । जो जिसको चाहता है, वह उसके लिये सुगम हो जाता है ।

एक रूपकी प्राप्ति होनेपर दोनोंकी ही प्राप्ति हो जाती है, फिर कोई-सा भी रूप जानना बाकी नहीं रहता; क्योंकि दोनोंका तत्त्व एक ही है । सगुण और निर्गुण किसी रूपको लेकर साधक साधना करे, अन्तमें दोनोंको जान लेगा । कारण कि तत्त्वतः दोनों एक ही हैं ।

उभय अगम जुग सुगम नाम तें ।
कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ॥
………………(मानस, बालकाण्ड, दोहा २३ । ५)

दोनों ही रूप नाम लेनेसे सुगम हो जाते हैं । दोनों अगम हैं मानो बुद्धि वहाँ काम नहीं करती । इस कारण जाननेमें अगम हैं; परंतु ‘जुग सुगम नाम तें’ नामसे दोनों सुगम हो जाते हैं अर्थात् अगम होते हुए भी नाम-जप किया जाय तो दोनों ही सुगम हो जायँ ।

विषय वासना युक्त मन ही तो असुर है

स्कन्द पुराण में समुद्र मंथन की प्रसिद्ध कथा है ।महर्षि दुर्वासा के शाप से इन्द्र जब श्री हीन हो गये तो क्षीर सागर को मथने की योजना बनी ।
मंथन कार्य से सार प्राप्त होता है ।मंदराचल को मथानी बनाया गया ।
मनुष्य ही स्वभाव से देवता और असुर होता है ।दुर् वासना अर्थात् विषय वासना इन्द्रियो को शक्ति हीन कर देता है ।मन ही इनका स्वामी होता है ।यह मन ईश्वर की टेक रखकर चिंतन करता है ।श्वास ही वासुकि नाग है ।इस चिंतन क्रम में सबसे पहले कालकूट अर्थात शरीर को नष्ट करने वाला मनोविकार ही उत्पन्न होता है , जिसे परमज्ञान रुपी शिव ही आत्मसात करते हैं , वे पाचन नहीं करते क्योंकि मनोविकार दीर्घकालीन अभ्यास से ही दूर होते हैं , केवल ईश्वर कृपा से नहीं ।दूज का चंद्र मन की निर्मलता का प्रथम चरण है जिसे शिव माथे पर रखते हैं यानि मन दोषमुक्ति की ओर अग्रसर होते ही ज्ञान मिलना शुरु हो जाता है ।चिंतन से ही सभी उपयोगी तथा विनाशकारी चीजों का आविष्कार होता है ।लक्ष्मी विष्णु को मिलती है अर्थात सबकुछ ईश्वर का ही है , ध्यान देने की बात है कि श्री हीन इन्द्र हुये , लेकिन लक्ष्मी मिली विष्णु को ।वस्तुतः यथार्थ में आत्मा ही मालिक है , वही सबका पोषण आदि करता है।बहुत सारे चीजों के बाद अंत में आयुर्वेद के जनक धन्वंतरी अमृत कलश लेकर निकले।
शरीर को शक्तिशाली , रोगमुक्त, दीर्घायु बनाना आयुर्वेद ही है ।मृत शरीर है , अमृत आत्मा है ।कलश नाभि के पास वह स्थान है जहाँ प्राणापान को सम किया जाता है ।कर्म कांड के कलश स्थापना में भी उसमें पाँचो वायु को प्रतीक आवाहन किया जाता है ।
उत्तम वस्तु तो सबको इच्छित रहती है , सो देवता असुर अमृत के लिये लड़ने लगे ।तब ईश्वर मोहिनी रुप से मध्यस्थता किये ।सुन्दर रुप सौन्दर्य में आसक्ति सबको रहती है , परंतु भावना अलग 
।मोहिनी को देवता आदर और सात्विक भाव से तथा असुर कामुक भाव से देखते थे ।
अब मोहिनी ने देवो को अमृत तथा असुरो को विष पिलाया ।एक नजर से यह छल लगता है , और ईश्वर के कर्म फल और सर्वन्यायकत्व के सिद्धांत को गलत भी करता है (अमृत के लिये कर्म देवो के जितना , असुरो ने भी बराबर किया , तो अमृत पर उनका भी हक बनता है ।ईश्वर सबको समान दृष्टि से देखते हैं , पक्षपात नहीं करते )।
वस्तुतः ऐसा हुआ नहीं ।देवो तथा असुरो के लिये अमृत पाने का उद्देश्य अलग था तथा अमृत की परिभाषा भी अलग थी ।देवताओं के लिये अमृत, आत्मा की प्राप्ति , मोक्ष उद्देश्य था ।जबकि असुर सांसारिक सुखो में अमरता चाहते थे ।यह सामान्य स्वभाव होता है ।
तो मोहिनी ने देवो को अमृत तथा असुरो को विष यानि विषय वासना दिया जो उनका अभीष्ठ था ।विषय वासना युक्त मन ही तो असुर है ।
गीता में भी दैवी संपदा को अर्जन करने के बाद ही आत्मा को पाने का विधान विस्तार से बताया गया है ।आत्म बल को ही ऋषियों ने यथार्थ संपत्ति माना है ।गीता का श्रोता अर्जुन धनंजय भी है यानि आत्म बल को अर्जित कर चुका है ।
अमृत कोई पेय पदार्थ नहीं है , जो मरा नहीं , नष्ट नहीं हुआ , शाश्वत है , सनातन है वही अमृत है ।
अमृत का अधिकारी दैवी संपदा से युक्त मनुष्य ही है ।
छल से अपात्र व्यक्ति जब आत्म ज्ञान पा लेता है तब आत्मा और मन रुपी सूर्य चंद्र अमृत के लाभ से उसे वंचित रखते हैं और प्रतिशोध में वे आत्मा और मन को ही दूषित करने का असफल प्रयास करते रहते हैं ।

Friday 20 March 2015

श्रीकृष्ण ने मूल गीता में कहा है।

श्रीमदभगवद्गीता प्रत्येक मानव का धर्मशास्त्र है और सर्वश्रेष्ठ भी। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जो संवाद अर्जुन से किया अगर उसको यथार्थ भाव में अवलोकन करें तो गीता में रंचमात्र भी संदेह के लिए स्थान नहीं है। अगर कही संदेह है तो व्याख्याकारों के अपने दृष्टिकोण की वजह से, क्योकि मूल गीता संस्कृत में है और श्रीकृष्ण की कही बात को सभी टीकाकारों ने अपने गुणों के आधार पर अर्थ निकाला है।
मनुष्य प्रकृति में मौजूद तीनों गुणों (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण) में से किसी न किसी गुण से प्रभावित होता है और इस गुण के प्रभाव में वह कही बात का अर्थ निकालता एवं समझता है और दुसरो के सामने प्रस्तुत भी करता है। 
ठीक यही स्थिति मूल गीता की टीका लिखने वाले विद्वानों के साथ भी थी। आज गीता के नाम पर सैकड़ो टीकाएँ बाजार में मौजूद है और यदि सभी टीकाओं का अध्ययन किया जाएँ तो सभी में असमानताएं मिलेंगी।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से तो किसी एक भाव में बात कही होगी तो इसके अनेक भाव क्यों ?
इतने अलग-अलग अर्थ क्यों निकाले जाते है? 
कारण साफ़ है व्याख्याकारों का दृष्टिकोण किसी न किसी गुण से प्रभावित है तो अर्थ में असमानता होगी ही और जिस बात को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कही है उसका यथार्थ अर्थ या भाव कोई विद्वान नहीं समझ सकता। जब समझ नही सकता तो अर्थ का अनर्थ होगा ही जिससे समाज भ्रमित होगा और भटकेगा भी।
श्रीकृष्ण एक योगी थे और योग्रुढ़ता की चरमोत्कर्ष अवस्था पर पहुंचकर उन्होंने योगेश्वर की परमस्थिति को प्राप्त किया। परन्तु ज्यादातर व्याख्याकार सिर्फ इसलिए भ्रमित हो गये क्योकि श्रीकृष्ण ने गीता में स्थान-स्थान पर मै और मुझे शब्द का प्रयोग किया है।
जैसे- 'जो भक्त मुझे भजेगा वो मुझे प्राप्त होगा'- इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि महापुरुष ईश्वरस्थित एवं ईश्वर द्वारा संचालित होते है एवं उनके मुख से ईश्वर ही बोलता है। उनका शरीर यंत्र-मात्र होता है, इस प्रकार भजने का आशय है कि उन महापुरुष में स्थित परमात्मा को प्राप्त होगा।
वास्तव में ईश्वर स्वयं अवतरित नहीं होते बल्कि किसी-किसी विरले साधक या योगी के साधना के परिणाम में उनके घट में ही अवतरित होते है और अपनी सारी विभूतियाँ तथा शक्तियाँ प्रदान करते है, अवतार का सिर्फ इतना ही मतलब है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण की कही बात को सिर्फ वही समझ सकता है जो उनके स्तर का महापुरुष होगा। एक महापुरुष के शब्दों को या शब्दों में छुपे भाव का को दूसरा तत्वदर्शी महापुरुष ही समझ सकता है और अन्य को समझा भी सकता है। 
इसके अतिरिक्त न तो भाषा का और न ही व्याकरण का कोई विद्वान् उस शब्द और भाव को समझ सकता है जोकि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मूल गीता में कहा है। वह अपने मन एवं बुद्धि का जहाँ तक विस्तार है वही तक समझ सकेगा।
वर्तमान समय में मूल गीता की सरल, स्पष्ट एवं यथार्थ व्याख्या "यथार्थ गीता" के रूप में तत्वदर्शी महापुरुष स्वामी अड़गड़ानन्द जी महाराज ने की है।
आप सभी से अनुरोध है कि कृपया एक बार "यथार्थ गीता" का समग्र अध्ययन अवश्य करें जिससे कि ईश्वरीय वाणी श्रीमदभगवद्गीता के सत्य को समझ सके। 

उसके अंदर भी ब्रह्म है, मेरे अंदर भी ब्रह्म है

संत ज्ञानेश्वर के माता-पिता ने चार संतानें उत्पन्न कीं और चारों संतानें परमयोगी हुईं। तीन भाई और एक बहन। सबसे छोटी मुक्ता, सोपान, ज्ञानेश्वर और सबसे बड़े निवृत्तिनाथ। ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों को कोई पाठशाला में भर्ती करने को तैयार नहीं था, क्योंकि उनके पिता संन्यासी होने के बाद वापस गृहस्थ हो गए थे। पिता ने पंडितों से प्रार्थना की,‘मेरे बच्चों को ज्ञान दिया जाए।’गुरुकुल के मुख्य आचार्य ने कहा,‘अगर आप प्रायश्चित के तौर पर जल-समाधि ले लें, तभी हम बच्चों को पढ़ाएंगे।’बच्चों की पढ़ाई ठीक से हो सके, इसलिए माता-पिता दोनों ने नदी में उतर कर जल-समाधि ले ली। उस समय बच्चे बहुत छोटे थे। सबसे बड़े भाई निवृत्तिनाथ 11 साल के थे। तीन भाई और एक बहन। इन चार अनाथ बच्चों ने अपने दिवंगत माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए फिर से गुरुकुल में जाकर प्रार्थना की-‘हमें शिक्षा दीजिए।’पर उस समय के क्रूर, निष्ठुर आचार्यों ने उन्हें बेइज्जत करके निकाल दिया। वे बोले,‘तुम संन्यासी के बच्चे हो, इसलिए हम तुम्हें गुरुकुल में नहीं लेंगे।’उस समय ज्ञानेश्वर ने कहा,‘आप मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य को नीचा क्यों समझते हैं? हर प्राणी में एक ही परमात्मा वास करता है।’
कहते हैं कि उस समय एक किसान अपने भैंसे को ले जा रहा था। उसने अपने भैंसे का नाम‘ज्ञानू’रखा था। यह देख कर एक आचार्य ने ज्ञानेश्वर को कहा,‘क्या उस ज्ञानू में और तुममें कोई भेद नहीं?’ज्ञानेश्वर ने कहा,‘बिलकुल नहीं। उसका शरीर भी पंचतत्त्व का है, मेरा भी शरीर पंचतत्त्व का है। उसके अंदर वही चेतना है, जो मेरे अंदर है। उसके अंदर भी ब्रह्म है, मेरे अंदर भी ब्रह्म है। इसलिए हम दोनों में कोई भेद नहीं।’वह शास्त्री फिर से बोला,‘अगर ऐसी ही बात है तो इस भैंसे से वेद बुलवा कर दिखा।’ज्ञानेश्वर गुरु निवृत्तिनाथ की आज्ञा लेकर आगे बढ़े, भैंसे के सिर पर हाथ रखा। जैसे ही ज्ञानेश्वर ने भैंसे के सिर पर हाथ रखा, भैंसा ऋग्वेद की ऋचाओं का उच्चारण करने लगा। देखने वाले दंग रह गए कि यह कैसे संभव है! भैंसा मनुष्य की आवाज में बोल रहा है!
इस तरह के कई चमत्कार उनके जीवन में घटित हुए, परन्तु योगी, ब्रह्मज्ञानी, परमभक्त ज्ञानेश्वर इन चमत्कारों की वजह से नहीं जाने जाते। समाज-मानस में भरे हुए अज्ञान, तथाकथित पंडितों द्वारा फैलाए गए पाखंड और भेदभाव की वृत्ति, इनमें गरीब और भीरु समाज पीसा जा रहा था। योगेश्वर श्रीकृष्ण की कही गीता और अन्य वेदांत ग्रंथों पर पंडित लोग कुंडली मार कर बैठे हुए थे, इसलिए भगवद्गीता जैसी वेदांत ज्ञान की सरिता को ज्ञानेश्वर महाराज ने गुरु की आज्ञा से मराठी में‘ज्ञानेश्वरी’के रूप में अवतरित किया। इस ग्रंथ की महिमा का वर्णन करते हुए संत एकनाथ महाराज ने कहा है,‘ज्ञानेश्वरी ग्रंथ परम गहन है, परन्तु गुरुपुत्र (ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य) के लिए यह सुगम सोपान (सीढ़ी) की तरह है। भावपूर्वक इसका श्रवण और मनन करने वाला अखंड समाधन को प्राप्त होता है।’चांगदेव जैसे परमयोगी के अहंकार को नष्ट कर उसे भक्तिमार्ग पर चलाने वाले योगीराज ज्ञानेश्वर ने‘अमृतानुभव’नामक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना की।
उनके द्वारा रचे गए ग्रंथों की भाषा अति मधुर, अति रसपूर्ण है। उन्होंने हजारों अभंग (भजन) रचे, जिनमें ज्ञान, वैराग्य, गुरुप्रेम, ईश्वर अनुराग, विरह इत्यादि के बारे में उनकी श्रेष्ठ भावदशा का दर्शन होता है। संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित‘हरिपाठ’ने घर-घर में भागवत-धर्म (भक्तिमार्ग) को प्रतिष्ठित किया। उनके समकालीन संत नामदेव, जनाबाई, सावतामाली, सेना नाई, नरहरि सुनार, गोरा कुम्हार इन सभी संतों ने उन्हें अपनी ज्ञानदात्री माउली (माता) के रूप में देखा है। सन्त जनाबाई ने कहा है,‘यह ज्ञान का सागर ज्ञानेश्वर मेरा सखा है। दिल करता है कि मर कर फिर से इस माउली की गोद में जन्म लूं। हे सखा ज्ञानदेव! मेरे भाव को पूरा करिये।’21 वर्ष की आयु में इस महान योगी ने गुरुआज्ञा लेकर अपना जीवनकार्य पूरा किया और सभी तत्कालीन संतों व अपने गुरुदेव के समक्ष संजीवन समाधि में प्रवेश किया।
ये बडे दयालु प्रवृत्ति के थे..
इस विषय में ज्ञानेश्वरजी की छोटी बहन मुक्ताबाईका ही अधिकार बड़ा है। ऐसी किंवदंती है कि एक बार किसी नटखट व्यक्ति ने ज्ञानेश्वरजी का अपमान कर दिया। उन्हें बहुत दुख हुआ और वे कक्ष में द्वार बंद करके बैठ गए।
जब उन्होंने द्वार खोलने से मना किया, तब मुक्ताबाई ने उनसे जो विनती की वह मराठी साहित्यमें ताटीचे अभंग(द्वार के अभंग) के नाम से अतिविख्यात है।
मुक्ताबाई उनसे कहती हैं- हे ज्ञानेश्वर! मुझ पर दया करो और द्वार खोलो। जिसे संत बनना है, उसे संसार की बातें सहन करनी पड़ेंगी। तभी श्रेष्ठता आती है, जब अभिमान दूर हो जाता है। जहां दया वास करती है वहीं बड़प्पन आता है। आप तो मानव मात्र में ब्रह्मा देखते हैं, तो फिर क्रोध किससे करेंगे? ऐसी समदृष्टि कीजिए और द्वार खोलिए।
यदि संसार आग बन जाए तो संत मुख से जल की वर्षा होनी चाहिए। ऐसे पवित्र अंतःकरण का योगी समस्त जनों के अपराध सहन करता है।

Thursday 19 March 2015

आरती श्री रामायन जी की

श्री रामायण जी की आरती

आरति श्री रामायनजी की । 
कीरति कलित ललित सिय पी की ।।
गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद । 
बालमीक बिग्यान बिसारद ।।
शुक सनकादि शेष अरु सारद । 
बरनि पवनसुत कीरति नीकी ।।1 ।।
आरती श्री रामायन जी की........।।

गावत बेद पुरान अष्टदस । 
छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस ।।
मुनि जन धन संतन को सरबस । 
सार अंश सम्मत सबही की ।।2 ।।
आरती श्री रामायन जी की........।।

गावत संतत संभु भवानी । 
अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी ।।
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी । 
कागभुसुंडि गरुड के ही की ।।3 ।।

आरती श्री रामायन जी की........।।
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी । 
सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की ।।
दलन रोग भव मूरि अमी की । 
तात मात सब बिधि तुलसी की ।।4 ।।

आरती श्री रामायन जी की........।

Tuesday 17 March 2015

किसी न किसी रूप में दर्शन देने अवश्य आएंगे।

श्री हनुमान भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन करने हेतु अनुष्ठान

हर व्यक्ति की यही इच्छा रहती है की उसे अपने जीवन में किसी न किसी रूप में ईश्वर के दर्शन हो जाएँ। आज आप सब के लाभार्थ एक अनुपम हनुमान साधना का विवरण कर रहा हूँ। यदि इस अनुष्ठान को पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ नियम-पालन करते हुए किया जाये तो हनुमान जी किसी न किसी भेष में आपको दर्शन दे देंगे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

साधना सामग्री : हनुमान जी की प्राण-प्रतिष्ठित पारद मूर्ति, मूंगे की माला, लकड़ी का बाजोट, गुड-चने का प्रसाद, स्टील या तांबे की थाली, सिन्दूर, धुप, अगरबत्ती, घी का दीपक, लाल वस्त्र (सवा मीटर ), जनेऊ, फल, दक्षिणा। 

साधना समय : किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष के शनिवार या मंगलवार से आरम्भ करके ११ दिन लगातार 

साधना विधि : मंगलवार या शनिवार को सुबह उठकर नहाधोकर लाल रंग के वस्त्र पहने। सर्वप्रथम घर के पूजा-स्थान में रखी हनुमान मूर्ति या चित्र के दर्शन कर उन्हें प्रणाम करें। उठने के बाद आपको मौन धारण करना है किसी से बात नहीं करनी है और पूरे दिन मौन रहना है। अब अपने पूजा स्थान में बैठ जाएँ और सबसे पहले गणेश जी का स्मरण करके "ॐ गं गणपतये नमः " इस मन्त्र को १०८ बार जाप करके गणेश जी को प्रणाम करें एवं उनसे विनती करें की जो अनुष्ठान आप करने जा रहे हो उसमे कोई विघ्न न आये व उसमे आपको सफलता प्राप्त हो। 

इसके पश्चात अपने सामने लकड़ी का बाजोट रख लें। इस बाजोट के ऊपर लाल रंग का कपडा बिछा दें व उससे मोली से बाजोट के चारों तरफ से बाँध दे। एक स्टील या तांबे की थाली लें उससे बाजोट पर रख दें। इसके बाद इस थाली में गुलाब के पुष्प की पंखुड़ियाँ बिछा दें। उस पर श्री हनुमान जी की प्राण-प्रतिष्ठित पारद मूर्ति रख दें। मूर्ति को पहले गंगाजल से उसके बाद पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर का मिश्रण ) से स्नान कराएं। इसके बाद एक दूसरी थाली में सिन्दूर के घोल से ॐ का चिन्ह बनायें और उस पर पुनः लाल पुष्प की पंखुड़ियाँ रख कर पारद हनुमान मूर्ति स्थापित कर दें। इसके बाद मूर्ति के ऊपर हनुमान जी के लाल सिन्दूर के घोल से लेप कर दें। अब घी का दीपक जलाएं, धुप अगरबत्ती जलाएं और हनुमान जी को दिखाएँ। 

इसके पश्चात लाल पुष्प अर्पित करें, जनेऊ चढ़ाएं, और गुड-चने के प्रसाद और फल का भोग लगाएं। अब दक्षिणा भी अर्पित करें। 

इसके बाद दाहिने हाथ में जल लेकर आँखे बंद करकर हनुमान जी का ध्यान करें और इस अनुष्ठान को करने की अपनी मनोकामना या इच्छा को मन ही मन दोहराएं। जल को दाहिनी और जमीन पर छोड़ दें। 

अब मूंगे की माला से इस मन्त्र के आपको १५१ जाप करने हैं। मन में हनुमान जी का चिंतन करें। 

मन्त्र : ॐ नमो हनुमंताय आवेशय आवेशय स्वाहा । । 

मन्त्र जाप के पश्चात पुनः हनुमान जी को प्रणाम करें व अपनी मनोकामना उनके सामने रखे। बाजोट व समस्त सामग्री को वहीँ रखा रहने दें। प्रसाद उठाकर थोड़ा स्वयं ग्रहण करें एवं बाकि घर के सदस्यों में बाँट दें। 

दिनभर आपको मौन धारण करते हुए हनुमान जी का ही ध्यान करना है। व किसी भी प्रकार के बुरे विचारों को अपने मन में न आने दें। दिन में एक बार आपको बिना नमक और हल्दी का भोजन करना है। 

ऐसा ११ दिन तक लगातार करना है। ११ दिन के बाद यह अनुष्ठान पूर्ण हो जायेगा और आपको हनुमान जी किसी न किसी रूप में दर्शन देने अवश्य आएंगे। 

शून्य विचरण में केवल मन का रमण है

सूक्ष्म शरीर में मन एक प्रबल शक्ति है
शब्द की शक्ति असीमित है। गोरखनाथजी महाराज कहते हैं - 
‘सबदहि ताला, सबदहि कूंची, सबदहि सबद जगाया। 
सबदहि सबद सूं परचा हुआ, सबदहि सबद समाया।।’
ऐसी विराटता है शब्द की। यह शब्द क्या है ? यह शब्द है ॐ (औंकार) सृष्टि की उत्पत्ति के समय Big Bang के रूप में ॐ शब्द का विस्फोट हुआ। शब्द से ही अन्य स्वर प्रकट हुए, सृष्टि संकुचन में भी इसी ॐ शब्द का संकुचन होगा। इसी ॐ महा शब्द के साथ अपने इष्ट का नाम जोड़कर हम किसी भी रूप में यथा ॐ शिव, ॐ नमः शिवाय ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ कृष्णाय, ॐ रामाय नमः आदि-आदि अपनी-अपनी श्रद्धा एवं विश्वास के अनुसार किसी भी शब्द को अपनी साधना का आधार बना सकते हैं। नये साधक के लिए जप बहुत जरूरी है। हमारी वाणी शुद्धि के लिए जप बहुत जरूरी है। ज्यों-ज्यों जप बढ़ता है, हमारे कायिक ब्रह्माण्ड में वह शब्द गूंजने लगता है।
साधना के लिए तीसरा आधार है - मन। मन को नियंत्रित कैसे किया जाए ? मन को ‘अमन’ कैसे किया जाए? अपने सूक्ष्म शरीर में मन एक प्रबल शक्ति है। इस मन के प्रसंग में गोरखनाथजी महाराज कहते हैं - 
‘यह मन शक्ति, यह मन शिव। 
यह मन पांच तत्व का जीव। 
यह मन ले जे उन्मन रहे। 
तो तीन लोक की बातां कहे।।
मन को ‘शिव’ बताया गया है, मन को शक्ति बताया गया है। यह मन ‘शक्ति’ रूप में हमें नचा रहा है, कठपुतलियों की भांति। यही मन ‘शिव’ बनकर हमें कल्याण का मार्ग दिखाता है। यह मन जड़ है, पर चेतन से मिलाने का यही एक मात्र आधार है। जिसने इस मन को ‘अमन’ कर दिया, वह सर्वज्ञ हो गया। बाबाजी महाराज ने मन के सम्बन्ध में बड़ी मार्मिक उक्ति कही है:- 
‘मन की चाल चरित घणी, मन ही ज्ञान-अज्ञान। 
‘श्रद्धा’ मन को उलट दे, धरि उनमनि ध्यान।
यह उन्मनि ध्यान क्या है ? मन है - अज्ञान है, मन नहीं है-ज्ञान है। ‘उन्मनि ध्यान’ से तात्पर्य है-मन के अस्तित्व को समाप्त करना। मन के द्वारा मन को मारना। मन को मारने के लिए हमारे पास मुख्यतः ध्यान की तीन टेक्नीक है:- 
1. दृश्य - दर्शन 
2. नाद - श्रवण 
3. शून्य - विचरण 
नाथपंथ में ध्यान की तीन टेक्नीक को इस तरह सांकेतिक किया गया है -
‘अंखियन मांहि दृष्टि लुकाले, काना मांहि नाद। 
शून्य मां ही सूरता रमाले, यो ही पद निर्वाण।’
ध्यान का अर्थ है-गहराई में उतर कर देखना। जानना और देखना चेतना का लक्षण है। आवृत्त चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है - जानो और देखो। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो, स्कूल मन के द्वारा सूक्ष़्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो। पूरी साधना यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर है, ज्ञात से अज्ञात की ओर है। देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है। जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं है। जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं है। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अन्तिम साधन है - देखना। आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएगे, विकल्प शून्य हो जाएंगे। हम जैसे-2 देखते चले जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं। दृश्य दर्शन में आंख एवं मन का संयोग है। नाद श्रवण में कान एवं मन का संयोग है। शून्य विचरण में केवल मन का रमण है। पहले दो तरीके स्थूल हैं, सरल हैं, तीसरा तरीका जरा सूक्ष्म है, कठिन भी है।

Sunday 15 March 2015

यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं

१. घर में पूजा करने वाला एक ही मूर्ति की पूजा नहीं करें। अनेक देवी-देवताओं की पूजा करें। घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश नहीं रखें।
२. शालिग्राम की मूर्ति जितनी छोटी हो वह ज्यादा फलदायक है।
३. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
४. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता हैं। पूजा में टूटे हुए अक्षत के टूकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।
५. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती है अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।
६. तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।
७. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं। दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।
८. कुशा के अग्रभाग से दवताओं पर जल नहीं छिड़के।
९. देवताओं को अंगूठे से नहीं मले। चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।
९. पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।
१०. भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।
११. भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। नाद ब्रह्मा होता हैं। नाद के समय एक स्वर से जो प्रतिध्वनि होती हैं उसमे असीम शक्ति होती हैं।
१२. लोहे के पात्र से भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।
१३. हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें। समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए। छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं। पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।
१४. मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए। माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं। माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।
१५. जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें। तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए। माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए। ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।
१६. जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं। बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं। 
१७. एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए। सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए। बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।
१८. जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।
१९. जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए। जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।
२०. संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।
२१. दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।
२२. यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं। 

Saturday 14 March 2015

आज आपकी वजह से हमें भी दर्शन हो

जब औरंगजेब ने ब्रज के मंदिरों को तोड़ना प्रारंभ किया तो इससे घबराकर गोवर्धन के श्रीनाथ मंदिर के गोपाल जी की प्रतिमा को तत्कालीन पुजारी ने झाड़ियों में छिपा दिया था।
माधवेन्द्रपुरी जी के लिए श्रीगोपाल जी स्वयं दूध का पात्र लाये
एक बार श्री माधवेन्द्रपुरी जी व्रज की यात्रा करते-करते गिरिराज गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा के दौरान वे थककर एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उनकी वृत्ति अयाचित थी अर्थात वे भोजन के लिए भी किसी से भी याचना नहीं करते थे। उस दिन उन्हें दिनभर कुछ नहीं मिला।
शाम के समय उसी वृक्ष के नीचे बैठे भगवन नाम का उच्चारण करने लगे। उन्हें किसी के पैरों कि आवाज सुनाई दी। वे चौंककर पीछे की ओर देखने लगे, उन्होंने देखा एक काले रंग का ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था वाला बालक हाथ में दूध का पात्र लिए उनकी ओर आ रहा है।
बालक ने बड़े कोमल स्वर में कहा - महात्मा जी! भूखे क्यों बैठे हो? लो इस दूध को पी लो।
पुरी जी ने कहा - तुम कौन हो? और तुम्हें ये कैसे पता कि मैं इस वृक्ष के नीचे बैठा हूँ?
बालक ने हँसते हुए कहा - मैं जाति का ग्वाला हूँ और मेरा घर पास में ही है। मेरी माता यहाँ जल भरने आई थीं। उसी ने आपको यहाँ बैठे हुए देखा और घर जाकर मुझे दूध लेकर भेजा है आप इसे पी लीजिए। मैं अभी थोड़ी देर में पात्र ले जाऊँगा।
पुरी जी ने दूध पिया। इतना स्वादिष्ट दुग्ध उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं पिया था। उस साँवरे बालक की छवि उन्हें हृदय में गड़ गई। वे उसी का चिंतन करने लगे। दूध पीकर उस बालक की प्रतीक्षा करने लगे। आधी रात बैठे-बैठे हो गई, बालक नहीं आया।
श्री गोपाल जी का प्राकट्य
उन्हें नींद आ गयी और नींद में उसी बालक ने हँसते हुए कहा - पुरी! मैं बहुत दिन से तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रहा था, तुम आ गए! मैं इस झाड़ी के नीचे दबा हुआ हूँ, तुम मुझे यहाँ से निकालो। निद्रा टूटने के बाद उन्होंने ब्रजवासियों को बुलाया और उनसे अपने स्वप्न के बारे में बताया।
ब्रजवासियों ने खोदकर मूर्ति को निकाला और वहीं पर एक छप्पर छँवाकर एक ऊँचे आसन पर श्री गोपाल जी को स्थापित किया और खूब मल-मलकर स्नान कराया, सुगन्धित चन्दन से शरीर पर लेपन किया। धूप, दीप, नैवद्य से यथाविधि पूजा की।
पुरी जी ने गोपाल जी का बहुत बड़ा अन्नकूट उत्सव किया। ऐसा उत्सव हुआ कि हजारों प्रकार की प्रसाद की सामग्री बनकर तैयार हो गई और जितना भोग लगता, बँटता, उतना ही फिर प्रकट हो जाता। कोई बिना प्रसाद का नहीं रहा। दो युवक पुरी जी के शरणापन्न हुए पुरी जी ने उन्हें दीक्षा देकर श्रीगोपाल जी की सेवा में लगा दिया। इस प्रकार दो वर्ष बीत गए।
श्री गोपाल जी के श्री अंग में दाह हुआ
एक दिन गोपाल ने पुरी को कहा - जमीन में बहुत समय तक रहने के कारण मेरा शरीर जल रहा है। आप जगन्नाथ पुरी के मलयाचल से चंदन लाकर हमारे शरीर पर लेपन करो, जिससे मेरे शरीर का ताप शांत हो जायेगा।
करीब 2 हजार कि. मी. की यात्रा कर पुरी जगन्नाथ पुरी गए। ओडिशा व बंगाल की सीमा पर वे 'रेमुणाय' में पहुँचे, जहाँ गोपीनाथ जी का मंदिर था। उन्होंने उनके दर्शन किये।
पुजारियों से भगवान के साज-श्रृंगार, भोग-राग, सबके बारे में पूछा। अंत में उन्होंने पूछा - यहाँ पर भगवान का मुख्य भोग किस वस्तु का लगता है ?
पुजारियों ने उत्तर दिया, "यहाँ श्री गोपीनाथ भगवान का क्षीर भोग ही सर्वोत्तम प्रधान भोग है। गोपीनाथ जी की क्षीर को 'अमृतकेलि' नाम से पुकारते हैं। बारह पात्रों में शाम को खीर का भोग लगता है।"
उस मंदिर में गोपीनाथ को खीर का प्रसाद लगाते देखकर पुरी ने सोचा कि पूजा की पद्धति तो समझ ली, परन्तु खीर कैसी होती है? इसे मैं समझ नहीं सका, अगर मैं उस खीर को खा पाता तो वैसी ही खीर अपने गोपाल को अर्पण करता। माँग सकते नहीं थे, क्योकि अयाचित-वृत्ति थी और माँगे बिना कोई देता नहीं।
उन्होंने अपनी इच्छा किसी के सामने प्रकट नहीं की। संध्या को भोग लगकर, शयन आरती हो गई और कपाट बंद हो गए। पुरी जी गाँव से थोड़े दूर एक स्थान में जाकर पड़ रहे।
श्री गोपीनाथ जी ने अपने ही प्रसाद की चोरी कर डाली
आधी रात के समय पुजारी जी ने स्वप्न देखा - साक्षात् गोपीनाथ भगवान सामने खड़े हैं और कह रहे हैं - मेरा एक जरूरी काम करो। मेरा के परम भक्त माधवेन्द्र पुरी महाभगावत संन्यासी ग्राम के बाहर ठहरा है। उसकी इच्छा मेरे क्षीर प्रसाद को पाने की है। अपने भक्त की मनोकामना को पूर्ण करने के निमित्त मैंने अपने भोग के बारह पात्रो में से एक को चुराकर अपने वस्त्रों में छिपा लिया है। तुम उसे ले-जाकर अभी पुरी को दे आओ।
इतना सुनते ही पुजारी चौंक पड़े। पट खोले, वस्त्रों को हटाया। सचमुच उनमे एक क्षीर से भरा हुआ पात्र रखा था। पुजारी जी पात्र को लेकर नगर के बाहर चिल्लाने लगे - माधवेन्द्र पुरी किनका नाम है ?
पुजारी के मुख से अपना नाम सुनकर पुरी महाराज बाहर निकल आये और कहने लगे - महाराज, मेरा नाम ही माधवेन्द्र पुरी है। कहिये, क्या आज्ञा है ?
पुरी महाराज का परिचय पाते ही पुजारी जी चरणों में गिर पड़े और बोले - महाभाग! आप धन्य हैं। हम जैसे पैसों के गुलाम को भगवान के साक्षात् दर्शन हो ही कैसे सकते थे परन्तु आज आपकी वजह से हमें भी दर्शन हो गए और सारी कहानी सुना दी।
रोते-रोते पुरी जी ने आँचल पसार कर प्रसाद लिया, और चाट-चाटकर खाया और पात्र के टुकड़े करके रख लिए जिसे वे रोज खाते थे।
अगले दिन माधवेन्द्र पुरी के जगन्नाथ पुरी पहुँचने से पहले ही यह क्षीरचोर की खबर चारों तरफ फैल गई। उनका नाम ही 'क्षीरचोर गोपीनाथ' हो गया। जगन्नाथ पुरी में माधवेन्द्र पुरी ने भगवान जगन्नाथ के पुजारी से मिलकर अपने गोपाल के लिए चंदन माँगा। पुजारी ने पुरीजी को महाराजा से मिलवा दिया और महाराजा ने अपने क्षेत्र की एक मन (करीब 37 किलो) विशेष चंदन लकड़ी, केसर और कर्पूर की भी व्यवस्था कर दी और अपने दो विश्वस्त अनुचरों के साथ पुरीजी को विदाकर दिया।
जब पुरी जी वापस लौटे तो रास्ते में फिर रेमूणाय में श्री गोपीनाथ मंदिर के पास पहुँचते, तीन-चार दिन फिर रुके तो गोपाल फिर उनके स्वप्न में आए और कहा कि वो चंदन गोपीनाथ को ही लगा दें क्योंकि गोपाल और गोपीनाथ एक ही हैं। तुम हममें भेद-बुद्धि मत रखो। उन्हें लगाने से ही हमारा ताप दूर हो जायेगा।
माधवेन्द्र पुरी ने गोपाल के निर्देशानुसार चंदन घिसवाने के लिए दो आदमी और रख लिए। ग्रीष्म काल के चार महीनों तक वहीं रहकर पुरी महाराज भगवान के अंग पर कर्पूर-चंदन आदि का लेप कराते रहे फिर अपने गोपाल के पास लौट आये।
बोलिये जय श्रीकृष्ण

Friday 13 March 2015

एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिद्ध है

गोवर्धन पर्वत को भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया था। श्रीगाह्यवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है। गोवर्धन पर्वत को गिरीराज पर्वत भी कहा जाता है। लोगों का मानना है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखण्ड से ला रहे थे।
लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुुबंध का कार्य पूणे हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए। क्या कारण था गोवर्धन पर्वत उठाने का इस पर्वत को भगवान कृष्ण को भगवान ने अपनी चींटी अंगुली से उठा लिया था। कारण यह था कि मथुरा, गोकुल, वंदावन आदि के लोगों को यह अति जलवृद्धि से बचाना चाहते थे। जगरवासियों ने इस पर्वत के नीचे इक होकर अपनी जान बचाई। अति जलवृद्धि इंद्र ने कराई थी । लोग इंद्र से डरते थे और डर के मारे सभी इंद्र की पूजा करते थे, तो कृष्ण ने कहा था कि आप डरना छोड दें मैं यहां हूँ ना। क्यों करते हैं परिक्रमा- सभी हिन्दूजनों के लिए इस पर्वत की परिक्रमा का मह व है। वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवमार्गी लोग तो इसकी परिक्रमा अवश्य ही करते हैं क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएं हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायां हाथ कमर पर है। इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभसंप्रदाय के लोग आते हैं।
यह पूरी परिक्रमा सात कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है। परिक्रमा मार्ग में पडने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड मानसी गंगा, पूंछरी का लौंठा, कुसुम सरोवर, दानघाटी इत्यादि हैं। गोवर्धन में सुरभि गाय, रावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिद्ध है। परिक्रमा की शुरूआत वैष्णवजन जातिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वही पहुंच जाते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहां आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहां परिक्रमा करने आए है। यह अर्जी लगाने जैसा है। पूंछरी का लौठा क्षेत्र राजस्थान में आता है।
वैष्णवजन मानते है कि गिरीराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते है कि भगवान कृष्ण यहां शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है। गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महव है। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहां की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। इस पर्वत की स्थिति क्या सचमुच ही पिछले पांच हजार वर्ष से यह स्थ्त ही रोज एक मुnी खत्म हो रहा है या कि शहरी करण और मौसम की मार ने इसे लगभग खत्म कर दिया। आज यह कछुए की पीड जैसा भर रह गया है।
हालांकि स्थानीय सरकार ने इसके चारों और तारबंदी कर रखी है फिर भी 21 किलोमीटर के अण्डाकार इस पर्वत को देखने पर ऎसा लगता हैकि मानो बडे-बडे पत्थरों के बीच भूरी मिट्टी और कुछ घास जबरन भर दी गई हो। छोटी-मोटी झाडियां भी दिखाई देती है। पर्वत को चारो तरफ से गोवर्धन शहर और कुछ गांवों ने घेर रखा है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि पूरा शहर ही पर्वत पर बसा है, जिसमें दो हिस्से छूट गए है उसे ही गिरिराज पर्वत कहा जाता है। इसके पहले हिस्से में जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, पंूछरी का लौठा प्रमुख स्थान है तो दूसरे हिस्से में राधाकुंड, गोविंद, कुंड और मानसी गंगा प्रमुख स्थान है।
बीच में शहर की मुख्य सडक है उस सडक पर एक भव्य मंदिर है, उस मंदिर में पर्वत सिल्ला के दर्शन करने के बाद मंदिर के सामने के रास्ते से यात्रा प्रारम्भ होती है और पुन: उसी मंदिर के पास आकर उसके पास पीछे के रास्ते से जाकर मानसी गंगा पर यात्रा समाप्त होती है। गोवर्धन पर्वत को गिरीराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुटी रोज कम होता जा रहा है। मानसी गंगा के थोडा आगे चलो फिर से शहर की वही मुख्य सडक दिखाई देती है। कुछ समझ में नहीं आता कि गोवर्धन के दोनों ओर सडक है या कि सडक के दोनों और गोवर्धनक् ऎसा लगता है कि सडक, आबादी और शासन की लापरवाही ने खत्म कर दिया है गोवर्धन पर्वत को।

Thursday 12 March 2015

क्रोध मनुष्य को अन्धा बना देता है

- क्रोध मनुष्य को अन्धा बना देता है।-
क्रोध एक ज्वालामुखी की तरह है। इसके विस्फोट की गूंज कई जन्मों तक सुनाई देती है और अनंत जन्मों तक इसका असर रहता है। क्रोध अच्छे भले आदमी को भी शैतान बना देता है । क्रोध एक काले नाग की तरह है जिसके डसने से हमारी आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाती है । क्रोध एक पागलपन है । क्रोध एक भयावह अग्नि की तरह है जिसमें आदमी जलने के बाद खतम हो जाता है।
क्रोध हमे नरक में ले जाता है । क्रोध दुःखों का भंडार है । इंसान को जब क्रोध आता है तब मनुष्य चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो ? उसके हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, चेहरा लाल हो जाता है, वह अपने आपा खो बैठता है, उसकी आंखे घृणा व द्वेष की चिंगारियाँ बरसाती है। उसकी आंखे देखने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो उनसे अंगारे बरस रहे हो, भुजा व टाँगों में कंपन आने लगता है। 
क्रोध मनुष्य को अन्धा बना देता है, व्यक्ति को पागल बना देता है। क्रोध अपना पहला प्रहार विवेक पर करता है । क्रोध समझदारी को बाहर निकाल कर बुद्धि के दरवाजे की छिटकनी लगा देता है, मनुष्य को विचार शून्य बना देता है और विवेक शून्य कर कर देता है, फिर वह जो बोलता है एवं क्रिया करता है, वह शैतानियत से भरी होती है । 
दोस्तों क्रोध के कारण एक हरा-भरा गुलशन वीरान हो जाता है, एक हँसता मुस्कराता परिवार उजड़ जाता है। क्रोध सृजन नहीं, विध्वंसक करता है। करुणा में विकास है, क्रोध में विनाश है । दया में प्यार है, क्रोध में मार है । क्षमा में उद्धार है तो क्रोध में नरकद्वार है । क्षमा में प्रगति है, क्रोध में अवनति है। घृणा और क्रोध में पशुता झलकती है । एक कवि हृदय मुनिश्री की चार पंक्तिया -
क्रोध करना छोड़ दो, क्रोध दुर्गुणों की खान है । 
पतन का मार्ग है - क्रोध, फिर होता नहीं उत्थान है । 
भस्म होती है इसी में, मनुष्य की सदभावना । 
उचित और अनुचित का, फिर हो न सकता ज्ञान है ॥
दोस्तों क्रोध की अग्नि को क्षमा और सहिष्णुता के जल से बुझाएँ । क्रोध का सामना क्षमा से करेंगे, तो क्रोध चूर-चूर हो जाएगा । क्रोध को जीतने की आसान चाबी है, हमेशा धीरे व मीठा बोलें । जब भी हम पर क्रोघ का भूत सवार होने की चेष्टा करे तो उस समय मौन ले लेना चाहिए । क्रोध का गाली से प्रगाढ़ रिश्ता है, अतः उस समय अपशब्दों का प्रयोग कतई न करें । अतः क्रोध का जरा सा भी निमित्त या कारण मिले, तो शान्ति से उसका सामना कर लें, समतापूर्वक सहन कर लें, फिर जो आत्मिक शान्ति मिलेगी, वह अपूर्व होगी ।

उन्होने अध्यात्मज्ञान को सुलभ बनाया

तुकाराम का जन्म पुणे जिले के अंतर्गत देहू नामक ग्राम में शके 1520; सन्‌ 1598 में हुआ। इनकी जन्मतिथि के संबंध में विद्वानों में मतभेद है तथा सभी दृष्टियों से विचार करने पर शके 1520 में जन्म होना ही मान्य प्रतीत होता है। पूर्व के आठवें पुरुष विश्वंभर बाबा से इनके कुल में विट्ठल की उपासना बराबर चली आ रही थी। इनके कुल के सभी लोग पंढरपुर की यात्रा (वारी) के लिये नियमित रूप से जाते थे। देहू गाँव के महाजन होने के कारण वहाँ इनका कुटूंब प्रतिष्ठित माना जाता था। इनकी बाल्यावस्था माता कनकाई व पिता बहेबा की देखरेख में अत्यंत दुलार से बीती, किंतु जब ये प्राय: 18 वर्ष के थे इनके मातापिता का स्वर्गवास हो गया तथा इसी समय देश में पड़ भीषण अकाल के कारण इनकी प्रथम पत्नी व छोटे बालक की भूख के कारण तड़पते हुए मृत्यु हो गई। विपत्तियों की ज्वालाओं में झुलसे हुए तुकाराम का मन प्रपंच से ऊब गया। इनकी दूसरी पत्नी जीजा बाई बड़ी ही कर्कशा थी। ये सांसारिक सुखों से विरक्त हो गए। चित्त को शांति मिले, इस विचार से तुकाराम प्रतिदिन देहू गाँव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर जाते और भगवान्‌ विट्ठल के नामस्मरण में दिन व्यतीत करते।
प्रपचपराड्म़ुख हो तन्मयता से परमेश्वर प्राप्ति के लिये उत्कंठित तुकाराम को बाबा जी चैतन्य नामक साधु ने माघ शुद्ध 10 शके 1541 में 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया। इसके उपरांत इन्होंने 17 वर्ष संसार को समान रूप से उपदेश देने में व्यतीत किए। सच्चे वैराग्य तथा क्षमाशील अंत:करण के कारण इनकी निंदा करनेवाले निंदक भी पश्चताप करते हूए इनके भक्त बन गए। इस प्रकार भगवत धर्म का सबको उपदेश करते व परमार्थ मार्ग को आलोकित करते हुए अधर्म का खंडन करनेवाले तुकाराम ने फाल्गुन बदी (कृष्ण) द्वादशी, शके 1571 को देवविसर्जन किया।
तुकाराम के मुख से समय समय पर सहज रूप से परिस्फुटित होनेवाली 'अभंग' वाणी के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति नहीं है। अपने जीवन के उत्तरार्ध में इनके द्वारा गाए गए तथा उसी क्षण इनके शिष्यों द्वारा लिखे गए लगभग 4000 अभंग आज उपलब्ध हैं।
संत ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई 'ज्ञानेश्रवरी' तथा श्री एकनाथ द्वारा लिखित 'एकनाथी भागवत' के बारकरी संप्रदायवालों के प्रमुख धर्मग्रंथ हैं। इस वांड्मय की छाप तुकाराम के अंभंगों पर दिखलाई पड़ती हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में इन पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया। इन तीनों संत कवियों के सहित्य में एक ही आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है तथा तीनों के पारमार्थिक विचारों का अंतरंग भी एकरूप है। ज्ञानदेव की सुमधुर वाणी काव्यालंकार से मंडित है, एकनाथ की भाषा विस्तृत और रस्प्लावित है पर तुकाराम की वाणी सूत्रबद्ध, अल्पाक्षर, रमणीय तथा मर्मभेदक हैं।
तुकाराम का अभंग वाड्मय अत्यंत आत्मपर होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का संपूर्ण दर्शन होता है। कौटुंबिक आपत्तियों से त्रस्त एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी संत बन सका, इसका स्पष्ट रूप उनके अभंगों में दिखलाई पड़ता है। उनमें उनके आध्यात्मिक चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएँ दिखलाई पड़ती हैं।
प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम मन में किए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत तथा परमार्थ की ओर प्रवृत दिखलाई पड़ते हैं।
दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस चनम नैराश्य का जो सविस्तार चित्रण अंभंग वाणी में हुआ हैं उसकी हृदयवेधकता मराठी भाषा में सर्वथा अद्वितीय है।
किंकर्तव्यमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत हुआ और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम ब्रह्मानंद में विभोर हो गए। उनके आध्यात्मिक जीवनपथ की यह अंतिम एवं चिरवांछित सफलता की अवस्था थी।
इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरांत तुकाराम के मुख से जो उपदेशवाणी प्रकट हुई वह अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है। स्वभावत: स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था। इन्होने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्मसंरंक्षण के साथ साथ पाखंडखंडन का कार्य निरंतर चलाया। दाभिक संत, अनुभवशून्य पोथीपंडित, दुराचारी धर्मगुरु इत्यादि समाजकंटकों की उन्होने अत्यंत तीव्र आलोचना की है।
तुकाराम मन से भाग्यवादी थे अत: उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराशा, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होने सांसारिकों के लिये 'संसार का त्याग करो' इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए।
काव्य दृष्टि से भाग्यवादी थे अत: उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराश, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होनें सांसारिकों के लिये 'संसार का त्याग करो' इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए।
तुकाराम की अधिकांश काव्यरचना कैबल अभंग छंद में ही है, तथापि उन्होंने रूपकात्मक रचनाएँ भी की हैं। सभी रूपक काव्य की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इनकी वाणी श्रोताओं के कान पर पड़ते ही उनके हृदय को पकड़ लेने का अद्भुत सामर्थ्य रखती है। इनके काव्यों में अलंकारों का या शब्दचमत्कार का प्राचुर्य नहीं है। इनके अभंग सूत्रबद्ध होते हैं। थोड़े शब्दों में महान्‌ अर्थों को व्यक्त करने का इनका कौशल मराठी साहित्य में अद्वितीय है।
तुकाराम की आत्मनिष्ठ अभंगवाणी जनसाधारण को भी परम प्रिय लगती है। इसका प्रमुख कारण है कि सामान्य मानव के हृदय में उद्भूत होनेवाले सुख, दु:ख, आशा, निराशा, राग, लोभ आदि का प्रकटीकरण इसमें दिखलाई पड़ता है। तुकाराम के वाड्मंय ने जनका के हृदय में ध्रुव स्थान प्राप्त कर लिया है। ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि संतों ने भागवत धर्म की पत्ताका को अपने कंधों पर ही लिया था किंतु तुकाराम ने उसे अपने जीवनकाल ही में अधिक ऊँचे स्थान पर फहरा दिया। उन्होने अध्यात्मज्ञान को सुलभ बनाया तथा भक्ति का डंका बजाते हुए आवाल वृद्धो के लिये सहज सुलभ साध्य ऐसे भक्ति मार्ग को अधिक उज्वल कर दिया।

Wednesday 11 March 2015

जन्म लेने के उपरान्त भी चलने में कौन असमर्थ रहता है

अष्टावक्र अद्वैत वेदान्तके महत्वपूर्ण ग्रन्थ अष्टावक्र गीताके ऋषि हैं। अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्तका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'अष्टावक्र' का अर्थ 'आठ जगह से टेढा' होता है। कहते हैं कि अष्तावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढा था।
परिचय
उद्दालकऋषि के पुत्र का नाम श्वेतकेतुथा। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम कहोड़था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान देने के पश्चात् उद्दालक ऋषि ने उसके साथ अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हो गई। एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे तो गर्भ के भीतर से बालक ने कहा कि पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित होकर बोले कि तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा है इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो जायेगा।
हठात् एक दिन कहोड़ राजा जनकके दरबार में जा पहुँचे। वहाँ बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी हार हो गई। हार हो जाने के फलस्वरूप उन्हें जल में डुबा दिया गया। इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ। पिता के न होने के कारण वह अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्वेतकेतु को अपना भाई समझता था। एक दिन जब वह उद्दालक की गोद में बैठा था तो श्वेतकेतु ने उसे अपने पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट जा तू यहाँ से, यह तेरे पिता का गोद नहीं है। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर अपने पिता के विषय में पूछताछ की। माता ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं।
अपनी माता की बातें सुनने के पश्चात् अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक के यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें रोकते हुये कहा कि यज्ञशाला में बच्चों को जाने की आज्ञा नहीं है। इस पर अष्टावक्र बोले कि अरे द्वारपाल! केवल बाल सफेद हो जाने या अवस्था अधिक हो जाने से कोई बड़ा आदमी नहीं बन जाता। जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धि में तेज हो वही वास्तव में बड़ा होता है। इतना कहकर वे राजा जनक की सभा में जा पहुँचे और बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा।
राजा जनक ने अष्टावक्र की परीक्षा लेने के लिये पूछा कि वह पुरुष कौन है जो तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अक्षरों वाली वस्तु का ज्ञानी है? राजा जनक के प्रश्न को सुनते ही अष्टावक्र बोले कि राजन्! चौबीस पक्षों वाला, छः ऋतुओं वाला, बारह महीनों वाला तथा तीन सौ साठ दिनों वाला संवत्सर आपकी रक्षा करे। अष्टावक्र का सही उत्तर सुनकर राजा जनक ने फिर प्रश्न किया कि वह कौन है जो सुप्तावस्था में भी अपनी आँख बन्द नहीं रखता? जन्म लेने के उपरान्त भी चलने में कौन असमर्थ रहता है? कौन हृदय विहीन है? और शीघ्रता से बढ़ने वाला कौन है? अष्टावक्र ने उत्तर दिया कि हे जनक! सुप्तावस्था में मछली अपनी आँखें बन्द नहीं रखती। जन्म लेने के उपरान्त भी अंडा चल नहीं सकता। पत्थर हृदयहीन होता है और वेग से बढ़ने वाली नदी होती है।
अष्टावक्र के उत्तरों को सुकर राजा जनक प्रसन्न हो गये और उन्हें बंदी के साथ शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी। बंदी ने अष्टावक्र से कहा कि एक सूर्यसारे संसार को प्रकाशित करता है, देवराज इन्द्रएक ही वीर हैं तथा यमराजभी एक है। अष्टावक्र बोले कि इन्द्र और अग्निदेवदो देवता हैं। नारदतथा पर्वतदो देवर्षि हैं, अश्वनीकुमारभी दो ही हैं। रथ के दो पहिये होते हैं और पति-पत्नी दो सहचर होते हैं। बंदी ने कहा कि संसार तीन प्रकार से जन्म धारण करता है। कर्मों का प्रतिपादन तीन वेद करते हैं। तीनों काल में यज्ञहोता हे तथा तीन लोकऔर तीन ज्योतियाँ हैं। अष्टावक्र बोले कि आश्रमचार हैं, वर्णचार हैं, दिशायें चार हैं और ओंकार, आकार, उकार तथा मकार ये वाणी के प्रकार भी चार हैं। बंदी ने कहा कि यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं, यज्ञ की अग्नि पाँच हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं, पंच दिशाओं की अप्सरायें पाँच हैं, पवित्र नदियाँ पाँच हैं तथा पंक्ति छंद में पाँच पद होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दक्षिणा में छः गौएँ देना उत्तम है, ऋतुएँ छः होती हैं, मन सहित इन्द्रयाँ छः हैं, कृतिकाएँ छः होती हैं और साधस्क भी छः ही होते हैं। बंदी ने कहा कि पालतू पशु सात उत्तम होते हैं और वन्य पशु भी सात ही, सात उत्तम छंद हैं, सप्तर्षिसात हैं और वीणामें तार भी सात ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि आठ वसु हैं तथा यज्ञ के स्तम्भक कोण भी आठ होते हैं। बंदी ने कहा कि पितृ यज्ञ में समिधानौ छोड़ी जाती है, प्रकृति नौ प्रकार की होती है तथा वृहती छंद में अक्षर भी नौ ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दिशाएँ दस हैं, तत्वज्ञ दस होते हैं, बच्चा दस माह में होता है और दहाई में भी दस ही होता है। बंदी ने कहा कि ग्यारह रुद्रहैं, यज्ञ में ग्यारह स्तम्भ होते हैं और पशुओं की ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं। अष्टावक्र बोले कि बारह आदित्यहोते हैं बारह दिन का प्रकृति यज्ञ होता है, जगती छंद में बारह अक्षर होते हैं और वर्ष भी बारह मास का ही होता है। बंदी ने कहा कि त्रयोदशी उत्तम होती है, पृथ्वी पर तेरह द्वीप हैं।...... इतना कहते कहते बंदी श्लोक की अगली पंक्ति भूल गये और चुप हो गये। इस पर अष्टावक्र ने श्लोक को पूरा करते हुये कहा कि वेदों में तेरह अक्षर वाले छंद अति छंद कहलाते हैं और अग्नि, वायु तथा सूर्य तीनों तेरह दिन वाले यज्ञ में व्याप्त होते हैं।
इस प्रकार शास्त्रार्थ में बंदी की हार हो जाने पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन्! यह हार गया है, अतएव इसे भी जल में डुबो दिया जाये। तब बंदी बोला कि हे महाराज! मैं वरुणका पुत्र हूँ और मैंने सारे हारे हुये ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं अभी उन सबको आपके समक्ष उपस्थित करता हूँ। बंदी के इतना कहते ही बंदी से शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद जल में डुबोये गये सार ब्राह्मण जनक की सभा में आ गये जिनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।
अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किये।

Tuesday 10 March 2015

आज नहीं तो कल मिल जायेगा.

एक साधू से किसी ने पूछा कि उसका गुरु कौन है ? तो पूछने वाला बहुत हैरान हुआ जब उसने बताया कि उसका गुरु एक चोर है सबसे पहले जिससे कुछ सिखा वो चोर था.
साधू ने बताया, मैं एक गाँव में गया . आधी रात हो चुकी थी, दरवाजे सभी के बंद थे तभी एक आदमी रस्ते पर मिला, उसने कहा अब दरवाजे तो बंद है आप मेरे साथ ही आये और ठहर जाए पर मैं एक चोर हूँ हो सकता है आप साधू है मेरे यहाँ ठहरना उचित न समझे .
साधू ने बताया वह उसकी सच्चाई और इमानदारी से प्रभावित हुए क्योकि वे भी इतना सच्चा नहीं थे जितना चोर था. मैंने उसके पैर छुए और प्रणाम किया और कहा कि तुम आज से मेरे गुरु हुए आज मैंने सच्चाई सीखी .
मैं चोर के साथ उसके घर गया ,मुझे सुलाकर चोर ने कहा, क्षमा करे, अब तो मेरे धंधे का वक्त है, मैं जाता हूँ आप विश्राम करे मैं सुबह को तीन- चार बजे लौटुगा .वह चोरी करने चला गया .
सुबह करीब पांच बजे वो लौटा तो मैंने पूछा क्या सफलता मिली कुछ हाथ लगा ? तो चोर हँसता हुआ बोला आज तो नहीं पर कल फिर कोशिश करेगे . मैं एक महीने तक उस चोर के घर में रहा वह रोज सुबह जब लौटता तो मैं पूछता कुछ लाये तो वो कहता आज नहीं लेकिन कल - कल जरूर लेकर आयेगे .
साधू ने बताया , मैं भी भगवान को खोजने निकला था, खोजता था नहीं मिलता था ,थक जाता था निराश हो जाता था और सोचता था अब ये सब छोड़ दूंगा . पर इस चोर कि वजह से मैं भटकने से बच गया तब मुझे चोर की याद आती जो हमेश कहता, आज नहीं तो कल मिल जायेगा.
जब एक साधारण सा चोर अगर कल पर इतना विश्वास रखता है,आशा रखता है,साहस रखता है फिर मैं तो परमात्मा खोजने निकला हूँ .मुझे भी इतना जल्दी निराश नहीं होना चाहिए आज नहीं तो कल मिल ही जायेगा . आख़िरकार एक दिन मुझे परमात्मा की अनुभूति हुई उस चोर से मैंने यह आशा सीखी यह हिम्मत सीखी.मैं उसको प्रणाम करता हूँ .
"जिन्दगी में सिखने की बात तो सब तरफ से सीखी जा सकती है केवल वे ही लोग जो अपने मस्तिस्क के दरवाजो को बंद कर लेते है सिखने से वंचित रह जाते है".

प्रभु जानते थे कि यह मेरा निर्मल भक्त है

भक्त धन्ना जी का जन्म श्री गुरु नानक देव जी से पूर्व कोई 53 वर्ष पहले माना जाता है| आपका जन्म मुंबई के पास धुआन गाँव में एक जाट घराने में हुआ| आप के माता पिता कृषि और पशु पालन करके अपना जीवन यापन करते थे| वह बहुत निर्धन थे| जैसे ही धन्ना बड़ा हुआ उसे भी पशु चराने के काम में लगा दिया| वह प्रतिदिन पशु चराने जाया करता|
गाँव के बाहर ही कच्चे तालाब के किनारे एक ठाकुर द्वार था जिसमे बहुत सारी ठाकुरों की मूर्तियाँ रखी हुई थी| लोग प्रतिदिन वहाँ आकर माथा टेकते व भेंटा अर्पण करते| धन्ना पंडित को ठाकुरों की पूजा करते, स्नान करवाते व घंटियाँ खड़काते रोज देखता| अल्पबुद्धि का होने के कारण वह समझ न पाता| एक दिन उसके मन में आया कि देखतें हैं कि क्या है| उसने एक दिन पंडित से पूछ ही लिया कि आप मूर्तियों के आगे बैठकर आप क्या करते हो? पंडित ने कहा ठाकुर की सेवा करते हैं| जिनसे कि मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं| धन्ने ने कहा, यह ठाकुर मुझे भी दे दो| उससे छुटकारा पाने के लिए पंडित ने कपड़े में पत्थर लपेटकर दे दिया|
घर जाकर धन्ने ने पत्थर को ठाकुर समझकर स्नान कराया और भोग लगाने के लिए कहने लगा| उसने ठाकुर के आगे बहुत मिन्नते की| धन्ने ने कसम खाई कि यदि ठाकुर जी आप नहीं खायेंगे तो मैं भी भूखा ही रहूंगा| उसका यह प्रण देखकर प्रभु प्रगट हुए तथा रोटी खाई व लस्सी पी| इस प्रकार धन्ने ने अपने भोलेपन में पूजा करने और साफ मन से पत्थर में भी भगवान को पा लिया|
जब धन्ने को लगन लगी उस समय उसके माता - पिता बूढ़े हों चूके थे और छ अकेला नव युवक था| उसे ख्याल आया कि ठाकुर को पूजा से खुश करके यदि सब कुछ हासिल किया जा सकता है तो उसे अवश्य ही यह करना होगा जिससे घर की गरीबी चली जाए तथा सुख की साँस आए| ऐसा सोच कर ही वह पंडित के पास गया| पंडित ने पहले ठाकुर देने से मना के दिया कि जाट इतना बुद्धिमान नहीं होता कि वह ठाकुर की पूजा कर सके| दूसरा तुम अनपढ़ हो| तीसरा ठाकुर जी मन्दिर के बिना कही नहीं रहते और न ही प्रसन्न होते| इसलिए तुम जिद्द मत करो और खेतों की संभाल करो| ब्रहामण का धर्म है पूजा पाठ करना| जाट का कार्य है अनाज पैदा करना|
परन्तु धन्ना टस से मस न हुआ| अपनी पिटाई के डर से पंडित ने जो सालगराम मन्दिर में फालतू पड़ा था उठाकर धन्ने को दे दिया और पूजा - पाठ की विधि भी बता दी| पूरी रात धन्ने को नींद न आई| वह पूरी रात सोचता रहा कि ठाकुर को कैसे प्रसन्न करेगा और उनसे क्या माँगेगा| सुबह उठकर अपने नहाने के बाद ठाकुर को स्नान कराया| भक्ति भाव से बैठकर लस्सी रिडकी व रोटी पकाई| उसने प्रार्थना की, हे प्रभु! भोग लगाओ! मुझ गरीब के पास रोटी, लस्सी और मखन ही है और कुछ नहीं| जब और चीजे दोगे तब आपके आगे रख दूँगा| वह बैठा ठाकुर जी को देखता रहा| अब पत्थर भोजन कैसे करे? पंडित तो भोग का बहाना लगाकर सारी सामग्री घर ले जाता था| पर भले बालक को इस बात का कहाँ ज्ञान था| वह व्याकुल होकर कहने लगा कि क्या आप जाट का प्रसाद नहीं खाते? दादा तो इतनी देर नहीं लगाते थे| यदि आज आपने प्रसाद न खाया तो मैं मर जाऊंगा लेकिन आपके बगैर नहीं खाऊंगा|
प्रभु जानते थे कि यह मेरा निर्मल भक्त है| छल कपट नहीं जानता| अब तो प्रगट होना ही पड़ेगा| एक घंटा और बीतने के बाद धन्ना क्या देखता है कि श्री कृष्ण रूप भगवान जी रोटी मखन के साथ खा रहे हैं और लस्सी पी रहें हैं| भोजन खा कर प्रभु बोले धन्ने जो इच्छा है मांग लो मैं तुम पर प्रसन्न हूँ| धन्ने ने हाथ जोड़कर बिनती की --
भाव- जो तुम्हारी भक्ति करते हैं तू उनके कार्य संवार देता है| मुझे गेंहू, दाल व घी दीजिए| मैं खुश हो जाऊंगा यदि जूता, कपड़े, साथ प्रकार के आनाज, गाय या भैंस, सवारी करने के लिए घोड़ी तथा घर की देखभाल करने के लिए सुन्दर नारी मुझे दें|
धन्ने के यह वचन सुनकर प्रभु हँस पड़े और बोले यह सब वस्तुएं तुम्हें मिल जाएँगी|
प्रभु बोले - अन्य कुछ?
प्रभु! मैं जब भी आपको याद करू आप दर्शन दीजिए| यदि कोई जरुरत हुई तो बताऊंगा|
तथास्तु! भगवान ने उत्तर दिया|
हे प्रभु! धन्ना आज से आपका आजीवन सेवक हुआ| आपके इलावा किसी अन्य का नाम नहीं लूँगा| धन्ना खुशी से दीवाना हो गया| उसकी आँखे बन्द हो गई| जब आँखे खोली तो प्रभु वहाँ नहीं थे| वह पत्थर का सालगराम वहाँ पड़ा था| उसने बर्तन में बचा हुआ प्रसाद खाया जिससे उसे तीन लोको का ज्ञान हो गया|
प्रभु के दर्शनों के कुछ दिन पश्चात धन्ने के घर सारी खुशियाँ आ गई| एक अच्छे अमीर घर में उसका विवाह हो गया| उसकी बिना बोई भूमि पर भी फसल लहलहा गई| उसने जो जो प्रभु से माँगा था उसे सब मिल गया|
किसी ने धन्ने को कहा चाहे प्रभु तुम पर प्रसन्न हैं तुम्हें फिर भी गुरु धारण करना चाहिए| उसने स्वामी रामानंद जी का नाम बताया|

Monday 2 March 2015

तब फिर से जीवन की शुरुआत होती है।

प्रलय का अर्थ होता है संसार का अपने मूल कारण प्रकृति में सर्वथा लीन हो जाना। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
चार प्रलय : मूलत: प्रलय चार प्रकार की होती है- पहला किसी भी धरती पर से जीवन का समाप्त हो जाना, दूसरा धरती का नष्ट होकर भस्म बन जाना, तीसरा सूर्य सहित ग्रह-नक्षत्रों का नष्ट होकर भस्मीभूत हो जाना और चौथा भस्म का ब्रह्म में लीन हो जाना अर्थात फिर भस्म भी नहीं रहे, पुन: शून्यावस्था में हो जाना।
हिन्दू शास्त्रों में मूल रूप से प्रलय के चार प्रकार बताए गए हैं- 1.नित्य, 2.नैमित्तिक, 3.द्विपार्थ और 4.प्राकृत। एक अन्य पौराणिक गणना अनुसार यह क्रम है नित्य, नैमित्तक आत्यन्तिक और प्राकृतिक प्रलय।
1.नित्य प्रलय : वेदांत के अनुसार जीवों की नित्य होती रहने वाली मृत्यु को नित्य प्रलय कहते हैं। जो जन्म लेते हैं उनकी प्रतिदिन की मृत्यु अर्थात प्रतिपल सृष्टी में जन्म और मृत्य का चक्र चलता रहता है।
2.आत्यन्तिक प्रलय : आत्यन्तिक प्रलय योगीजनों के ज्ञान के द्वारा ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं। अर्थात मोक्ष प्राप्त कर उत्पत्ति और प्रलय चक्र से बाहर निकल जाना ही आत्यन्तिक प्रलय है।
3.नैमित्तिक प्रलय : वेदांत के अनुसार प्रत्येक कल्प के अंत में होने वाला तीनों लोकों का क्षय या पूर्ण विनाश हो जाना नैमित्तिक प्रलय कहलाता है। पुराणों अनुसार जब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है, तब विश्व का नाश हो जाता है। एक कल्प को ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है। इसी प्रलय में धरती या अन्य ग्रहों से जीवन नष्ट हो जाता है।
नैमत्तिक प्रलयकाल के दौरान कल्प के अंत में आकाश से सूर्य की आग बरसती है। इनकी भयंकर तपन से सम्पूर्ण जलराशि सूख जाती है। समस्त जगत जलकर नष्ट हो जाता है। इसके बाद संवर्तक नाम का मेघ अन्य मेघों के साथ सौ वर्षों तक बरसता है। वायु अत्यन्त तेज गति से सौ वर्ष तक चलती है। उसके बाद धीरे धीरे सब कुछ शांत होने लगता है। तब फिर से जीवन की शुरुआत होती है।
4.प्राकृत प्रलय : ब्राह्मांड के सभी भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो जाना या भस्मरूप हो जाना प्राकृत प्रलय कहलाता है। वेदांत के अनुसार प्राकृत प्रलय अर्थात प्रलय का वह उग्र रूप जिसमें तीनों लोकों सहित महतत्त्व अर्थात प्रकृति के पहले और मूल विकार तक का विनाश हो जाता है और प्रकृति भी ब्रह्म में लीन हो जाती है अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड शून्यावस्था में हो जाता है। न जल होता है, न वायु, न अग्नि होती है और न आकाश और ना अन्य कुछ। सिर्फ अंधकार रह जाता है।
पुराणों अनुसार प्राकृतिक प्रलय ब्रह्मा के सौ वर्ष बीतने पर अर्थात ब्रह्मा की आयु पूर्ण होते ही सब जल में लय हो जाता है। कुछ भी शेष नहीं रहता। जीवों को आधार देने वाली ये धरती भी उस अगाध जलराशि में डूबकर जलरूप हो जाती है। उस समय जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में और आकाश महतत्व में प्रविष्ट हो जाता है। महतत्व प्रकृति में, प्रकृति पुरुष में लीन हो जाती है।
उक्त चार प्रलयों में से नैमित्तिक एवं प्राकृतिक महाप्रलय ब्रह्माण्डों से सम्बन्धित होते हैं तथा शेष दो प्रलय देहधारियों से सम्बन्धित हैं।