Wednesday 30 April 2014

कितने दूर निकल गए

एक बार दो मित्र रेगिस्तान में जा रहे थे। रास्ते में दोनों में तू-तू, मैं–मैं हो गई। बात इतनी बढ़ गई की एक मित्र ने दूसरे को थप्पड़ जमा दिया।
जिसे थप्पड़ पड़ा वह झुका और वहां बालू पर लिख दिया ,”आज मेरे मित्र ने मुझे थप्पड़ मारा।”
दोनों मित्र चलते रहे, उन्हें पानी का तालाब दिखा, उन्होंने नहाने का निर्णय लिया।
जिस मित्र को झापड़ पड़ा था, वह दलदल में फँस गया, किंतु उसके मित्र ने उसे बचा लिया। उसने एक पत्थर पर लिखा,”आज मेरे निकटतम मित्र ने मेरी जान बचाई।”
जिसने उसे थप्पड़ मारा और जान बचाई, उसने पूछा, ”जब मैंने तुम्हें मारा तो तुमने बालू में लिखा और जब मैंने तुम्हारी जान बचाई तो तुमने पत्थर पर लिखा, ऐसा क्यों?”
मित्र ने कहा,” जब कोई हमारा दिल दुखाये, तो हमें बालू में लिखना चाहिए क्योंकि उसको भुला देना ही अच्छा है, क्षमा रुपी वायु एवं जल शीघ्र ही उसे मिटा देगा।
किंतु जब कोई अच्छा करे, उपकार करे तो हमे उस अनुभव को पत्थर पर लिखना चाहिए जिससे कि कोई भी उसे मिटा न सके, वो हमें हमेशा याद रहे।
मित्रों, जिंदगी हे तो अच्छे-बूरे अनुभव तो होते रहेगें, महत्वपूर्ण ये हे कि हम क्या याद रखते हैं, और क्या भूल जाते हैं।
कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते
लोग कहते है हम मुश्कुराते बहोत है ,
और हम थक गए दर्द छुपाते छुपाते
"खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह करता हूँ.
मालूम हे कोई मोल नहीं मेरा.....
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से रिश्ता रखता हूँ
भूख काली कुतिया है, जो भजन-सुमिरण में विघ्न डालती है। अतः उसे टुकड़ा डालो और भजन करो।
शरीर के भरण-पोषण के लिए अर्थोपार्जन चाहिए। शरीर के रक्षार्थ वह भी करो, लेकिन वही जीवन का लक्ष्य नहीं बना लो। उसे ही जीवन का सब कुछ मत समझ लो। पेट पालने के लिए मनुष्य का तन लेकर दुनिया में तुम नहीं आए। अगर पेट पालना ही कर्तव्य होता तो इतनी विकसित बुद्धि भगवान क्यों देते? मनुष्य क्यों बनाते? घोड़ा, गधा, गाय क्यों नहीं बना देते? इसका मतलब है कि तुम्हारा कर्तव्य केवल पेट भरने तक नहीं है। तुम इस अवसर को चुको नहीं। परमात्मा की पुकार को सुनो। 
परमात्मा ने तुम्हारे हृदयद्वार में जो दस्तक दी है, इस आवाज पर विश्वास करो और जानो कि परमात्मा आपसे प्यार करते हैं और आपको अपनाना चाहते हैं। वे आपलोगों से आग्रह करते हैं कि आप भी परमात्मा को अपना लो। आप परमात्मा को अपना लोगे तो सफल, शांत और लक्ष्य को प्राप्त करके मस्त-मग्न हो जाओगे
बाहर बारिश हो रही थी और अन्दर क्लास चल रही थी , तभी टीचर ने बच्चों से पूछा कि अगर तुम सभी को 100-100 रुपये दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे ?

किसी ने कहा कि मैं वीडियो गेम खरीदुंगा,

किसी ने कहा मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा ,

किसी ने कहा कि मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी,
तो किसी ने कहा मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी |

एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था, टीचर ने उससे पुछा कि तुम क्या सोच रहे हो ? तुम क्या खरीदोगे ?

बच्चा बोला कि टीचर जी, मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा ‌।

टीचर ने पूछाः तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है, तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना ?

बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया |
बच्चे ने कहा कि मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है | मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ, बड़ा आदमी बन सकूँ और माँ को सारे सुख दे 
           आत्मबोध 
कसाई की दुकान में बंधा हुआ बकरा घास चरता है, मुग्ध होकर... उसके सामने कोई सब्जी आदि का छिलका फेंक दो तो वह खाने को टूट पड़ता है। कसाई के हाथ में पड़ा हुआ बकरा अपनी मौत को नहीं देखता। वह बुद्धू नहीं सोच पाता भागने की बात और खाने में मुग्ध रहता है, लेकिन न मालूम कसाई कब आए और कान पकड़कर उसे जबहखाने में ले जाए-वैसे ही हमलोग हैं। न मालूम कब काल हमलोगों के कान पकड़कर ले जाएगा पता नहीं, पर अज्ञानी लोग संसार को राजसुख जैसा समझकर मुग्ध हो जाते है। 
सर अवसर जाने नहीं, पेट भरन सो काम।
मनुष्य का शरीर मिला, सत्संग मिला, सद्गुरु मिले, इतना सुंदर अवसर है, इसको तो वह जानता नहीं है, बस पेट भरने की ही इन्हें चिंता लगी रहती है।
बहनों को भोजन बनाने की चिंता और भाइयों को भोजन जुटाने की चिंता। बस भोजन और भोजन। पेट-पेट। पेट परमात्मा ने नहीं दिया जैसे शाप ही दे दिया। पशु-पक्षी लोग जैसे पेट भरने के पीछे बेहाल हैं, वैसे ही मनुष्य भी पेट के पीछे बेहाल है।
कबीर साहब कहते है, भक्त पेट के पीछे बेहाल नहीं रहता।
क्षूधा काली कूकरी , करे भजन में भंग ।
वाको टुकड़ा डाल के , भजन कर निसंग।।
अर्थात् भूख काली कुतिया है, जो भजन-सुमिरण में विघ्न डालती है। अतः उसे टुकड़ा डालो और भजन करो।
शरीर के भरण-पोषण के लिए अर्थोपार्जन चाहिए। शरीर के रक्षार्थ वह भी करो, लेकिन वही जीवन का लक्ष्य नहीं बना लो। उसे ही जीवन का सब कुछ मत समझ लो। पेट पालने के लिए मनुष्य का तन लेकर दुनिया में तुम नहीं आए। अगर पेट पालना ही कर्तव्य होता तो इतनी विकसित बुद्धि भगवान क्यों देते? मनुष्य क्यों बनाते? घोड़ा, गधा, गाय क्यों नहीं बना देते? इसका मतलब है कि तुम्हारा कर्तव्य केवल पेट भरने तक नहीं है। तुम इस अवसर को चुको नहीं। परमात्मा की पुकार को सुनो। 
परमात्मा ने तुम्हारे हृदयद्वार में जो दस्तक दी है, इस आवाज पर विश्वास करो और जानो कि परमात्मा आपसे प्यार करते हैं और आपको अपनाना चाहते हैं। वे आपलोगों से आग्रह करते हैं कि आप भी परमात्मा को अपना लो। आप परमात्मा को अपना लोगे तो सफल, शांत और लक्ष्य को प्राप्त करके मस्त-मग्न हो जाओगे.

जो किसी ने किनारा दिखाया

जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को 
मिल जाये तरुवर की छाया 
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला हैं 
मैं जब से शरण तेरी आया, मेरे राम
भटका हुआ मेरा मन था कोई, मिल ना रहा था सहारा
लहरों से लड़ती हुई नाव को जैसे मिल ना रहा हो किनारा
उस लड़खड़ाती हुई नाव को जो किसी ने किनारा दिखाया
शीतल बने आग चंदन के जैसी, राघव कृपा हो जो तेरी
उजियाली पूनम की हो जाए रातें, जो थी अमावस अंधेरी
युग युग से प्यासी मरूभूमी ने जैसे सावन का संदेस पाया
जिस राह की मंज़िल तेरा मिलन हो, उस पर कदम मैं बढ़ाऊ
फूलों में खारों में, पतझड़ बहारों में, मैं ना कभी डगमगाऊ
पानी के प्यासे को तकदीर ने जैसे जी भर के अमृत पिलाया

आपके बिना मेरा कौन है

प्रार्थना
हे नाथ! आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे
प्यारे लगें। केवल यही मेरी माँग है और कोई
माँग नहीं।
हे नाथ! अगर मैं स्वर्ग चाहूँ तो मुझे नरक में
डाल दें, सुख चाहूँ तो अनन्त दुःखों में डाल दें,
पर आप मुझे प्यारे लगें।
हे नाथ! आपके बिना मैं रह न सकूँ,
ऐसी व्याकुलता आप दे दें।
हे नाथ! आप मेरे हृदय में ऐसी आग लगा दें
कि आपकी प्रीति के बिना मैं जी न सकूँ।
हे नाथ! आपके बिना मेरा कौन है? मैं किससे
कहूँ और कौन सुने? हे मेरे शरण्य! मैं
कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? कोई मेरा नहीं।
मैं भूला हुआ कइयोंको अपना मानता रहा।
उनसे धोखा खाया, फिर
भी धोखा खा सकता हूँ, आप बचायें!
हे मेरे प्यारे! हे अनाथनाथ! हे अशरणशरण!
हे पतितपावन! हे दीनबन्धो! हे
अरक्षितरक्षक! हे आर्तत्राणपरायण! हे
निराधार के आधार! हे अकारणकरुणावरुणा
लय! हे साधनहीन के एकमात्र साधन! हे
असहायक के सहायक! क्या आप मेरे को जानते
नहीं, मैं कितना भग्नप्रतिज्ञ, कैसा कृतघ्न,
कैसा अपराधी, कैसा विपरीतगामी,
कैसा अकरण-करणपरायण हूँ। अनन्त दुःखों के
कारण स्वरूप भोगों को भोगकर-जानकर
भी आसक्त रहनेवाला, अहितको हितकर
माननेवाला, बार-बार ठोकरें खाकर
भी नहीं चेतनेवाला, आपसे विमुख होकर
बार-बार दुःख पानेवाला, चेतकर भी न
चेतनेवाला, जानकर भी न जाननेवाला मेरे
सिवाय आपको ऐसा कौन मिलेगा?
प्रभो! त्राहि माम्! त्राहि माम्!
पाहि माम्! पाहि माम्!! हेप्रभो! हे
विभो! मैं आँख पसार कर देखता हूँ तो मन-
बुद्धि-प्राण -इन्द्रियाँ और शरीर भी मेरे
नहीं हैं, फिर वस्तु-व्यक्ति आदि मेरे कैसे
हो सकते हैं! ऐसा मैं जानता हूँ, कहता हूँ, पर
वास्तविकता से नहीं मानता। मेरी यह
दशा क्या आपसे किञ्चिन्मात्र
भी कभी छिपी है? फिर हे प्यारे! क्या कहूँ!
हे नाथ! हे नाथ!! हे मेरे नाथ!!! हे
दीनबन्धो! हे प्रभो! आप अपनी तरफ से
सरण में ले लें। बस, केवल आप प्यारे लगें। हे
प्रभो! आप अपनी तरफ से सरण में ले लें।

वे ही सदाशिव बन कर संहार करते हैं|

इस संपूर्ण जड एवं चेतन संसार के कण कण में ईश्‍वर व्याप्त हैं | हिन्दू धर्म ने इस मूल तत्व को आदि काल में ही जान लिया था | वेद एवं पूराण ३३ करोड देवी देवतों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जो कि मानव, पशू, नरपशु, ग्रह, नक्षत्र, वनस्पति तथा जलाशय इत्यादि हर रूप में व्याप्त हैं...

पर इनके शिखर पर हैं त्रिदेव … ब्रह्मा, विष्णु एवं सदाशिव... इनमे शापित होने के कारण ब्रह्मा की पुजा नहीं होती तथा जगत में विष्णु तथा सदाशिव ही पूजे जाते हैं...

विष्णु के भक्त वैष्णव कहलाते हैं तथा शिव भक्त शैव्य | पर वास्तव में अन्य कुछ धर्म एंव समुदाय के विपरीत वैष्णव तथा शैव्य हिन्दू धर्म में संघर्ष का कारण नहीं होते| वस्तुतः शैव्य विष्णू को भी पुजते हैं तथा वैष्णव शिव को भी पूजते हैं| तो वैष्णव तथा शैव्य सिर्फ अपने प्रमूख ईष्ट की मान्यता में एक दूसरे से अलग हैं| वैष्णव भगवान विष्णु को सव देवों में श्रेष्ठ मानता है तथा उन्हे त्रिदेवों से उपर परमेश्वर मानता है, तो शैव्य देवाधिदेव सर्वेश्वर शिव को परमेश्वर जानता है| यह आदि काल से चली आ रही परंपरा है|

* स्वंय वेद एवं पूराण अनेक उदाहरण प्रस्तूत करते हैं जिसमे शिव तथा विष्णु एक दूसरे को अपना ही स्वरूप तथा परस्पर आदर्श बतलाते हैं|

पर विघटन प्रकृति का नियम है| वेदोत्तर काल में इस मान्यता में भी अंतर आया| और शैव्य एंव वैष्णव परंपरा का एक कट्‍टर स्वरूप सामने आया … “वीर शैव्य” तथा “वीर वैष्णव”| वीर वैष्णव का अधिक समय शिव तथा शैव्यों के द्वेष में ही बीतता है| वे शैव्यों के साथ संपर्क नहीं बढाते, वे शिव को नहीं पूजते, यहां तक की वे कभी कभी तो वे शैव्यों से जल भी ग्रहण नहीं करते| ठीक उसी प्रकार वीर शैव्य विष्णु तथा वैष्णवों से द्वेष को अपना परम कर्तव्य जानते हैं| वास्तव में ये शैव्य तथा वैष्णव न होकर “वीर” मात्र रह जाते हैं तथा एक दूसरे के विरोधी होने के बाद भी एक ही परंपरा का अनुसरण करते हैं| ये ज्ञान शुन्य होते हैं तथा अपने ही इष्ट के मूल रूप को नहीं जान पाते हैं| संपूर्ण जीवन साधना के बाद भी इन्हे दिव्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता तथा इनकी द्वेष भावना बहुदा इनके ही नाश का कारण सिद्ध होती है| वास्तव में ये अपने इष्ट को प्रसन्न करने की अपेक्षा उन्हे भी अप्रसन्न कर देते हैं|

* प्रजापती दक्ष का शिव विरोधी होने के कारण सर्वनाश हूआ, यद्यपि वे विष्णू भगवान की शरण में था |

* ठीक उसी प्रकार परम शिव भक्त होने के बाद भी ॠषि कागभूषंडी को अपने ही इष्ट का क्रोधभाजन बनना पडा तथा उनकी सिद्धियां नष्ट हूईं | कारण उन्होंने भगवान विष्णू के अवतार श्री राम का अनादर किया तथा तथा अपने तत्वज्ञानी गूरू लोमेश को वैष्णव जान उनकी अवहेलना की| वास्तव में लोमेश जैसे ज्ञानी ही परंज्ञान के अधिकारी होते हैं|

यथार्थ में ईश्‍वर एक हैं... वही परम कल्यानकारी तथा सर्वसमुद्भवकारण हैं... शिव का अर्थ होता है कल्यान... अतः जो कल्यानकारी है वही शिव हैं, वही परमात्मा हैं... परमात्मा का कोई स्वरूप नहीं होता | वे शुन्य सामान हैं | रूद्र का अर्थ होता है शुन्य, स्वरूप का ना होना... अतः रूद्र ही परमेश्वर हैं... निराकार परमेश्वर समय, काल तथा कारण के अनुसार अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं...

* शिवपूराण के अनुसार शिव जी ने ही सृष्टी के संपादन के लिए स्वंय से शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति के एका से का विष्णू स्वरूप धारण हूआ | विष्णू से ब्रह्मा की उत्पत्ती हूई| ब्रह्मा ने सृजन, विष्णु ने सुपालन का कार्यभार ग्रहण किया| फिर सृष्टी के पूनरसृजन के हेतू विलय की आवश्यकता होने पर शिव ने ही महादेव रूप धारण कर विलय का कार्य अपने हाथों में लिया|

* विष्णुपूराण के अनुसार परमेश्‍वर ही ब्रह्मा बन कर सृष्टी की रचना करते हैं, वे ही विष्णू बन कर सृष्टी का सुपालन करते हैं, तथा आयू के शेष हो जाने पर वे ही सदाशिव बन कर संहार करते हैं|

वास्तव में वे एक ही हैं तथा ये विभिन्न नाम किसी व्यक्ति सामान देवों के नही वरण उन पदों तथा उपाद्धीयों के हैं जिन्हे धारण करण ईश्‍वर अपना कार्य कर रहे होते हैं| यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हम एक हैं पर कोई हमें पूत्र जानता है तो कोई पिता, कोई शिष्य जानता है तो कोई गूरु, तथा हम ही किसी के लिए मित्र होते हैं, किसी के लिए शत्रू | और अनेकों के लिए तो हम कूछ होते भी नहीं| पर इन सब के मध्य हम एक ही होते हैं|

तो फिर विवाद कैसा? कौन ब्रह्मा, विष्णु, महेश? कौन शिव, कौन शक्ति? जब वे एक ही हैं तो क्या अंतर पडता है यदि कोई उन्हे विष्णु के नाम से जाने तो कोई शिव के नाम से जाने तथा कोई शक्ति के नाम से?

ईश्वर एक हैं... वे तीन त्रिदेवों अथवा ३३ करोड देवताओं में ही नहीं, अपितू संपूर्ण सृष्टी के कण कण में व्याप्‍त हैं... वे हमारे नश्‍‍वर शरीर के अन्दर की आत्मा हैं... वे हमारे सदविचार हैं...

ब्रह्मा कर्ता हैं, विष्णू कार्य तथा कार्यफल हैं, शिव कारण हैं | त्रिदेव एक वृक्ष के सामन हैं| ब्रह्म उस वृक्ष के तना हैं, विष्णु उस वृक्ष के विस्तार है, डालिया, पत्ते, पूष्प तथा फल सामान हैं| सदाशिव उस वृक्ष के जड हैं|

शिव जी की आरती इसी तत्व को संबोधित है| वास्तव में ये त्रिगूण शिव जी की आरती है जिसमे स्पष्ट शब्दों में उलेखित है …


ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका |
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ||

प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम्

श्री शिव अष्टकम
प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम् ।
भवद्भव्य भूतॆश्वरं भूतनाथं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 1 ॥
गलॆ रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकाल कालं गणॆशादि पालम् ।
जटाजूट गङ्गॊत्तरङ्गै र्विशालं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 2॥
मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महा मण्डलं भस्म भूषाधरं तम् ।
अनादिं ह्यपारं महा मॊहमारं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 3 ॥
वटाधॊ निवासं महाट्टाट्टहासं महापाप नाशं सदा सुप्रकाशम् ।
गिरीशं गणॆशं सुरॆशं महॆशं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 4 ॥
गिरीन्द्रात्मजा सङ्गृहीतार्धदॆहं गिरौ संस्थितं सर्वदापन्न गॆहम् ।
परब्रह्म ब्रह्मादिभिर्-वन्द्यमानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 5 ॥
कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भॊज नम्राय कामं ददानम् ।
बलीवर्धमानं सुराणां प्रधानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 6 ॥
शरच्चन्द्र गात्रं गणानन्दपात्रं त्रिनॆत्रं पवित्रं धनॆशस्य मित्रम् ।
अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 7 ॥
हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वॆदसारं सदा निर्विकारं।
श्मशानॆ वसन्तं मनॊजं दहन्तं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडॆ ॥ 8 ॥
स्वयं यः प्रभातॆ नरश्शूल पाणॆ पठॆत् स्तॊत्ररत्नं त्विहप्राप्यरत्नम् ।
सुपुत्रं सुधान्यं सुमित्रं कलत्रं विचित्रैस्समाराध्य मॊक्षं प्रयाति ॥

श्री दुर्गा चालीसा

श्री दुर्गा चालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी । नमो नमो अम्बे दुख हरनी ॥
निराकार है ज्योति तुम्हारी । तिहुँ लोक फैली उजियारी ॥
शशि ललाट मुख महा विशाला । नेत्र लाल भृकुटी विकराला ॥
रुप मातु को अधिक सुहावे । दरश करत जन अति सुख पावे ॥
तुम संसार शक्ति लय कीना । पालन हेतु अन्न धन दीना ॥

अन्नपूरना हुई जग पाला । तुम ही आदि सुन्दरी बाला ॥
प्रलय काल सब नाशन हारी । तुम गौरी शिव शंकर प्यारी ॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावैं । ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावैं ॥
रुप सरस्वती को तुम धारा । दे सुबुद्धि ॠषि मुनिन उबारा ॥
धरा रुप नरसिंह को अम्बा । परगत भई फाड़ कर खम्बा ॥
रक्षा करि प्रहलाद बचायो । हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो ॥

लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं । श्री नारायण अंग समाहीं ॥
क्षीरसिंधु में करत विलासा । दयासिंधु दीजै मन आसा ॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी । महिमा अमित न जात बखानी ॥
मातंगी धूमावती माता । भुवनेश्वरि बगला सुख दाता ॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी । क्षिन्न लाल भवदुख निवारिणी ॥
केहरि वाहन सोहे भवानी ।लांगुर वीर चलत अगवानी ।।

कर में खप्पर खड़ग विराजै । जाको देख काल डर भाजै ॥
सोहे अस्त्र और त्रिसूला । जाते उठत शत्रु हिय शूला ॥
नगरकोट में तुम्हीं विराजत । तिहुँ लोक में डंका बाजत ॥
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे । रक्तबीज शंखन संहारे ॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी । जेहि अघ भार मही अकुलानी ॥
रुप कराल काली को धारा । सेन सहित तुम तिहि संहारा ॥

परी गाढ़ सन्तन पर जब जब । भई सहाय मातु तुम तब तब ॥
अमर पुरी औरों सब लोका । तब महिमा सब रहे अशोका ॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी । तुम्हें सदा पूजैं नर नारी ॥
प्रेम भक्ति से जो जस गावै । दुःख दारिद्र निकट नहीं आवै ॥
ध्यावें तुम्हें जो नर मन लाई । जन्म मरण ताको छुट जाई ॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी । योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी ॥
शंकर आचारज तप कीनों । काम क्रोध जीति सब लीनों ॥
निशि दिन ध्यान धरो शंकर को । काहु काल नहिं सुमिरो तुमको ॥
शक्ति रुप को मरम न पायो । शक्ति गई तब मन पछतायो ॥
शरणागत हुई कीर्ति बखानी । जै जै जै जगदम्ब भवानी ॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा । दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा ॥
मोको मात कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो ॥
आशा तृष्णा निपट सतावै । रिपु मूरख मोहि अति डर पावै ॥
शत्रु नाश कीजै महारानी । सुमिरौ इकचित तुम्हें भवानी ॥
करो कृपा हे मातु दयाला । ॠद्धि सिद्धि दे करहु निहाला ॥
जब लगि जियौं दया फल पाऊँ । तुम्हरो जस मैं सदा सुनाऊँ ॥
दुर्गा चालीसा जो कोई गावै । सब सुख भोग परम पद पावै ॥
देवीदास शरण निज जानी । करहु कृपार जगदम्बा भवानी ॥ 

श्री माँ वैभव लक्ष्मी माता व्रत कथा

श्री माँ वैभव लक्ष्मी माता व्रत कथा - हिंदी
एक समय की बात है कि एक शहर में एक शीला नाम की स्त्री अपने पति के साथ रहती थी. शीला स्वभाव से धार्मिक प्रवृ्ति की थी. और भगवान की कृ्पा से उसे जो भी प्राप्त हुआ था, वह उसी में संतोष करती थी. शहरी जीवन वह जरूर व्यतीत कर रही थी, परन्तु शहर के जीवन का रंग उसपर नहीं चढा था. भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव और परोपकार का भाव उसमें अभी भी था. 

वह अपने पति और अपनी ग्रहस्थी में प्रसन्न थी. आस-पडौस के लोग भी उसकी सराहना किया करते थें. देखते ही देखते समय बदला और उसका पति कुसंगति का शिकार हो गया. वह शीघ्र अमीर होने का ख्वाब देखने लगा. अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लालच में वह गलत मार्ग पर चल पडा, जीवन में रास्ते से भटकने के कारण उसकी स्थिति भिखारी जैसी हो गई. बुरे मित्रों के साथ रहने के कारण उसमें शराब, जुआ, रेस और नशीले पदार्थों का सेवन करने की आदत उसे पड गई. इन गंदी आदतों में उसने अपना सब धन गंवा दिया. 

अपने घर और अपने पति की यह स्थिति देख कर शीला बहुत दु:खी रहने लगी. परन्तु वह भगवान पर आस्था रखने वाली स्त्री थी. उसे अपने देव पर पूरा विश्वास था. एक दिन दोपहर के समय उसके घर के दरवाजे पर किसी ने आवाज दी. दरवाजा खोलने पर सामने पडौस की माता जी खडी थी. माता के चेहरे पर एक विशेष तेज था. वह करूणा और स्नेह कि देवी नजर आ रही थ. शीला उस मांजी को घर के अन्दर ले आई. घर में बैठने के लिये कुछ खास व्यवस्था नहीं थी. शीला ने एक फटी हुई चादर पर उसे बिठाया. माँजी बोलीं- क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी वहाँ आती हूँ.' इसके बावजूद शीला कुछ समझ नहीं पा रही थी, फिर माँजी बोलीं- 'तुम बहुत दिनों से मंदिर नहीं आईं अतः मैं तुम्हें देखने चली आई.'

माँ जी के अति प्रेम भरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया. माँ जी के व्यवहार से शीला को काफी संबल मिला और सुख की आस में उसने माँ जी को अपनी सारी कहानी कह सुनाई। कहानी सुनकर माँ जी ने कहा - माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं. वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं. इसलिए तू धैर्य रखकर माँ लक्ष्मीजी का व्रत कर. इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा.' शीला के पूछने पर माँ जी ने उसे व्रत की सारी विधि भी बताई. माँ जी ने कहा- 'बेटी! माँ लक्ष्मी जी का व्रत बहुत सरल है. उसे 'वरदलक्ष्मी व्रत' या 'वैभवलक्ष्मी व्रत' कहा जाता है. यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है. वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है.'

शीला यह सुनकर आनंदित हो गई. शीला ने संकल्प करके आँखें खोली तो सामने कोई न था. वह विस्मित हो गई कि माँजी कहाँ गईं? शीला को तत्काल यह समझते देर न लगी कि माँजी और कोई नहीं साक्षात्‌ लक्ष्मीजी ही थीं.

दूसरे दिन शुक्रवार था. सबेरे स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला ने माँजी द्वारा बताई विधि से पूरे मन से व्रत किया. आखिरी में प्रसाद वितरण हुआ. यह प्रसाद पहले पति को खिलाया. प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया. उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं. उनके मन में 'वैभवलक्ष्मी व्रत' के लिए श्रद्धा बढ़ गई.

शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक 'वैभवलक्ष्मी व्रत' किया. इक्कीसवें शुक्रवार को माँजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की सात पुस्तकें उपहार में दीं. फिर माताजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- 'हे माँ धनलक्ष्मी! मैंने आपका 'वैभवलक्ष्मी व्रत' करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण किया है. हे माँ! मेरी हर विपत्ति दूर करो. हमारा सबका कल्याण करो. जिसे संतान न हो, उसे संतान देना. सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना. कुँआरी लड़की को मनभावन पति देना. जो आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना. सभी को सुखी करना. हे माँ! आपकी महिमा अपार है.' ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को प्रणाम किया.

व्रत के प्रभाव से शीला का पति अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा. उसने तुरंत शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए. घर में धन की बाढ़ सी आ गई. घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई. 'वैभवलक्ष्मी व्रत' का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियाँ भी विधिपूर्वक 'वैभवलक्ष्मी व्रत' करने लगीं —

सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे

मंगल की सेवा सुन मेरी देवा, हाथ जोड तेरे द्वार खडे।
पान सुपारी ध्वजा नारियल ले ज्वाला तेरी भेट करे.
सुन जगदम्बा न कर विलम्बा, संतन के भडांर भरे।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे ।।

बुद्धि विधाता तू जग माता, मेरा कारज सिद्व करे।
चरण कमल का लिया आसरा शरण तुम्हारी आन पडे
जब जब भीड पडी भक्तन पर, तब तब आप सहाय करे ।। 
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे

गुरु के वार सकल जग मोहयो, तरूणी रूप अनूप धरे.
माता होकर पुत्र खिलावे, कही भार्या भोग करे
शुक्र सुखदाई सदा सहाई संत खडे जयकार करे ।। 
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे

ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिये भेट तेरे द्वार खडे.
खड्ग खप्पर त्रिशुल हाथ लिये, रक्त बीज को भस्म करे
शुम्भ निशुम्भ को क्षण मे मारे ,महिषासुर को पकड दले ।।
आदित वारी आदि भवानी, जन अपने का कष्ट हरे ।। 
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे

कुपित होकर दानव मारे, चण्डमुण्ड सब चूर करे
जब तुम देखो दया रूप हो, पल मे सकंट दूर करे
सौम्य स्वभाव धरयो मेरी माता, जन की अर्ज कबूल करे ।।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे

सात बार की महिमा बरनी, सब गुण कौन बखान करे
सिंह पीठ पर चढी भवानी, अटल भवन मे राज्य करे
दर्शन पावे मंगल गावे, सिद्ध साधन तेरी भेट धरे ।। 
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे

ब्रह्मा वेद पढे तेरे द्वारे, शिव शंकर हरी ध्यान धरे
इन्द्र कृष्ण तेरी करे आरती, चॅवर कुबेर डुलाया करे
जय जननी जय मातु भवानी, अटल भवन मे राज्य करे।।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, मैया जै काली कल्याण करे।।

दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय

दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्रम

विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय ।
कर्पूरकांतिधवलाय जटाधराय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ १ ॥

गौरिप्रियाय रजनीशकलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय ।
गङ्गाधराय गजराजविमर्दनाय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ २ ॥

भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय ।
ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ ३ ॥

चर्माम्बराय शवभस्मविलेपनाय भालेशणाय मणिकुण्डलमण्डिताय ।
मञ्जीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ ४ ॥

पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय ।
आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ ५ ॥

भानुप्रियाय भवसागरतारणाय कालान्तकाय कमलासनपूजिताय ।
नेत्रत्रयाय शुभलशणलशिताय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ ६ ॥

रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय ।
पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ ७ ॥

मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय ।
मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय दारिद्र्यदुह्ख दहनाय नमः शिवाय ॥ ८ ॥

वसिष्टेन कृतं स्तोत्रम सर्वरोगनिवारणम.ह ।
सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्राभिवर्धनम.ह ॥
त्रिसन्ध्यं यः पटेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात.ह ।

। इति वसिष्टविरचितं दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रं संपूर्णम.

श्री रामचन्द्र जी की भक्ति में लीन रहने लगे।

क्या आप जानते हैं कि हम फागुन में पड़ने वाली शिवरात्रि क्यों मनाते हैं। अगर नहीं तो आइये हम आपको बतातें हैं कि शिवरात्रि हम क्यों मनाते हैं। दरअसल इस दिन देवों के देव महादेव शिव शंकर का विवाह मां पार्वती के साथ हुआ था। जी हां इस पावन अवसर पर मां पार्वती और भगवान शंकर एक दूसरे के साथ विवाह बंधन में बंधे थे। इतना ही नहीं मां पार्वती ने भगवान शंकर जी से विवाह करने के लिए तीन जन्म लिए थे। मुक्तिधाम के पाठकों हम आपको बता रहे हैं कि कैसे हुआ भगवान शिव और पार्वती का विवाह।

पार्वती पूर्वजन्म में दक्ष प्रजापति की पुत्री सती थीं तथा उस जन्म में वे भगवान शकर की ही पत्नी थीं। सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में, अपने पति का अपमान न सह पाने के कारण, स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया था। मृत्यु के समय सती ने भगवान हरि से यह वर मांगा कि प्रत्येक जन्म में मेरा शिव जी के चरणों में अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। पार्वती हिमानय की पुत्री तथा भगवान शंकर की पत्नी हैं। पर्वती की माता का नाम मेनका था। उमा, गौरी, अंबिका भवानी आदि भी पार्वती के ही नाम हैं। पार्वती के जन्म का समाचार सुनकर देवर्षि नारद हिमालय के घर आए थे। हिमालय के पूछने पर देवर्षि नारद ने पार्वती के विषय में यह बताया कि तुम्हारी कन्या सभी सुलक्षणों से संपन्न हैं तथा इसका विवाह भगवान शंकर से ही होगा। किंतु महादेव जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तुम्हारी पुत्री को घोर तपस्या करनी होगी। देवर्षि नारद के वचनों से प्रभावित पार्वती को भगवान शंकर से अनुराग हो गया। वे शिव जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये वन में तपस्या करने चली गईं। अनेक वर्षों तक कठोर उपवास करके घोर तपस्या करने के पश्चात् पार्वती को आकाश से ब्रह्मवाणी सुनाई पड़ी कि हे पर्वतराज की कुमारी! तेरा मनोरथ सफल होगा। तू अब इस तपस्या को त्याग दे। अब तुझे पति के रूप में शिव जी अवश्य प्राप्त होंगे।

इधर जब से सती ने शरीर त्याग किया था तब से शिव जी के मन में वैराग्य हो गया था। वे भगवान श्री रामचन्द्र जी की भक्ति में लीन रहने लगे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्री राम उनके सामने प्रकट हुये। उन्होंने शिव जी को समझाया कि वे पार्वती से विवाह कर लें। भगवान शंकर ने पार्वती के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेने के लिये सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा। उन्होंने पार्वती के पास जाकर उसे यह समझाने के अनेक प्रयत्न किये कि शिव जी औघड़, अमंगल वेषधारी और जटाधारी हैं और वे तुम्हारे लिये उपयुक्त वर नहीं हैं। उनके साथ विवाह करके तुम्हें सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका ध्यान छोड़ दो। किन्तु पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रहीं। उनकी दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्हें सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद देकर शिव जी के पास वापस आ गये। सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तान्त सुन कर भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुये। सप्तऋषियों ने शिव जी और पार्वती के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया। 

शिव के साथ विवाह

निश्चित दिन शिव जी बारात ले कर हिमालय के घर आये। वे बैल पर सवार थे। उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में डमरू था। उनकी बारात में समस्त देवताओं के साथ उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी थे। सारे बाराती नाच गा रहे थे। बड़ी विचित्र बारात थी उनकी। इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का विवाह हो गया और पार्वती को साथ ले कर शिव जी अपने धाम कैलाश पर्वत पर सुख पूर्वक रहने लगे।

जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणा-कर करतार हरे

जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणा-कर करतार हरे,
जय कैलाशी, जय अविनाशी, सुखराशि, सुख-सार हरे
जय शशि-शेखर, जय डमरू-धर जय-जय प्रेमागार हरे,
जय त्रिपुरारी, जय मदहारी, अमित अनन्त अपार हरे,
निर्गुण जय जय, सगुण अनामय, निराकार साकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय रामेश्वर, जय नागेश्वर वैद्यनाथ, केदार हरे,
मल्लिकार्जुन, सोमनाथ, जय, महाकाल ओंकार हरे,
त्र्यम्बकेश्वर, जय घुश्मेश्वर भीमेश्वर जगतार हरे,
काशी-पति, श्री विश्वनाथ जय मंगलमय अघहार हरे,
नील-कण्ठ जय, भूतनाथ जय, मृत्युंजय अविकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय महेश जय जय भवेश, जय आदिदेव महादेव विभो,
किस मुख से हे गुरातीत प्रभु! तव अपार गुण वर्णन हो,
जय भवकार, तारक, हारक पातक-दारक शिव शम्भो,
दीन दुःख हर सर्व सुखाकर, प्रेम सुधाधर दया करो,
पार लगा दो भव सागर से, बनकर कर्णाधार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय मन भावन, जय अति पावन, शोक नशावन,
विपद विदारन, अधम उबारन, सत्य सनातन शिव शम्भो,
सहज वचन हर जलज नयनवर धवल-वरन-तन शिव शम्भो,
मदन-कदन-कर पाप हरन-हर, चरन-मनन, धन शिव शम्भो,
विवसन, विश्वरूप, प्रलयंकर, जग के मूलाधार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
भोलानाथ कृपालु दयामय, औढरदानी शिव योगी, सरल हृदय,
अतिकरुणा सागर, अकथ-कहानी शिव योगी, निमिष में देते हैं,
नवनिधि मन मानी शिव योगी, भक्तों पर सर्वस्व लुटाकर, बने मसानी
शिव योगी, स्वयम्‌ अकिंचन,जनमनरंजन पर शिव परम उदार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
आशुतोष! इस मोह-मयी निद्रा से मुझे जगा देना,
विषम-वेदना, से विषयों की मायाधीश छड़ा देना,
रूप सुधा की एक बूँद से जीवन मुक्त बना देना,
दिव्य-ज्ञान- भंडार-युगल-चरणों को लगन लगा देना,
एक बार इस मन मंदिर में कीजे पद-संचार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
दानी हो, दो भिक्षा में अपनी अनपायनि भक्ति प्रभो,
शक्तिमान हो, दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो,
त्यागी हो, दो इस असार-संसार से पूर्ण विरक्ति प्रभो,
परमपिता हो, दो तुम अपने चरणों में अनुरक्ति प्रभो,
स्वामी हो निज सेवक की सुन लेना करुणा पुकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
तुम बिन ‘बेकल’ हूँ प्राणेश्वर, आ जाओ भगवन्त हरे,
चरण शरण की बाँह गहो, हे उमारमण प्रियकन्त हरे,
विरह व्यथित हूँ दीन दुःखी हूँ दीन दयालु अनन्त हरे,
आओ तुम मेरे हो जाओ, आ जाओ श्रीमंत हरे,
मेरी इस दयनीय दशा पर कुछ तो करो विचार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
॥ इति श्री शिवाष्टक स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

नमो नारायणी नमो हे देवि कात्त्यायनी

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिका कपालिनी /
नमामि देवि अक्षरा कराली मुंडमालिनी //

भद्रकाली , भैरवी , त्रिनेत्री , रौद्ररूपिणी 
महाबला , महेश्वरी , कराली खंगधारणी
अनंता , घोररूपा हे चामुण्डा , चंडघंटा 
दशशीश हाथ बीस माँ अनेकअस्त्रधारणी 
क्रोध अग्नि ज्वाल नैनों में धगदधगदज्वले 
विमुक्तकेशी की लटें लगें कराल व्यलिनी 
ॐ ह्रीं श्रीं ---------------------- //१//

रक्तबीज काट मुण्ड हव्य कीन्ह अग्निकुंड 
पी गई हो रक्त मातु छिन्नमुण्ड धारणी 
नमो नारायणी नमो हे देवि कात्त्यायनी 
अनादि ब्रह्मरूपिणी हे देवि ब्रह्मचारिणी 
कालरात्रि कालिका त्रिलोकीनाथनायिका 
हे अग्निज्वाला, पाटला महेश की मरालिनी
ॐ ह्रीं श्रीं -----------------------//२//

बलप्रदा जलोदरी ,महोदरी महेश्वरी 
मतंगमुनिपूजिता , मातंगी ,सूलधारणी
सत्यानन्दरूपा दिव्य वैष्णवी अनूपा
ब्रह्मदेवी हे रुद्राणी माँ पिनाकपाणि धारणी 
सर्वदानवादिघातिनी उतारूं आरती
निवारो मेरे कष्ट क्रूरा काली विकरालिनी
ॐ ह्रीं श्रीं ---------------------//३//

दिव्य तेजोमय अनूपा छिन्नमस्ता उग्ररूपा 
योगिनी हे मोहिनी हे योगियों की रक्षणी 
देवगण सुरक्षणी हे दुष्ट दैत्य भक्षणी 
हे संकटा हे चंडिका हे साधकों की यक्षिणी
निशुम्भ शुम्भ दुष्ट मधु कैटभ निपातिनी
हे सर्वमंत्ररूपा तीन लोकों की भुआलिनी 
ॐ ह्रीं श्रीं --------------------//४//

अमेयविक्रमा हे सर्ववाहनोंकीवाहिनी
अभव्या चण्ड मुण्ड नाशिनी हे सिंहवाहिनी
पद्मा परमेश्वरी सार्वास्त्रसस्त्र धारणी 
कृपालु दृष्टि कीजै भक्तिभाव की प्रवाहिनी 
कलमंजीररंजनी पुरुषाकृति उत्कर्षणी
पट्टाम्बर परिधाना शक्तिबामा दुष्टघालिनी
ॐ ह्रीं श्रीं ------------------//५//

नित्य औ प्रत्यक्षा कूष्माण्डा विष्णुमाया तुमही 
माता आद्यादेवी हो सावित्री ब्रह्मवादिनी 
रौद्रमुखी ज्ञाना देवसुन्दरी नमो नमो 
हे सर्वसास्त्रमयी वन्यदुर्गा माँ आल्हादिनी
आर्या हे लक्ष्मी हे सुन्दरी भुवनेश्वरी हे 
आदि देवि दिव्या खप्पर वाली आन्त्रमालिनी
ॐ ह्रीं श्रीं -------------------//६//

विंध्यवासिनी गायत्री बाहुलप्रेमा सप्तसती 
हे अनेकाशस्त्राहस्ता सर्वासुरविनाशिनी
रतनप्रिया हे देवी दक्ष की दुलारी क्रिया 
चिंता चितारूपा ज्वाला काली अविनाशिनी 
त्रिलोकसुन्दरी जया हे सीता माता शीतला 
शिवदूती बहुला विमला तूही देवी दिगपालिनी 
ॐ ह्रीं श्रीं ------------------ //७// 

महातपा सदागति हे पाटलावती यति हे 
भावनी भवानी माता दुष्ट दैत्य भंजनी
अनेकवर्णा बुद्धिदा महासती हे शैलजा 
हे विश्वप्रीता विश्वमोहिनी हे भक्तरंजनी 
तू ही अहंकार तेरी महिमा अपार हे 
महिष-असुर विनाशिनी हे काली विकरालिनी 
ॐ ह्रीं श्रीं --------------------//८//

सत्या भव्या भाव्या तुम वाराही सर्वविद्या तुमही 
अम्बिका अपर्णा देवी विद्या बुद्धि दायिनी 
देवमाता साम्भवी स्कंदमाता साध्वी हे 
चित्रा चित्तरूपा माता सत्ता सिद्धि दायिनी 
रक्ष रक्ष क्षम्य क्षम्य दोष मेरे दुर्गे अम्ब 
कीजिये कृपा हे भक्तवत्सला कृपालिनी 
ॐ ह्रीं श्रीं -------------------//९// 

अन्नपूर्णा दानी तुमही एंन्द्रीरूप भवानी तुमही 
मन हो तुम ही बुद्धि तुम ही देतीं रिद्धि सिद्धि
तुमहीकन्या तुमकुमारी तुमकिशोरी और गौरी 
तुमही प्रौढ़ा और अप्रौढ़ा वृद्धामाता भीहो तुमही 
दम्भ दर्प नाशिनी हे देवी माँ सुहासिनी 
बुझाओ नैन प्यास दिव्या देवी दैत्यघातिनी
ॐ ह्रीं श्रीं ------------------//१०// 

पूजनं न अर्चनं न सक्ति भक्ति साधनम 
जपम न योग आसनम उपासनम आराधनम
नाम अष्टसत त्वयं जपामि मातु नित्याहम
करोमि पाद पंकजम नमो नमो नमो नमम
पाहि पाहि पाहि देवी दुर्गा महाकाली 
"उदयभानु भृंग" पै कृपा करो हे मुण्डमालिनी 
ॐ ह्रीं श्रीं ----------------- //११//

ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही


॥ दोहा॥ मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।
मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥
॥ सोरठा॥ यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं।
सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥
॥ चौपाई ॥ सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही।
ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही ॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥
जय जय जगत जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥
तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥
जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥
विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥
कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥
ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥
क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥
तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥
और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥
ताको कोई कष्ट नोई। मन इच्छित पावै फल सोई॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥
जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥
ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥
पुत्रहीन अरु संपति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥
पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥
बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दजै दशा निहारी॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥
रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥
॥ दोहा॥त्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास।
जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नाश॥
रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर।
मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥
स्वामी मेरे राम स्वामिनी सीता माता ।
परमसरल आरतपाल बड़े दाता ।।
राम दिए खाए जग राम दिए पाता ।
ध्याये जग राम को राम गुन गाता ।।
अग-जग ईश बड़े विधिहुं के विधाता ।
शिव मन मधुकर चरन जलजाता ।।
दीन मतिहीन जिसे जग ठुकराता ।
पूछे नहीं बात कोई मुंह फेर जाता ।।
राम दयाधाम के मन वो भी भाता ।
दीनानाथ पाहि कहि नयन जल लाता ।।
तुम्हीं नाथ मेरे कहि जो बताता ।
सुनें सीतानाथ सारी जो भी सुनाता ।।
समय जाये होता क्या चाहे पछिताता ।
समय रहे मन काहे नेह न लगाता ।।
राम बिना भूँखा अन बीच न अघाता ।
रामजी से नेह कर कौन घबराता ?
सुनि गुन राम जेहि मन न लुभाता ।
अचरज कहाँ जो फिरे रिरियाता ।।
मणि आये हाथ कण जान जो बहाता ।
जग जाये राम संग मन नहीं राता ।।
पानी संग दूध के मोल ज्यों बिकाता ।
राम नाम संग त्यों अघी तर जाता ।।
नाम मणि धातु जन कनक बनाता ।
प्रगट प्रभाव जग भूला न दिखाता ।।
खाए, फिरे सब जग काल धरि खाता ।
संतोष जान जीवन राम संग नाता ।।

आप किस लक्ष्य से कर रहे हैं तप

ऐसी साधना ह्रदय में करती सदा आलोक है ;
साधक को प्राप्त होता दिव्य शिव का लोक है ;
श्रवण-मनन का पुन: विस्तार से वर्णन किया ;
सूत जी ने ऋषि -कर्णों में था अमृत भर दिया .
प्रभु के दिव्य-गुणों को एकाग्रचित्त हो सुनना ;
दृढ -मति से सुन चित्त में सदा ही धरना ;
ये ''श्रवण'' है इसका तुम ध्यान सदा रखना ;
शिव केश्रद्धा और भक्ति से शिव नाम जाप करना ;
''कीर्तन'' कहते इसे ;तुम स्मरण में रखना ;
रूप;गुण व् नाम का मन से जब चिंतन करो 
''मनन''कहते हैं इसे ;शिव स्वरुप उर में धरो .
भक्त बनकर उद्धार अपना करना .
इन तीन विधियों से सदा जो शिव -आराधन में लगे ;
उसकी जीवन-नैय्या तो पार भव-सागर लगे ;
मैं सुनाता हूँ तुम्हे प्राचीन एक आख्यान ;
सूत जी बोले सुने होकर के सावधान .
सरस्वती सरिता-तट पर तप कर रहे महान ;
ऐसे वेदव्यास जी से पूछते सनत्कुमार 
आप किस लक्ष्य से कर रहे हैं तप यहाँ ?
वेदव्यास बोले बस मुक्ति है लक्ष्य मेरा .
तब सनत्कुमार ने विनम्र हो बोले वचन 
पूर्व में मैंने भी तप को माना था मुक्ति-सदन ;
मंदराचल पर मैं भी था तप बड़ा करने लगा 
तब नंदिकेश्वर ने ज्ञान मुझको ये दिया 
तप को मुक्ति मार्ग कहना एक बड़ा अज्ञान है;
मुक्ति मन्त्र तो शिव-महिमा का श्रवण-गान है ;
इस ज्ञान ने मिटा दी भ्रम की काली छाया ;
छोड़ मिथ्या-मार्ग को सत्य -पथ अपनाया .
हे मुनियों !व्यास जी को जब मिला ये ज्ञान ;
हो गया हर प्रश्न का उत्तम ही समाधान ;
दिव्य ज्ञान ने उनका मार्ग था प्रशस्त किया ;
सत्य-पथ पर चल सिद्धि रुपी फल उनको मिला
इस कथा को जब सुना मुनियों ने फिर से कहा 
सूत जी पुन: कहिये प्राणी का मुक्ति-मार्ग क्या ?
सूत जी उवाच -तीनो उपाय से शिव भक्ति करो 
और संग पवित्र लिंगेश्वर-स्थापना करो .

मैंने जब से दिल में बसा लिया।

तेरी शान तेरे जलाल को
मैंने जब से दिल में बसा लिया।
मैंने सब चिराग बुझा दिए,
तेरा इक चिराग जला लिया॥

तेरी आस ही मेरी आस ही,
तेरी धुल मेरा लिबास है।
अब मुझे तू अपना बना भी ले,
मैंने तुझको अपना बना लिया॥

मुझे धुप छाव का गम नहीं,
तेरे कांटे फूलों से कम नहीं।
मुझे जान से भी अज़ीज़ है,
जिस चमन से तेरा दीया लिया॥

तेरी रहमतें बेहिसाब हैं,
किस जुबान से करूँ शुक्रिया।
कभी मुझ से कोई खता हुई
तूने फिर से मुझ को उठा लिया॥

मेरी हार तेरी ही हार है,
मेरी जीत तेरी ही जीत है।
मैंने सौंपा तुझको वो सभी,
तूने जो मुझ को दिया॥

मेरे साथ है साया श्याम का,
बस यह तस्सल्ली की बात है।
मैं तेरी नज़र से नहीं गिरा,
मुझे हर नज़र ने गिरा दिया॥

Tuesday 29 April 2014

ब्रह्मऋषि को ऋषियों में सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है

ऋषि कौन हैं

ऋषि पुरातन समय के वे संत हैं जिन्होंने वैदिक रिचाओं की रचना की परन्तु वेद तो अपौरुषेय हैं ,अर्थात मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं हैं , तो ऋषि का अर्थ हुआ वे संत जिन्होनें समाधी में वेद मन्त्रों को सुना हैं , इस प्रकार ऋषि वेदों के दृष्टा हुए ,रचनाकार नहीं 


''ऋषिर मंत्र दृष्तार न करतार :''
'' अर्थात ऋषि तो मन्त्रों के दृष्टा हैं ,रचना करने वाले नहीं सनातन धर्म में ऋषियों को सभी संतों ,महात्माओं ,दार्शनिकों में सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है 

वेद वास्तव में पुस्तकें नही हैं ,बल्कि यह वो ज्ञान है जो ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित हुआ ईश्वर वेदों के ज्ञान को सृष्टि के प्रारंभ के समय चार ऋषियों को देता है जो जैविक सृष्टि के द्वारा पैदा नही होते हैं इन ऋषियों के नाम हैं ,अग्नि ,वायु ,आदित्य और अंगीरा

1.ऋषि अग्नि ने ऋग्वेद को प्राप्त किया

2.ऋषि वायु ने यजुर्वेद को,

3.ऋषि आदित्य ने सामवेद को और

4.ऋषि अंगीरा ने अथर्ववेद को
इसके बाद इन चार ऋषियों ने दुसरे लोगों को इस दिव्य ज्ञान को प्रदान किया कुल 1127 ऋषि हैं कुल 1127 ऋषि हैं 

ऋषियों की भिन्न भिन्न उपाधियाँ उनके अध्यात्मिक ऊँचाई के अनुसार होती हैं जैसे उदाहरण के लिए ब्रह्मऋषि को ऋषियों में सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है ब्रह्मऋषि वे ऋषि हुआ करते हैं ,जिन्होनें ब्रह्म का अर्थ जान लिया है या ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति कर ली है , फिर महाऋषि होते हैं , महा का अर्थ है महान /बड़ा ,फिर राजऋषि हैं , उदाहरण के लिए रजा जनक राजऋषि थे सप्तिशी भी ब्रह्मऋषि हैं , उनमें से प्रमुख हैं वशिष्ठ ,विश्वामित्र ,अत्री ,अगस्त्य आदि 
सप्त ऋषियों के अलग अलग नाम इसलिए हमें मिलते हैं क्यूंकि सात ऋषि ब्रह्माण्ड को बारी बारी से कार्यभार को सँभालते हैं ,और ये सभी सप्त ऋषि के श्रेणी में कभी न कभी आये थे l

जय सत्य सनातन धर्म ॐ 

अविवेक कैसे होता है


प्रश्न :- मोक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर :- वह अवस्था जिसमें मनुष्य तीनों प्रकार के दुखों से दीर्घकाल के लिये अत्यंत रहित हो जाता है । उसे मोक्ष कहा जाता है । 

प्रश्न :- वे तीन प्रकार के दुख कौन से हैं ?
उत्तर :- वे दुख ये हैं :------ १) अध्यात्मिक २) आदिभौतिक ३) आदिदैविक 

प्रश्न :- आध्यात्मिक दुख किसे कहते हैं ?
उत्तर :- यह दो प्रकार का है १) आध्यात्मिक शरीर दुख २) आध्यात्मिक मानस दुख 
१) आध्यात्मिक शरीर दुख : जो दुख हमें शारीरिक कष्ट भोजन की विषमता,रोग,ज्वर,पीड़ा आदि के द्वारा होता है । उसे ही हम आध्यात्मिक शरीर दुख कहते हैं ।
२) आध्यात्मिक मान्सिक दुख : जो हमें मन की चंचलता, इन्द्रीयों की चंचलता, तनाव, आदि के द्वारा होता है । उसे हम आध्यात्मिक मान्सिक दुख कहते हैं ।

प्रश्न :- आदिभौतिक दुख किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जो दुख हमें बाहरी रूप से प्राप्त हो जैसे कि कोई हमारा अपमान कर दे, कुत्ता या साँप हमें काट ले, हमें कोई मारे पीटे गाली दे या फिर बाहरी तौर पर हमें कोई कष्ट या यात्ना दे ,उसे हम आदिभौतिक दुख कहते हैं । यानि कि जो भौतिक रूप से प्राप्त हुआ हो । 

प्रश्न :- आदिदैविक दुख किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जब कोई भुकम्प आये , बिजली घिरे, तुफान या और प्रकृतिक आपदा आये तो ये दुख जो इन आपदाओं से प्राप्त होते हैं उनको आदिदैविक दुख कहते हैं ।

प्रश्न :- यह तीनों दुख कैसे प्राप्त होते हैं ?
उत्तर :- अविवेक के द्वारा प्राप्त होते हैं । 

प्रश्न :- अविवेक क्या है ?
उत्तर :- जड़ प्रकृति और चेतन आत्मा के भेद का ज्ञान न होना ही अविवेक है ।

प्रश्न :- अविवेक का उपाय क्या है ?
उत्तर :- इसका उपाय विवेक है ।

प्रश्न :- विवेक क्या है ?
उत्तर :- जड़ और चेतन आत्मा के भेद का साक्षात ज्ञान ही विवेक है ।

प्रश्न :- अविवेक कैसे होता है ?
उत्तर :- जब आत्मा प्रकृति के सम्पर्क में आता है तब वह प्रकृति रूप हो जाता है , अपने आप को प्रकृति का भाग समझने लगता है । जैसे गहरे लाला रंग के फूल को स्फटिक मणि ( सफेद पत्थर ) के पास लाओ तो वह पत्थर भी लाल रूप हो कर दिखने लगता है , ठीक वैसे ही प्रकृति के सम्पर्क में आत्मा आता है तो प्रकृति का जड़त्व धर्म उसमें भासित सा होता है और यही अविवेक की अवस्था है कि मनुष्य अपने को प्राकृतिक शरीर ही समझता है आत्मा और शरीर में भेद नहीं जानता इसी को हम सांख्य भाषा में अविवेक कहते हैं । 

प्रश्न :- तो इस विवेक का उपाय क्या है ? 
उत्तर :- योगाभ्यास की रीति से मनुष्य के ज्ञान में जब वृद्धि होती जाती है तो यह स्वयं ही अनुभव होने लगता है कि आत्मा और प्रकृति भिन्न हैं । इसी को हम आत्म साक्षात्कार कहते हैं । जैसे लाल रंग के फूल को स्फटिक मणि के पास से हटाओगे तो उसका सफेद रंग स्पष्ट दिखने लगेगा ठीक वैसे ही जब आत्मिक ज्ञान की वृद्धि होती जाएगी तो ये प्राकृति की छाया आपके आत्मा से हटती जायेगी और आपको अपने अन्दर का चेतन तत्व स्पष्ट होता जाएगा । 

प्रश्न :- आपने बताया और हमने जान लिया कि आत्मा और प्रकृति अलग अलग हैं तो फिर मेरे दुख दूर क्यों नहीं हुए ? मुझे मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए था वो क्यों नहीं हुआ ?
उत्तर :- मेरे मीठा कह देने से क्या आपका मूँह मीठा हो जायेगा ! वह तब तक न होगा जब तक कि आप स्वयं मीठा न खा लें । वैसे ही जब तक योग विधि के द्वारा आप अभ्यास न करेंगे तब तक आपको विवेक प्राप्त न होगा । उसका अनुभव आपको योग की उच्च अवस्था में होगा । जहाँ क्रमानुसार अज्ञान हटता जायेगा ।और ज्ञान बढ़ता जाएगा । केवल शब्द ज्ञान से ही मोक्ष नहीं होता । 

प्रश्न :- तो यह बतायें कि प्रकृति सम्पर्क तो मृत्यु के उपरांत ही हटेगा तो क्या मर के मोक्ष मिलता है ?
उत्तर :- मौत को कभी हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने मोक्ष की संज्ञा नहीं दी है , हाँ यह प्रकृति का सम्पर्क हमारे साथ रहता है परंतु जब तक हम आत्मा को शरीर और शरीर को आत्मा समझते हैं तब तक प्रकृति हमारे सम्मुख भोग उपस्थित करके हमें व्यथित करती रहती है । पर मोक्ष की अवस्था सामान्य अवस्था से भिन्न इसी कारण है क्योंकि मोक्ष में हम प्रकृति के अधीन नहीं रहते हैं । प्रकृति तब तक हमारे लिये भोग सम्पादित करती है जब तक कि पूर्ण विवेक न हो जाये । पर विवेक हो जाने पर वो अपना कार्य वहीं बंद कर देती है । ऋषि के लिये वो केवल साधन के रूप रह जाती है , स्थित प्रज्ञ मुनि उसमें आकर्षित नहीं हो पाता ।

प्रश्न :- तो फिर क्या उस अवस्था में शरीर की मृत्यु हो जाती है ?
उत्तर:- नहीं ,जब तक जीवन है योगी उस शरीर में जीवन को भोगता है परंतु वह आगे आने वाले शारीरिक बंधनों से छूट जाता है । उसका पुनर्जन्म नहीं होता । जब वह उस शरीर को त्यागता है तो ईश्वर के आनंद में उसका आत्मा रमण करता है । 

अब आप सोचिए क्या बनना चाहते है

संसार में तीन प्रकार के पुरुष है - देव , मनुष्य और असुर 

इन तीन प्रकार के पुरुषो में - देवपुरुष श्रेष्ठ होता है , मनुष्य साधारण और असुर निकृष्ट होते है । 

देव वह है जो निर्दयी नहीं होते , दूसरों के कष्ट दूर करते है , वैदिक धर्म के पालन से उनका आत्मा उच्च हो जाता है और वेदो के ज्ञान को जानकर , वेदवर्णित ईश्वर की उपासना करके , यज्ञ करके वे देवता बन जाते है । 

असुर वे है जो अपने लाभ के सामने दूसरे के लाभ की परवाह नहीं करते। स्वार्थसिद्धि मे लगे रहते है और दूसरे की हानि करके अपना पेट भरते है। जैसे एक कसाई पशुओ को काटकर प्रसन्नता से बेचता है। यह कसाई का असुरपन है । ऐसे ही मनुष्य अपने स्वाद के लिए एक पक्षी की गर्दन मरोड़ देता है और निरीह पशुओ को मारकर खाता है, यह है उस मनुष्य का असुरपन । कोई एक जाति अपने त्योहारो के नाम पर लाखो बकरो आदि को काटकर खा जाति है ये है उस जाति का असुरपन । 

रावण के सीताहरण के समय कब सीता जी के कष्टो की परवाह की थी ? दुर्योधन ने भरी सभा मे द्रौपती को अपमानित करके अपने असुरपन का ही परिचय दिया था। दरअसल निर्दयता एक मानसिक रोग है , असुरपन का कारण है । 

अब आप सोचिए क्या बनना चाहते है ? देवपुरुष या साधारणमनुष्य या असुर 

हमारे वेदो की आज्ञा है कि -- पहले मनुष्य बनो , मतलब प्रेम दया परोपकार आदि गुणो को धारण करो , वेदो के ज्ञान को जानो और फिर उसका पालन करके देव बनो। 

एक ही ईश्वर

जिस समय हिन्दू धर्म में , सती प्रथा, जाति प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, छुआछूत एवं बहुदेववाद आदि अनेक बुराइया फैली हुयी थी , जिसके कारण धर्म संकीर्ण होता जाता रहा था , उसी समय दूसरी ओर एक बालक बड़ा हो रहा था , जिसके भाग्य में वैदिक धर्म के प्रचार तथा समाजसुधार का श्रेय अंकित था। 

जिस समय ईसाई एवं इस्लाम मत के प्रचारक हिन्दू धर्म का खुला उपहास उड़ा रहे थे और अपने मतो का प्रचार कर रहे थे। युवको के समूह के समूह ईसाई होते जा रहे थे और हिन्दू , धर्म के प्रति उदासीन हो रहे थे। उस समय वह ब्रह्मचारी बालक, एक अंध संन्यासी से सब शास्त्रो एवं वैदिक व्याकरण की शिक्षा प्राप्‍त कर रहा था और अपने आपको उस कार्य के लिये तैयार कर रह था जो उसे आगे चलकर करना था ।

यह बालक , महर्षि दयानंद थे जिन्हौने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। दयानंद ने समाज मे व्याप्त बुराइयों को दूर करते हुये , जनता का ध्यान उनके मूल धर्म की ओर आकृष्ट किया । महर्षि दयानंद ने - इस बात पर बल दिया कि - भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति है। सनातन वैदिक धर्म ही ईश्वरीय और सत्य धर्म है , एवं वेद ईश्वरीय वाणी है, ज्ञान के भंडार है । 

स्वामी दयानंद एक महान समाज सुधारक , धर्मसुधारक होने के साथ साथ एक प्रचंड राष्ट्रवादी थे। , उन्हौने स्त्रियो की शिक्षा और स्त्रियो को पुरुषो के समान अधिकार दिये जाने पर बल दिया। उन्हौने जात-पात , छूआ-छूत का विरोध करते हुये सामाजिक समानता , एकता और अंतर्जातीय विवाह और विधवा विवाह पर बल दिया। दयानंद जी ने मनुष्य को जन्म से नहीं कर्म से पहचाने जाने की शिक्षा दी , हिन्दू मुस्लिम ईसाई सभी को , एक होकर , एक ही ईश्वर , और एक ही ईश्वरीय धर्म , सनातन वैदिक धर्म के मंच पर लाकर , एकता स्थापित करने का प्रयास किया। ऐसे अनेकों महान कार्य करके महर्षि दयानंद ने , सत्य मार्ग की ओर, सत्य धर्म की ओर जनता को प्रेरित किया। आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानंद ने ही की, आर्यसमाज का कार्य , वेद , वैदिक धर्म , वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार, व समाज मे व्याप्त रूढ़ियो को दूर करते हुये मनुष्य का वैचारिक उत्थान करना है। 

महर्षि दयानंद उस समय कर्मक्षेत्र में उतरे जब समाज किसी ऐसे ही महापुरुष के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था । ऐसी ही आवश्यकता के समय परमात्मा ने उनको यह प्रेरणा दी कि वे वैदिक धर्म की रक्षा करें और भूली-भटकी आर्य जाति को सन्मार्ग पर लायें, मृतप्राय संस्कृत भाषा में नवीन प्राणों का संचार करें और वैदिक साहित्य में नवीन प्रज्ञा को समाविष्ट करें । दयानंद जी ने वेदो का भाष्य किया जो उपलब्ध भाष्यो मे सर्वश्रेष्ठ है , इसके अतिरिक्त उन्हौने सत्यार्थ प्रकाश सहित अनेक ग्रंथ लिखकर सामाजिक एवं धार्मिक उत्थान की नीव रखी। अतः यह निर्विवाद सत्य है कि स्वामी दयानन्द का आगमन सनातन वैदिक धर्म, संस्कृत भाषा, वैदिक साहित्य और दर्शन के लिये संजीवनी सिद्ध हुआ। ऐसे महापुरुष, युगऋषि महर्षि दयानंद को कोटिशः नमन

जन्म मृत्यु तथा कर्मदण्ड भोगते रहते हैं। पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं होता।


ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, और धर्मराय कहिये।
इन पाँचों मिल परपंच बनाया, वाणी हमरी लहिये।।

इन पाँचों मिल जीव अटकाये, जुगन-जुगन हम आन छुटाये।
बन्दी छोड़ हमारा नामं, अजर अमर है अस्थिर ठामं।।

पीर पैगम्बर कुतुब औलिया, सुर नर मुनिजन ज्ञानी।
येता को तो राह न पाया, जम के बंधे प्राणी।।

धर्मराय की धूमा-धामी, जम पर जंग चलाऊँ।
जौरा को तो जान न दूगां, बांध अदल घर ल्याऊँ।।

काल अकाल दोहूँ को मोसूं, महाकाल सिर मूंडू।
मैं तो तख्त हजूरी हुकमी, चोर खोज कूं ढूंढू।।

मूला माया मग में बैठी, हंसा चुन-चुन खाई।
ज्योति स्वरूपी भया निरंजन, मैं ही कर्ता भाई।।

एक न कर्ता दो न कर्ता दश ठहराए भाई।
दशवां भी धूंध्र में मिलसी सत कबीर दुहाई।।

संहस अठासी द्वीप मुनीश्वर, बंधे मुला डोरी।
ऐत्यां में जम का तलबाना, चलिए पुरुष कीशोरी।।

मूला का तो माथा दागूं, सतकी मोहर करूंगा।
पुरुष दीप कूं हंस चलाऊँ, दरा न रोकन दूंगा।।

हम तो बन्दी छोड़ कहावां, धर्मराय है चकवै।
सतलोक की सकल सुनावं , वाणी हमरी अखवै।।

नौ लख पटट्न ऊपर खेलूं, साहदरे कूं रोकूं।
द्वादस कोटि कटक सब काटूं, हंस पठाऊँ मोखूं।।

चौदह भुवन गमन है मेरा, जल थल में सरबंगी।
खालिक खलक खलक में खालिक, अविगत अचल अभंगी।।

अगर अलील चक्र है मेरा, जित से हम चल आए।
पाँचों पर प्रवाना मेरा, बंधि छुटावन धाये।।

जहां ओंकार निरंजन नाहीं, ब्रह्मा विष्णु शिव नहीं जाहीं।
जहां कर्ता नहीं अन्य भगवाना, काया माया पिण्ड न प्राणा।।

पाँच तत्व तीनों गुण नाहीं, जौरा काल उस द्वीप नहीं जाँहीं।
अमर करूं सतलोक पठाँऊ, तातैं बन्दी छोड़ कहाऊँ।।

बन्दी छोड़ कबीर गुसांइ। झिलमलै नूर द्रव झांइ।।

भावार्थ:- सन्त गरीब दास जी ने परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी से तत्वज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् बताया कि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री शिव तथा माया अर्थात् दुर्गा देवी व ज्योति निरंजन अर्थात् काल, इन पांचों ने मिल कर सर्व प्राणियों को जाल में फंसाए रखने का षड़यंत्रा रचा है। हम जो वचन कह रहे हैं इनको ध्यान पूर्वक सुनों तथा गहराई से विचार करो। परमेश्वर बन्दी छोड़ जी हैं। उनका सत्यलोक स्थान शाशवत अर्थात् अविनाशी है। सुर नर अर्थात् देव लोग व मुनि –ज्ञानी अर्थात् परमात्मा प्राप्ति में लगे मनशील ज्ञानीजन इन सर्व को पूर्ण मोक्ष मार्ग प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए सर्व ऋषिजन व देवता काल जाल में ही फंसे हैं। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि यह ज्ञानी आत्माएं जो परमात्मा प्राप्ति के लिए प्रयत्न शील है ये हैं तो नेक परन्तु तत्वदर्शी सन्त के अभाव से मेरी अनुत्तम (अश्रेष्ठ) साधना में लीन हैं। 

यही प्रमाण कबीर जी ने दिया है:- 

कबीर, सुर नर मुनि जन तेतीस करोड़ी, बन्धे सबै निरंजन डोरी।

भावार्थ है कि सर्व मुनि, ऋषि तथा तेतीस करोड़ देवता काल साधना करके काल की डोरी से ही बन्धे हैं अर्थात् ब्रह्म काल के नियमानुसार जन्म मृत्यु तथा कर्मदण्ड भोगते रहते हैं। पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं होता। परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने कहा है कि जो निरधारित समय अनुसार छोटी आयु में मृत्यु को प्राप्त होते या निरधारित समय से पहले अर्थात् अकाल मृत्यु को प्राप्त होते, उन दोनों प्रकार की मृत्यु को टाल कर पूरा जीवन अपनी कृपा से प्रदान कर देता है तथा इस काल मृत्यु तथा अकाल मृत्यु का मुख्य कारण महाकाल अर्थात् ज्योति निरंजन जो इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में वास्तविक काल रूप में विराजमान है उस चोर को ढूढ़ लिया है उस का प्रभाव भी अपने साधक से समाप्त कर दूगाँ। काल ने अपनी पत्नी दुर्गा द्वारा जाल फैलवाया है। जिस कारण से प्राणी पूर्ण परमात्मा तक नहीं जा पाते इस दुर्गा को भी दण्ड देता हूँ। तब अपना नाम व सारनाम दे कर पार करता हूँ।

कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की महिमा जताते हुए आदरणीय गरीबदास साहेब जी कह रहे हैं कि हमारे प्रभु कविर् (कविर्देव) बन्दी छोड़ हैं। (बन्दी छोड़ का भावार्थ है काल की कारागार से छुटवाने वाला,) काल ब्रह्म के इक्कीश ब्रह्मण्डों में सर्व प्राणी पापों के कारण काल के बंदी हैं। पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) कबीर साहेब पाप का विनाश कर देता है। पापों का विनाश न ब्रह्म, न परब्रह्म, न ही ब्रह्मा, न विष्णु, न शिव जी कर सकते। केवल जैसा कर्म है, उसका वैसा ही फल दे देते हैं। इसीलिए यजुर्वेद अध्याय 5 के मन्त्र 32 में लिखा है ‘कविरंघारिरसि‘ कविर्देव पापों का शत्रु है, ‘बम्भारिरसि‘ बन्धनों का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ है। इन पाँचों (ब्रह्मा-विष्णु-शिव-माया और धर्मराय) से उपर सतपुरुष परमात्मा (कविर्देव) है। जो सतलोक का मालिक है। शेष सर्व परब्रह्म-ब्रह्म तथा ब्रह्मा-विष्णु-शिव जी व आदि माया नाशवान परमात्मा हैं। महाप्रलय में ये सब तथा इनके लोक समाप्त हो जाएंगे। आम जीव से कई हजार गुणा ज्यादा लम्बी इनकी आयु है। परन्तु जो समय निर्धारित है वह एक दिन पूरा अवश्य होगा।

आदरणीय गरीबदास जी महाराज कहते हैं:

शिव ब्रह्मा का राज, इन्द्र गिनती कहां। 
चार मुक्ति वैकुंण्ठ समझ, येता लह्या।।

संख जुगन की जुनी, उम्र बड़ धारिया। 
जा जननी कुर्बान, सु कागज पारिया।।

येती उम्र बुलंद मरैगा अंत रे। 
सतगुरु लगे न कान, न भैंटे संत रे।।

-- चाहे संख युग की लम्बी उम्र भी क्यों न हो वह एक दिन समाप्त अवश्य होगी। यदि सतपुरुष परमात्मा (कविर्देव) कबीर साहेब के नुमांयदे पूर्ण संत (सतगुरु) जो तीन नाम का मंत्र (जिसमें एक ओ3म तथा तत् और सत् सांकेतिक हैं) देता है तथा उसे पूर्ण संत द्वारा नाम दान करने का आदेश है, उससे उपदेश लेकर नाम की कमाई करेंगे तो हम सतलोक के अधिकारी हंस हो सकते हैं। सत्य साधना बिना बहुत लम्बी उम्र कोई काम नहीं आएगी क्योंकि निरंजन लोक में दुःख ही दुःख है।

कबीर, जीवना तो थोड़ा ही भला, जै सत सुमरन होय।
लाख वर्ष का जीवना, लेखै धरै ना कोय।।

कबीर साहिब अपनी (पूर्णब्रह्म की) जानकारी स्वयं बताते हैं कि इन परमात्माओं से ऊपर असंख भुजा का परमात्मा सतपुरुष है जो सत्यलोक (सच्च खण्ड, सतधाम) में रहता है तथा उसके अन्तर्गत सर्वलोक ब्रह्म (काल) के 21 ब्रह्मण्ड व ब्रह्मा, विष्णु, शिव शक्ति के लोक तथा परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड व अन्य सर्व ब्रह्मण्ड, आते हैं और वहाँ पर सत्यनाम-सारनाम के जाप द्वारा जाया जाएगा जो पूरे गुरु से प्राप्त होता है। सच्चखण्ड (सतलोक) में जो आत्मा चली जाती है उसका पुनर्जन्म नहीं होता। सतपुरुष (पूर्णब्रह्म) कबीर साहेब (कविर्देव) ही अन्य लोकों में स्वयं ही भिन्न-भिन्न नामों से विराजमान है। जैसे अलख लोक में अलख पुरुष, अगम लोक में अगम पुरुष तथा अकह लोक में अनामी पुरुष रूप में विराजमान है। ये तो उपमात्मक नाम हैं, परन्तु वास्तविक नाम उस पूर्ण पुरुष का कविर्देव (भाषा भिन्न होकर कबीर साहेब) है।

श्री राम नाम की महिमा

श्री राम नाम की महिमा
एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवजी से श्री हरि की आराधना के बारे में पूछा तो भगवान शिव ने उनको भगवान श्री विष्णु की श्रेष्ठ आराधना, नित्य-नैमित्तिक कृत्य तथा भगवत्भक्तों की पूजा का वर्णन किया। जिसे सुन कर पार्वती जी ने कहा - नाथ ! आपने उत्तम वैष्णव धर्म का भलीभाँति वर्णन किया। वास्तव में परमात्मा श्री विष्णु का स्वरूप गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय है। सर्वदेव वन्दित महेश्वर ! मैं आपके प्रसाद से धन्य और कृतकृत्य हो गयी। अब मैं भी सनातन देव श्री हरि का पूजन करूँगी।
श्री महादेव जी बोले - देवी ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा ! तुम सम्पूर्ण इन्द्रियों के स्वामी भगवान लक्ष्मीपति का पूजन अवश्य करो। भद्रे ! मैं तुम-जैसी वैष्णवी पत्नी को पाकर अपने को कृतकृत्य मानता हूँ।
वसिष्ठजी कहते है - तदनन्तर महादेव जी से उपदेशानुसार पार्वती जी प्रतिदिन श्रीविष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करने के पश्चात भोजन करने लगीं। एक दिन परम मनोहर कैलास शिखर पर भगवान श्री विष्णु की आराधना करके भगवान शंकर ने पार्वतीदेवी को अपने साथ भोजन करने के लिये बुलाया। तब पार्वति देवी ने कहा - "प्रभो ! मैं श्रीविष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करने के पश्चात भोजन करूँगी, तब तक आप भोजन कर लें" यह सुन कर महादेव जी ने हँसते हुए कहा - "पार्वती ! तुम धन्य हो, पुण्यात्मा हो ; क्योकि भगवान श्रीविष्णु में तुम्हारी भक्ति है। देवि ! भाग्य के बिना भगवान श्रीविष्णु की भक्ति प्राप्त होना बहुत कठिन है। सुमुखि ! मैं तो "राम ! राम ! राम !" इस प्रकार जप करते हुये परम मनोहर श्रीराम नाम में ही निरन्तर रमण किया करता हूँ । राम-नाम सम्पूर्ण सहस्त्रनाम के समान है। पार्वती ! रकारादि जितने नाम हैं, उन्हें सुनकर रामनाम ही आशंका से मेरा मन प्रसन्न हो जाता है।
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे । 
सहस्त्रनाम ततुल्यं रामनाम वरानने ॥
रकारादीनि नामानि श्रृण्वतो म्म पार्वति । 
मनः प्रसप्रतां याति रामनामाभिशंकया ॥ (२८१ । २१-२२)
अतः महादेवि ! तुम राम-नाम का उच्चारण करके इस समय मेरे साथ भोजन करों ।" यह सुन कर पार्वती जी ने राम-नाम का उच्चारण करके भगवान शंकर के साथ बैठकर भोजन किया। इसके बाद उन्होने प्रसन्नचित होकर पूछा - ‘ देवेश्वर ! आपने राम-नाम को सम्पूर्ण सहस्त्र नाम के तुल्य बतलाया है यह सुन कर राम-नाम में मेरी बडी भक्ति हो गयी हैं अतः भगवान श्री राम के यदि और भी नाम हों तो बताइयें।’
श्री महादेव जी बोले - "पार्वती ! सुनो, मैं श्रीरामचन्द्र जी के नामों का वर्णन करता हूँ। लौकिक और वैदिक जितने भी शब्द हैं, वे सब श्रीरामचन्द्रजी के ही नाम हैं। किन्तु सहस्त्रनाम उन सबमें अधिक है और उन सहस्त्रनामों में भी श्रीराम के एक सौ आठ नामों की प्रधानता अधिक है। श्रीविष्णु का एक-एक नाम ही सब वेदों से अधिक माना गया है। वैसे ही एक हजार नामों के समान अकेला श्रीराम-नाम माना गया है। पार्वती ! जो सम्पूर्ण मन्त्रों और समस्त वेदों का जप करता है, उसकी अपेक्षा कोटिगुना पुण्य केवल राम-नाम से उपलब्ध होता है !

यही संतवृत्ति है।

संत का क्रोध...
एक बार एक संत नाव पर कहीँ जा रहे थे। 
वे कभी राजा थे किँतु अब वे संसारी वैभव छोङ चुके थे। 
राम नाम की लौ लगाकर वे संत हो गये थे।
उस नाव का आदमी दुष्ट प्रवृति का आदमी था। 
संत को चुपचाप शांत बैठे देखकर उसे बुरा लगा।
उसने अकारण ही उनके मुँह पर जोर से एक थप्पङ मार दिया।
संत ने उसे मुस्कराकर देखा और फिर ध्यान मग्न हो गये।
वह दुष्ट व्यक्ति चिढकर दूसरा थप्पङ मारना ही चाहता था कि आकाशवाणी हुई - 
"इस दुष्ट को दंड मिले अतः नाव को डुबो दिया जायेगा" ।
"नहीँ भगवान ऐसा दंड मत देँ " संत ने प्राथना की
"तब केवल इस दुष्ट को डुबो दिया जाये" 
फिर आकाशवाणी हुई।
संत ने फिर इसका विरोध किया यह दंड बहुत कड़ा हो जायेगा प्रभु।
तो फिर इस दुष्ट को क्या सजा दिया जाये?
संत ने उत्तर दिया इसे विवेकशील बना दिया जाय और इसकी बुद्धि धर्म तथा ईश्वर की ओर कर दी जाय। 
यही दंड ठीक रहेगा।
"एवमस्तु" आकाशवाणी से स्वर उभरा और संत फिर ध्यानमग्न हो गये।
नाव के गन्तव्य तट पर पहुँचने तक उस दुष्ट मनुष्य का मन शुद्द होकर भगवान के चरणोँ की ओर उन्मुख हो चुका था ।
वह उसी समय संत के चरणोँ पर गिर पड़ा और अपने अपराध के लिए उसने गिड़गिड़ाकर झमायाचना की।
यह है संत की बङाई। 
संत का क्रोध भी दया से प्रेरित था, जिससे एक अत्यंत अधमवृत्ति के मनुष्य का उद्दार हो गया।
दया बुद्दि से दंड देना पुण्य है, अच्छा है। 
यही संतवृत्ति है।
हिँसा अथवा ईर्ष्या की बुद्दि से दंड देना पाप है

धैर्य की परीक्षा लेने हेतु

 एक संत की सेवा में एक बणिया रोजाना भोजन लेकर आता था । उसे पुत्र की इच्छा थी । एक दिन संत ने उसके धैर्य की परीक्षा लेने हेतु भोजन की थाली कुँएं में डाल दी । तब भी बणिये ने संतजी को कुछ भी नहीं कहा और दूसरी थाली में भोजन ले आया । संत उसकी श्रद्धा भक्ति देखकर प्रसन्न हो गये और उसे पुत्र प्राप्ति का वर दे दिया । सन्त के वचनों से सेठानी के पुत्र हो गया । ‘‘ज्यों घण घावां सार घड़ीजे झूठ सवै झड़जाई’’ जैसे घण की चोटों से लोहा शुद्ध हो जाता है, वैसे ही संतों की ताड़ना सहन करने से प्राणी के पाप और दोष दूर हो जाते हैं, तभी बणिये को पुत्र प्राप्ति हुई ।

चाहे जन्म हमें सौ बार मिले

जीवन की रूलाती घडियो मे मिलता है तुम्हारा प्यार मुझे 
कोई चाह नही बाकी रहती प्रभु आके तेरे दरबार मुझे
मेरे दिल के गगन पर आके कभी जब गम की घटा छा जाती है
इक पल मे तब तेरी दया बन के हबा आ जाती है 
तुमको दाता कहने मे फिर कयो हो भला इनकार मुझे
प्रभु दर पे तेरे आने बाला झोली अपनी भर लेता है 
तेरे दर से प्रभु मै क्या मागू बिन माँगे तू सब देता है 
जो तेरी इच्छा हो दाता हरदम है बही स्वीकार मुझे
जब तक प्रभु दुनिया मे रहूं बस एक यही मेरा काम रहे 
मेरे दिल मे तुम्हारी याद रहे होठो पे सदा तेरा नाम रहे 
रहे प्यार तुम्हारे चरणों मे चाहे जन्म हमें सौ बार मिले

आप अमर अविनाशी हैं।

भोले नाथ ने मां पार्वती को अमर कथा क्यों सुनाई?
भोले नाथ ने मां पार्वती को अमर कथा क्यों सुनाई?देवर्षि नारद भोले नाथ से भेंट हेतु कैलाश पर्वत पर गए। भोले नाथ कैलाश पर न थे वे किसी कार्य हेतु बाहर गए थे। मां पार्वती ने उनको उचित आसन पर बैठाया और उनका खूब आदर सत्कार किया। मां और नारद जी वार्तालाप करने लगे। जब बातें करते कुछ समय व्यतीत हो गया तो नारद जी ने मां से पूछा," मां भोले नाथ आपसे निष्कपट प्रेम तो करते हैं न?"
मां ने उत्तर दिया," हां...हां... वो तो मुझ से बहुत प्रेम करते हैं।"
नारज जी फिर बोले," आपकी हर प्रकार की सेवा से वे संतुष्ट तो हैं न?"
नारद जी के इतना पूछते ही मां भोले नाथ की अपने प्रति सहज प्रीति का बखान करने लगी। अब नारद जी तीखा प्रहार करते हुए बोले," अगर भोले नाथ आपसे इतना प्रेम करते हैं तो यह बताएं जो भोले नाथ के गले में मुण्डों की माला है, वे किसके मुण्ड हैं?"
मां पार्वती कुछ समय तो मौन रही, फिर बोली, "देवर्षि न तो मैंने यह बात उनसे कभी पूछी और न ही उन्होंने मुझे बताना अवश्यक समझा।"
नारद जी व्यंग स्वर में बोले," फिर यह कैसा निष्कपट सहज प्रेम है। जो अपने पति परमेश्वर के रूप का ही आपको ज्ञात नहीं है।"
मां इससे पहले कुछ बोल पाती नारद जी हरि नाम का गुनगान करते हुए वहां से चल पड़े। मां के मन में भोले नाथ के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया और वह क्रोध में कोपभवन में चली गई। कुछ समय उपरांत भोले नाथ कैलाश लौटे तो मां पार्वती को न पा कर उनके विषय में जानने के लिए गणों से पूछा तो पता चला वह क्रोध में आकर कोपभवन में बैठी हैं।
वह कोपभवन की ओर गए तो मां पार्वती जी की अवस्था देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। बहुत मनुहारि करने पर जब मां पार्वती जी ने रहस्त खोला तो भोले नाथ हंस पड़े और बोले," प्रिय! सबसे पहले यह बताओ कि मेरी अनुपस्थिति में यहां श्री नारद जी तो नहीं आए थे।"
मां पार्वती बोली," हां... हां... वह तो अभी-अभी यहां से गए हैं।"
भोले नाथ को समझते देर न लगी की यह सब किया धरा नारद जी का ही है। वह पार्वती जी से बोले," तुम मुण्डों के बारे में जानना चाहती हो न तो सुनों जो मेरे गले में मुण्डों की माला है उसमें से कुछ मुण्ड तो तुम्हारे हैं और कुछ मेरे अन्य प्रेमी भक्तों के हैं। जब जब तुम्हारा शरीर पात हुआ, तुम से अन्नय प्रेम होने के कारण में तुम्हारे उस मुण्ड को गले में पिरो लेता हूं।"
मां पार्वती जी ने गंभीर होकर कहा, मैं तो मरती जन्मती रहती हूं और आप अमर अविनाशी हैं। अगर आप मुझ से इतना प्रेम करते हैं तो मुझे भी अपने समान अमर अविनाथी क्यों नहीं बना लेते।
भोले नाथ ने पहले तो अपनी अमरता के रहस्य को छिपाना चाहा, फिर सोचा कि अपने प्रिय शिष्य मित्र से भी जब महत् पुरूष कुछ गोपनिय नहीं रखते, यह तो मेरी नित्य प्रेयसी है,ऐसा विचार कर अगले दिन भोले नाथ मां पार्वती को लेकर अमरनाथ तीर्थ पर चले गए और वहां जाकर उन्हें अमर कथा का रसपान करवाया। जिससे वह भी अमरता प्राप्त कर सकें।

जो जैसा करेगा उसे वैसा ही परिणाम मिलेगा

कर्मों का फल हर हाल में मिलता है
प्रकृति के एक विधान को संसार में आदर्श वाक्य की तरह कहा जाता है कि जो जैसा करेगा उसे वैसा ही परिणाम मिलेगा, लेकिन आज व्यावहारिक जगत में कई लोग इससे सहमत नहीं होते। उनका मानना है कि हम देख रहे हैं अच्छे लोग परेशान हैं, गलत लोग मजे कर रहे हैं। परमात्मा भी जानता है कि मेरे भक्त यह सवाल जरूर उठाएंगे। इसलिए उन्होंने किए हुए का परिणाम देने के मामले में एक अवधि बनाई है। वे गलत और सही व्यक्ति दोनों को मौका देते हैं। गलत हो तो सुधर जाओ और यदि अच्छे हो तो हिम्मत मत छोड़ो। सुंदरकांड में श्रीराम और समुद्र का प्रसंग परमात्मा के इसी नियम को दर्शा रहा है।
श्रीराम ने समुद्र से मार्ग मांगा। समुद्र ने मार्ग नहीं दिया। तीन दिन बीत जाने पर श्रीराम ने घोषणा की कि बिना डराए कभी-कभी परिणाम नहीं आता। उन्होंने लक्ष्मण को आदेश दिया- लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कसानू।। धनुष-बाण लाओ, समुद्र को सोखना ही पड़ेगा। यह लक्ष्मण की पसंद का काम था, क्योंकि थोड़ी देर पहले वे विरोध कर चुके थे कि श्रीराम समुद्र से मार्ग न मांगें। लक्ष्मण के मन में वही द्वंद्व था जो अच्छे लोगों के मन में होता है कि समुद्र गलत कर रहा है फिर भी राम कुछ नहीं कर रहे, लेकिन तीन दिन की अवधि परमात्मा सबको देता है। तीन के आंकड़े का अर्थ है ज्ञान, कर्म और उपासना के अवसर हर एक के जीवन में ईश्वर द्वारा दिए जाएंगे। आप इन तीनों में कोई भी मार्ग चुन लें, अन्यथा फिर कुदरत धनुष-बाण उठा लेती है। इन्हीं तीन दिनों में अच्छे लोग विचलित हो जाते हैं और बुरे लापरवाह।

बारिश की हर बूँदें कहती, यह सागर ही तो मेरा है।

न यह मेरा है न तेरा है,
यह जग तो रैन बसेरा है।
जो भी चाहे जैसा समझे,
अब कृष्णा ही तो मेरा है॥
जाने कितनी ठोकर खाकर,
मुश्किल से राहें मिलती हैं,
मंज़िल पाकर राही कहता,
यही मुकाम तो मेरा है।
जो भी चाहे जैसा समझे,
अब कृष्णा ही तो मेरा है॥
सागर से ही बूँदें बनकर,
सागर में ही मिल जाती हैं,
बारिश की हर बूँदें कहती,
यह सागर ही तो मेरा है।
जो भी चाहे जैसा समझे,
अब कृष्णा ही तो मेरा है॥
अनेकों रंग अनेकों गंध,
जाने कितने फूल हैं खिलते, 
वन की हर पत्ती कहतीं,
यह उपवन ही तो मेरा है।
जो भी चाहे जैसा समझे,
अब कृष्णा ही तो मेरा है॥
मिट्टी का बना हर आदमी,
मिट्टी में मिल जाता है,
भूमि का हर कण कहता,
यह भूमंडल ही तो मेरा है।
जो भी चाहे जैसा समझे,
अब कृष्णा ही तो मेरा है॥
जग की चकाचौंध देखकर,
हर पल ख़ुशी तरसती हैं,
प्रारब्ध का हर पल कहता,
यह वक्त ही तो मेरा है।
जो भी चाहे जैसा समझे,
अब कृष्णा ही तो मेरा है॥

पर काम नहीं बनता

सरकारी कामों में हाथ डालता हूँ, पर काम नहीं बनता ?
. Do you try to get involved in government works, but never get success?
Ans. राहु की वस्तुओं से परहेज रखें जैसे- काले-नीले रंग से, आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ करें, बंदरों को गुड़ खिलाते रहें, मंदिर से पैसा उठाकर लाल कपड़ें में बांधकर जेब में रखें, (तांबे का पैसा हो तो सही), हर सूर्या ग्रहण में 4 नारियल 400 ग्राम साबुत बादाम जल प्रवाह करें, जिन लोगों की पिता से नहीं बनती या जिनके पिता किसी काबिल नहीं होते हैं, सूर्य-राहु मध्यम मार्तंड यंत्र गले में पहनें।

यह उपाय बहुत सुलभ, सरल एवं कारगर माना जाता है।

दांत दर्द
दांत दर्द कई कारणों से होता है मसलन किसी तरह के संक्रमण से या डाईबिटिज की वजह से या ठीक ढंग से दांतों की साफ सफाई नहीं करते रहने से। यूँ तो दांत दर्द के लिए कुछ ऐलोपैथिक दवाइयां होती हैं लेकिन उनके बहुत हीं कुप्रभाव होते हैं जिसकी वजह से लोग चाहते हैं की कुछ घरेलू उपचार से इसे ठीक कर लिया जाये। अगर आप भी दांत दर्द से परेशान है एवं इसके उपचार के लिए प्रभावकारी घरेलू उपाय चाहते हैं तो नीचे दिए गए उपायों पर अमल करें।

हींग - जब भी दांत दर्द के घरेलू उपचार की बात की जाती है, हींग का नाम सबसे पहले आता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह दांत दर्द से तुरंत मुक्ति देता है। इसका इस्तेमाल करना भी बेहद आसन है। आपको चुटकी भर हींग को मौसम्मी के रस में मिलाकर उसे रुई में लेकर अपने दर्द करने वाले दांत के पास रखना है। चूँकि हींग लगभग हर घर में पाया जाता है इसलिए दांत दर्द के लिए यह उपाय बहुत सुलभ, सरल एवं कारगर माना जाता है।

लौंग -- लौंग में औषधीय गुण होते हैं जो बैकटीरिया एवं अन्य कीटाणु (जर्म्स, जीवाणु) का नाश करते हैं। चूँकि दांत दर्द का मुख्य कारण बैकटीरिया एवं अन्य कीटाणु का पनपना होता है इसलिए लौंग के उपयोग से बैकटीरिया एवं अन्य कीटाणु का नाश होता है जिससे दांत दर्द गायब होने लगता है। घरेलू उपचार में लौंग को उस दांत के पास रखा जाता है जिसमें दर्द होता है। लेकिन दर्द कम होने की प्रक्रिया थोड़ी धीमी होती है इसलिए इसमें धैर्य की जरुरत होती है।

प्याज -- प्याज (कांदा ) दांत दर्द के लिए एक उत्तम घरेलू उपचार है। जो व्यक्ति रोजाना कच्चा प्याज खाते हैं उन्हें दांत दर्द की शिकायत होने की संभावना कम रहती है क्योंकि प्याज में कुछ ऐसे औषधीय गुण होते हैं जो मुंह के जर्म्स, जीवाणु एवं बैकटीरिया को नष्ट कर देते हैं। अगर आपके दांत में दर्द है तो प्याज के टुकड़े को दांत के पास रखें अथवा प्याज चबाएं। ऐसा करने के कुछ हीं देर बाद आपको आराम महसूस होने लगेगा।

लहसुन -- लहसुन भी दांत दर्द में बहुत आराम पहुंचाता है। असल में लहसुन में एंटीबायोटिक गुण पाए जाते हैं जो अनेकों प्रकार के संक्रमण से लड़ने की क्षमता रखते हैं। अगर आपका दांत दर्द किसी प्रकार के संक्रमण की वजह से होगा तो लहसुन उस संक्रमण को दूर कर देगा जिससे आपका दांत दर्द भी ठीक हो जायेगा। इसके लिए आप लहसुन की दो तीन कली को कच्चा चबा जायें। आप चाहें तो लहसुन को काट कर या पीस कर अपने दर्द करते हुए दांत के पास रख सकते हैं। लहसुन में एलीसिन होता है जो दांत के पास के बैकटीरिया, जर्म्स, जीवाणु इत्यादि को नष्ट कर देता है। लेकिन लहसुन को काटने या पीसने के बाद तुरंत इस्तेमाल कर लें। ज्यादा देर खुले में रहने देने से एलीसिन उड़ जाता है जिससे बगैर आपको ज्यादा फायदा नहीं होता।

गरारे (गार्गल) करें
गरारे भी दांत दर्द दूर करने का एक अति उत्तम घरेलू उपाय है। हल्के गर्म पानी में एक चम्मच नमक डालकर गरारे करें। ऐसे नमकीन पानी से दिन में दो चार बार कुल्ला किया करें। नमक के संपर्क में आने के बाद मुंह के जर्म्स, जीवाणु एवं बैकटीरिया नष्ट हो जाते हैं जिसकी वजह से आपको दर्द से तुरंत राहत मिलती है।
सलाह 
जब दांत दर्द हो तब मीठे पदार्थ खाने या पीने से परहेज करें क्योंकि ये बैकटीरिया, जर्म्स, जीवाणु इत्यादि को और बढ़ावा देते है जिनसे आपकी तकलीफ और बढती है