Sunday 27 April 2014

स्वासा सुमिरण होत है


 स्वासा सुमिरण होत है 

स्वासा सुमिरण होत है, ताहि न लागै बार। 
पल पल बन्दगी साधना, देखो दृष्टि पसार ।

सत्य नामको खोजिले, जाते अग्नि बुझाय। 
बिना सतनाम बांचे नहीं, धरमराय धरि खाय ।

आदि नाम निज सार है, बूझि लेहु हो हंस। 
जिन जाना निज नामको, अमर भयो स्यों बंस ।

आदि नाम निज मूल है, और मंत्र सब डार। 
कहै कबीर निज नाम बिन, बूडि मुआ संसार । 

आदि नामको खोजहू, जो है मुक्ति को मूल। 
ये जियरा जप लीजियो, भर्म मता मत भूल ।

कहै कबीर निज नाम बिन, मिथ्या जन्म गवांय। 
निर्भय मुक्ति निःअक्षरा, गुरु विन कबहुँ न पाय ।

सबको नाम सुनावहू, जो आवे तव पास। 
शब्द हमारो सत्य है, दृढ राखो विश्वास ।

होय विवेकी शब्दका, जाय मिलै परिवार। 
नाम गहै सो पहुँचिहैं, मानहु कहा हमार ।

आदि नाम पारस (सारनाम) है, मन है मैला लोह। 
परसतही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।

सुरति समावे नामसे, जगसे रहै उदास। 
कहै कबीर गुरु चरणमें, दृढ राखै विश्वास ।

ज्ञान दीप प्रकाश करि, भीतर भवन जराय। 
बैठे सुमरे पुरुषको, सहज समाधि लगाय । 

अछय बृक्ष की डोर गहि, सो सतनाम समाय। 
सत्य शब्द(सारशब्द) प्रमाण है,सत्यलोक महं जाय ।

कोइ न यम सो बाचिया, नाम बिना धरिखाय। 
जे जन बिरही नामके, ताको देखि डराय ।

कर्म करै देही धरै, औ फिरि फिरि पछताय। 
बिना नाम बांचे नहीं, जिव यमरा लै जाय ।

(स्वांसा सुमरण होत है --------) इन दोहों में कहा है कि जो सत्यनाम स्वांसो द्वारा होता है उसकी खोज करो अर्थात् इस मन्त्र को देने वाला पूर्ण गुरु मिले उससे उपदेश लो तथा स्मरण करो। फिर पूर्ण गुरु आपको सारनाम देवेगा। यदि सारनाम नहीं मिला तो आपका जीवन निष्फल है। हाँ, सत्यनाम के आधार से आपको मनुष्य जन्म मिल जाएगा। परंतु सत्यलोक प्राप्ति नहीं। इसलिए कहा है कि जो ज्ञान योग युक्त होगा वही हमारे सारनाम को पाने की लग्न लगाएगा अन्यथा केवल सत्यनाम से भी जीव छुटकारा नहीं है। 
इस स्थिति मे गीता जी मे कहा है कि मूढ (मूर्ख) जिन्हें सच्चाई का ज्ञान नहीं है , वे तो वैसे ही अनजानपने मे सतमार्ग स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए उनको बार-2 कहना हानिकारक हो सकता है। 

कबीर साहेब कहते हैं :--
कबीर सीख उसी को दीजिए, जाको सीख सुहाय। 
सीख दयी थी वानरा, बइयाँ का घर जाय।। 

अर्थात् वे उल्टे गले पड़ जाएंगे। मरने मारने को तैयार हो जाएंगे। जैसे साहेब कबीर के पीछे काशी के पाण्डे व काजी मुल्ला पड़ गए थे लेकिन सच्चाई स्वीकार नहीं की। जो ज्ञानी पुरुष है जो समझते भी हैं कि हम गलत साधना स्वयं कर रहे हैं तथा अनुयाईयों को भी गलत मार्ग दर्शन कर रहे हैं वे अपनी मान बड़ाई वश नहीं मानते । वे चातुर (चतुर) प्राणी कहे हैं । इसलिए दोनो ही भक्ति अधिकारी नहीं हैं ।

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