Saturday 29 August 2015

देखो कि कैसे शरीर जलता है


‘प्रयोग करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है……।’

बस लेट जाओ। पहले भाव करो कि तुम मर गए हो। शरीर एक शव मात्र है। लेटे रहो और अपने ध्‍यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ। आंखें बंद करके भीतर गति करो। अपने ध्‍यान को अँगूठों पर ले जाओं और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है। और सब कुछ जल रहा है,जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्‍हारा शरीर विलीन हो रहा है। अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो।

अंगूठे से क्‍यों शुरू करो। यह आसान होगा। क्‍योंकि अंगूठा तुम्‍हारे ‘मैं’ से, तुम्‍हारे अहंकार से बहुत दूर है। तुम्‍हारा अहंकार सिर में केंद्रित है; वहां से शुरू करना कठिन होगा। तो बिंदु से शुरू करो; भाव करो कि अंगूठे जल रहे है। और वहां अब राख ही बची है।

और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ। सारे अंग—पैर,जांघ—विलीन हो जाएंगे। और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे है; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं है। वे राख हो गए है। ऊपर बढ़ते जाओ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है। प्रत्‍येक चीज राख हो गई है; धूल-धूल में मिल रही है। और तुम देख रहे हो।

‘और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।’

तुम शिखर पर खड़े द्रष्‍टा रह जाओगे, साक्षी रह जाओगे। शरीर वहां पडा होगा, मृत जला हुआ, राख-और तुम द्रष्‍टा होगे, साक्षी होगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है।

यह विधि निरहंकार अवस्‍था की उपलब्‍धि के लिए बहुत उपयोगी है। क्‍यो? क्‍योंकि इसमें बहुत सी बातें घटती है। यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह उतनी सरल है नहीं। इसकी आंतरिक संरचना बहुत जटिल है।
पहली बात यह है कि तुम्‍हारी स्‍मृतियां शरीर का हिस्‍सा है। स्‍मृति पदार्थ है; यही कारण है कि उसे संग्रहीत किया जा सकता है। स्‍मृति मस्‍तिष्‍क के कोष्‍ठों में संग्रहीत है। स्‍मृतियां भौतिक है, शरीर का हिस्‍सा है। तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क का आपरेशन करके अगर कुछ कोशिकाओं को निकाल दिया जाए तो उनके साथ कुछ स्‍मृतियां भी विदा हो जायेगी। स्‍मृतियां मस्‍तिष्‍क में संग्रहीत रहती है। स्‍मृति पदार्थ है; उसे नष्‍ट किया जा सकता है।
और अब तो वैज्ञानिक कहते है कि स्‍मृति प्रत्‍यारोपित कि जा सकती है। देर-अबेर हम उपाय खोज लेंगे कि जब आइंस्‍टीन जैसा व्‍यक्‍ति मरे तो हम उसके मस्‍तिष्‍क की कोशिकाओं को बचा लें। और उन्‍हें किसी बच्‍चे में प्रत्‍यारोपित कर दें। और उस बच्‍चे को आइंस्टीन के अनुभवों से गूजरें बिना ही आइंस्टीन की स्‍मृतियां प्राप्‍त हो जाएगी।

तो स्‍मृति शरीर का हिस्‍सा है। और अगर सारा शरीर जल जाए, राख हो जाए,तो कोई स्‍मृति नहीं बचेगी। याद रहे,यह बात समझने जैसी है। अगर स्‍मृति रह जाती है तो शरीर अभी बाकी है। और तुम धोखे में हो। अगर तुम सचमुच गहराई से इस भाव में उतरोगे कि शरीर नहीं है। जल गया है, आग ने उसे पूरी तरह राख कर दिया है। तो उसे क्षण तुम्‍हें कोई स्‍मृति नहीं रहेगी। साक्षित्‍व के उस क्षण में कोई मन नहीं रहेगा। सब कुछ ठहर जाएगा। विचारों की गति रूक जाएगी। केवल दर्शन,मात्र देखना रह जाएगा कि क्‍या हुआ है।

और एक बार तुमने यह जान लिया तो तुम इस अवस्‍था में निरंतर रह सकते हो। एक बार सिर्फ यह जानना है कि तुम अपने को अपने शरीर से अलग कर सकते हो। यह विधि तुम्‍हें अपने शरीर से अलग जानने का, तुम्‍हारे और तुम्‍हारे शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने का, कुछ क्षणों के लिए शरीर से बाहर होने का एक उपाय है। अगर तुम इसे साध सको तो तुम शरीर में होते हुए भी शरीर में नहीं होगे। तुम पहले की तरह ही जीए जा सकते हो; लेकिन अब तुम फिर कभी वही नहीं हो सकते हो।

इस विधि में कम से कम तीन महीने लगेंगे। इसे करते रहो; यह एक दिन में नहीं होगी। लेकिन यदि तुम प्रतिदिन इसे एक घंटा देते हो तो तीन महीने के भीतर किसी दिन अचानक तुम्‍हारी कल्‍पना सफल होगी। और एक अंतराल निर्मित हो जाएगा। और तुम सचमुच देखोगें कि तुम्‍हारा शरीर राख हो रहा है। तब तुम उसका निरीक्षण कर सकते हो। और उस निरीक्षण में एक गहन तथ्‍य को बोध होगा। कि अहंकार असत्‍य है, झूठ है; उसकी कोई सत्‍ता नहीं है। अहंकार था; क्‍योंकि तुम शरीर से विचारों से मन से तादात्‍म्‍य किए बैठे थे। तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो न मन, न विचार, न शरीर। तुम उस सब से भिन्‍न हो जो तुम्‍हें घेर हुए है। तुम अपनी परिधि से सर्वथा भिन्‍न हो।

तो उपर से यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह तुम्‍हारे भीतर गहन रूपांतरण ला सकती है। लेकिन पहले मरघट में जाकर ध्‍यान करो, जो लोगों को जलाया जाता है। देखो कि कैसे शरीर जलता है। कैसे शरीर फिर मिट्टी हो जाता है। ताकि तुम फिर आसानी से कल्‍पना कर सको। और जब अँगूठों से आरंभ करो और बहुत धीरे-धीरे उपर बढ़ो।

और इस विधि में उतरने के पहले श्‍वास छोड़ने पर ज्‍यादा ध्‍यान दो। इस विधि को करने के ठीक पहले पंद्रह मिनट तक श्‍वास छोड़ो और आंखे बंद कर लो, फिर शरीर को श्‍वास लेने दो और आंखें खोल दो। पंद्रह मिनट तक गहन विश्राम में रहो। और फिर विधि में प्रवेश करो।

Thursday 20 August 2015

गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित “शिवस्तोत्ररत्नाकर


आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा विरचित

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं,गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम् |
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं,महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम् ||१||
महेशं सुरेशं सुरारार्तिनाशं,विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम् |
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं,सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् ||२||
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं, गवेन्द्राधिरूढं गणातीतरूपम् |
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं,भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम् ||३||
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले,महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन् |
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः,प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप ||४||
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं, निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम् |
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम् ||५||
न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाश आस्ते न तन्द्रा न निद्रा |
न गृष्मो न शीतो न देशो न वेषो,न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे ||६||
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां, शिवं केवलं भासकं भासकानाम् |
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं,प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ||७||
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते,नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते |
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य,नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ||८||
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ,महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र |
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे,त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ||९||
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे,गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् |
काशीपते करुणया जगदेतदेकस्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ||१०||
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे,त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ |
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश,लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन् ||११||
(गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित “शिवस्तोत्ररत्नाकर” से)

Monday 17 August 2015

मन की इस अटलता से क्या लाभ


शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||१||

(यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?)

कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||२||

(सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?)

षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||३||

(वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?)

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||४||

(जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?)

क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||५||

(जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?)

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||६||

(दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों,किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?)

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ,
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||७||

(जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?)

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||८||

(जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?)

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही |
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ||९||

(जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशालीशरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है|)

॥ इति श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम् गुर्वष्टकम् सम्पूर्णं॥

Friday 14 August 2015

परमेश्वर ने सारे साधन दिये है

मनुष्य के ज्ञान की दृष्टि से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्राणियों की संख्या असंख्य है । एक मनुष्य ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य मिलकर भी सब प्राणियों की संख्या को नहीं गिन सकते । मनुष्यों की दृष्टि से न गिनने की स्थिति में उसे असंख्य कहा जाता है । परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में प्राणियों की संख्या सीमित है । क्योंकि परमेश्वर अपनी असीमित शक्ति से सभी प्राणियों को गिनता है, इसलिए परमेश्वर सब के कर्म-फल को ठीक-ठीक प्रदान करता है ।
अनेक बार, अनेकों लोग परमेश्वर को कोसते रहते हैं कि "हमें कुछ नहीं दिया, हमें क्या दिया, हमें यह नहीं दिया, हमें वो नहीं दिया "इत्यादि अर्थात कोई कहता है हमें आँख नहीं दी, कोई कहता है हमें वाणी नहीं दी, कोई कहता है हमें हाथ, पाँव, नाक या और कोई अंग नहीं दिया, कोई कहता है हमें अच्छे माता-पिता नहीं दिये, कोई कहता है हमें जमीन नहीं दी । यदि एक-एक को गिनने लगे तो लिखते ही जायेंगे, लिखना बन्द नहीं हो पायेगा । जितने मनुष्य उतनी शिकायतें । शिकायतों की कतार बड़ी लम्बी बनेगी ।
ऐसा सोच-विचार रखना भौतिकवादी के लिए सामान्य हो सकता है, परन्तु यही सोच-विचार आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अत्यंत घातक होगा । एक ओर परमेश्वर को परमेश्वर स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी ओर परमेश्वर पर शक (शंका )किया जा रहा है । यदि परमेश्वर के विषय में किसी से भी यह पूछा जाये कि परमेश्वर न्यायकारी है या अन्यायकारी ? उत्तर यह मिलेगा कि न्यायकारी है । यदि परमेश्वर न्यायकारी है तो शक नहीं कर सकते और शक करना है तो परमेश्वर न्यायकारी नहीं हो सकता । परन्तु साधनों के अभाव से ग्रस्त जनता इस बात नहीं समझ सकती हैं । यही समझ का अभाव कभी-कभी साधना करने वाले आध्यात्मिक व्यक्तियों में भी देखा जाता है । साधनों के अभाव की पीड़ा इतनी गहरी होती है कि साधना के पथिक का सारा ज्ञान दब जाता है और वह साधक भी परमेश्वर को कोसने लगता है ।
यह कैसी विडम्बना है देखिए -परमेश्वर ने सारे साधन दिये है, पर किसी को आँख, किसी को कान, किसी को नाक या किसी को वाणी नहीं दिये । एक अंग या साधन नहीं है, बाकी सभी अंग या साधन हैं । सब कुछ दिये जाने पर भी एक साधन को लेकर साधक के मन में परमेश्वर के प्रति शंका उत्पन्न हो रही है । ऐसी स्थिति में साधक, साधना को साधना के रूप में समुचित पद्धति से नहीं कर पायेगा । साधक को यह विचार करना चाहिए कि जितने भी साधन मिले हुए हैं, वे मेरे कर्मो के आधार पर ही मिले हुए हैं और जो भी साधन नहीं मिले हैं वे भी मेरे कर्मो के आधार पर ही नहीं मिले हैं । यदि इस बात को साधक समझता है, तो इस समझ को विवेक के रूप में बदलें । क्योंकि समझने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है । इसलिए उस समझ को विवेक में बदलना चाहिए और उस विवेक को भी वैराग्य में बदलना पड़ता है । उसी स्थिति में साधक के मन में फिर कभी परमेश्वर के प्रति शक (शंका )नहीं होगा ।
साधक को यह भी समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर ने हमें जितने भी साधन दिये हैं, उन साधनों से भी हम अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि समय में थोडा बहुत पीछे हो सकता है, परन्तु प्रयोजन को अवश्य पूरा कर सकते हैं । सब साधन उपलब्ध है पर एक -आध साधन के अभाव में हताश-निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चाहे आँख न हो, चाहे कान न हो, चाहे हाथ न हो, परन्तु हमारी बुद्धि काम कर रही हैं, तो बहुत है । उस बुद्धि के बल पर हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो मनुष्य के द्वारा करने योग्य हैं ।
हम पर परमेश्वर की इतनी अधिक कृपा है कि उसने हमें वह अमुल्य बुद्धि दी है, जो किसी ओर प्राणी में देखने को नहीं मिलेगा है, यदि मनुष्य यह विचार नहीं करे कि 'मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया 'बल्कि यह विचार करे कि जो भी परमेश्वर ने मुझको साधन दिये, उन साधनों का प्रयोग कैसे करूँ, जिससे अपने प्रयोजन को पूरा कर सकूँ । हमें जितने भी साधन मिले हुए हैं, उनका भी पूरा प्रयोग नहीं कर पा रहे है, अर्थात सदुपयोग कम हो रहा है और दुरूपयोग अधिक हो रहा है । एक-एक साधन के दुरुपयोग को रोक-रोक कर उसे सदुपयोग में लगाया जाये, तो हमें समय की कमी दिखाई देगी और साधनों की अधिकता दिखाई देगी । परमेश्वर ने उदार मन से इतने साधन उपलब्ध कराये है कि उनके सदुपयोग करने का समय ही बच नहीं पाता है, तो और अधिक साधनों को पाकर भी क्या कर लेंगे ? हाँ जो भी साधन उपलब्ध हैं, उनका कितना प्रतिशत प्रयोग किया और कितना प्रतिशत प्रयोग नहीं किया, इसका आकलन किया जाए, तो मनुष्य को सही अनुभूति होगी कि साधन कम मात्रा में है या अधिक मात्रा में हैं ।
साधन कम है या अधिक हैं, यह जानना बड़ी बात नहीं है, बल्कि बड़ी बात यह जानना है कि उन साधनों का समुचित प्रयोग कितनी मात्रा में किया और कितनी मात्रा में नहीं किया । साधक को उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए, न कि साधनों को पाने की दिशा में । परमेश्वर ने हमें क्या नहीं दिया ? सब कुछ दिया है, ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है ।

Saturday 8 August 2015

गुस्सा छू-मंतर हो जाएगा।


पति का गुस्सा कम करने का अचूक
यदि आपके पति का स्वभाव भी गुस्सैल हैं और भी बात-बात पर गुस्सा हो जाते हैं तो :

जब आपके पति गहरी नींद में सोए हों तब एक नारियल, सात गोमती चक्र और थोड़ा का गुड़ लेकर इन सभी सामग्री को एक पीले कपड़े में बांध लें। अब इस पोटली को अपने पति के ऊपर सात बार ऊबार कर बहते हुए जल में बहा दें। इसके अलावा प्रतिदिन सूर्य को अध्र्य दें और अपनी मनोकामना कहें। कुछ ही समय में आपके पति का गुस्सा छू-मंतर हो जाएगा।

Wednesday 5 August 2015

तुम बिनु को मोरी राखे लाज


हे राम......... 
सूनो हमारी करुण पुकार .........
तुम बिनु को मोरी राखे लाज,
मेरे "राम" गरीब निवाज ,
तुम बिनु को मोरी राखे लाज...........

मैं असहाय अधम अज्ञानी,
पतितंन को सिरताज.......

पतित उधारन बिरदु तुम्हारो
सिद्ध करो महराज,

तुम बिन को मोरी राखे लाज..........

जिसने ध्यान लगाया ,पाया,
जैसे ध्रुव, गजराज........

हमरी बारी जाय छुपे तुम
किन कुंजन में आज........

तुम बिनु को मोरी राखे लाज...........

मैं अपराधी हूँ बड़ा
अवगुण भरा जहाज,

डूब रहा मझधार में ,
पार करो महराज.........

तुम बिनु को मोरी राखे लाज...........


Tuesday 4 August 2015

उसे किसी काल मैं कुछ भी भय नही

कायर का घर फूस का, भभकी चाहूँ पछित
सुरा के कछु डर नहीं, गज गिरी की भीत
,,,,,,,,,,कायर ( साधना क्षेत्र से भागने वाले अज्ञानी ) का घर तो फूंस का बना हुआ जेसा है, जो की आग ज़रा सी चिंगारी से भभक उठता है ( अर्थात उसकी स्थिति इतनी दुर्लब है जो तनिक सी क़ठिनाई परीक्षा अग्नि ) मैं स्वाहा हो जाती है, परन्तु उस शूरवीर ( सन्त ) को कुछ भी डर नही है,जिसकी दीवार हाथी के भी चाड़ने से भी नही गिरती ( अर्थात जिसकी साधना स्थिति सुद्ृाड है, उसे किसी काल मैं कुछ भी भय नही

ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है ।


मनुष्य के ज्ञान की दृष्टि से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्राणियों की संख्या असंख्य है । एक मनुष्य ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य मिलकर भी सब प्राणियों की संख्या को नहीं गिन सकते । मनुष्यों की दृष्टि से न गिनने की स्थिति में उसे असंख्य कहा जाता है । परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में प्राणियों की संख्या सीमित है । क्योंकि परमेश्वर अपनी असीमित शक्ति से सभी प्राणियों को गिनता है, इसलिए परमेश्वर सब के कर्म-फल को ठीक-ठीक प्रदान करता है ।
अनेक बार, अनेकों लोग परमेश्वर को कोसते रहते हैं कि "हमें कुछ नहीं दिया, हमें क्या दिया, हमें यह नहीं दिया, हमें वो नहीं दिया "इत्यादि अर्थात कोई कहता है हमें आँख नहीं दी, कोई कहता है हमें वाणी नहीं दी, कोई कहता है हमें हाथ, पाँव, नाक या और कोई अंग नहीं दिया, कोई कहता है हमें अच्छे माता-पिता नहीं दिये, कोई कहता है हमें जमीन नहीं दी । यदि एक-एक को गिनने लगे तो लिखते ही जायेंगे, लिखना बन्द नहीं हो पायेगा । जितने मनुष्य उतनी शिकायतें । शिकायतों की कतार बड़ी लम्बी बनेगी ।
ऐसा सोच-विचार रखना भौतिकवादी के लिए सामान्य हो सकता है, परन्तु यही सोच-विचार आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अत्यंत घातक होगा । एक ओर परमेश्वर को परमेश्वर स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी ओर परमेश्वर पर शक (शंका )किया जा रहा है । यदि परमेश्वर के विषय में किसी से भी यह पूछा जाये कि परमेश्वर न्यायकारी है या अन्यायकारी ? उत्तर यह मिलेगा कि न्यायकारी है । यदि परमेश्वर न्यायकारी है तो शक नहीं कर सकते और शक करना है तो परमेश्वर न्यायकारी नहीं हो सकता । परन्तु साधनों के अभाव से ग्रस्त जनता इस बात नहीं समझ सकती हैं । यही समझ का अभाव कभी-कभी साधना करने वाले आध्यात्मिक व्यक्तियों में भी देखा जाता है । साधनों के अभाव की पीड़ा इतनी गहरी होती है कि साधना के पथिक का सारा ज्ञान दब जाता है और वह साधक भी परमेश्वर को कोसने लगता है ।
यह कैसी विडम्बना है देखिए -परमेश्वर ने सारे साधन दिये है, पर किसी को आँख, किसी को कान, किसी को नाक या किसी को वाणी नहीं दिये । एक अंग या साधन नहीं है, बाकी सभी अंग या साधन हैं । सब कुछ दिये जाने पर भी एक साधन को लेकर साधक के मन में परमेश्वर के प्रति शंका उत्पन्न हो रही है । ऐसी स्थिति में साधक, साधना को साधना के रूप में समुचित पद्धति से नहीं कर पायेगा । साधक को यह विचार करना चाहिए कि जितने भी साधन मिले हुए हैं, वे मेरे कर्मो के आधार पर ही मिले हुए हैं और जो भी साधन नहीं मिले हैं वे भी मेरे कर्मो के आधार पर ही नहीं मिले हैं । यदि इस बात को साधक समझता है, तो इस समझ को विवेक के रूप में बदलें । क्योंकि समझने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है । इसलिए उस समझ को विवेक में बदलना चाहिए और उस विवेक को भी वैराग्य में बदलना पड़ता है । उसी स्थिति में साधक के मन में फिर कभी परमेश्वर के प्रति शक (शंका )नहीं होगा ।
साधक को यह भी समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर ने हमें जितने भी साधन दिये हैं, उन साधनों से भी हम अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि समय में थोडा बहुत पीछे हो सकता है, परन्तु प्रयोजन को अवश्य पूरा कर सकते हैं । सब साधन उपलब्ध है पर एक -आध साधन के अभाव में हताश-निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चाहे आँख न हो, चाहे कान न हो, चाहे हाथ न हो, परन्तु हमारी बुद्धि काम कर रही हैं, तो बहुत है । उस बुद्धि के बल पर हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो मनुष्य के द्वारा करने योग्य हैं ।
हम पर परमेश्वर की इतनी अधिक कृपा है कि उसने हमें वह अमुल्य बुद्धि दी है, जो किसी ओर प्राणी में देखने को नहीं मिलेगा है, यदि मनुष्य यह विचार नहीं करे कि 'मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया 'बल्कि यह विचार करे कि जो भी परमेश्वर ने मुझको साधन दिये, उन साधनों का प्रयोग कैसे करूँ, जिससे अपने प्रयोजन को पूरा कर सकूँ । हमें जितने भी साधन मिले हुए हैं, उनका भी पूरा प्रयोग नहीं कर पा रहे है, अर्थात सदुपयोग कम हो रहा है और दुरूपयोग अधिक हो रहा है । एक-एक साधन के दुरुपयोग को रोक-रोक कर उसे सदुपयोग में लगाया जाये, तो हमें समय की कमी दिखाई देगी और साधनों की अधिकता दिखाई देगी । परमेश्वर ने उदार मन से इतने साधन उपलब्ध कराये है कि उनके सदुपयोग करने का समय ही बच नहीं पाता है, तो और अधिक साधनों को पाकर भी क्या कर लेंगे ? हाँ जो भी साधन उपलब्ध हैं, उनका कितना प्रतिशत प्रयोग किया और कितना प्रतिशत प्रयोग नहीं किया, इसका आकलन किया जाए, तो मनुष्य को सही अनुभूति होगी कि साधन कम मात्रा में है या अधिक मात्रा में हैं ।
साधन कम है या अधिक हैं, यह जानना बड़ी बात नहीं है, बल्कि बड़ी बात यह जानना है कि उन साधनों का समुचित प्रयोग कितनी मात्रा में किया और कितनी मात्रा में नहीं किया । साधक को उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए, न कि साधनों को पाने की दिशा में । परमेश्वर ने हमें क्या नहीं दिया ? सब कुछ दिया है, ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है ।

Sunday 2 August 2015

शिव महापुराण की कथा सुनने का विशेष महत्व है।

श्रावण माह में सोमवार का दिन विशेष महत्व रखता है। सोमवार को शिव उपासना की कृपा प्राप्ति का द्वार माना गया है। जो देवों के भी देव हैं वही महादेव हैं अर्थात्‌ भगवान शिव हैं। हालांकि वर्ष में प्रत्येक महीने शिव उपासना किसी न किसी रूप में चलती ही रहती है लेकिन पूरा श्रावण का महीना शिव उपासना का ही महीना कहलाता है।

श्रावण मास में आशुतोष भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। जो प्रतिदिन पूजन न कर सकें उन्हें सोमवार को शिव पूजा अवश्य करनी चाहिए और व्रत रखना चाहिए। सोमवार भगवान शंकर का प्रिय दिन है। अतः सोमवार को शिवाराधना करना चाहिए। भगवान शिव को आशुतोष कहते हैं। आशुतोष का अर्थ होता है तुरंत खुश या प्रसन्न होने वाले या तत्काल तुष्ट होने वाले देवता। 

मासों में श्रावण मास भगवान शंकर को विशेष प्रिय है। और इस मास में भी सोमवार उन्हें अधिक प्रिय है। वैसे  श्रावण मास में प्रतिदिन शिवोपासना का विधान है। 


श्रावण में पार्थिव शिव पूजा अर्थात्‌ पवित्र मिट्टी से शिवलिंग स्थापित कर उन पर विधिवत पूजन का विशेष महत्व है। अतः प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोष को शिव पूजा या पार्थिव शिव पूजा अवश्य करनी चाहिए।

श्रावण मास में जितने भी सोमवार पड़ते हैं उन सबमें शिवजी का व्रत किया जाता है। इस व्रत में प्रातः गंगा स्नान अन्यथा किसी पवित्र नदी या सरोवर में अथवा विधिपूर्वक घर पर ही स्नान करके शिव मंदिर में जाकर स्थापित शिवलिंग का या अपने घर में पार्थिव मूर्ति बनाकर यथाविधि षोडशोपचार पूजन किया जाता है। यथासम्भव विद्वान आचार्यों से रुद्राभिषेक पूजन किया जाता है।

इस व्रत में श्रावण माहात्म्य और शिव महापुराण की कथा सुनने का विशेष महत्व है। पूजन के पश्चात संत एवं विद्वानों को भोजन कराकर एक बार ही भोजन करने का विधान है।

भगवान शिव का यह व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। जिन्होंने इस व्रत को किया वही इसका महत्व समझते हैं। भारत की हर शिव-स्थली में इन दिनों रौनक बढ़ जाती है। विशेष रूप से कैलाश मानसरोवर, अमरनाथ, उज्जैन, वाराणसी, सोमनाथ, त्र्यंबकेश्वर, ॐकारेश्वर, रामेश्वरम, केदारनाथ आदि।