Friday 14 August 2015

परमेश्वर ने सारे साधन दिये है

मनुष्य के ज्ञान की दृष्टि से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्राणियों की संख्या असंख्य है । एक मनुष्य ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य मिलकर भी सब प्राणियों की संख्या को नहीं गिन सकते । मनुष्यों की दृष्टि से न गिनने की स्थिति में उसे असंख्य कहा जाता है । परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में प्राणियों की संख्या सीमित है । क्योंकि परमेश्वर अपनी असीमित शक्ति से सभी प्राणियों को गिनता है, इसलिए परमेश्वर सब के कर्म-फल को ठीक-ठीक प्रदान करता है ।
अनेक बार, अनेकों लोग परमेश्वर को कोसते रहते हैं कि "हमें कुछ नहीं दिया, हमें क्या दिया, हमें यह नहीं दिया, हमें वो नहीं दिया "इत्यादि अर्थात कोई कहता है हमें आँख नहीं दी, कोई कहता है हमें वाणी नहीं दी, कोई कहता है हमें हाथ, पाँव, नाक या और कोई अंग नहीं दिया, कोई कहता है हमें अच्छे माता-पिता नहीं दिये, कोई कहता है हमें जमीन नहीं दी । यदि एक-एक को गिनने लगे तो लिखते ही जायेंगे, लिखना बन्द नहीं हो पायेगा । जितने मनुष्य उतनी शिकायतें । शिकायतों की कतार बड़ी लम्बी बनेगी ।
ऐसा सोच-विचार रखना भौतिकवादी के लिए सामान्य हो सकता है, परन्तु यही सोच-विचार आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अत्यंत घातक होगा । एक ओर परमेश्वर को परमेश्वर स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी ओर परमेश्वर पर शक (शंका )किया जा रहा है । यदि परमेश्वर के विषय में किसी से भी यह पूछा जाये कि परमेश्वर न्यायकारी है या अन्यायकारी ? उत्तर यह मिलेगा कि न्यायकारी है । यदि परमेश्वर न्यायकारी है तो शक नहीं कर सकते और शक करना है तो परमेश्वर न्यायकारी नहीं हो सकता । परन्तु साधनों के अभाव से ग्रस्त जनता इस बात नहीं समझ सकती हैं । यही समझ का अभाव कभी-कभी साधना करने वाले आध्यात्मिक व्यक्तियों में भी देखा जाता है । साधनों के अभाव की पीड़ा इतनी गहरी होती है कि साधना के पथिक का सारा ज्ञान दब जाता है और वह साधक भी परमेश्वर को कोसने लगता है ।
यह कैसी विडम्बना है देखिए -परमेश्वर ने सारे साधन दिये है, पर किसी को आँख, किसी को कान, किसी को नाक या किसी को वाणी नहीं दिये । एक अंग या साधन नहीं है, बाकी सभी अंग या साधन हैं । सब कुछ दिये जाने पर भी एक साधन को लेकर साधक के मन में परमेश्वर के प्रति शंका उत्पन्न हो रही है । ऐसी स्थिति में साधक, साधना को साधना के रूप में समुचित पद्धति से नहीं कर पायेगा । साधक को यह विचार करना चाहिए कि जितने भी साधन मिले हुए हैं, वे मेरे कर्मो के आधार पर ही मिले हुए हैं और जो भी साधन नहीं मिले हैं वे भी मेरे कर्मो के आधार पर ही नहीं मिले हैं । यदि इस बात को साधक समझता है, तो इस समझ को विवेक के रूप में बदलें । क्योंकि समझने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है । इसलिए उस समझ को विवेक में बदलना चाहिए और उस विवेक को भी वैराग्य में बदलना पड़ता है । उसी स्थिति में साधक के मन में फिर कभी परमेश्वर के प्रति शक (शंका )नहीं होगा ।
साधक को यह भी समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर ने हमें जितने भी साधन दिये हैं, उन साधनों से भी हम अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि समय में थोडा बहुत पीछे हो सकता है, परन्तु प्रयोजन को अवश्य पूरा कर सकते हैं । सब साधन उपलब्ध है पर एक -आध साधन के अभाव में हताश-निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चाहे आँख न हो, चाहे कान न हो, चाहे हाथ न हो, परन्तु हमारी बुद्धि काम कर रही हैं, तो बहुत है । उस बुद्धि के बल पर हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो मनुष्य के द्वारा करने योग्य हैं ।
हम पर परमेश्वर की इतनी अधिक कृपा है कि उसने हमें वह अमुल्य बुद्धि दी है, जो किसी ओर प्राणी में देखने को नहीं मिलेगा है, यदि मनुष्य यह विचार नहीं करे कि 'मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया 'बल्कि यह विचार करे कि जो भी परमेश्वर ने मुझको साधन दिये, उन साधनों का प्रयोग कैसे करूँ, जिससे अपने प्रयोजन को पूरा कर सकूँ । हमें जितने भी साधन मिले हुए हैं, उनका भी पूरा प्रयोग नहीं कर पा रहे है, अर्थात सदुपयोग कम हो रहा है और दुरूपयोग अधिक हो रहा है । एक-एक साधन के दुरुपयोग को रोक-रोक कर उसे सदुपयोग में लगाया जाये, तो हमें समय की कमी दिखाई देगी और साधनों की अधिकता दिखाई देगी । परमेश्वर ने उदार मन से इतने साधन उपलब्ध कराये है कि उनके सदुपयोग करने का समय ही बच नहीं पाता है, तो और अधिक साधनों को पाकर भी क्या कर लेंगे ? हाँ जो भी साधन उपलब्ध हैं, उनका कितना प्रतिशत प्रयोग किया और कितना प्रतिशत प्रयोग नहीं किया, इसका आकलन किया जाए, तो मनुष्य को सही अनुभूति होगी कि साधन कम मात्रा में है या अधिक मात्रा में हैं ।
साधन कम है या अधिक हैं, यह जानना बड़ी बात नहीं है, बल्कि बड़ी बात यह जानना है कि उन साधनों का समुचित प्रयोग कितनी मात्रा में किया और कितनी मात्रा में नहीं किया । साधक को उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए, न कि साधनों को पाने की दिशा में । परमेश्वर ने हमें क्या नहीं दिया ? सब कुछ दिया है, ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है ।

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