Wednesday 30 September 2015

मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा था

शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है।
इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवावस्था की शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया 
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।

ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू छलक आए कि "ये सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते भी है ।
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता" का पार्ट देख रहा था 
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की झोली फैला रखी है ।
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योगादि की शिछा दी है सब भूल जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे मेरा मार्ग दर्शा दिया ।)
सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता है ।....सर्व धर्मान परित्यज्यै ,मामेकं शरणं ब्रिज...।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है।
इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवावस्था की शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया 
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।

ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू छलक आए कि "ये सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते भी है ।
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता" का पार्ट देख रहा था 
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की झोली फैला रखी है ।
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योगादि की शिछा दी है सब भूल जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे मेरा मार्ग दर्शा दिया ।)
सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता है ।....सर्व धर्मान परित्यज्यै ,मामेकं शरणं ब्रिज...।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।















Sunday 20 September 2015

जिस दुःख मे नारायण का स्मरण हो वह सुख है , उसे दुःख कैसे कहेँ


श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से ब्रह्मास्त्र का निवारण किया । परीक्षित की रक्षा करने के बाद वे द्वारिका पधारने को तैयार हुए तो कुन्ती का दिल भर आया उनकी अभिलाषा है कि चौबीस घंटे मैँ श्रीकृष्ण को निहारा करुँ ।
अतः कुन्ती उनके मार्ग मेँ खड़ी हो गयी श्रीकृष्ण रथ से उतरे तो कुन्ती उनका वंदन करने लगी । वंदन से प्रभू बन्धन मेँ आते हैँ । वंदन के समय अपने सारे पापो को याद करने से हृदय दीन और नम्र होगा ।
कुन्ती मर्यादा - भक्ति है , साधन भक्ति है । यशोदा पुष्टि - भक्ति है । यशोदा का सारा व्यवहार भक्तिरुप था । प्रेम लक्षणा भक्ति मेँ व्यवहार और भक्ति मेँ भेद नहीँ रहता । वैष्णव की क्रियाएँ भक्ति ही बन जाती हैँ । प्रथम मर्यादा भक्ति आती है , उसके बाद पुष्टि भक्ति । मर्यादा भक्ति साधन है सो वह आरम्भ मेँ आती है , पुष्टि भक्ति साध्य है अतः वह अन्त मेँ आती है ।
कुन्ती की भक्ति दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति है , हनुमान जी भक्ति दास्यभक्ति है ,वे दास्यभक्ति के आचार्य है ।
दास्यभाव से हृदय दीन बनता है । दास्यभक्ति मेँ दृष्टि चरणो मेँ स्थिर करनी होती है। बिना भाव के भक्ति सिद्ध नही हो सकती है । कुन्ती वात्सल्य भाव से श्रीकृष्ण का मुख निहारती हैँ , चरण दर्शन से तृप्ति नही हुयी सो मुख देख रही हैँ , कुन्ती स्तुति करती है -

नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने ।
नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये ।।
जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है जिन्होँने कमलोँ की माला धारण की है . जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल है और जिनके चरणोँ मेँ कमल चिह्न हैँ ऐसे हे कृष्ण आपको बार बार वंदन है ।
प्रभू के सभी अंगो की उपमा कमल से दी गयी है >
नवकंज लोचन ,कंजमुख करकंजपद कंजारुणम् !!
भगवान की स्तुति रोज तीन बार करना है -- सुबह मेँ , दोपहर मेँ , और रात को सोने से पहले । इसके अलावा सुख , दुःख और अन्तकाल मेँ भी स्तुति करना है । अर्जुन दुःख मेँ स्तुति करता है , कुन्ती सुख मेँ स्तुति करती है , और भीष्म अन्तकाल मेँ स्तुति करते हैँ । सुखावसाने , दुःखावसाने , देहावसने स्तुति करना है ।
हम अति सुख मे भगवान को भूल जाते है , जीव पर भगवान अनेक उपकार करते हैँ किन्तु वह सब भूल जाता है । परमात्मा के उपकार भूलना नहीं चाहिए ।
कुन्ती कहती हैँ
बिना जल के नदी की शोभा नहीँ है , प्राण के बिना शरीर शोभा नहीँ देता . कुंकुम का टीका न हो तो सौभाग्यवती स्त्री नहीँ सुहाती । इसी प्रकार आपके विना पांडव भी नहीँ सुहाते । नाथ आपसे ही हम सुखी हैँ ।।
गोपी गीत मेँ गोपियाँ भी भगवान के उपकार का स्मरण करती हैँ > विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षासाद् वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् ।।
कुन्ती याद करती हैँ कि जब भीम को दुर्योधन ने विषमिश्रित लडडू खिलाये थे , उस समय आपने उसकी रक्षा की थी । लाक्षागृह से बचाया ।
मेरी द्रौपदी को जब दुःशासन भरी सभा वस्त्र खीँचने लगा उस समय आपने उसकी रक्षा की ,जिसे भगवान ढकते है उसे कौन उघाड़ सकता है ।
जीव ईश्वर को कुछ भी नही दे सकता , जगत का सब कुछ ईश्वर का ही है ।
कुन्ती कहती है नाथ हमारा त्याग न करो आप द्वारिका जा रहेँ है किन्तु एक वरदान माँगने की इच्छा है वरदान देकर आप चले जाइए ।
कुन्ती जैसा वरदान न किसी ने माँगा है न कोई माँगेगा ।
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।
हे जगदगुरु ! हमारे जीवन मे प्रतिक्षण विपदा आती रहेँ क्योकि विपदावस्था मे निश्चित ही आपके दर्शन होते रहेँगे ।
जिस दुःख मे नारायण का स्मरण हो वह सुख है , उसे दुःख कैसे कहेँ ?
सुख के माथे सिल परौ हरी हृदय से पीर ।
बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम जपाय ।।
श्रीहरिशरणम्

Sunday 13 September 2015

विकारों से अपनी अंतरज्योत को ढक लिया है।


आत्म-कल्याण
जीवन का सत्य परमात्म-तत्व या चेतना का प्रकाश बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर है । अंदर के इस परम तत्व को पा लेने से ही वाह्य संसार का सत्य दिखने लगता है या अंदर प्रकाश होता है, तभी बाहर प्रकाश फैलता है ।
इस सत्य की अनुभूति या परमात्म तत्व का बोध अंतर्मन में गोता लगाने से ही प्राप्त होता है । इसके लिए तप-साधना का मार्ग है । किसी आध्यात्मिक चेतना संपन्न मनीषी द्वारा ही यह संभव है । इतनी लंबी साधना के बाद जिस सत्य का बोध होता है, वही जीवन-दर्शन परिपक्व होकर विचारधारा का रूप ग्रहण करता है ।
‘आत्मकल्याण’ को समझने के लिए ये जान लेना जरूरी है कि हमारे शरीर में आत्म-रूप में परमात्मा बैठे हैं । अर्थात् आत्मा उसी परमात्मा का अंश है । आत्मा उस परमतत्व का एक सूक्ष्म अणु है और इस रूप में वह विराट सभी जीवों के अंदर है । इसलिए आत्मा और परमात्मा में अभेद है, अभिन्नता है ।
सच तो यह है कि आत्मा को अखंड रूप में देखना और पहचानना ही आत्मा के समष्टि रूप को जानना है । मेरे अंदर जो आत्मा है, वही दूसरे प्राणी के अंदर भी है । इस सत्य को जान लेने के बाद किसी प्राणी के लिए कल्याण का भाव आत्म-कल्याण ही है । इसलिए आत्म-कल्याण की भावना अपने उदात्त रूप में विश्वकल्याण की भावना में आगे चलकर परिवर्तित हो जाती है । जब आपके हृदय का गागर आनंद और आत्म संतोष से भर जाएगा तो संसार उसी चेतना के प्रकाश से जगमगाने लगेगा ।
जो मनुष्य मानसिक रूप से प्रफुल्ल हो और शारीरिक रूप से स्वस्थ हो, वही जगत् कल्याण कर सकता है । जब नदी भरी रहती है तब स्वत: प्यासी धरती और प्यासे जीव को उससे तृप्ति मिलती है । इसलिए पहले नदी का भरा रहना आवश्यक है। हमारा जीवन परमात्मा का अंश
है। एक ही ज्योति समस्त जीवों में जल रही है । अंतर यह होता है कि हमने संसार में आकर विकारों से अपनी अंतरज्योत को ढक लिया है।

Monday 7 September 2015

यह जो चमत्कार प्रभु मुझे दे रहा है, यह मुझे पता न चले।


 एक मुसलमान फकीर के जीवन में कहा गया है। फकीर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो फरिश्ते उतरे, और उन्होंने उस फकीर को कहा कि परमात्मा ने हमें भेजा है कि तुम कोई वरदान मांग लो। तुम जो चाहो! तुम पर प्रभु प्रसन्न हैं। तो उस फकीर ने कहा, लेकिन अब! अब तो कोई चाह न रही। देर करके तुम आए। जब चाह थी बहुत, कोई आया नहीं पूछने। और अब जब चाह न रही, तब तुम आए हो?

उन देवताओं ने कहा, हम आए ही इसीलिए हैं। जब चाह नहीं रह जाती, तभी तुम इतने पवित्र होते हो कि तुमसे पूछा जा सके कि कुछ चाहते हो? चाह के कारण ही तो हमारे और तुम्हारे बीच दरवाजा बंद था। चाह गिर गई, इसलिए दरवाजा खुला। अब हम तुमसे पूछने आए हैं कि तुम कुछ मांग लो।

उस फकीर ने कहा, लेकिन अब मैं क्या मांग सकता हूं! लेकिन जितनी फकीर जिद्द करने लगा कि मैं कुछ भी नहीं मांग सकता, उतने ही फरिश्ते जिद्द करने लगे कि कुछ मांग लो।

जिंदगी ऐसी ही उलटी है। जो लोग जितनी जिद्द करते हैं कि यह चाहिए, उतना ही चूकते चले जाते हैं। जो दौड़ते हैं पाने को, खो देते हैं। और जो पाने का खयाल ही छोड़ देते हैं, उनके पीछे सब कुछ दौड़ने लगता है।

उन देवताओं ने चरण पकड़ लिए और कहा कि परमात्मा हमसे कहेगा कि तुम इतना भी न समझा पाए! वापस जाओ। तुम कुछ मांग लो। तो उस फकीर ने कहा कि तुम्हीं कुछ दे दो, जो तुम्हें लगता हो। तो उन देवताओं ने कहा कि हम तुम्हें वरदान देते हैं कि तुम जिसे भी छू दोगे, वह बीमार होगा तो स्वस्थ हो जाएगा, मुर्दा होगा तो जीवित हो जाएगा। अगर सूखे पौधे को तुम छू दोगे, तो अंकुर निकल आएंगे।

उस फकीर ने कहा, इतनी तुमने कृपा की, थोड़ी कृपा और करो। और वह कृपा यह कि मेरे छूने से यह न हो, मेरी छाया के छूने से हो। मैं जहां से निकल जाऊं, मेरी छाया पड़ जाए सूखे वृक्ष पर, वह हरा हो जाए, लेकिन मुझे उसका पता न चले। अगर मेरे छूने से होगा, तो मेरा अहंकार पुन: निर्मित हो सकता है। मुझे पता न चले।

नहीं तो यह तुम्हारा वरदान, मेरे लिए अभिशाप हो जाएगा। मुझे पता न चले। मेरी शक्ति का मुझे पता न चले। मेरे संतत्व का मुझे पता न चले। मेरे रहस्य का मुझे पता न चले। यह जो चमत्कार प्रभु मुझे दे रहा है, यह मुझे पता न चले।

वह फकीर चलता गांव में, सूखे वृक्षों पर छाया पड़ जाती, वे हरे हो जाते। कभी किसी बीमार पर उसकी छाया पड़ जाती, वह स्वस्थ। हो जाता। लेकिन न तो उस फकीर को पता चलता और न उस बीमार को पता चलता, क्योंकि छाया के पड़ने से यह घटना होती।

यह तो कहानी है, लेकिन सूफी फकीर कहते हैं कि जब भी कभी कोई संत पैदा होता है, तो न उसे खुद पता होता है कि मैं संत हूं न किसी और को पता चलता है।

पता चलना, ठोस हो जाना है। पता न चलना, तरल होना है, विरल होना है, हवा की तरह होना है। जिन्हें हमने भगवान भी कहा है, बुद्ध या महावीर को, उन्हें खुद कुछ भी पता नहीं है। वे निर्दोष बच्चों की भांति हैं।

इसलिए हमें शरीर दिखाई पड़ते हैं, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हमें पत्थर दिखाई पड़ते हैं, प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह पदार्थ है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वही परमात्मा है।