Saturday 31 May 2014

चमत्कार-सिद्धि के चक्कर में कभी न पड़ें

गुरु बनाने में जल्दबाजी और हडबडाहट न करें |तत्काल सिद्धि -चमत्कार के चक्कर में गुरु न बनायें |गुरु मुक्ति का पथ दिखाने के लिए बनाया जाता है ,सिद्धि-चमत्कार के लिए नहीं |यह तो रास्ते के पत्थर हैं जो अवरोध ही उत्पन्न करते हैं की व्यक्ति इसी में फसकर और भौतिकता में लिप्त होकर रह जाए | गुरु की तलाश में पूर्ण बुद्धि और समय का उपयोग करें जिससे बाद में पचतावा हो ही नहीं |कभी हमने भी गुरु की बहुत तलाश की थी और जहाँ जाकर सर झुका था वहां से हमें स्वीकार ही उस समय नहीं किया गया |तीन साल तक भगाया जाता रहा ,उपेक्षा होती रही ,पर अंततः कृपा हुई और हम धन्य हुए |इसलिए पहले तो गुरु को स्थिर मन से मुक्ति को लक्ष्य कर तलाशें ,भौतिकता को लक्ष्य कर तलाशा गया गुरु सिद्धि-चमत्कार से आगे ले ही जा पायेगा कहा नहीं जा सकता |अतः लक्ष्य हमेशा अंतिम रखें ,अपने अन्दर अट्टू श्रद्धा -विश्वास-समर्पण रखें गुरु के प्रति भी और लक्ष्य के प्रति भी ,यह टूटने न पाए |गुरु तलाश कर वही पर अपनी श्रद्धा बनाये रखें और प्रयास रत रहे ,जरुरी नहीं की तत्काल कृपा हो ही जाए |भ्रम-आडम्बर-प्रचार-दिखावा-चमत्कार-सिद्धि के चक्कर में कभी न पड़ें ,यह आपको भटकाकर लक्ष्य मुश्किल कर सकते हैं |खुद को योग्य बनाएं बजाय गुरु की योग्यता देखने के |अपने को ऐसा करें की खुद गुरु आपको अपना शिष्य बनाने को आ जाए |एक बात हमेशा दिमाग में रखें कभी भी गुरु के प्रति बहुत तार्किक न हों ,क्योकि बहुत सी ऐसी चीजें है जो आप समझ नहीं सकते और गुरु आपको समय से पहले समझा नहीं सकता ,अतः केवल विश्वास पर रहें ,अति तर्क आपमें अश्रद्धा उत्पन्न कर सकता है ,जबकि आप गलत भी हो सकते हैं ,क्योकि ऊर्जा संरचना और प्रकृति का विज्ञान गुरु ही समझ सकता है जब तक वह आपको बताता नहीं |अतः बेवजह तर्क से दूर रहें |गुरु पर किया गया विश्वास अंततः आपको सफल अवश्य बना देगा |.

सब कुछ किसी एक में ही ढूंढता उचित नहीं

अक्सर हमसे फेसबुक पर लोग गुरु के बारे में पूछते मिलते हैं |हमसे योग्य और सक्षम गुरु के बारे में बताने का अनुरोध करते हैं |अक्सर लोग्य कहते मिलते हैं योग्य गुरु को कहाँ तलाशें ,कहाँ मिलेंगे योग्य गुरु |अर्थात गुरु को योग्य -सिद्ध-सक्षम अवश्य होना चाहिए जो इन्हें चमत्कार दिखा सके ,तुरंत सिद्धि दिला सके ,अपनी क्षमता और खुद के बारे में कोई नहीं सोचता | कैसे कहें की ऐसे गुरु की तलाश नहीं होती |फेसबुक पर गुरु की तलाश करना भूसे के ढेर में लगभग सुई ढूँढने जैसा ही है |ऐसा नहीं है की इस माध्यम पर भी गुरु नहीं हैं ,किन्तु उसकी परख के लिए भी तो आपमें वह क्षमता चाहिए ही की आप उन्हें परख सके |किसी के बताने से किसी को गुरु बना लेना बहुत उपयुक्त नहीं है |इसके लिए तो खुद ही देखना-समझना-प्रयास करना चाहिए |सबसे पहले अपने आस्था-विश्वास को दृढ करना चाहिए |जरुरी नहीं की हर गुरु हर विद्या में सिद्ध हस्त हो ,कोई भी एक विद्या में ही समर्थ होता है अक्सर अतः सब कुछ किसी एक में ही ढूंढता उचित नहीं |जरुरी नहीं की आपका गुरु अति समर्थ हो ,अगर आपमें श्रद्धा और विश्वास है तो वह गुरु भी भगवान से मिलाने में सक्षम है जिसने खुद भगवान के दर्शन नहीं किये |इसका अपना एक विज्ञान और सिद्धांत है |सब उर्जाओं का खेल है |जब आपकी श्रद्धा -विश्वास पत्थर को भगवान बना सकती है तो मनुष्य क्यों नहीं भगवान दिला सकता |आप विश्वास तो करें |

हमारी बात से बहुत से लोग असहमत हो सकते हैं किन्तु फिर भी हम कहना चाहेंगे की यदि आपने किसी को एक बार गुरु मान लिया तो फिर कभी भी आप उनपर अविश्वास-अश्रद्धा-संदेह न करें ,भले ही उनमे बाद में कमियां दिखें या लोग कहें |इसके कई कारण होते हैं ,हो सकता है लोग गलत हों ,हो सकता है जिस कमी की बात हो उसके कोई और कारण हो जो आप या लोग न समझ पाए ,हो सकता है जिस कमी को आपने देखा हो वह उन्होंने जान बूझकर आपको दिखाया हो ,हो सकता है उन्होंने आपकी परीक्षा ली हो ,हो सकता है जो कमी सामाजिक रूप से बताई जा रही हो उसके कोई गंभीर आध्यात्मिक कारण हों अथवा वह किसी उद्देश्य विशेष से जुड़ा हो |ऐसी बहुत सी बातें हो सकती हैं |[[ यद्यपि बहुत से आधुनिक गुरुओं में कमियां पाई जा रही हैं ,और बहुत लोग केवल चोला धारण कर गुरु बन इसे अपनी भौतिकता की पूर्ति का माध्यम बना बैठे हैं ,किन्तु इसका निर्णय गुरु बनाने के पहले ही करना चाहिए ,बाद में नहीं और अंधी श्रद्धा में गुरु नहीं बनाना चाहिए ]]वास्तव में अगर गुरु कम ही सक्षम है तो भी आप की साधना से उसका बहुत लेना देना नहीं होता |आपकी सिद्धि और लक्ष्य प्राप्त शुरू में आपके भाग्य -ग्रह गोचर पर और बाद में आपकी लगन-श्रद्धा और क्षमता पर निर्भर करती है |बहुत ही कम लोगों को ऐसे गुरु मिल पाते हैं जो शक्तिपात से उनमे शक्ति का संचार कर सकें |कहने को तो बहुत लोग दावा करते हैं |यदि किसी पर शक्ति पात न हो अथवा बहुत सक्ष्गम गुरु न मिले तो क्या व्यक्ति सिद्ध नहीं हो सकता |हो सकता है बिलकुल हो सकता है श्रद्धा- विश्वास में इतनी स्जक्ति है की वह कुछ भी कर सकती है |अगर आपमें एक बार गुरु के प्रति अश्रद्धा -अविश्वास उत्पन्न हुआ तो आप मान लीजिये आप भविष्य में भी सफल नहीं होंगे |आपमें भयानक कमी है |फिर यह उत्पन्न होगा अगले गुरु के प्रति भी ,उनमे भी यह कमियां खोजेगा और आपको कभी सफल नहीं होने देगा |

अधिकतर तो पहले गुरु को ही जानना चाहते हैं

जब आपमें किसी गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास ही नहीं है ,पहले गुरु की ही शक्ति जानना चाहते हैं ,अपने को गुरु को समर्पित न कर उनसे ही केवल प्राप्ति की इच्छा है तो गुरु मिले भी तो कैसे |जितनी समस्या योग्य गुरु मिलने की है उतनी ही समस्या शिष्य में योग्यता और समर्पण का अभाव भी है |सामान्य रूप से लौकिक गुरु या समाज में अधिकाँश दिखने वाले गुरु भौतिकता में लिप्त और आडम्बरपूर्ण अगर हैं तो शिष्य भी तो उन्ही के पास जाते हैं ,वह भी तो आडम्बर ही देखते हैं की किसके पास कितनी भीड़ है ,कितना वैभव है |अगर वास्तव में साधना की अभिलाषा होती है तो कुछ दिनों में भ्रम टूट जाता है और अविश्वास उत्पन्न हो जाता है ,फिर नए गुरु की तलाश शुरू हो जाती है |गुरु अगर सक्षम है और सिद्ध है तो वह कभी चमत्कार नहीं दिखायेगा ,कभी प्रदर्शन अथवा प्रचार के चक्कर में नहीं पड़ेगा |यह तो वही करते हैं जिनमे क्षमता का अभाव होता है और प्रदर्शन से भीड़ और शिष्य बटोरना चाहते हैं |सक्षम व्यक्ति को इतनी फुर्सत ही कहाँ है की वह इन सब के बारे में सोचे ,उसे तो अपनी साधना और लक्ष्य के अतिरिक्त कुछ दीखता ही नहीं |वह तो किसी शिष्य अथवा दीक्षा के चक्कर में ही जल्दी नहीं पड़ना चाहता अथवा बेहद योग्य का ही चुनाव करता है अपने ज्ञान को आगे ले जाने के लिए |
वास्तविक साधक अपनी साधना देखता है ,अपना लक्ष्य देखता है ,साधना में लिप्त रहता है ,आडम्बर-प्रचार-साधना में किसी प्रकार के अवरोधक तत्त्व से दूर रहता है |वह नहीं चाहता की उसके पास भीड़ लगे ,लोग इकट्ठे हों ,उसका ध्यान भटके ,या समय का दुरुपयोग हो |यद्यपि उसकी भी कुछ आवश्यकताएं होती हैं जिनकी पूर्ती उसे इसी भौतिक संसार से करनी होती हैं पर उसके लिए वह सीमित लोगो से ही उनकी पूर्ती करने की कोसिस करता है |उसकी सम्प्रदायगत और विद्या संरक्षण की भी जिम्मेदारी होती है पर इसके लिए वह बेहद योग्य और कम से कम शिश्यादी चुनने की कोसिस करता है |वह शिष्यों की भीड़ नहीं चाहता |वह चाहता है कम हों पर योग्य हों |इसके लिए वह बेहद सावधानी बरतता है ,सभी इच्छुकों को शिष्य बना लेने में उसकी रूचि नहीं होती |वह शिष्य की कठिन परिक्षा भी कभी कभी लेता है |चूंकि वह खुद योग्य होता है अतः योग्यता की परख होती है और योग्य ही चुनना चाहता है |योग्यता का शिक्षा अथवा ज्ञान से बहुत मतलब नहीं होता उसके लिए |वह तो गुरु में समर्पण ,निष्ठां ,श्रद्धा ,विश्वास ,लक्ष्य अथवा उद्देश्य के प्रति लगाव -समर्पण आदि देखता है |कितने ऐसे हैं जो यह अपने अन्दर रखकर गुरु की तलाश करते हैं |अधिकतर तो पहले गुरु को ही जानना चाहते हैं ,उसकी ही योग्यता जानना चाहते हैं |

अपनी क्षमता पर दृष्टि ही नहीं होती

आज बहुत से लोग पूछते रहते हैं की हमें किसी गुरु के बारे में बताएं ,जो हमें दीक्षा दे सकें ,हमारा मार्गदर्शन कर सकें |तंत्र क्षेत्र के जिज्ञासुओं की संख्या इनमे अधिक होती है चूंकि तंत्र साधना बिना गुरु के संभव ही नहीं और शक्ति की प्राप्ति तंत्र से ही संभव है |गुरु के बिना किसी भी आध्यात्मिक क्षेत्र में साधक की स्थिति अँधेरे में हाथ पाँव मारने जैसी ही होती है |गुरु अगर मिल गया तो साधक शीघ्र लक्ष्य की और बढ़ जाता है |किन्तु जितनी बड़ी समस्या आज गुरु को खोजने और मिलने की है ,उससे बड़ी समस्या खोजने वाले की श्रद्धा और विश्वास की है |
लोग कहते हैं की योग्य और सक्षम गुरु कहाँ से ढूंढें |कहाँ से ऐसे सिद्ध गुरु को पायें जो हमें सबकुछ दे सके |लोगों की सामान्य अभिलाषा भौतिक रुचिओं को लेकर ही होती है और वे सिद्धियाँ और चमत्कार चाहते हैं |अधिकतर गुरु खोजने वालों की यही अभिलाषा होती है की गुरु ऐसा मिले जो शीघ्र सिद्धि दिलवा दे या दे दे ,जिससे हमें भौतिक लाभ हो और हम चमत्कार कर सकें |लोग गुरु की सक्षमता और योग्यता ढूंढते फिरते हैं ,अपने योग्यता और सक्षमता के बारे में कोई नहीं सोचता |गुरु की शक्ति पहले जानना चाहते हैं ,अपनी क्षमता पर दृष्टि ही नहीं होती |गुरु पर श्रद्धा और उनपर विश्वास के बिना केवल चमत्कार और सिद्धि के लालच में बहुतेरे गुरु खोजते मिलते हैं |अपनी समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए गुरु खोजते मिलते हैं जबकि वास्तव में गुरु का सम्बन्ध भौतिकता से तो होना ही नहीं चाहिए |गुरु तो परम उन्नति ,परम लक्ष्य के लिए होना चाहिए |गुरु के बारे में लोग अधिक जानना चाहते हैं ,उनकी शक्ति पहले परखना चाहते हैं ताकि वह उस शक्ति को पा सकें ,उस शक्ति का उपयोग अपने लाभ के लिए कर सकें ,,अधिकतर का उद्देश्य मुक्ति-मोक्ष-ज्ञान प्राप्ति ,सत्य को जानना होता ही नहीं |ऐसे में तो वास्तविक गुरु मिलना ही मुश्किल होता है ,जो मिलेंगे वह भी तो भौतिकता वाले ही होंगे ,क्योकि आपका लक्ष्य भौतिकता ही तो है |ऐसे में परम लक्ष्य एक साथ प्राप्त करना मुश्किल होता है |

अगर चाहो तो ले लो मेरे दिल कि तलाशी

न लगावो मेरी मासूम मुहब्बत पे
इलज़ाम
तेरे नाम लेने के सिवा कुछ ओर काम
नहीं।
अगर चाहो तो ले लो मेरे दिल
कि तलाशी
तेरी धड़कन के सिवा कोई अहसास
नहीं।
देखे हैं ज़मानेमें मैंने कई ख़ुदा को
मेरा तुझ जैसा सच्चा कोई
ख़ुदा नहीं।
कैसे दिखलाऊँ तुझे मेरी पाक चाहत
मेरे बेबस ईमान का कोई गवाह
भी नहीं।
कभी आ कर देखलो मेरी आँखों में
तेरी तस्वीर सिवा .कोई
नज़ारा ही नहीं।
खो गई हूँ मैं तेरे इश्कमें इस कदर
तेरे नाम के बिना मेरी कोई
पहचान नहीं।

भारहीनता का अनुभव होता है


साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार (दृश्य) व शरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है |. यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है. उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं |(ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं).| सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है,| क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है? वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं.| यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है| अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें.| यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है.| वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है,| इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है. |इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, |परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है.| इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं\, करता रहे और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे. साथ ही इस समय उसे तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ.| इसके लिए योगवाशिष्ठ (महारामायण) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें.| उसमे बताई गई युक्तियों "जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही मिट्टी की सेना है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है." का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है,| सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है. |
जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है.| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक "मैं यह स्थूल शरीर हूँ" ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है|, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से "मैं शरीर हूँ" ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि "मैं सूक्ष्म शरीर हूँ" या "मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ" ऎसी भावना दृढ हो जाती है. |यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है.| दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है|. यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी "मैं शरीर हूँ" इस भावना का नाश करती है, |जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है. |ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है,| ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है.| परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए. 

मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई

                      क्या अनुभव हो सकता है ध्यान में 
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साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं.|हर साधक की अनुभूतियाँ भिन्न होती हैं |अलग साधक को अलग प्रकार का अनुभव होता है |इन अनुभवों के आधार पर उनकी साधना की प्रकृति और प्रगति मालूम होती है |साधना के विघ्न-बाधाओं का पता चलता है | साधना में ध्यान में होने वाले कुछ अनुभव निम्न प्रकार हो सकते हैं |
कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है.| यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर.| तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है.| परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है |. एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है.| दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है| तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है|. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शारीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि|. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है| यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है.| तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं.| मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है.| इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं |
अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है |. कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकलकर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है.| उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है.| इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं.| कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है.| कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया |मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी. ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है.| "स्थूल शरीर मैं ही हूँ" ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है.| कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं,| ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है. उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है. |यह सब साधना की बेहद उच्च अवस्था में ही होता है |साधना अथवा ध्यान के शुरू के चरणों में तो अधिकतर वही अनुभव होता है जो अलौकिक शक्तियां पेज पर हमने शुरू के दो पोस्टों में लिखा है |हर साधक के साथ हर अनुभव होता भी नहीं |सबके साथ भिन्न भिन्न अनुभव होते हैं |यहाँ लिखे जा रहे अनुभव उनकी एक बानगी मात्र हैं |इनसे अलग -भिन्न और अलौकिक अनुभव भी हो सकते हैं |यहाँ के विभिन्न अनुभव विभिन्न साधकों के विभिन्न अनुभवों पर आधारित हैं जिसे एकत्र कर अलौकिक शक्तियां पेज पर दिया जा रहा है जिससे सामान्य जानकारी मिल सके | 
कई साधकों को किसी व्यक्ति की केवल आवाज सुनकर उसका चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और जब वह व्यक्ति सामने आता है तो वह साधक कह उठता है कि, "अरे! यही चेहरा, यही कद-काठी तो मैंने आवाज सुनकर देखी थी, यह कैसे संभव हुआ कि मैं उसे देख सका?" वास्तव में धारणा के प्रबल होने से, जिस व्यक्ति की ध्वनि सुनी है, |साधक का मन या चित्त उस व्यक्ति की भावना का अनुसरण करता हुआ उस तक पहुँचता है और उस व्यक्ति का चित्र प्रतिक्रिया रूप उसके मन पर अंकित हो जाता है. इसे दिव्य दर्शन भी कहते हैं. | आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछ दिखाई देना, दीवार-दरवाजे आदि के पार भी देख सकना, बहुत दूर स्थित जगहों को भी देख लेना, भूत-भविष्य की घटनाओं को भी देख लेना, यह सब आज्ञा चक्र (तीसरी आँख) के खुलने पर अनुभव होता है. |
सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है.| यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है.| उस तेज को सहन करना कठिन होता है.| लगता है कि आँखें चौंधिया गईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है. |वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है.| इसको देखने का नित्य अभ्यास करना चाहिए.| समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है.| 

ॐ जीवं रक्ष

                     स्वर विज्ञानं से कैसे बनायें अपने जीवन को सुखद 
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सवेरे नींद से जगते ही नासिका से स्वर देखें। जिस तिथि को जो स्वर होना चाहिए, वह हो तो बिस्तर पर उठकर स्वर वाले नासिका छिद्र की तरफ के हाथ की हथेली का चुम्बन ले लें और उसी दिशा में मुंह पर हाथ फिरा लें। यदि बांये स्वर का दिन हो तो बिस्तर से उतरते समय बांया पैर जमीन पर रखकर नीचे उतरें, फिर दायां पैर बांये से मिला लें और इसके बाद दुबारा बांया पैर आगे निकल कर आगे बढ़ लें। यदि दांये स्वर का दिन हो और दांया स्वर ही निकल रहा हो तो बिस्तर पर उठकर दांयी हथेली का चुम्बन ले लें और फिर बिस्तर से जमीन पर पैर रखते समय पर पहले दांया पैर जमीन पर रखें और आगे बढ़ लें। यदि जिस तिथि को स्वर हो, उसके विपरीत नासिका से स्वर निकल रहा हो तो बिस्तर से नीचे नहीं उतरें और जिस तिथि का स्वर होना चाहिए उसके विपरीत करवट लेट लें। इससे जो स्वर चाहिए, वह शुरू हो जाएगा और उसके बाद ही बिस्तर से नीचे उतरें।
स्नान, भोजन, शौच आदि के वक्त दाहिना स्वर रखें।
पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने, अच्छे काम करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए। जब शरीर अत्यधिक गर्मी महसूस करे तब दाहिनी करवट लेट लें और बांया स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठण्ढक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा। जिस किसी व्यक्ति से कोई काम हो, उसे अपने उस तरफ रखें जिस तरफ की नासिका का स्वर निकल रहा हो। इससे काम निकलने में आसानी रहेगी। जब नाक से दोनों स्वर निकलें, तब किसी भी अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। इस समय ध्यान करें तो ध्यान जल्दी लगेगा।
दक्षिणायन शुरू होने के दिन प्रातःकाल जगते ही यदि चन्द्र स्वर हो तो पूरे छह माह अच्छे गुजरते हैं। इसी प्रकार उत्तरायण शुरू होने के दिन प्रातः जगते ही सूर्य स्वर हो तो पूरे छह माह बढ़िया गुजरते हैं। कहा गया है - कर्के चन्द्रा, मकरे भानु।
रोजाना स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, पहले स्वर देखें और जिस तरफ स्वर चल रहा हो उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें और साथ में यह मंत्र बोलते जाएं - ॐ जीवं रक्ष। इससे दुर्घटनाओं का खतरा हमेशा के लिए टल जाता है। आप घर में हो या आफिस में, कोई आपसे मिलने आए और आप चाहते हैं कि वह ज्यादा समय आपके पास नहीं बैठा रहे। ऎसे में जब भी सामने वाला व्यक्ति आपके कक्ष में प्रवेश करे उसी समय आप अपनी पूरी साँस को बाहर निकाल फेंकियें, इसके बाद वह व्यक्ति जब आपके करीब आकर हाथ मिलाये, तब हाथ मिलाते समय भी यही क्रिया गोपनीय रूप से दोहरा दें। आप देखेंगे कि वह व्यक्ति आपके पास ज्यादा बैठ नहीं पाएगा, कोई न कोई ऎसा कारण उपस्थित हो जाएगा कि उसे लौटना ही पड़ेगा। इसके विपरीत आप किसी को अपने पास ज्यादा देर बिठाना चाहें तो कक्ष प्रवेश तथा हाथ मिलाने की क्रियाओं के वक्त सांस को अन्दर खींच लें। आपकी इच्छा होगी तभी वह व्यक्ति लौट पाएगा। 
कई बार ऐसे अवसर आते हैं, जब कार्य अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन स्वर विपरीत चल रहा होता है। ऐसे समय में स्वर की प्रतीक्षा करने पर उत्तम अवसर हाथों से निकल सकता है, अत: स्वर परिवर्तन के द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए प्रस्थान करना चाहिए या कार्य प्रारंभ करना चाहिए। स्वर विज्ञान का सम्यक ज्ञान आपको सदैव अनुकूल परिणाम प्रदान करवा सकता है।

जैसे विद्युत की तरंगे रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घुमते हुए

 मनुष्य का शरीर जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी तथा आकाश इन पांच तत्वों से निर्मित होता है। और इसमे कोई संदेह नही कि जो चीज जिस तत्व से बनी हो उसमे उस तत्व के सारे गुण समाहित होते हैं। इस लिए पंचतत्वों से निर्मित मनुष्यों के शरीर में जल की शीतलता, वायु का तीब्र वेग, अग्नि का तेज, पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण, ओर आकाश की विशालता समाहित होता है। इस तरह मनुष्य अनंत शक्तियों का स्वामी है तथा इस स्थुल शरीर के अंदर अलौकिक शक्तियाँ छुपी हुई है। परंतु हमारे अज्ञानता के कारण हमारे अंदर की शक्तियाँ सुप्तावस्था में पड़ी हुई है। जिसे कोई भी व्यक्ति कुछ प्रयासों के द्वारा अपने अन्दर सोई हुई शक्तियों को जगाकर अनंत शक्तियों का स्वामी बन सकता है। मनुष्य के अन्दर की सोई हुई इसी शक्ति को ही कुण्डलिनी कहा गया है। कुण्डलिनी मनुष्य के शरीर की अलौकिक संरचना है, जिसके अंदर ब्रह्मंड की समस्त शक्तियाँ समाहित है। अगर सही शब्दों मे कहा जाय तो मनुष्य के अंदर ही सारा ब्रह्मंड समाया हुआ है। आज से हजारों साल पहले गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार गुरू अपने शिष्यों की कुण्डलिनी शक्ति को योगाभ्यास तथा शक्तिपात के माध्यम से जागृत किया करते थे। जीसके बाद शिष्य अलौकिक शक्तियों का स्वामी बन कर समाज कल्याण जथा जनहित में इन शक्तियों का सद्उपयोग किया करते थे। कुण्डलिनी जागरण के पश्चात मनुष्य के अन्दर अनेको अलौकिक एवं चमत्कारिक शक्तियों का प्रार्दुभाव होनेे लगता है और मनुष्य मनुष्यत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने लगता है। कुण्डलिनी जागरण के बाद अनेकों चमत्कारिक घटनायें घटने लगती हैं। किसी भी व्यक्ति को देखते हि उसका भुत, भविष्य, वर्तमान साधक के सामने स्पस्ट रूप से दिखाई देने लगता है। साथ ही सामने वाले व्यक्ति की मन की बातें भी स्पष्ट हो जाती हैं। कुण्डलिनी जागृत साधक हजारों कि.मी. दुर घट रही घटनााओं को भी स्पष्ट रूप से देख सकता है और दुर बैठे हुए व्यक्ति की मन की बातें भी पढ़ सकता है। प्राचिन ग्रंथों मे ऐसे अनेकों उल्लेख मिलते है। यह सब कुण्डलिनी जागरण की शक्ति से ही संभव है। कुण्डलिनी जागरण के पश्चात कठिन से कठिन तथा असंभव से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता है। कुण्डलिनी क्या है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई अलौकिक शक्ति को कुण्डलिनी कहा गया है। कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे जगत मे जीव की श्रृष्टि होती है। कुण्डलिनी सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर मेरूदण्ड के सबसे निचले भाग में मुलाधार चक्र में सुषुप्त अवस्था में पड़ी हुई है। मुलाधार में सुषुप्त पड़ी हुई कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना में प्रवेश करती है तब यह शक्ति अपने स्पर्श से स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, तथा आज्ञा चक्र को जाग्रत करते हुए मस्तिष्क में स्थीत सहस्त्रार चक्र मंे पहंुच कर पुर्णंता प्रदान करती है इसी क्रिया को पुर्ण कुण्डलिनी जागरण कहा जाता है। जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है मुलाधार चक्र में स्पंदन होने लगती है उस समय ऐसा प्रतित होता है जैसे विद्युत की तरंगे रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घुमते हुए उपर की ओर बढ़ रहा है। साधकांे के लिए यह एक अनोखा अनुभव होता है। जब मुलाधार से कुण्डलिनी जाग्रत होती है तब साधक को अनेको प्रकार के अलौकिक अनुभव स्वतः होने लगते हैं। जैसे अनेकों प्रकार के दृष्य दिखाई देना अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देना, शरीर मे विद्युत के झटके आना, एक ही स्थान पर फुदकना, इत्यादि अनेकों प्रकार की हरकतें शरीर मंे होने लगती है। कई बार साधक को गुरू अथवा इष्ट के दर्शन भी होते हैं। कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए प्रचिनतम् ग्रंथों मे अनेकों प्रकार की पद्धतियों का उल्लेख मिलता है। जिसमें हटयोग ध्यानयोग, राजयोग, मत्रंयोग तथा शक्तिपात आदि के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने के अनेकांे प्रयोग मिलते हैं। परंतु मात्र भस्रीका प्राणायाम के द्वारा भी साधक कुछ महिनों के अभ्यास के बाद कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में पुर्ण सफलता प्राप्त कर सकता है। जब मनुष्य की कुण्डलीनी जाग्रत होती है तब वह उपर की ओर उठने लगती है तथा सभी चक्रों का भेदन करते हुए सहस्त्रार चक्र तक पंहुचने के लिए बेताब होने लगती है। तब मनुष्य का मन संसारिक काम वासना से विरक्त होने लगता है और परम आनंद की अनुभुति होने लगती है। और मनुष्य के अंदर छुपे हुए रहस्य उजागर होने लगते हैं। मनुष्यों के भीतर छुपे हुए असिम और अलौकिक शक्तियों को वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है। आज कल पश्चिमी वैज्ञानिकों के द्वारा शरीर में छुपे हुए रहस्यों को जानने के लिए अनेकों शोध किये जा रहे हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि जिस तरह पृथ्वी के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों मे अपार आश्चर्य जनक शक्तियों का भंडार है ठीक उसी प्रकार मनुष्य के मुलाधार तथा सहस्त्रार चक्रों मे आश्चर्यजनक शक्तियों का भंडार है। आगामी अंकों में कुण्डलिनी जागरण करने की विधियो को विस्तार पुर्वक लिखने का प्रयास रहेगा जिससे कोइ भी साधक अपनी कुण्डलिनी शक्ति को जगा कर आत्म ज्ञान प्राप्त कर सके। 

उसने सारे संसारको अन्धा कर दिया है

यदि अपने चाहनेवालो को इश्वर भी चाहता है तब तो वह इच्छाशून्य नहीं है 

बहुत सुंदर तर्क है ! क्या इश्वर इच्छा का दास है ..? भक्त जबतक इच्छाशून्य न हो जाय तबतक भाग्यहीन है ! इश्वर नित्य नवीन,  पवित्र एवं चैतन्य है ! और चैतन्य में इच्छा..? थोडा सा अटपटा सा लगता है !  इच्छा का स्थान मैं कहा बताऊ..?क्योकि वह तो हर एक मनुष्य में और हर एक स्थान में घुसी हुई है ! प्रतेक दिशामें वह रहती है ! जब तक मनुष्य सो न जाए तब तक वह इच्छा जमीन से असमानकी सैर कर आती है ! जैसा मैं कहता हूँ,वह अत्यंत लघु है परन्तु उसमे अन्धकार इतना है कि उसने सारे संसारको अन्धा कर दिया है ! जहा वह गयी,उसका नाश हो गया ! जिसमे वह बेठ गयी वह नष्ट हो गया ! जब तक मनुष्य सब स्वार्थो का त्याग नहीं करता,तब तक वह उसे नहीं छोडती ! सबमे उसका अस्तित्व ऐसा है जैसा कि सोने,चांदी और ताम्बे में पानी का ! इनमे चाहे जितना खोजो परन्तु पानी का पता नहीं चलेगा ! मगर ज्यो ही आग पे रखो, पिघल कर सब पानी हो जाता है ! इसी तरह जीवजगत अपने अज्ञानसे आश्चर्यमें पड़ा हुआ है ! जब गुरु के उपदेशसे प्रत्क्ष्य हो जाता है तब इश्वर में मिल जाता है !.

यह नितांत सत्य है

यह नितांत सत्य है, मनुष्य शरीर पांच तत्वोंसे बना है और उन पांचो तत्वोंके अलग अलग धर्म और गुण है ! इन पांचो तत्वोंके गुणों का वर्णन इस प्रकार है !

१. मिट्टी...इसका तत्व नाक है ! उसको घ्राण कहते है ! सुगंध और दुर्गन्धका ज्ञान उसीसे होता है !
२.जल ...इसका तत्व रसना है ! स्वाद उसीसे लिया जाता है ! जलके प्रभावसे शरीर सदा खुश रहता है ! खारा, मीठा,कडवा, स्वाद उसीसे मालूम होते है !
३. अग्नि...इसका तत्व आँख है ! उसे दृष्टि कहते है ! इसमें प्रकाश भरा हुआ है !
४. वायु...इसका तत्व शरीर है ! जिसको त्वक कहते है ! सर्दी,गर्मी,कठोरता,कोमलता का ज्ञान उसीसे होता है !
५.आकाश...इसका तत्व कान है ! इसे श्रोत कहते है ! अच्छे बुरे शब्द इसी श्रोत इन्द्रियसे ही जाने जाते है ! ये ही कान है ! अगर कान न हो तो मनुष्य जड है !

तबतक वह इश्वर तक पहुँचने नहीं देती

वासना लोगोके हिरदये में ऐसा ही प्रभाव रखती है जैसा कि वीर्यमें मांस,छिलका,हड्डीया छुपे हुए है ! जितेंद्रिये लोग इच्छाके कारण थक गये है ! (इच्छा ही वासना है !)   थोड़े ही लोग इश्वरीय मार्गमें अंततक पहुचते है !
इच्छाका इतना बड़ा प्रभाव है कि प्राय: महात्माओं सम्मान प्राप्त करनेसे एकदम अलग रखा है ! इच्छाके रूप का क्या वर्णन किया जाय ...?? बाबा ने एक कथा सुनाई थी आपके सन्मुख रख रहा हु, एक संतने बनमें निवास किया ! उसने अपने मनमें ये विचार किया कि किसी से भिक्षा नहीं मांगूगा ! यदि कोई वस्तु अपने आप मिल जाये तो उसको भी अपने हाथसे मुखमें नहीं डालूँगा ! जब कुछ दिन इस प्रतिज्ञा में बीत गये और कुछ खाया नहीं तो इच्छा खूब रोने लगी ! मगर रोनेसे उसे कुछ लाभ नहीं हुआ ! जंगलमें किसी मेवेको या भूख की आग बुझानेवाली किसी वस्तुको उसने नहीं खाया ! जिस बृक्षके नीचे वह संत बेठा हुआ था,उसपर अकस्मात एक कोवा आ बेठा ! रोटी का एक टुकड़ा उसके मुख से नीचे गिरा और संत के सिरपर आ पड़ा ! उसे देखकर मनने इच्छा और उसमे व्याकुलता भी आयी,मगर उस संतने मन को उधर नहीं जाने दिया ! और इन्द्रियोंको उसने कहा की मुझे अलग छोड़ दे ! मैं अपने हाथसे इस रोटीके टुकड़ेको तुझे नहीं दूंगा ! भले तू आकर ले ले ! कहा जाता है कि इश्वरके प्रतापसे अंगूठेके बराबर सफेद चूहे के समान उसके मुँहसे एक प्राणी बाहर आया ! उस रोटी के टुकड़ेमें से थोडा सा खाकर बापस लोटा,जिससे कि उस संतके मुखमे वह प्रवेश करे ! संतने उसे भीतर नहीं जाने दिया ! मुँहको बंदकर लिया और पूछा- तू कोन है..? उसने जवाब दिया कि मैं तेरी इन्द्रियलोलुपता हु जो तुमहें इश्वरसे वंचित रखती है ! फिर पूछा तेरा मालिक कोन है ..?उत्तर दिया -शैतान ! फिर पूछा तेरा निवास कहा है..?? उत्तर दिया परायेपन का अस्तित्व !
संतने कहा, कई दिनोंसे मैंने तुझे भोजन और जल नहीं दिये,तो तू मर क्यों नहीं गयी ..? उत्तर मिला कि जल और भोजनके सिवा और दूसरी चीज़े भी मेरी रोज़ी है -भोज्य वस्तु है जो मेरे जीवन और अस्तित्व का कारण है ! संतने पूछा -वह क्या चीज़े है ..?? उत्तर मिला -उत्तम कर्मका अभिमान ! वह मेरा मुख्य भोजन है ! अपने योग किया और कहा कि अपने हाथसे कोई चीज़ तुझे खाने को नहीं दूंगा ! बस,माई और खुदी (अहम) है जिसने जगत को इश्वरसे अलग कर दिया है ! तेरा अस्तित्व मुझे ज्ञात है वह मच्छरके दानेसे अधिक नहीं ! परन्तु मेरा जीवन तेरे डरके कारण है ! इन्द्रियोंका फरेब,कामेच्छा,गुमराही और भी जितने बुरे काम है वे मेरी रंगे और पुट्ठे है ! इश्वरके लिये इच्छा के सिवा सभी इच्छाए मैं हूँ !        
परन्तु जिसने अपने अहमको नष्ट कर दिया,वह स्वतंत्र हो गया और अपने ध्येय पर पहुँच गया ! मनुष्य अपने अस्तित्वमें उपास्यसे मिल जाता है और उसकी कृपासे उसे प्राप्त कर लेता है,मैंने उसे नष्ट हो जानेके लिये गुरु निश्चित कर दिया ! उस संतने खुदगर्जी हठधर्मीको अपनेमें जाने का मार्ग नहीं दिया और इश्वरसे मिल गया ! सरकार, इच्छा की सूक्ष्मता इतनी अधिक है कि उसका बयान नहीं किया जा सकता ! उसकी पहचान यह है कि जैसे पुष्पमें सुगंध होती है, वह सुगंध अपने आप उठती है और पवनपर सवार हो के चलती है ! जिस स्थानसे वह आती है,आनेके समय उसे उसका ज्ञान नहीं होता ! इसी तरह इच्छाका आना जाना भी किसी पर प्रगट नहीं होता ! जबतक इधर उधर इच्छाओं के लिये स्थान है,तबतक वह इश्वर तक पहुँचने नहीं देती ! क्योकि दुनियामें इन्हीके परिमाणको पुनजन्म कहते है !
छोटी सी है जिन्दगी, हर बात में खुश रहता हूँ।
पास नहीं जो चेहरे, उनकी यादों में खुश रहता हूँ॥

मिला जो भी, उसे ईश प्रसाद मान के खुश रहता हूँ।
जो मिला नहीं, उसे प्रभु कृपा समझ के खुश रहता हूँ॥

कोई रूठा है तो, उसके इस अंदाज पर खुश रहता हूँ।
सदा हर गुजरे लम्हों से, सीख लेकर खुश रहता हूँ॥

छोड़ के कल की चिन्ता, इस आज में खुश रहता हूँ।
कोई साथ नहीं देता सदा, अपने आप में खुश रहता हूँ॥

आशा खुशियों की त्याग, सबकी मुस्कान में खुश रहता हूँ। 
जीवन है एक बुलबुला, इसलिए हर हाल में खुश रहता हूँ॥

उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए

                                                                                                क्या अनुभव हो सकता है ध्यान में 
ईश्वर के सगुण रूप की साधना करने वाले साधकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है या स्पष्ट दिखाई देने लगता है. |उस समय उनको असीम आनंद की प्राप्ति होती है.| परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर के दर्शन किये हैं.| वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं.| ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है. |ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं|. इसमें ईश्वर द्वारा भक्त पर शक्तिपात भी किया जाता है जिससे उसे परमानन्द की अनुभूति होती है.| कई साधकों/भक्तों को भगवान् के मंदिरों या उन मंदिरों की मूर्तियों के दर्शन से भी ऐसा आनंद प्राप्त होता है.| ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है.| यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें | कई सगुण साधक ईश्वर के सगुन स्वरुप को उपरोक्त प्रकार से देखते भी हैं और उनसे वार्ता भी करने का प्रयास करते हैं.| इष्ट प्रबल होने पर वे बातचीत में किये गए प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं, या किसी सांसारिक युक्ति द्वारा साधक के प्रश्न का हल उपस्थित कर देते हैं. |यह ईष्ट देव की निकटता व कृपा प्राप्त होने पर होता है. |इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए. |साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए.| वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते है|.
अलग मात्रा में उत्पन्न होती हैं ,रासायनिक संरचना और स्राव भिन्न होता है ,अतः सबकुछ भिन्न हो जाता है |ऐसे में उसका खुद का विश्लेषण और खुद का खुद को सुझाव ही अधिक उपयुक्त होता है |खुद में स्थित ईश्वर अधिक उपयोगी होता है |इसलिए आपको खुद की सुनानी चाहिए और इस प्रयोग को जरुर करना चाहिए 
इन सबके लिए आपको करना केवल इतना मात्र है की आप अपने दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर जब सोने के लिए अपने बिस्तर पर जाएँ तो बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी कल्पनाओं को नियंत्रित करें और याद करें की आप कितने बजे सुबह उठे थे |सुबह उठकर आपने क्या-क्या किया था ,कौन कौन से काम किये थे ,किससे किससे क्या क्या बातें की थी |इनमे से आपको क्या करना चाहिए था क्या नहीं करना चाहिए था ` बोलना चाहिए था |कैसा व्यवहार करना चाहिए था ,कैसा नहीं करना चाहिए था |एक बात यहाँ गंभीरता से ध्यान दें की आप अपने दिल की आवाज और भावना को बिलकुल एक तरफ रख दें अन्यथा आपके निर्णय गलत हो सकते हैं |आप केवल अपने अंतर्मन और बुद्धि की आवाज ही सुनें |अंता में आप एक बात बहुत गंभीरता से सोचें की आपके सुबह के समस्त क्रिया कलाप ,बातचीत में कितना आपके लिए भविष्य की दृष्टि से फायदेमंद था ,कितना नुकसानदेय था |सुबह के समय में से कितना समय आपने भविष्य की दृष्टि से सदुपयोग किया और कितना समय का दुरुपयोग हो गया |आपके कार्यों में से कितना आपके काम भविष्य में आएगा और क्या नहीं आएगा |इनमे से किस्मे आपको सुधार करना चाहिए की वह आपके लिए भविष्य में फायदेमंद हो सके |क्या परिवर्तन किया जाना चाहिए की वह भविष्य के लिए लाभदायक हो सके |कैसा व्यवहार करना चाहिए था की परिवार -बच्चों -लोगों पर आपका अच्छा प्रभाव पड़ता ,किस व्यवहार का क्या प्रभाव भविष्य में आएगा ,कैसा व्यवहार हमारे परिवार को किस और ले जाएगा |हमारे निर्णयों में क्या -क्या गलतियाँ हो गयी जो नहीं होनी चाहिए थी अथवा जिनसे हमें बचना चाहिए था अथवा जिनसे हमें नुकसान हो सकता है |किस व्यक्ति से कैसे और क्या बात करनी चाहिए थी ,क्या नहीं करना चाहिए था |क्या जो हमने किया वह पूरी तरह उचित था या कुछ अनुचित हो गया |इस समय आप पूरी तरह स्वार्थी रहें और केवल खुद का और भविष्य की दृष्टि से स्वार्थ देखें |सारे विश्लेषण केवल बुद्धि और अंतर्मन से करे |समस्त विश्लेषण आप तटस्थ होकर करें |करें कुछ नहीं केवल विश्लेषण करें |फिर आप क्रमशः अपने दिन भर के कार्यों और अंततः रात्री के सोने के समय तक का विश्लेषण करें शांत -निर्लिप्त भाव से |फिर केवल एक निश्चय करें कल से आप कोशिश करेंगे की गलतियाँ कम हों |ऐसे कार्यों को प्राथमिकता देंगे जो की भविष्य के लिए लाभदायक हों |आपकी दृष्टि भविष्य को देखते हुए लाभ और हानि पर अधिक होनी चाहिए |फिर आप सो जाएँ |
उपरोक्त क्रिया आप लगातार बिना नागा रोज महीने भर करें |केवल १० मिनट खुद का विश्लेषण करें |१० मिनट से अधिक इसमें नहीं लगेगा |यह आपका आत्मनिरीक्षण है |यह वह उपलब्धियां दे सकता है जो कोई नहीं दे सकता |२४ घंटे के विभिन्न प्रपंचों में से केवल १० मिनट उनके विश्लेषण पर खर्च करें |निश्चित मानिए जीवन बदल जाएगा |अपने बच्चों -परिवार को भी इसके लिए प्रेरित करें ,समझाएं |एक ऐसे परिवार और सदस्यों का निर्माण होने लगेगा जिनमे बहुत कम कमियां होंगी |जिनके हर कार्य सुलझे और सोचे-समझे होंगे |जो आदर्श बनने लगेंगे |आप खुद आदर्श होंगे और आपका परिवार भी आदर्श होगा |आपको आपके भाग्य का पूर्ण फल मिलेगा ,क्योकि गलतियों की सम्भावना बहुत कम हो जायेगी |सोच-कर्म-व्यवहार सब बदल जाएगा |आप कह सकते हैं की यह सब तो हम जानते ही हैं इनमे कौन सी ख़ास बात है |पर फिर भी आप आप इसे करके देखें |आप परिणाम से खुद आश्चर्यचकित रह जायेंगे |आपका ईश्वर जो आपके अन्दर है वह आपको रास्ता दिखाता है ,उन्नति के राह बताता है ,गलतियाँ बताता है ,आप उसकी सुनिए तो सही ,सुनकर देखिये तो सही 

परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है

हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं. उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है. ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो. वह आनंद वर्णनातीत होता है. इसे शक्तिपात कहते है. जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है. उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है. इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं. ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है. साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है. उस समय शारीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है. उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंगा भी फड़कते हुए देखे जाते हैं. यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे. 

इसके लिए भगवान् व गुरु से प्रार्थना करें कि

साधना के मार्ग पर बिना गुरु के चल पाना संभव नहीं है |साधन के दौरान होने वाले अनुभव का विशेषण गुरु ही कर पाता है और आगे का मार्गदर्शन तदनुरूप करते हैं ,|साधना में आने वाले विघ्न बाधाओं का निवारण गुरु द्वारा ही संभव हो पता है |कभी कभी ऐसे भी अवसर आते हैं की साधक विचलित होने लगता है और गुरु की अत्यंत आवश्यकता महसूस करता है |साधित होने वाली शक्ति को कैसे धारण किया जाए इसकी तकनिकी गुरु ही मार्गदर्शित करता है ,अगर मार्गदर्शन न मिले तो आई शक्ति न नियंत्रित अथवा धारण होने पर बिखर भी सकती है और ऊर्जा परिपथ को बिगाड़ भी सकती है |कभी कभी गुरु के ही मात्र कृपा से कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है और साधक आगे बढ़ जाता है |इसी तरह से ईष्ट की प्रबलता भी साधक को अत्यधिक प्रभावित करती है |ईष्ट की ऊर्जा के आसपास संघनित होते ही परिवर्तन शुरू हो जाते है और साधक में उनके प्रवेश से बदलाव और उन्नति आने लगती है | 
जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है. वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा. 
कभी कभी गुरु या ईष्ट देव अपने सूक्ष्म शरीर से साधक के शरीर में प्रवेश करते हैं और उसे प्रबुद्ध करते हैं. प्रारम्भ में साधक को यह महसूस होता है कि आसपास कोई है जो अदृश्य रूप से उसके साथ साथ चलता है. कभी कोई सुगंध, कभी कोई स्पर्श, कभी कोई ध्वनि सुनाई दे सकती है, जिसका पता आसपास के किसी आदमी को नहीं लगेगा, उनका कोई वास्तविक कारण प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देगा. इसके बाद जब यह अभ्यास दृढ हो जाता है तो शरीर का कोई अंग तेजी से अपने आप हिलना, रोकने की कोशिश करने पर भी नहीं रुकना और उस समय एक आनंद बना रहना, इस प्रकार के अनुभव होते हैं. तब साधक यह सोचता है कि यह क्या है? कहीं साधना में कुछ गलत तो नहीं हो रहा. यह किसी दैवीय शक्ति का प्रभाव है या आसुरी शक्ति का? तो इसका उत्तर है कि यदि दांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि दैवीय शक्ति का प्रभाव है और यदि बांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति का प्रभाव है और वह शरीर में प्रवेश करना चाहती है. साथ ही यदि एक आनंद बना रहे तो समझें कि दैवीय शक्ति प्रवेश करना चाहती है. किन्तु यदि क्रोध से आँखें लाल हो जाएँ, मन में बेचैनी जैसी हो तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति है. इस प्रकार जब पहचान हो जाए तो यदि आसुरी शक्ति हो तो उसे बलपूर्वक रोकना चाहिए. इसके लिए भगवान् व गुरु से प्रार्थना करें कि वह इस आसुरी शक्ति से हमारी रक्षा करें व उसे सदा के लिए हमसे दूर हटा दें. यदि दैवीय शक्ति है तो आपको प्रयत्न करने पर शीघ्र ही यह पता लग जाएगा कि वे कौन हैं और आगे आपको क्या करना चाहिए 

कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है

श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं.| कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है, परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं.| अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.| इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है.| यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं.| विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. |स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. |प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. |इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है,| उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें.| सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती.| मन एकाग्र होता है.| साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे.| जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है.| इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है.| मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है.| इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर - ऊपर की और खींचा जाता है.| यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है.| यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है.| इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं. |साधना में अथवा ध्यान में अथवा आराधना में कुछ समय मन को एकाग्रकर इन क्रियाओं को करने से शक्ति प्राप्ति और उन्नति की मात्रा बढ़ जाती है |यही सब छोटी-छोटी तकनीकियाँ हैं जो गुरु लोग अपने शिष्यों को क्रमशः बताते हैं और उनकी सफलता को नियंत्रित और तीब्र करते रहते हैं ,तभी तो कहा जाता है की साधना -आराधना का मार्ग बिना गुरु के अँधेरे में हाथ-पाँव चलाने जैसा ही होता है |सामान्य साधक जो बिना गुरु के साधना करते हैं उनमे से अधिकतर को इन छोटी -छोटी तकनीकियों की जानकारी नहीं होती और बहुत परिश्रम पर भी उपलब्धि की मात्रा कम होती है ,कभी कभी तो शून्य होती है ,क्योकि वह तकनीकियों को जानते ही नहीं की ऊर्जा कैसे बढायें ,कैसे उसे उर्ध्वमुखी करें ,कैसे आने वाली ऊर्जा को नियंत्रित करें ,कैसे प्राप्त ऊर्जा को अपने में समाहित करें |साधना -आराधना केवल हाथ जोड़कर प्रार्थना करना ही नहीं है अथवा मंत्र जप नहीं है |यह ऊर्जा को नियंत्रित कर खुद में समायोजित कर उसका उपयोग साधना की उन्नति में करना है | 
Kundalini is awakened early strength

Breathing normally walk and close the anus repeatedly compressed and then give up. Or inhale close to filling the hold and anus, and as long as long to stop breathing to stop in and take off anus anus while breathing slowly unzip it says Ashwini currency. | Many seeker keep it up and do it unconsciously or enjoy the experience they have divine power, but they do not know they are a compound verb. | Ashwini currency means "to be like the horse or the horse." Horse keeps his anus opens and closes within the generates more power than all other creatures. | The Ashwini currency and the Kundalini energy is waking up early and is waking up to the higher centers. | the currency of all diseases are destroyed. | especially the lower parts of the body tend to be quiet all disease. | Women do not experience of labor. | Each new seeker or those whose practice has stopped it must Ashwini currency. | It may also experience heat in the body, | the time to slow it down or whatever, as well as pranayama. | Winter cold and it does not. | To concentrate the mind. | Seeker at all stages of that money must remain the Ashwini. | the more it is practiced as much power expands. | there is a loss of life from this action and the life of spiritual high energy use Yoga means for states to achieve or can be special. | the dam is a process similar to the Ashwini currency. | inside the anus closed shrinking - and pulled up. | the semen and sends it to the top and is protected by the semen. | it is the perfect tool to conquer the Kundalini awakening and Apnwayu. | such that the two actions may automatically. They must. They provide spiritual progression. | Meditation or some time in meditation or worship the power of the mind to the attainment and progress of these actions Akagrkr increases | That's all that small technologies and their success gurus tell their pupils respectively control and intense live, only the so-called spiritual master without -aradna route is like running in the dark extremities | General seeker who most of them without the discipline to master these techniques short -coti does not reduce the amount of achievement is also very hard, sometimes to zero, because of the energy he does not know how Increase techniques, how to make it upward, how to control the energy to get energy to absorb | Silence -aradna not only to pray with folded hands is not chanting or mantra | control the energy and use it to adjust themselves to the advancement of the discipline |


असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने में पूर्णतः समर्थ

चाहे आप किसी भी प्रकार के शारीरिक अथवा मानसिक रोगों से ग्रस्त हों परंतु महामृत्युंजय मंत्र के माध्यम से उस रोग को पुर्णतः समाप्त किया जा सकता है तथा रोग, भय, शोक रहित जीवन जीते हुए दिर्घायु जीवन का पुर्णं सुख प्राप्त किया जा सकता है।
महामृत्युंजय मंत्र में वह अनोखा प्रभाव है जिसके माध्यम से संभावित अकाल मृत्यु का भी निवारण किया जाना संभव है। साथ ही अनेकों जटिल एवं असाध्य रोगों को भी पूर्णतः समाप्त किया जा सकता है। शास्त्रों मे उल्लेखित महामृत्युंजय साधना से संबधित कथा के अनुसार मुकुंद मुनि निःसंतान होने के कारण अत्यधिक दुखी थे परंतु उन्होंने भगवान शिव की कठिन तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया तथा आर्शिवाद स्वरूप संतान प्राप्ति का वरदान मांग लिया परंतु भगवान शंकर ने उनके सामने एक शर्त रखी कि यदि तुम्हें बुद्धिमान, ज्ञानी, सदचरित्र तथा बुद्धिमान पुत्र चाहिए तो वह मात्र 16 वर्ष की अल्प अल्पायु होगा परंतु अज्ञानी दुर्बुद्धि चरित्रहिन संतान होने पर वह पुर्णायु प्राप्त हो सकेगा।
मुकुंद मुनि तथा उसकी पत्नी ने सचरित्र सद्बुद्धि तथा ज्ञानवान पुत्र प्राप्ति का वरदान मांग लिया भगवान शंकर प्रसन्न होकर उन्हे इच्छित वरदान देकर अदृष्य हो गये। समय आने पर उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ। जिसका नाम मार्कडेय रखा गया। मार्कडेय बचपन से ही सुन्दर तेजस्वी बुद्धिमान तथा सर्व गुण संपन्न थे। उनका लालन-पालन तथा शिक्षा-दिक्षा उचित रूप से किया गया।
धीरे-धीरे मार्कडेय की ज्ञान गरिमा का प्रकाश दुर-दुर तक फैलने लगा। परंतु जल्दी ही वह समय भी आ पहुंचा जिस समय के लिए भगवान शंकर ने बालक की आयु निश्चित किया थी। तब मुनि को चिंता सताने लगी अपने पिता को चिंतित देख कर मार्कडेय ने चिंता का कारण पुछा तब मुकुंद मुनि ने अपने बेटे से सब कुछ बता दिया। अपने अल्पायु की बात सुन उन्होंने कहा कि पिता जी आप चिंता मत किजीए क्योंकि जिस भगवान शंकर ने मुझे जन्म दिया है उनका दुसरा नाम महामृत्युंजय है। तथा मुझे अपनी भक्ति एवं भगवान महामृत्युंजय की साधना पर पूर्णं विश्वास है।
इस प्रकार से मार्कण्डेय ने भगवान महामृत्युंजय की साधना आराधना प्रारंभ कर दिया, परंतु इसी बीच उनकी जीवन अवधि समाप्त हो गई और काल उनके जीवन का हरण करने आ पंहुचा परंतु का से उन्होंने विनती कर कहा कि मुझे महामृत्युंजय स्त्रोत का पाठ .पुरा करने दे। परंतु काल के गर्व ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति नही दी और उनके प्राणों का हरण करन करने को आतुर होने लगा तब भगवान शंकर शिवलिंग से प्रकट होकर अपने भक्त की रक्षा करने के लिए काल पर प्रहार किया जिससे काल डर कर भाग गया। इस तरह मार्कण्डेय ने महामृत्युंजय स्त्रोत का पाठ पुरा किया तब भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हे अमरता का वरदान दिया।
महामृत्युंजय साधना के माध्यम से मनुष्य अपने अकाल मृत्यु का निवारण करने के साथ ही साथ रोग-शोक, भय, बाधा इत्यादि को पूर्णतः समाप्त कर अपने जीवन को सुखी एवं सम्पन्न बना कर जीवन का पूर्णं आनंद उठा सकता है परंतु इस अनुष्ठान को पूर्ण विधी-विधान के साथ किया जाना चाहिए। यदि संभव हो तो किसी गुरू अथवा मार्ग दर्शक के दिशा निर्देशन तथा संरक्षण में करें तो ज्यादा उचित होगा।
साधना विधान
महामृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान महाशिवरात्री, श्रावण सोमवार, सोम प्रदोष इत्यादि शुभ मुहूर्त में प्रारंभ करना चाहिए। सर्वप्रथम साधक स्नानआदि से निवृत होकर उत्तर अथवा पूर्व दिशा की ओर मुंह कर कंम्बल के आसन पर बैठें तथा सामने भगवान महा मृत्युंजय का चित्र तथा यंत्र को एक लकड़ी के तख्ते पर पीला आसन बीछा कर एक स्टील के थाली मे अष्टगंध से स्वास्तीक बनाकर उसके उपर स्थापित कर दें फिर विधी-विधान के साथ जल, गंगाजल, दुध, दही, धी इत्यादि से भगवान महामृत्युंजय के चित्र अथवा विग्रह तथा महामृत्युंजय यंत्र का अभिषेक करें तत्पश्चात भगवान महामृत्युंजय का पूजन धुप, दीप, मदार फुल, बेलपत्र, धतुरा, अष्टगंध से पूजन करना चाहिए तत्पश्चात अपनी अभिष्ठ कामना के लिए हाथ मे जल लेकर संकल्प करें और प्रार्थना करे कि हे भगवान महामृत्युंजय मैं अपने अमुक कार्य के लिए आपके मंत्र का अनुष्ठान कर रहा हुं आप मुझे अपना आशिर्वाद तथा कृपा दृष्टि बनायें तथा मेरे अभिष्ट कामनाओं को पूर्ण करें। तत्पश्चात महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।
महामृत्ंयुंजय मंत्र का अनुष्ठान अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग जप संख्या निर्धारित की गयी है। महामृत्युंजय मंत्र का जप मानसिक तनाव तथा भय नाश के लिए 1100 मत्रों का जप का संकल्प करें जटिल रोगों से मुक्ति तथा अनिष्ट बाधाओं के निवारण के लिए 11000 मंत्रों के जप का संकल्प करना चाहिए तथा अकाल मृत्यु निवारण के लिए सवा लाख मंत्र जप का अनुष्ठान करना चाहिए।
पूर्ण विधी-विधान के साभ किया गया मत्र जप अनुष्ठान पूर्ण रूप से सफलता दायक तथा समस्त प्रकार के रोग शोक भय तनाव को समाप्त करने अकाल मृत्यु निवारण करने में समर्थ है साथ ही साथ मान सम्मान सुख संपदा केश मुकदमों में सफलता संतान प्राप्ति तथा जटिल एवं असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने में पूर्णतः समर्थ है।
मंत्र- त्रयंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनात्मृत्योर्मुक्षीम मामृतात्।
महामृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान किसी योग्य ब्राहमण से करायें यदि साधक स्वयं यह अनुष्ठान करना चाहे तो किसी योग्य गुरू अथवा मार्गदर्शक से मंत्र दिक्षा प्राप्त कर लें तथा गुरू के संरक्षण में करना चाहिए।

शरीर को स्वस्थ रखने और शक्ति बढ़ने के लिए

       स्वास्थ्य -              बुढ़ापे को दूर रखने, स्वस्थ रहने, दिमागी ताकत, माइग्रेन को ठीक करने और शरीर को शक्ति देने वाला एक अचूक, सुरक्षित और अनूठा आयुर्वेदिक उपाय 
अश्वगंधा चूर्ण और मुलहठी चूर्ण (इन के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए मेरे नोट्स पढ़ें) सामान मात्र में मिलाएं. सुबह - शाम १/२ चम्मच से शुरू करके इसे १-१ चम्मच तक रोज सादे, गुनगुने पानी, या ढूढ़ से लें. अगर पानी से ले रहे हों तो खाने के १ घंटे बाद लेना सर्वोत्तम है. दूध के साथ ले रहे हों तो खाली पेट भी ले सकते हैं. अच्छा यही है की जब आप पानी के साथ लें तो पेट एकदम भरा हुआ भी न हो और एकदम खाली भी न हो. यह एकदम निरापद है और बच्चे से लेकर वृद्ध को दिया जा सकता है. यह मिश्रण हल्का गरम होता है. जिनको इससे असुविधा हो गर्मी में मात्र घटा सकते है. बच्चों को आयु अनुसार मात्र काम कर दें. शरीर को स्वस्थ रखने और शक्ति बढ़ने के लिए यह बहुत ही प्रभावी और आजमाया हुआ नुस्का है. 

जुकाम, खाँसी और बुखार में राहत

पुदीना : विभिन्न भाषाओं में यह भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है | हिंदी में इसे पुदीना और पोदीना, मराठी में पंदिना, बंगला में पुदीना, संस्कृत में पूतिहा, पुदिन:, गुजराती में फुदिनो, अंग्रेजी में स्पियर मिंट तथा लैटिन भाषा में मेंथा सैटाइवा व मेंथा विरिडस इत्यादि नामों से जाना जाता है|

यह कफ वात शामक, वातानुमोलक, कृमिघ्न, हृदयोत्तेजक, दुर्गन्धनाशक, वेदना स्थापक, कफ नि:सारक है| इसमें विटामिन 'ए' की भरपूर मात्रा होती है। 
अरुचि, अपच, अतिसार, अफारा, श्वास, कास, ज्वर, मूत्ररोग इत्यादि में अति उत्तम माना गया है| वैसे तो पुदीना पूरे वर्ष पाया जाता है किन्तु इसका सर्वाधिक उपयोग गर्मियों में होता है|

- पुदीना निम्न और उच्च दोनों ही रक्तचाप के लिए लाभकारी है| यह ध्यान रहे कि उच्चरक्तचाप के मरीज पुदीना सेवन में नमक का प्रयोग न करें| निम्न रक्तचाप के मरीज को पुदीने में कालीमिर्च व सेंधा नमक मिला कर सेवन करना चाहिए| 
-पुदीने की पत्तियों का ताजा रस नीबू और शहद के साथ समान मात्रा में लेने से पेट की बीमारियों में आराम दिलाता है।

- पुदीने का रस कालीमिर्च और काले नमक के साथ चाय की तरह उबालकर पीने से जुकाम, खाँसी और बुखार में राहत मिलती है।

- सिरदर्द में ताजी पत्तियों का लेप माथे पर लगाने से दर्द में आराम मिलता है।

- मासिक धर्म समय पर न आने पर पुदीने की सूखी पत्तियों के चूर्ण को शहद के साथ समान मात्रा में मिलाकर दिन में दो-तीन बार नियमित रूप से सेवन करने पर लाभ मिलता है। 

- पेट संबंधी किसी भी प्रकार का विकार होने पर एकचम्मच पुदीने के रस को एक प्याला पानी में मिलाकर पिएँ।

- अधिक गर्मी या उमस के मौसम में जी मिचलाए तो एक चम्मच सूखे पुदीने की पत्तियों का चूर्ण और आधी छोटी इलायची के चूर्ण को एक गिलास पानी में उबालकर पीने से लाभ होता है। 

- पुदीने की पत्तियों को सुखाकर बनाए गए चूर्ण को मंजन की तरह प्रयोग करने से मुख की दुर्गंध दूर होती है और मसूड़े मजबूत होते हैं। 

- एक चम्मच पुदीने का रस, दो चम्मच सिरका और एक चम्मच गाजर का रस एकसाथ मिलाकर पीने से श्वास संबंधी विकार दूर होते हैं।

- पुदीने के रस को नमक के पानी के साथ मिलाकर कुल्ला करने से गले का भारीपन दूर होता है और आवाज साफ होती है। 

- पुदीने का रस रोज रात को सोते हुए चेहरे पर लगाने से कील, मुहाँसे और त्वचा का रूखापन दूर होता है।

मुझे तपस्वी वेश की लाज रखनी थी

एक बहुरूपिया राजा भोज के दरबार में पहुंचा और उसने पांच मुद्राओं की दक्षिणा मांगी। भोज ने कहा, 'कलाकार को कला के प्रदर्शन पर पुरस्कार दिया जा सकता है लेकिन दक्षिणा (दान) नहीं।' बहुरूपिया स्वांग दिखाने के लिए तीन दिन का समय मांग चला गया। अगले दिन राजधानी के बाहर एक पहाड़ी पर एक जटाधारी तपस्वी को समाधि रूप में देख चरवाहों का समूह इकट्ठा हो गया।
किसी ने पूछा, 'महाराज, इस भूमि को पवित्र करने आप कहां से पधारे?' लेकिन तपस्वी ने न तो आंखें खोली और न अपने शरीर को रंचमात्र हिलाया। चरवाहों से उस तपस्वी का वर्णन सुन लोगों का जमघट उस पहाड़ी पर लग गया। दूसरे दिन भोज के प्रधानमंत्री दर्शनार्थ पहुंचे और तपस्वी के चरणों में रत्नों की थैली रख आशीर्वाद देने की प्रार्थना की, मगर बाबा पर कोई असर नहीं पड़ा। तीसरे दिन राजा भोज खुद तपस्वी के पास जा पहुंचे। उनके चरणों में अशर्फियां, फल-फूलों के साथ चढ़ाकर आशीर्वाद मांगते रह गए, लेकिन तपस्वी के मौन के समक्ष उन्हें भी निराश होकर वापस लौटना पड़ा।
चौथे दिन बहुरूपिये ने दरबार में उपस्थित होकर बताया कि तपस्वी का स्वांग उसी ने किया था। अब उसे पुरस्कार के रूप में पांच मुद्राएं दी जाएं। राजा भोज ने कहा- मूर्ख! मैंने स्वयं जाकर तेरे चरणों में हजारों अशर्फियां रखकर स्वीकार करने की प्रार्थना की, तब तो तूने आंख तक नहीं खोली और अब मात्र पांच मुद्राएं मांग रहा है।' बहुरूपिया बोला, 'महाराज! उस समय सारे वैभव तुच्छ थे। मुझे तपस्वी वेश की लाज रखनी थी। अब पेट की आग और कला का प्रदर्शन, अपने परिश्रम का पुरस्कार चाहता है।' राजा भोज दंग रह गए।

Friday 30 May 2014

हमारी बहन बेटी की सुरक्षा करती है

एक वेश्या और एक फिल्म ऐक्ट्रैस मै क्या अंतर है ??

फेसबुक पर किसी की एक पोस्ट पर गरमा गरम बहस के दौरान एक बुद्धिजीवी ने एक से पूछा आपकी नजर मै एक वेश्या और एक फिल्म ऐक्ट्रैस में क्या अंतर है ??

उस व्यक्ति ने जवाब दिया :-
वेश्या वो है जो देश के 80 प्रतिशत बलात्कारियो से हमारी बहन बेटी की सुरक्षा करती है उन भूखे भेडियो की भूख चंद सिक्को के लिऐ अपना बदन बेच कर मिटाती है
और

फिल्म ऐक्ट्रेस वो बिमारी है जो देश के 100 प्रतिशत बलात्कारियो को जन्म देती है और अपने बदन की नुमाइश करके हमारी बहन बेटियो के लिऐ
असुरक्षा पैदा करती है !!

वो बुद्धिजीवी जवाब सुनकर निरुतर था और मै भी और आप ..?

में तुम्हे अपनी गोद में उठाकर चलता था


एक भक्त था वह बिहारी जी को बहुत मनाता था, 
बड़े प्रेम और भाव से उनकी सेवा
किया करता था. 

एक दिन भगवान से 
कहने लगा – 

में आपकी इतनी भक्ति करता हूँ पर आज तक मुझे आपकी अनुभूति नहीं हुई. 
मैं चाहता हूँ कि आप भले ही मुझे दर्शन ना दे पर ऐसा कुछ कीजिये की मुझे ये अनुभव हो की आप हो. 

भगवान ने कहा ठीक है. 
तुम रोज सुबह समुद्र के किनारे सैर पर जाते हो, 
जब तुम रेत पर
चलोगे तो तुम्हे दो पैरो की जगह चार पैर दिखाई देगे,
दो तुम्हारे पैर होगे और दो पैरो के निशान मेरे होगे.
इस तरह तुम्हे मेरी 
अनुभूति होगी. 

अगले दिन वह सैर पर गया,
जब वह रे़त पर चलने लगा तो उसे अपने पैरों के साथ-साथ दो पैर और भी दिखाई दिये वह बड़ा खुश हुआ,
अब रोज ऐसा होने लगा. 

एक बार उसे व्यापार में घाटा हुआ सब कुछ चला गया,
वह रोड पर आ गया उसके अपनो ने उसका साथ छोड दिया. 

देखो यही इस दुनिया की प्रॉब्लम है, मुसीबत मे सब साथ छोड देते है.

अब वह सैर पर गया तो उसे चार पैरों की जगह दो पैर दिखाई दिये.

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बुरे वक्त मे भगवन ने साथ छोड दिया.

धीरे-धीरे सब कुछ ठीक होने लगा फिर सब लोग उसके
पास वापस आने लगे. 

एक दिन जब वह सैर 
पर गया तो उसने देखा कि चार पैर वापस दिखाई देने लगे. 

उससे अब रहा नही गया,
वह बोला- 

भगवान जब मेरा बुरा वक्त था तो सब ने मेरा साथ छोड़ दिया था पर मुझे इस बात का गम नहीं था क्योकि इस दुनिया में ऐसा ही होता है,
पर आप ने भी उस समय मेरा साथ छोड़ दिया था, 
ऐसा क्यों किया? 

भगवान ने कहा – 

तुमने ये कैसे सोच लिया की में तुम्हारा साथ छोड़ दूँगा,
तुम्हारे बुरे वक्त में जो रेत पर तुमने दो पैर के निशान देखे वे तुम्हारे पैरों के नहीं मेरे पैरों के थे, 

उस समय में तुम्हे अपनी गोद में उठाकर चलता था और आज जब तुम्हारा बुरा वक्त खत्म हो गया तो मैंने तुम्हे नीचे उतार दिया है. 

इसलिए तुम्हे फिर से चार पैर दिखाई दे रहे है
कुछ दिन बाद लड़का बीमार हो गया और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा.... चेकअप के बाद बाहर आकर डॉक्टर ने माँ से कहा -: 
"आपके बेटे का दिल खराब हो गया है अगर उसे नही बदला गया तो उसे बचाया नही जा सकता।"
.
.
बाद में लड़के ने अपनी माँ से पूछा -: "माँ आप रो क्यों रही हो .... मैं ठीक तो हो जाऊंगा ना...??"

माँ ने रोते हुऐ कहा -: "हाँ बेटा तुम जरूर ठीक हो जाओगे.....!!"

कुछ दिन बाद बेटा होश में आया तो उसने डॉक्टर से अपनी माँ के बारे में पूछा तो डॉक्टर ने उसको एक पत्र दिया उसमें लिखा था.....

"बेटा! अगर तुम इस लेटर को पढ़ रहे हो तो इसका मतलब तुम ठीक हो .... कुछ दिन पहले तुमने पूछा था कि मैं तुम्हें तुम्हारे जन्मदिन पर क्या दूँगी .... मैं नही जानती थी कि मैं तुम्हें क्या दूँगी लेकिन अब तुम्हारे लिये मेरा गिफ्ट मेरा 'दिल' है...!!!

लेकिन सॉरी बेटा इसके बाद अब मैं तुझे कुछ नही दे पाऊंगी।
अपना ख्याल रखना..

हमारे ज्योतिष-शास्त्रों में वर्णन है कि

 हमारे ज्योतिष-शास्त्रों में वर्णन है कि लग्नेश, पंचमेश और नवमेश का नग कोई भी पहिन सकता है। यह पिछले कुछ वर्षों से ही अधिक प्रचलन में आया है कि दशा आदि के अनुसार नग पहिनाए जाएँ । क्योंकि मतों में मूलभूत अंतर है, मैं इस पर कोई अनावश्यक बहस में भी पड़ना नहीं चाहता।
मेष, कर्क, सिंह, वृशिक, धनु और मीन लग्न वाले - मोती, माणिक, मूंगा और पुखराज में से ही , अगर आवश्यक हो तो कोई एक या एक से अधिक नग पहिन सकते है (आवश्यक नहीं कि पहने ही)। इनको नीलम, हीरा, ओपल, सफ़ेद पुखराज,पन्ना, गोमेद व लहसुनिया बहुत ही अच्छे जानकार ज्योतिषी कि सलाह के बिना नहीं पहनना चाहिए।
उपाय - इन लग्नों वाले लोग चाहें और आवश्यक हो तो - शनि के लिए छाया-दान, शुक्रवार को शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाना, इसी दिन दूध, चावल, चीनी अथवा खीर का दान, बुधवार को गाय को हरा चारा, किन्नर को हरे कपड़े का दान, सबूत मूंग पक्षियों को डालना अथवा दान, व राहू-केतू के उपाय आवश्यकतानुसार करने चाहिएँ।
वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर और कुम्भ लग्न वाले आवश्यकतानुसार नीलम, हीरा, ओपल, सफ़ेद पुखराज।पन्ना, गोमेद व लहसुनिया पहिन सकते हैं। इनको मोती, माणिक, मूंगा और पुखराज कभी नहीं पहनना चाहिए।
उपाय - इन लग्नों वाले लोग चाहें और आवश्यक हो तो - सोमवार को शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाना, इसी दिन दूध, चावल, चीनी अथवा खीर का दान, मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में पीले लड्डू अथवा बूंदी का प्रसाद चड़ाना, वीरवार को विष्णु मंदिर में केले अथवा पीले लड्डुओं को चड़ाना, आदि कर सकते हैं।
नोट - जो नग मैंने लिखे हैं, वह लग्नेश, पंचमेश और नवमेश के 6/8/12 भावों में होने पर भी पहिन सकते हैं।

शनि की शांति होती है।

प्रति शनिवार तेल में अपना चेहरा देखकर किसी गरीब को तेल दान करें।

- हर शनिवार को काली वस्तुओं का दान करें। जैसे काले तिल, काले वस्त्र, काला कंबल, काला कपड़ा, काली छतरी का दान करें।

- प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करें।
- शनि मंत्रों का जाप सबसे सटीक उपाय है -

(अ) 'ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:।'
(ब) 'ॐ शं शनये नम:।' 
- शनि के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए 7 प्रकार के अनाज व दालों को मिश्रित करके पक्षियों को चुगाएं।

- कडवे तेल में परछाई देखकर, उसे अपने ऊपर सात बार उसारकर दान करें, पहना हुआ वस्त्र भी दान दे दें, पैसा या आभूषण आदि नहीं। 

बिगड़े हुए शनि अथवा इसकी साढ़ेसाती के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए अनेक सरल और मनोवैज्ञानिक उपाय हैं । जैसे अपना काम स्वयं करना, फिजूलखर्च से बचना, कुसंगति से दूर रहना, बुजुर्गों का आदर करना, दान पुण्य के तौर पर दीन दुखी की सहायता करना, अन्न- वस्त्र दान समाज सेवा व परोपकार से अभिप्रेरित होकर शनि का दुष्प्रभाव घटता जाता है। अनेक सज्जन शनिवार के दिन तेल खिचड़ी फल सब्जी आदि का भी दान कर सकते हैं । 

शनि दान जप आदि करने से साढ़ेसाती के फल पीडादायक नहीं होते हैं। गुरूद्वारा मंदिर देवालय तथा सार्वजनिक स्थलों की स्वयं साफ सफाई करने रोगी और अपंग व्यक्तियों को दान देने से भी शनि की शांति होती है।

तुम्हारे शरीर को एक पल भी अपने साथ नहीं रखना चाहते

मैं ब्रह्म हूँ अर्थात सारा जगत, जिसमें रहने व बसने वाले सभी जीव - जन्तु - पशु - पंछी - वृक्ष आदि सभी ब्रह्म हैं अर्थात ब्रह्ममय हैं।

फिर जाति - धर्म - मजहब के नाम पर तुम सब आपस में क्यों बटे हुए हों। तुम सब मेरा ही अंश हो। ब्रह्म की कोई जाती नहीं होती है, वह तो स्वयं में परमात्मा स्वरुप होता हैं। अर्थात मेरा ही स्वरूप हैं।

मैं अपनी दो महाशक्तिओं (ॐ एवं ह्रीं) द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना करता हूँ। मैं ही देह रूप और प्राण रूप में जगत में व्याप्त हूँ। अज्ञानता वश जीव एक दूसरे के प्रति भेद भाव तथा घृणा का भाव रखता है और स्वयं को परमश्रेष्ठ समझता हैं।

शरीर से प्राण निकल जाने के बाद घृणा और अहंकार का अंत हो जाता हैं। जो लोग तुमसे प्रेम करते हैं, वही लोग देह से प्राण निकल जाने के बाद तुम्हारे शरीर को एक पल भी अपने साथ नहीं रखना चाहते, वल्कि उसका त्याग के देते हैं।

मैं ओंकार रूप में देह और ह्रींकार रूप में प्राण हूँ। यह दोनों महाशक्तियाँ मेरी ही है और मैं ही ब्रह्म हूँ, इसमें बिलकुल संदेह न करें।

तो हमारे दुखों का अंत हो सकता हैं I

हम सभी अपने दुखों का स्वयं एक कारण हैं I जितना प्रेम हम स्वयं से करते है, उतना ही यदि दूसरों से भी किया जायें, तो हमारे दुखों का अंत हो सकता हैं I

एक माता के गर्भ से चार भाइयों का जन्म तो आवश्य होता है, मगर चारों भाईओं में आज प्रेम - सद्भावना और एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना देखने को नहीं मिलती है I

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का अपने सभी भाइयों के प्रति समान प्रेम तथा त्याग था तथा सभी भाई आपस में सभी का समान रूप से प्रेम एवं त्याग की भावना से आदर व सम्मान करते थें उनके प्रेम में लेश मात्र भी दिखाबा नहीं था, परन्तु आज दिखाबा नज़र आता है I बिना स्वार्थ के कोई किसी के काम नहीं आता हैं, एक दूसरे को नीचा दिखाने के इरादे से षड़यंत्र करते थकते नहीं हैं I

क्षमा - त्याग - वलिदान प्रेम और सद्भावना किसी के भी मन में एक दूसरे के प्रति नहीं है तथा सत्य का आचरण कोई नहीं करता है, जो कि हमारे दुखों का मूल कारण हैं I

छल-प्रपंच, कपट का त्यग कर निष्कपट भाव से एक दूसरे के प्रति प्रेम करें I अपने शत्रुओं का भी समान रूप से आदर करें उनका कभी भी स्वप्न में भी अहित न सोचें, ईश्वर से उनके हित की कामना करें, आपके दुखों का स्वत: ही अंत हो जायेगा I

एक दूसरे की सहायता करें I
I may be the end of our sorrows
We own all of their pain as a cause I do love ourselves, the more did the others go, that I may be the end of our sorrows

Four brothers born from the womb of the mother is so essential, but today in the four brothers love - goodwill towards each other and I do not see the sense of sacrifice

Mr. Purushottam Ram equal dignity of all his brothers and all the brothers in love and the sacrifice of all equally love and respect and honor the spirit of sacrifice were Dikhaba was not an iota of their love, but today look Dikhaba I do not work for anyone who selflessly, conspiracy with the intent to embarrass each other that I never get tired

Sorry - Disclaimer - Vlidan love and goodwill towards one another whatsoever is not and does not hold the truth, which are the root cause of our sufferings, I


Trick-delusion, Tyg of fraud to be honest, I love each other equally respected by his enemies to harm them in any dream, gender, God wished their interest, your sorrows automatic I will only end

बताओ कहाँ मिलेगा श्याम

बताओ कहाँ मिलेगा श्याम
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम।
चरण पादुका लेकर सब से पूछ रहे रसखान॥
वो नन्ना सा बालक है, सांवली सी सूरत है,
बाल घुंघराले उसके, पहनता मोर मुकुट है।
नयन उसके कजरारे, हाथ नन्ने से प्यारे,
बांदे पैजन्यिया पग में, बड़े दिलकश हैं नज़ारे।
घायल कर देती है दिल को, उसकी इक मुस्कान॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम...
समझ में आया जिसका पता तू पूछ रहा है,
वो है बांके बिहारी, जिसे तू ढूंढ रहा है।
कहीं वो श्याम कहाता, कहीं वो कृष्ण मुरारी,
कोई सांवरिया कहता, कोई गोवर्धन धारी।
नाम हज़ारो ही हैं उसके कई जगह में धाम॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम...
मुझे ना रोको भाई, मेरी समझो मजबूरी,
श्याम से मिलने देदो, बहुत है काम ज़रूरी।
सीडीओं पे मंदिर के दाल कर अपना डेरा,
कभी तो घर के बाहर श्याम आएगा मेरा।
इंतज़ार करते करते ही सुबह से हो गई श्याम॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम...
जाग कर रात बिताई भोर होने को आई,
तभी उसके कानो में कोई आहात सी आई।
वो आगे पीछे देखे, वो देखे दाए बाए,
वो चारो और ही देखे, नज़र कोई ना आए।
झुकी नज़र तो कदमो में ही बैठा नन्ना श्याम॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम...
ख़ुशी से गदगद होकर गोद में उसे उठाया,
लगा कर के सीने से बहुत ही प्यार लुटाया।
पादुका पहनाने को पावं जैसे ही उठाया,
नज़ारा ऐसा देखा कलेजा मूह को आया।
कांटे चुभ चुभ कर के घायल हुए थे नन्ने पावं॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम...
खबर देते तो खुद ही तुम्हारे पास मैं आता,
ना इतने छाले पड़ते ना चुबता कोई काँटा।
छवि जैसी तू मेरी बसा के दिल में लाया,
उसी ही रूप में तुमसे यहाँ मैं मिलने आया।
गोकुल से मैं पैदल आया तेरे लिए बृजधाम॥
भाव के भूखे हैं भगवान्...
श्याम की बाते सुनकर कवि वो हुआ दीवाना,
कहा मुझको भी देदो अपने चरणों में ठिकाना।
तू मालिक है दुनिया का यह मैंने जान लिया है,
लिखूंगा पद तेरे ही आज से ठान लिया है।

वह सब ब्रह्म रुप हैं

मैं कौन हूँ ? जिस नाम से सगे-संबंधी य मित्र आदि तुमें पुकारते है अथवा जानते हैं, क्या वही तुम्हारा वास्तविक नाम या स्वरुप है अथवा तुम कोई और हो?

मैं कौन हूँ- स्वयं से अन्तर क्रिया में जाकर पूछें? आपके सवालों का जबाब तुम्हें स्वयं मिल जायेगा। परन्तु मैं तुम्हें फिर भी तुम्हारे वास्तविक स्वरुप से परचित कराने क प्रयास करुंगा...

परब्रह्म परमात्मा ॐकार स्वरुप है। जिसे तीन भागों में विभाजित किया गया हैं (१) अकार (२) उकार (३) मकार, (१) अकार का तत्यप्राय: (ब्रह्मा) (२) उकार का तत्यप्राय: विष्णु (३) मकार का तत्यप्राय: शिव से हैं, जो हमारे शरीर से संबंधित हैं। हमारे शरीर का प्रथम भाग ब्रह्मा (सर से कंठ तक) द्वितीय भाग विष्णु (कंठ से नाभि तक) तृतीय भाग शिव (कमर से निचे तक)

ब्रह्मा का तत्यप्राय: "ब्राह्मण" से है, विष्णु का तत्यप्राय: "वैश्य" से है तथा शिव का तत्यप्राय: "शूद्र" से है। हमारे शरीर के तीनों भागों को ही ब्रह्मा-विष्णु एवं शिव कहा गया है, जो पूर्णतय: सत्य हैं।

तुम स्वयं पूर्ण ब्रह्म हों, ब्रह्म की कोइ जाति अथवा सम्प्रदाय नही होता है फ़िर तुम जातिवाद या सम्प्रदायवाद के झगड़े में क्यों फंसे हुए हों।

पूर्ण ब्रह्म का कार्य तो सभी को प्यार-स्नेह करना हैं। हम सब परब्रह्म भगवन सूर्यदेव की संतान हैं। सूर्यदेव अपनी किसी भी सांतन के साथ भेद-भाव नहीं करते है। कौन किस जाती या सम्प्रदाय का है, इस बात पर वह कभी भी ध्यान नहीं देते है, वह तो सभी को अपनी संतान मान कर प्रेम करतें है, फिर तुम एक दूसरे के साथ भेदभाव या घृणा क्यों करते हों।

अपने से बड़ों कि सेवा और अपने से छोटों को प्यार करोगेँ, तो तुम्हेँ सुख: मिलेगा। जातिवाद या सम्प्रदायवाद में प्यार, सुख: और शांति नहीं है और न ही कभी भी मिलने वाली ही हैं।

स्वार्थी तथा अज्ञानी तत्त्वों द्वारा फैलाया गया सब मायाजाल हैं, इससे बचेँ और स्वयं को जानें।

संसार जितने भी जीव-पशु-पंछी-वृक्ष आदि हैं, सभी परमात्मा स्वरुप हैं। परमात्मा ने सभी को एक दूसरें की सेवा के लिये बनाया हैं।

तुम स्वयं "ब्रह्म" हो और चराचर जगत में जो भी तुम्हारी आखेँ देख रही है वह सब ब्रह्म रुप हैं। सभी से निष्काम प्रेम करें। इसी में तुम्हारा मंगल और कल्याण होगा।

रिश्तो से मोह त्याग कर राम से प्रेम कर

आदत बुरी सुधर लो, बस हो गया भजन
दृष्टि मे तेरी खोट है, दुनिया निहार ले 
गुरु ज्ञान अंजन सार लो, बस हो गया भजन 
आदत बुरी सुधर लो, बस हो गया भजन

दुनिया तुम्हे बुरा कहे, पर तुम करो क्षमा 
वाणी को भी सम्भार लो, बस हो गया भजन 
आदत बुरी सुधर लो, बस हो गया भजन

विषयों की तीव्र आग मे जलता ही जा रहा 
मन की तरंग मार लो , बस हो गया भजन 
आदत बुरी सुधर लो, बस हो गया भजन

रिश्तो से मोह त्याग कर राम से प्रेम कर 
इतना ही मन मे विचार लो, बस हो गया भजन 
आदत बुरी सुधर लो, बस हो गया भजन

जाना है सबको एक दिन दुनिया को त्याग के 
इस जीवन को तुम स्म्बार लो बस हो गया भजन
आदत बुरी सुधर लो, बस हो गया भजन

मैं कैसे तुम्हारी शरण छोड़ दूंगा

यह तो बता दो बरसाने वाली मैं कैसे तुम्हारी लगन छोड़ दूंगा।
तेरी दया पर यह जीवन है मेरा, मैं कैसे तुम्हारी शरण छोड़ दूंगा॥

ना पूछो किये मैंने अपराध क्या क्या, कही यह जमीन आसमा हिल ना जाये।
जब तक श्री राधा रानी शमा ना करोगी, मैं कैसे तुम्हारे चरण छोड़ दूंगा॥

बहुत ठोकरे खा चूका ज़िन्दगी में, तमन्ना तुम्हारे दीदार की है।
जब तक श्री राधा रानी दर्शा ना दोगी, मैं कैसे तुम्हारा भजन छोड़ दूंगा॥

तारो ना तारो मर्जी तुम्हारी, लेकिन मेरी आखरी बात सुन लो।
मुझ को श्री राधा रानी जो दर से हटाया, तुम्हारे ही दर पे मैं दम तोड़ दूंगा॥

उपकार को न मानने वाले संसारीजन

एक जंगल में कुआँ था । उसमें काला सर्प गिर गया और एक बन्दर दूसरे बन्दरों से डरकर वह भी कुएँ में गिर गया । एक शेऱ एक रोज जंगल में घूमता हुआ, उस कुएँ के पास आया, तो उसने ज्योंहि जल में झांका उसको अपना प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा । उसने जाना, इसमें दूसरा शेर और है, तो लड़ने को उसने आवाज लगाई । अन्दर से उसी की वापिस आवाज सुनाई पड़ी । उसने देखा कि अन्दर वाला शेर बोल रहा है । वह अन्दर कूद गया । एक जाति का सुनार मार्ग में जा रहा था । कुआँ देखकर पानी पीने की इच्छा से कुएँ पर आया । पानी निकालने लगा । पांव फिसल गया और कुएँ में गिर गया ।
कोई सगुरा गुरुमुखी भी कुआँ देखकर पानी पीने की इच्छा से आया । कुएँ के अन्दर झांका तो चार जीव कुएँ के बीच में पड़े दिखाई दिये । चारों ने उसको अपनी - अपनी बात कह दी और बोले ~ हमारी जान बचा । पहले उसने शेर को निकाला । शेर बोला ~ अगर मैं तुझे खा जाऊं तो तूँ क्या करे ? सगुरा बोला ~ मैंने तो अपना कर्त्तव्य पालन किया है, तेरे समझ में आये, वह तूँ कर । शेर बोला ~ ‘‘नहीं, तूँ मेरा सच्चा मित्र है, तेरे में कोई कष्ट पड़े, तो अमुक पहाड़ में आ जाना । परन्तु ये तीनों ही खतरनाक हैं, इनको नहीं निकालना । जिसमें यह सुनार तो बहुत खतरनाक है, इसको तो कभी निकालना ही नहीं ।’’ यह कहकर शेर चला गया । फिर बन्दर के प्रार्थना करने पर उसे भी निकाला और वह बोला ~ ‘‘तूँ मेरा सच्चा मित्र है, कभी कष्ट पड़े, तो मुझको याद कर लेना । पर सुनार को मत निकालना ।’’ यह बोल कर बन्दर भी चला गया । काले सर्प की प्रार्थना सुनकर उसे भी निकाला । सर्प ने कहा ~ ‘‘तूँ मेरा सच्चा मित्र है, कभी कष्ट पड़े, तो मुझको याद कर लेना, परन्तु सुनार को मत निकालना ।’’ सुनार कहने लगा - भाई ! मुझे भी निकाल । सगुरा बोला ~ भाई ! तेरे लिये तो तीनों ही मना कर गये हैं । सुनार बोला - ‘‘भाई ! मनुष्य से मनुष्य तो मिलते ही रहते हैं, कुएँ से कुआँ नहीं मिलता । तूँ मेरी जान बचावेगा तो कभी मैं भी तेरी मदद करूंगा ।’’ सगुरा ने उसको भी निकाला । वह सुनार बोला ~ ‘‘कभी कोई काम हो तो मेरे पास अमुक जगह आ जाना ।’’ यह कहकर सुनार चला गया ।
एक समय वह गुरुमुखी शेर के पास पहुँचा । शेरनी घुर्राने लगी । शेर ने आँख खोल कर देखा, तो मित्र दिखाई पड़ा । झट बाहर आकर मिला । बोला ~ ‘‘मित्र कैसे आया ?’’ गुरुमुखी ने अपनी बात कह दी । शेर एक रोज पहले वहॉं के राजकुमार को मारकर अपनी गुफा में ले गया था । राजकुमार के बदन पर सोने के हीरे जवाहरातों से जड़े हुए जेवर थे । शेर ने कहा मित्र को ‘‘गुफा में से सब जेवर उठा ला ।’’ जब जेवर ले आया, तो मित्र को देकर शेर ने विदा कर दिया । उसने घर लाकर अपनी स्त्री के पास रख दिया । हाथ के कड़े की जोड़ी लेकर उसी सुनार के पास गया और बोला ~ ‘‘मित्र, इसको बिकवा दे ।’’ सुनार ने कड़े लेकर विचार किया कि राजा के पुत्र को इसने ही मारा है । पुलिस मैं जाकर कड़े दे दिये । पुलिस ने आकर उसको गिरफ्तार कर लिया । राजा ने कड़े देखे और हुक्म दे दिया कि उसे तोप से बांधकर उड़ा दो । जब उसे तोप से बांधने ले चले, तब इसने सर्प को याद किया । सर्प प्रकट हो गया और एक बूंटी का टुकड़ा देकर बोला कि मैं जाकर राजा को डसता हूँ, तुम यह बूँटी घोटकर पिला देना । इधर उसको तोप के लटकाया । तब इसने बन्दर को याद किया । बन्दर आ गया । जब तोप चलाने वाले बत्ती जलाकर तोप के लगाने लगे, तब बन्दर हाथ से खोस कर, बुझा कर फेंक दी । इस तरह बार - बार करने लगा । उधर सांप ने राजा को डस लिया । नगर में रोना - पीटना मच गया । तोप चलाने वालों ने यह बात सुनी और बोले ~ दुष्ट ! तूँ किस सौंण का आया है, हमारे तो राजा को सर्प ने डस लिया । वह बोला ~ ‘‘सर्प की दवा तो मैं जानता हूँ ।’’ उसको दरबार में ले गये । इसने बूंटी को घोटकर राजा को पिलाई । राजा का जहर उतर गया । राजा ने पूछा ~ ‘‘मुझे किसने जिलाया ?’’ लोगों ने कहा ~ जिस डाकू ने आपके पुत्र को मारा है, उसी डाकू ने आपको जिलाया है । राजा बोले ~ ‘‘इसने हमारे पुत्र को नहीं मारा ।’’ राजा ने उससे सब बात पूछी । उसने उपरोक्त कथा सब राजा को सुना दी । राजा ने उसको गुरुमुखी और सच्चा जानकर उसका सम्मान किया और सुनार को तोप से बांध कर उड़वा दिया ।
                                                                                    अकृतज्ञ अर्थात् उपकार को न मानने वाले संसारीजन वासना रूप दुःखों के इस संसार रूपी कुएँ में पड़े हैं । किन्तु उपकार करने वाले मुक्त - पुरुष, अपने सत्य उपदेशों से इस वासनारूप संसार - कूप से सर्प रूप जीवों को निकालते हैं । परन्तु वे निगुरे उन्हीं को डस कर दुःख पहुँचाते हैं ॥ १२ ॥

जिधर भी देखते हैं हम

तुम्हारे नाम लिखने को तराने अब नहीं आते,
मेरी गजलों में चाहत के फसाने अब नहीं आते,
जिधर भी देखते हैं हम उदासी ही उदासी है,
खुशी से मुस्कुराने के बहाने अब नहीं आते,
मेरी नादानियाँ तो आज भी वैसी की वैसी हैं,
मगर तुम पहले की तरह सताने अब नही आते,
की जिस चाहत से हमने रेत पे एक घर बनाया था,
हवा का जोर काफी है बचाने तुम नही आते,
तुम्हारे बाद ही लिखा है मैने ये सभी नगमें,
बडे बेजान लगते हैं सुनाने तुम नही आते,
सम्भाला है आज भी मैने इस नफरत की दुनियाँ में,
कि जो रिश्ता बनाकर तुम निभाने अब नही आते,

धन्य है उनकी भक्त वत्सलता

मंगलम भगवान विष्णु: मंगलम गरूड़ध्वज:।
मंगलम पुन्डरीकाक्ष: मंगलाय तनो हरि॥

सर्वव्यापक परमात्मा ही भगवान श्री विष्णु हैं।
यह सम्पूर्ण विश्व भगवान विष्णु की शक्ति से ही संचालित है।
वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी।
वे अपने चार हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं।
जो किरीट और कुण्डलों से विभूषित, पीताम्बरधारी, वनमाला तथा कौस्तुभमणि
को धारण करने वाले,सुन्दर कमलों के समान नेत्र वाले भगवान श्री विष्णु का
ध्यान करता है वह भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

पद्म पुराण के उत्तरखण्ड में वर्णन है कि भगवान श्री विष्णु ही परमार्थ तत्व हैं।
वे ही ब्रह्मा और शिव सहित समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं।
जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है वहीं शिव को संहारक
माना गया है।
विष्णु की सहचारिणी लक्ष्मी है।
वे ही नारायण, वासुदेव, परमात्मा, अच्युत, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर तथा
हिरण्यगर्भ आदि अनेक नामों से पुकारे जाते हैं।
नर अर्थात जीवों के समुदाय को नार कहते हैं।
सम्पूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान श्री विष्णु ही नारायण कहे जाते हैं।
कल्प के प्रारम्भ में एकमात्र सर्वव्यापी भगवान नारायण ही थे।
वे ही सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करके सबका पालन करते हैं और अन्त में सबका
संहार करते हैं।
इसलिये भगवान श्री विष्णु का नाम हरि है। मत्स्य, कूर्म, वाराह, वामन, हयग्रीव
तथा श्रीराम-कृष्ण आदि भगवान श्री विष्णु के ही अवतार हैं।
भगवान श्री विष्णु अत्यन्त दयालु हैं।
वे अकारण ही जीवों पर करुणा-वृष्टि करते हैं।
उनकी शरण में जाने पर परम कल्याण हो जाता है।
जो भक्त भगवान श्री विष्णु के नामों का कीर्तन, स्मरण, उनके अर्चाविग्रह का दर्शन,
वन्दन,गुणों का श्रवण और उनका पूजन करता है,उसके सभी पाप-ताप विनष्ट हो जाते हैं।
यद्यपि भगवान विष्णु के अनन्त गुण हैं,तथापि उनमें भक्त वत्सलता का गुण सर्वोपरि है।
चारों प्रकार के भक्त जिस भावना से उनकी उपासना करते हैं,वे उनकी उस भावना को
परिपूर्ण करते हैं।

ध्रुव,प्रह्लाद,अजामिल,द्रौपदी,गणिका आदि अनेक भक्तों का उनकी कृपा से उद्धार हुआ।
भक्त वत्सल भगवान को भक्तों का कल्याण करनें में यदि विलम्ब हो जाय तो भगवान
उसे अपनी भूल मानते हैं और उसके लिये क्षमा-याचना करते हैं।

धन्य है उनकी भक्त वत्सलता।
मत्स्य, कूर्म, वाराह,श्री राम,श्री कृष्ण आदि अवतारों की कथाओं में भगवान श्री विष्णु
की भक्त वत्सलता के अनेक आख्यान आये हैं।
ये जीवों के कल्याण के लिये अनेक रूप धारण करते हैं।
वेदों में इन्हीं भगवान श्री विष्णु की अनन्त महिमा का गान किया गया है।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वर्णन मिलता है कि लवण समुद्र के मध्य में विष्णु लोक अपने
ही प्रकाश से प्रकाशित है।

उसमें भगवान श्री विष्णु वर्षा ऋतु के चार मासों में लक्ष्मी द्वारा सेवित होकर शेषशय्या
पर शयन करते हैं।

पद्म पुराण के उत्तरखण्ड के 228वें अध्याय में भगवान विष्णु के निवास का वर्णन है।
वैकुण्ठ धाम के अन्तर्गत अयोध्यापुरी में एक दिव्य मण्डप है।
मण्डप के मध्य भाग में रमणीय सिंहासन है। वेदमय धर्मादि देवता उस सिंहासन को
नित्य घेरे रहते हैं। धर्म, ज्ञान, ऐश्वर्य, वैराग्य सभी वहाँ उपस्थित रहते हैं।
मण्डप के मध्यभाग में अग्नि,सूर्य और चंद्रमा रहते है।
कूर्म, नागराज तथा सम्पूर्ण वेद वहाँ पीठ रूप धारण करके उपस्थित रहते हैं।
सिंहासन के मध्य में अष्टदल कमल है; जिस पर देवताओं के स्वामी परम पुरुष
भगवान श्री विष्णु लक्ष्मी के साथ विराजमान रहते हैं।
भक्त वत्सल भगवान श्री विष्णु की प्रसन्नता के लिये जप का प्रमुख मन्त्र-
ॐ नमो नारायणाय तथा ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

श्रीनारायणकवच


                                       श्री हरिः
                               श्रीनारायणकवच

        ॐ नमो नारायणाय” और ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

                   ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
 समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव
भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या,
तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।

भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि
आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा,
बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार
से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१२

मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा
करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और
विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 13

जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों
के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि
आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४

अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम
जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र
प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।१५

भगवान् नारायण मारण – मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों
से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों
से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।१६

परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों
को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान्
कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७

भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक
द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।१८

भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद
से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि
पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९

प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द
अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर
और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०

तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल
में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा
अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१

रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन,
सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर
मेरी रक्षा करें ।।२२

सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग
प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर
घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है,
वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३

कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है
आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड,
विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये
तथा मेरे शत्रुओं को चूर – चूर कर दिजिये ।।२४

शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का
दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस
आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।२५

भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे
शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये।
भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा
शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६

सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले
जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो
और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों
का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-

बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति
भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार
की विपत्तियों से बचायें।।२९

श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन
और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।३०

जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य
के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।३1

जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान्
का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति
के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित
रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों
से हमारी रक्षा करें ।।३२-३३

जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से
सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर –
सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३4

देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने
को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत
कर लोगे ।।३५

इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है
अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है 36

जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि
और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।३७

देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८

जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी
स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।३९

वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस
घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि
यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों
को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे
अपने लोक को चले गये ।।४०

।।श्रीशुक उवाच।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है
और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते
हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।४१

परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके
रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे 42
।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।।
( श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )