Thursday 31 July 2014

उन लोगों का राहू और शनि खराब होगा, जो

गृह शांति हेतु कुछ उपाय 

रोजमर्रा की 9 आदतों से सुधारें अपना घर :
१) 
अगर आपको कहीं पर भी थूकने की आदत है तो यह निश्चित है
कि आपको यश, सम्मान अगर मुश्किल से मिल भी जाता है
तो कभी टिकेगा ही नहीं चाहे कुछ भी कर लें ! इससे बचने के लिए
 में ही यह काम कर आया करें !...
२)
जिन लोगों को अपनी जूठी थाली या बर्तन वहीं उसी जगह पर छोड़ने की आदत होती है उनको सफलता कभी भी स्थायी रूप से नहीं मिलती ! 
बहुत मेहनत करनी पड़ती है और ऐसे लोग अच्छा नाम नहीं कमा पाते ! इनके आस पास काम करने वाले लोग इनसे जितना भी हो सके बात करने से भी बचते हैं ! 
अगर आप अपने जूठे बर्तनों को उठाकर उनकी सही जगह पर रख आते हैं या खुद ही साफ़ कर लेते हैं तो चन्द्रमा और शनि का आप सम्मान करते हैं !
३) 
जब भी हमारे घर पर कोई भी बाहर से आये, चाहे मेहमान हो या कोई काम करने वाला, उसे स्वच्छ पानी जरुर पिलाएं !
ऐसा करने से हम राहू का सम्मान करते हैं ! जो लोग बाहर से आने वाले लोगों को स्वच्छ पानी हमेशा पिलाते हैं उनके घर में कभी भी राहू का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता !
४) 
घर के पौधे आपके अपने परिवार के सदस्यों जैसे ही होते हैं, 
उन्हें भी प्यार और थोड़ी देखभाल की जरुरत होती है !
जिस घर में सुबह-शाम पौधों को पानी दिया जाता है तो हम बुध, सूर्य और
चन्द्रमा का सम्मान करते हुए परेशानियों से डटकर लड़ पाते हैं ! 
जो लोग नियमित रूप से पौधों को पानी देते हैं, उन लोगों को  जैसी परेशानियाँ जल्दी से नहीं पकड़ पातीं ! 
५) 
अगर आप नहाने के बाद  में अपने कपडे़ इधर-उधर फैंक आते हैं या फिर पूरे bathroom में पानी बिखेर कर आ
जाते हैं तो आपका चन्द्रमा किसी भी स्तिथि में आपको अच्छे फल नहीं देगा और हमेशा बुरा परिणाम देगा ! आपके शारीर से
सारा ओज निकाल देगा, personality बिल्कुल भी attractive नहीं रहेगी और आप हमेशा dull-dull से दिखेंगे ! इसीलिए पानी को हमेशा निथारना चाहिए !
६) 
जो लोग बाहर से आकर अपने चप्पल, जूते, मोज़े इधर-उधर
फैंक देते हैं, उन्हें उनके शत्रु बड़ा परेशान करते हैं ! इससे बचने
के लिए अपने चप्पल-जूते करीने से लगाकर रखें, आपकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी ।
७) 
उन लोगों का राहू और शनि खराब होगा, जो लोग जब भी 
अपना बिस्तर छोड़ेंगे तो उनका बिस्तर हमेशा फैला हुआ होगा, सिलवटें ज्यादा होंगी, चादर कहीं, तकिया कहीं, कम्बल कहीं ?
उसपर ऐसे लोग अपने पुराने पहने हुए कपडे़, सामान तक फैला कर
रखते हैं ! ऐसे लोगों की पूरी दिनचर्या कभी भी व्यवस्थित 
नहीं रहती, जिसकी वजह से वे खुद भी परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं !
इससे बचने के लिए उठते ही स्वयं अपना बिस्तर सही तरीके से लगायें और सब कुछ समेट दें ! 
८) 
पैरों की सफाई पर हम लोगों को हर वक्त ख़ास ध्यान देना चाहिए, जो कि हम में से बहुत सारे लोग भूल जाते हैं ! नहाते समय
अपने पैरों को अच्छी तरह से धोयें, कभी भी बाहर से आयें तो पांच मिनट रुक कर मुँह और पैर धोयें ! आप खुद यह पाएंगे कि आपका चिड़चिड़ापन कम होगा, दिमाग की शक्ति बढेगी और क्रोध 
धीरे-धीरे कम होने लगेगा ।
९) 
ध्यान रखें, कभी भी खाली हाथ घर ना लौटें क्योंकि..
अधिकतर लोग शाॅप, ऑफिस या फैक्टरी से जब अपने घर
लौटते हैं तो अपनी व्यस्तता के कारण बिना कुछ लिए खाली हाथ
ही घर लौट आते हैं !
लेकिन आपने अक्सर हमारे घर के वृद्ध लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि कभी भी शाम को खाली हाथ घर नहीं लौटना चाहिए !
क्योंकि हमारे शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि घर लौटते समय घर के बुज़ुर्गों या बच्चों के लिए कुछ न कुछ लेकर जाना चाहिए !
घर में कोई भी नई वस्तु आने पर बच्चे और बुजु़र्ग ही सबसे ज्यादा खुश होते हैं ! 
कहीं-कहीं इस परम्परा में घर लौटते वक्त बच्चों के लिए मिठाई लाने के बारें में बताया गया है !बुजु़र्गों के आशीर्वाद से घर में सुख समृद्धि बढ़ने लगती है और जिस घर में बच्चे और वृद्ध खुश रहते हैं, उस घर में लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है !
ऐसा माना जाता है कि रोज़ खाली हाथ घर लौटने पर धीरे-धीरे उस घर से लक्ष्मी चली जाती है और उस घर के सदस्यों में नकारात्मक या निराशा के भाव आने लगते हैं ! इसके विपरित घर लौटते समय कुछ न कुछ वस्तु लेकर आएं तो उससे घर में बरकत बनी रहती है ! उस घर में लक्ष्मी का वास होता जाता है ! हर रोज घर में कुछ न कुछ लेकर आना वृद्धि का सूचक माना गया है !
ऐसे घर में सुख, समृद्धि और धन हमेशा बढ़ता जाता है और घर
में रहने वाले सदस्यों की भी तरक्की होती है ।

व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।



1. मूलाधार चक्र :
यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच
चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9%
लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और
वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में
भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है
उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित
रहती है।
मंत्र : लं
चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है,
जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए
भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस
चक्र पर लगातार ध्यािन लगाने से यह चक्र
जाग्रत होने
लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है
यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में
रहना।
प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के
भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव
जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के
लिए वीरता, निर्भीकता और
जागरूकता का होना जरूरी है।
2. स्वाधिष्ठान चक्र-
यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर
स्थित है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर
आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है
तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन,
घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने
की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए
ही आपका जीवन कब व्यतीत
हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ
फिर भी खाली रह जाएंगे।
मंत्र : वं
कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है,
लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन
भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है।
फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप
जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने
का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व,
आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास
आदि दुर्गणों का नाश
होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है
कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त
हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।
3. मणिपुर चक्र :
नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र
शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है,
जो दस
कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस
व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे
काम करने की धुन-सी
रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग
दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।
मंत्र : रं
कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक
आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे।
पेट से श्वास लें।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या,
चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-
कल्मष दूर हो
जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान
करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए
आत्मवान होना
जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव
करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।
आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के
साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।
4. अनाहत चक्र-
हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश
दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश
स्वर्णाक्षरों से
सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर
आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक
सृजनशील
व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने
की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार,
इंजीनियर आदि हो सकते हैं।
मंत्र : यं
कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान
लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर
रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने
से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और
सुषुम्ना
इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट,
हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और
अहंकार
समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से
व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण
होता है।
इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान
स्वत: ही प्रकट होने लगता है।व्यक्ति अत्यंत
आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से
जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित
व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत
हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के
मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।
5. विशुद्ध चक्र-
कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र
है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर
पर
यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास
एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।
मंत्र : हं
कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान
लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं
और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके
जाग्रत
होने से जहां भूख और प्यास
को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव
को भी रोका जा सकता है।
6. आज्ञाचक्र :
भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में
आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस
व्यक्ति की ऊर्जा यहां
ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से
संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन
जाता है
लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन
रहता है। इस बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।
मंत्र : ऊं
कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए
साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने
लगता है।
प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और
सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र
का जागरण होने से ये सभी
शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक
सिद्धपुरुष बन जाता है।
7. सहस्रार चक्र :
सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है
अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम,
नियम
का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह
आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे
व्यक्ति को
संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब
नहीं रहता है।
कैसे जाग्रत करें :
मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक
पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से
यह चक्र जाग्रत
हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त
कर लेता है।
प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक
महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत
का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।

सदगुरु मौजूद था।

एक सूफी कहानी है। एक फकीर सत्य को खोजने निकला। अपने ही गाव के बाहर, जो पहला ही संत उसे मिला, एक वृक्ष के नीचे बैठे, उससे उसने पूछा कि मैं सदगुरु को खोजने निकला हूं आप बताएंगे कि सदगुरु के लक्षण क्या हैं? उस फकीर ने लक्षण बता दिये। लक्षण बड़े सरल थे। उसने कहा, ऐसे—ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा मिले, इस—इस आसन में बैठा हो, ऐसी—ऐसी मुद्रा हो—बस समझ लेना कि यही सदगुरु है।
चला खोजने साधक। कहते हैं तीस साल बीत गये, सारी पृथ्वी पर चक्कर मार चुका। बहुत जगह गया, लेकिन सदगुरु न मिला। बहुत मिले, मगर कोई सदगुरु न था। थका—मादा अपने गाव वापिस लौटा। लौट रहा था तो हैरान हो गया, भरोसा न आया। वह बूढ़ा बैठा था उसी वृक्ष के नीचे। अब उसको दिखायी पड़ा कि यह तो वृक्ष वही है जो इस बूढ़े ने कहा था, ‘ऐसे—ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा हो।’ और यह आसन भी वही लगाये है, लेकिन यह आसन वह तीस साल पहले भी लगाये था। क्या मैं अंधा था? इसके चेहरे पर भाव भी वही, मुद्रा भी वही।
वह उसके चरणों में गिर पड़ा। कहा कि आपने पहले ही मुझे क्यों न कहा? तीस साल मुझे भटकाया क्यों? यह क्यों न कहा कि मैं ही सदगुरु हूं?
उस बूढ़े ने कहा, मैंने तो कहा था, लेकिन तुम तब सुनने को तैयार न थे। तुम बिना भटके घर भी नहीं आ सकते। अपने घर आने के लिए भी तुम्हें हजार घरों पर दस्तक मारनी पड़ेगी, तभी तुम आओगे। कह तो दिया था मैंने, सब बता दिया था कि ऐसे—ऐसे वृक्ष के नीचे, यही वृक्ष की व्याख्या कर रहा था, यही मुद्रा में बैठा था; लेकिन तुम भागे— भागे थे, तुम ठीक से सुन न सके; तुम जल्दी में थे। तुम कहीं खोजने जा रहे थे। खोज बड़ी महत्वपूर्ण थी, सत्य महत्वपूर्ण नहीं था तुम्हें। लेकिन आ गये तुम! मैं थका जा रहा था तुम्हारे लिए बैठा—बैठा इसी मुद्रा में! तीस साल तुम तो भटक रहे थे, मेरी तो सोचो, इसी झाड़ के नीचे बैठा कि किसी दिन तुम आओगे तो कहीं ऐसा न हो कि तब तक मैं विदा हो जाऊं! तुम्हारे लिए रुका थआ गये तुम! तीस साल तुम्हें भटकना पड़ा—अपने कारण। सदगुरु मौजूद था।
बहुत बार जीवन में ऐसा होता है, जो पास है वह दिखायी नहीं पड़ता, जो दूर है वह आकर्षक मालूम होता है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं। दूर खींचते हैं सपने हमें।
अष्टावक्र कहते हैं कि तुम ही हो वही जिसकी तुम खोज कर रहे हो। और अभी और यहीं तुम वही हो।

गहराई का पता नहीं चल पाया

दिन में तीन बार चमत्कार दिखाने वाला शिव मंदिर !

जयपुर - आपने शिवलिंग तो बहुत देखे होंगे लेकिन यह शिवलिंग देखकर एकबारगी तो आप भी चकरा जाएंगे। राजस्थान में एक जिला ऎसा भी है जहां स्थित हजारों साल पुराने मंदिर का शिवलिंग अपना रंग बदलता है।

ऎसा अनोखा चमत्कार प्रतिदिन तीन बार होता है। सुबह में शिवलिंग का रंग लाल रहता है, दोपहर को केसरिया रंग का हो जाता है, और जैसे-जैसे शाम होती है शिवलिंग का रंग सांवला हो जाता है।

धौलपुर में स्थित यह विचित्र शिवलिंग

यह चमत्कारी शिवलिंग राजस्थन के धौलपुर जिले में स्थित है। घौलपुर जिला राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है। यह इलाका चम्बल के बीहड़ों के लिये प्रसिद्ध है। इन्ही दुर्गम बीहड़ो के अंदर स्थित है, भगवान अचलेश्वर महादेव का मन्दिर जहां होने वाले इस चमत्कार का रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया है।

भगवान अचलेश्वर महादेव का यह मन्दिर हजारों साल पुराना है। चूंकि यह मंदिर बीहड़ों मे स्थित है और यहाँ तक पहुचने क रास्ता बहुत ही पथरीला और उबड-खाबड़ है इसलिए पहले यहाँ बहुत ही कम लोग पंहुचते थे परन्तु जैसे-जैसे भगवान के चमत्कार कि खबरे लोगो तक पहुँची यहाँ पर भक्तों कि भीड़ जुटने लगी।

गहराई का पता नहीं चल पाया

इस शिवलिंग कि एक और अनोखी बात यह है कि इस शिवलिंग के छोर का आज तक पता नहीं चला है। कहते है बहुत समय पहले भक्तों ने यह जानने के लिए कि यह शिवलिंग जमीं मे कितना गड़ा है, इसकि खुदाई करी, पर काफी गहराई तक खोदने के बाद भी उन्हे इसके छोर का पता नहीं चला।

परमात्मा की मौजूदगी का एहसास होता है।

मन की शांति चाहिए तो कुछ ऐसे करें कोशिश
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शांति किसे मिलती है। तीन गुण जिसमें हो,
प्रकृति से निकटता, मौन और ध्यान। ये तीन गुण
व्यक्ति को भीतरी शांति प्रदान करते हैं।
भगवान शिव में ये तीनों ही गुण मौजूद हैं।
इसलिए रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने
उनकी तुलना खुद शांत रस से की है।
शिव के चेहरे पर शांति के ये ही मुख्य कारण हैं। वे
हमेशा प्रकृति के निकट रहते हैं। उन्हें इसीलिए
प्रकृति का देवता भी कहा जाता है। शिव
भीतर और बाहर दोनों ओर से शांत हैं क्योंकि मौन और
ध्यान दोनों उनके प्रमुख गुण हैं।
हम जब भी समय पाएं, थोड़ा मौन और ध्यान
की ओर जाएं। प्रकृति के निकट जाकर बैठने का प्रयास
करें। उसके संकेतों पर ध्यान दें। थोड़ी देर आंखें मूंदकर
बैठें। बस शांति स्वत: आपके भीतर प्रवाहित होने लगेगी।
भगवान शिव की दिनचर्या में ये बातें शामिल हैं। वे सुबह
शाम समाधि में रहते हैं। भ्रमण करते हैं। कैलाश पर्वत उनका निवास
है। हम भी ध्यान और मौन की ओर जाने
का प्रयास करेंगे तो जिस शांति की तलाश में हम
लाखों खर्च कर देते हैं वो सहज ही मिल सकेगी।
लाख सुविधाओं और साधनों के बाद भी मन अशांत
ही रहता है। इसका एक कारण है कि हम प्रकृति से
दूर हो गए हैं। शहरों में फैल रहे बेतरतीब
कांक्रीट के जंगलों के कारण
प्रकृति का दायरा सिमटता जा रहा है।
हम प्रकृति के स्पर्श से दूर हैं। प्रकृति में
ही परमात्मा का वास है। इसलिए जब भी हम
किसी पहाड़ी तलहटी या किसी बहती नदी के
किनारे खड़े होते हैं तो हमें
परमात्मा की मौजूदगी का एहसास होता है।
परमात्मा प्रकृति में ही बसता है। कोशिश करें
कि थोड़ा समय प्रकृति के निकट रहने के लिए निकालें। आप खुद
को भीतर से शांत पांएगे। थोड़ा मौन साधिए, थोड़ा ध्यान में
उतरिए, बस शांति खुद आपके भीतर प्रवेश कर जाएगी।
१ जैसी प्रीत कुटुम्ब से, तैसी गुरु स्यों होय ।
कहे कबीर वा दास का, पल्ला ना पकङे कोय ।।
2 प्रीती बहुत संसार में, नाना विधि की होय ।
उत्तम प्रीति सो जानिये, जो सतगुरु से होय ॥
3 गुणवंता और द्रव्य की, प्रीत करे सब कोय ।
कबीर प्रीति वो जानिये, जो इनसे न्यारी होय ॥
4 जोगी जंगम सेवङा, अरू सन्यासी दर वेश ।
बिना प्रेम पहुंचे नहीं, दुर्लभ सत गुरु देश ॥
5 प्रीतम को पाती लिखूं, जो कहीं होय बिदेश ।
तन मे मन मे नयन में, तो का को क्या सन्देश ॥

Wednesday 30 July 2014

हृदय का अन्धकार दूर होता है


अनूठी महिमा सत्संग की और सदगुरू की
एक बार कुमार कार्तिकेय भगवान सूर्यनारायण के दर्शन को गये और सूर्यनारायण की आज्ञा पाकर वहीं बैठ गये। वहाँ उन्होंने आश्चर्यकारी दृश्य देखा। उनके देखते-देखते एक दिव्य विमान आया। भगवान सूर्य खड़े हुए और विमान में से नीचे उतरे व्यक्ति का बहुत आदर सत्कार किया। उसके अंग को स्पर्श कर, सिर सूँघकर भक्तवत्सलता प्रकट की। प्रेम से बातें की और अपने पास में बैठाया। थोड़ी देर में दूसरा विमान आया। उसमें से जो व्यक्ति उतरे उनका भी इस प्रकार भलीभाँति स्वागत करके अच्छी-भली बातें की।
कार्तिक यह देखकर चकित हुए कि साक्षात् पुराण पुरूषोत्तम भगवान सूर्यनारायण इन विमानों में आये व्यक्तियों का इतना सत्कार करते हैं ! जब आवभगत की विधि पूरी हुई तब कार्तिक स्वामी ने भगवान सूर्यनारायण से पूछा कि इन विमानों से आये इन दो व्यक्तियों को आपने इतना सम्मान दिया है इसका कारण क्या है ? इनके पास ऐसा कौन सा पुण्य है जो आपके इतने स्नेहभाजन बन गये हैं ?
तब सूर्यनारायण कहते हैं- 'मुझे यम, यमी, शनि या तप्ती इतने प्रिय नहीं हैं जितने ये दो व्यक्ति प्रिय हैं।
पहले व्यक्ति जो हैं वे अयोध्या में लोगों को हरिचर्चा सुनाते थे। भगवन्नाम की कथा करने वाले व्यास थे। हरिकथा से लोगों के पाप दूर होते हैं, अज्ञान दूर होता है। मैं तो प्रकाश करता हूँ तब रात्रि का अन्धकार दूर होता है मगर ये कथाकार जब कथा करते हैं तब हृदय का अन्धकार दूर होता है। इसलिए मैं उनका इतना स्वागत करता हूँ।
दूसरा व्यक्ति जो है वह भगवद् कथा का श्रोता है, उत्तम श्रोता है। कभी भी कथा सुनकर उबा नहीं है।
श्रवण जा के समुद्र समाना.....।।
यह श्रोता ऐसा उत्तम है कि कथा सुनने के बाद इसने वक्ता की प्रदक्षिणा की और उन्हें सोना दान दिया। इसलिए उस पर मेरी प्रीति बढ़ गई। मैंने इन दोनों का स्वागत किया है।
कथा (सत्संग) एक ऐसा दिव्य प्रकाश है कि उस प्रकाश के आगे सूर्य का प्रकाश और चन्द्रमा का प्रकाश भी छोटा पड़ता है। शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं-
गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरूस्तथा।
पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति सन्तो महाशयाः।।
गंगा में स्नान करने से पाप दूर होते हैं, चंद्र की चाँदनी की शीतलता में शरीर की तपन दूर होती है और कल्पवृक्ष मिले तो दरिद्रता दूर होती है लेकिन जिसको महापुरूष मिलते हैं उसके पाप, ताप और हृदय की दरिद्रता सदा के लिए दूर हो जाती है।

तुम्हें केवल मृत्यु का अनुभव होगा।

इस झूठ ने सिंघासन पर कब्जा जमा लिया है। इसे वहां से हटाना होगा। एकांत में रहने से, जो भी झूठ है सब समाप्त हो जाता है। और जो भी समाज द्वारा दिया गया है, सब झूठ है। वास्तव में, जो भी दिया गया है, सब झूठ है; और जो भी जन्म के साथ आया है, सत्य है। जो भी तुम स्वयं अपने तईं जो हो,  जो किसी दूसरे द्वारा दिया नहीं गया है, वास्तविक है, प्रामाणिक है। लेकिन झूठ को जाना चाहिए और झूठ में तुम्हारा बहुत अधिक निवेश है। इसमें तुमने इतना अधिक निवेश कर रखा है, तुम इसकी इतनी देख-भाल करते हो: तुम्हारी सारी आशाएं इसी पर टगीं हैं इसलिए जब यह घुलने लगता है, तुम भयभीत हो जाते हो, डर जाते हो और कांपने लगते हो: 'तुम स्वयं के साथ क्या कर रहे हो? तुम अपना सारा जीवन, सारे जीवन का ढाचा नष्ट कर रहे हो।'

भय लगेगा। लेकिन तुम्हें इस भय से गुजरना होगा: तभी तुम निडर हो सकते हो। मैं नही कहता कि तुम बहादुर हो जाओगे, नहीं, मैं कहता हूं तुम निडर हो जाओगे।बहादुरी भी भय का ही एक हिस्सा है। तुम कितने ही बहादुर हो, भय पीछे छिपा ही रहता है। मैं कहता हूं, 'निडर'। तुम बहादुर नहीं हो जाते; जब भय न हो, बहादुर होने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। बहादुरी और भय दोनों अप्रसांगिक हो जाते हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए तुम्हारे बहादुर आदमी सिवाय इसके कि तुम सिर के बल खड़े हो और कुछ नहीं हैं। तुम्हारी बहादुरी तुम्हारे भीतर छिपी है और तुम्हारा भय सतह पर है; उनका भय भीतर छिपा हुआ है और उनकी बहादुरी सतह पर है। इसलिए जब तुम अकेले होते हो, तुम बहुत बहादुर होते हो। जब तुम किसी चीज के विषय में सोचते रहते हो, तुम बहुत बहादुर होते हो, परंतु जब वास्तविक स्थिति आती है, तुम भयभीत हो जाते हो।

कोई निडर केवल तभी हो सकता है जब सभी गहरे भयों से गुजर चुका हो -- अहंकार को विसर्जित कर चुका हो, अपनी छवि को विसर्जित कर चुका हो, अपना व्यक्तित्व विसर्जित कर चुका हो। यह मृत्यु है क्योंकि तुम नहीं जानते कि इससे कोई नया जीवन उभरने वाला है। इस प्रक्रिया के दौरान तो तुम्हें केवल मृत्यु का अनुभव होगा। वह तो तुम जैसे हो--एक झूठे व्यक्तित्व की तरह, मर जाओगे, केवल तभी जान पाओगे कि मृत्यु तो मात्र अमरत्व के लिए एक द्वार थी। लेकिन यह अंत में घटेगा, प्रक्रिया के दौरान तो तुम केवल मरने का अनुभव करोगे।वह हर वस्तु जिसको तुमने इतना प्यार किया है, तुमसे दूर कर दी जाएंगी -- तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारी धारणाएं, वह सब जो तुमने सोचा था कि सुंदर है। सब कुछ तुम्हें छोड़ जाएगा। तुम पूर्ण रूप से उघाड़ दिए जाओगे। तुम्हारी सभी भूमिकाएं और तुम्हारे सभी आवरण छीन लिए जाएंगे। इस प्रक्रिया में भय होगा, लेकिन यह भय मूल है, आवश्यक और अपरिहार्य है -- हर एक को इससे गुजरना पड़ता है। तुम्हें इसे समझना चाहिए परंतु इससे बचने का प्रयास नहीं करना चाहिए, इससे भागने का प्रयत्न मत करो क्योंकि भागने का हर प्रयास तुम्हें फिर वापस ले आएगा। तुम फिर व्यक्तित्व में वापस लौट जाओगे।

जो लोग गहरे मौन और एकांत में जाते हैं, वे सदा मुझसे पूछते हैं, 'इसमें भय लगेगा तब क्या करना चाहिए?' मैं उनसे कहता हूं कि कुछ भी नहीं करना है, बस इस भय को जीना है।

यदि कंपन आता है तो कंपो। इसे क्यों रोकना? यदि भीतर भय लगता है और तुम इस भय से कंप रहे हो तो इसके साथ डोलो। कुछ न करो। मात्र इसे घटने दो। यह अपने-आप चला जाएगा। यदि तुम इससे बचोगे...और तुम  इससे बच सकते हो। तुम राम,राम,राम जपना शुरू कर सकते हो; तुम किसी भी मंत्र को पकड़ सकते हो जिससे तुम्हारा मन हट जाए। तुम शांत हो जाते हो और भय वहां नहीं रह जाता; तुम अचेतन में धकेल दिए जाते हो। यह बाहर आ रहा था -- जो अच्छा था, तुम इससे मुक्त होने जा रहे थे -- यह तुम्हें छोड़ने वाला था और जब यह तुम्हें छोड़ता है, तुम कंपने लगते हो।यह स्वाभाविक है क्योंकि शरीर और मन के प्रत्येक सेल से कुछ ऊर्जा जो सदा से मौजूद थी, जो नीचे धकेल दी गई थी, वह मुक्त हो रही है। इससे हलन-चलन और कंपना आएगा, यह ठीक भूचाल जैसा होगा। इससे पूरी आत्मा अव्यवस्थित हो जाती है। लेकिन इसे होने दो। कुछ भी न करो। यह मेरी सलाह है। कोई मंत्र भी मत दोहराओ। इसके साथ कुछ भी मत करो क्योंकि जो भी तुम करोगे वह दमन बनाएगा। इसे मात्र घटने दो, यह तुम्हें छोड़ देगा -- और जब यह तुम्हें छोड़ देगा, तुम बिल्कुल दूसरे ही आदमी होगे।     

उसी क्षण सारे रहस्य खुल जाते हैं।

जीवन में कोई रहस्य है ही नहीं। या तुम कह सकते हो कि जीवन खुला रहस्य है। सब कुछ उपलब्ध है, कुछ भी छिपा नहीं है। तुम्हारे पास देखने की आँख भर होनी चाहिए। 

यह ऐसा ही है जैसी कि अंधा आदमी पूछे कि 'मैं प्रकाश के रहस्य जानना चाहता हूँ।' उसे इतना ही चाहिए कि वह अपनी आँखों का इलाज करवाए ताकि वह प्रकाश देख सके। प्रकाश उपलब्ध है, यह रहस्य नहीं है। लेकिन वह अंधा है- उसके लिए कोई प्रकाश नहीं है। प्रकाश के बारे में क्या कहें? उसके लिए तो अँधेरा भी नहीं है- क्योंकि अँधेरे को देखने के लिए भी आँखों की जरूरत होती है।

एक अंधा आदमी अँधेरा नहीं देख सकता। यदि तुम अँधेरा देख सकते हो तो तुम प्रकाश भी देख सकते हो, ये एक सिक्के के दो पहलू हैं। अंधा आदमी न तो अँधेरे के बारे में कुछ जानता है न ही प्रकाश के बारे में ही। अब वह प्रकाश के रहस्य जानना चाहता है। अब हम उसकी मदद कर सकते हैं उसकी आँखों का ऑपरेशन करके। प्रकाश के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कह कर नहीं- वे अर्थहीन होंगी।

जिस क्षण अहंकार बिदा हो जाता है, उसी क्षण सारे रहस्य खुल जाते हैं। जीवन बंद मुट्ठी की तरह नहीं है, यह तो खुला हाथ है। लेकिन लोग इस बात का मजा लेते हैं कि जीवन एक रहस्य है- छुपा रहस्य। अपने अँधेपन को छुपाने के लिए उन्होंने यह तरीका निकाला है कि छुपे रहस्य हैं कि गुह्य रहस्य है जो सभी के लिए उपलब्ध नहीं हैं, या वे ही महान लोग इन्हें जान सकते हैं जो तिब्बत में या हिमालय में रहते हैं, या वे जो अपने शरीर में नहीं हैं, जो अपने सूक्ष्म शरीर में रहते हैं और अपने चुने हुए लोगों को ही दिखाई देते हैं।

और इसी तरह की कई नासमझियाँ सदियों से बताई जा रयही है सिर्फ इस कारण से कि तुम उस तथ्य को देखने से बच सको कि तुम अंधे हो। यह कहने की जगह कि 'मैं अंधा हूँ', तुम कहते हो, 'जीवन के रहस्य बहुत छुपे हैं, वे सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। तुम्हें बहुत बड़ी दीक्षा की जरूरत होती है।'

जीवन किसी भी तरह से गुह्य रहस्य नहीं है। यह हर पेड़-पौधे के एक-दूसरे पत्ते पर लिखा है, सागर की एक-एक लहर पर लिखा है। सूरज की हर किरण में यह समाया है- चारों तरफ जीवन के हर खूबसूरत आयाम में। और जीवन तुम से डरता नहीं है, इसलिए उसे छुपने की जरूरत ही क्या है? सच तो यह है कि तुम छुप रहे हो, लगातार स्वयं को छुपा रहे हो। जीवन के सामने अपने को बंद कर रहे हो क्योंकि तुम जीवन से डरते हो।

तुम जीने से डरते हो- क्योंकि जीवन को हर पल मृत्यु की जरूरत होती है। हर क्षण अतीत के प्रति मरना होता है। यह जीवन की बहुत बड़ी जरूरत है- यदि तुम समझ सको कि अतीत अब कहीं नहीं है। इसके बाहर हो जाओ, बाहर हो जाओ! यह समाप्त हो चुका है। अध्याय को बंद करो, इसे ढोये मत जाओ! और तब जीवन तुम्हें उपलब्ध है। 

अभी के द्वार में प्रवेश करो और सब कुछ उदघाटित हो जाता है - तत्काल खुल जाता है, इसी क्षण प्रकट हो जाता है। जीवन कंजूस नहीं है : यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है, यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है। यह सब कुछ देने को तैयार है, पूर्ण और बेशर्त। लेकिन तुम तैयार नहीं हो।

दुसरे इंसान के साथ भाग सकती है

एक आदमी की चार पत्नियाँ थी।वह अपनी चौथी पत्नी से बहुत प्यार करता था और उसकी खूब देखभाल करता व उसको सबसे श्रेष्ठ देता।
वह अपनी तीसरी पत्नी से भी प्यार करता था और हमेशा उसे अपने मित्रों को दिखाना चाहता था। हालांकि उसे हमेशा डर था की वह कभी भी किसी दुसरे इंसान के साथ भाग सकती है।
वह अपनी दूसरी पत्नी से भी प्यार करता था।जब भी उसे कोई परेशानी आती तो वे अपनी दुसरे नंबर की पत्नी के पास जाता और वो उसकी समस्या सुलझा देती।
वह अपनी पहली पत्नी से प्यार नहीं करता था जबकि पत्नी उससे बहुत गहरा प्यार करती थी और उसकी खूब देखभाल करती।
एक दिन वह बहुत बीमार पड़ गया और जानता था की जल्दी ही वह मर जाएगा।उसने अपने आप से कहा," मेरी चार पत्नियां हैं, उनमें से मैं एक को अपने साथ ले जाता हूँ...
जब मैं मरूं तो वह मरने में मेरा साथ दे।"
तब उसने चौथी पत्नी से अपने साथ आने को कहा तो वह बोली," नहीं, ऐसा तो हो ही नहीं सकता और चली गयी।
उसने तीसरी पत्नी से पूछा तो वह बोली की," ज़िन्दगी बहुत अच्छी है यहाँ।जब तुम मरोगे तो मैं दूसरी शादी कर लूंगी।"
उसने दूसरी पत्नी से कहा तो वह बोली, " माफ़ कर दो, इस बार मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती।ज्यादा से ज्यादा मैं तुम्हारे दफनाने तक तुम्हारे साथ रह सकती हूँ।"
अब तक उसका दिल बैठ सा गया और ठंडा पड़ गया।
तब एक आवाज़ आई," मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।तुम जहाँ जाओगे मैं तुम्हारे साथ चलूंगी।" उस आदमी ने जब देखा तो वह उसकी पहली पत्नी थी।वह बहुत बीमार सी हो गयी थी खाने पीने के अभाव में।
वह आदमी पश्चाताप के आंसूं के साथ बोला," मुझे तुम्हारी अच्छी देखभाल करनी चाहिए थी और मैं कर सकता थाI" 
दरअसल हम सब की चार पत्नियां हैं जीवन में।

1. चौथी पत्नी हमारा शरीर है।
हम चाहें जिन सजा लें संवार लें पर जब हम मरेंगे तो यह हमारा साथ छोड़ देगा।

2. तीसरी पत्नी है हमारी जमा पूँजी, रुतबा। जब हम मरेंगे
तो ये दूसरों के पास चले जायेंगे।

3. दूसरी पत्नी है हमारे दोस्त व रिश्तेदार।चाहेंवे कितने भी करीबी क्यूँ ना हों हमारे जीवन काल में पर मरने के बाद हद से हद वे हमारे अंतिम संस्कार तक साथ रहते हैं।

4. पहली पत्नी हमारी आत्मा है, जो सांसारिक मोह माया में हमेशा उपेक्षित रहती है।
यही वह चीज़ है जो हमारे साथ रहती है जहाँ भी हम जाएँ.......
कुछ देना है तो इसे दो...
देखभाल करनी है तो इसकी करो....
प्यार करना है तो इससे करो.

मानसिक शांति का अनुभव होता है

हमारा पूरा ब्रह्मांड ऊर्जा के प्रवाह पर ही आधारित है। ऊर्जा अलग-अलग रंगों की कंपन शक्ति से मिलकर कहीं अधिक, कहीं कम, कहीं सकारात्मक तथा कहीं नकारात्मक रूप में प्रवाह होती रहती है। यदि ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर,घर, मंदिर या किसी भी स्थान पर असंतुलित होता है, तो वह किसी भी सजीव वस्तु के लिए शारीरिक या मानसिक असंतुलन पैदा करने का कारण होता है। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनियों को हर प्रकार की ऊर्जा के बारे में ज्ञात था, इसीलिए उन्होंने हमारी पूजा के क्रियाकलाप या धार्मिक क्रियाकलाप को इस तरह से बनाया कि वह हमारी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा को सकारात्मक तरीके से संतुलित बनाये रखता है। इसी प्रकार कुछ ऐसे पशुओं व पेड़ों कोपहचान लिया था जिनका ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा क्षेत्र से दोगुना या चैगुना बड़ा है | ऐसेपशुओं व वृक्षों को हमारी धार्मिक क्रिया में शामिल किया गया था।नकारात्मक ऊर्जाएं हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित करती हैं। यदि हम नकारात्मक विचार रखते हैं, तो मानसिक अस्थिरता का कारणहोते हैं और हमारे शरीर की कंपन शक्ति में बदलाव आता है। न केवल हमारे शरीर में, बल्कि यह हमारे घर के वातावरण को भी प्रभावित करती है क्योंकि यह नकारात्मक विचार एक कंपन शक्ति के रूप में प्रवाह करते हैं। हमारी मानसिक स्थिति वास्तु दोष की तीव्रता को दोगुना या चौगुना कर देती है।हमारे नकारात्मक विचार कंपन शक्ति के रूप में उसमें जुड़ते रहते हैं | इसी तरह से रत्नों तंत्र-मंत्र तथा यंत्रो मे भी सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा होती है |घर में प्रतिदिन हम दीपक जलाते हैं, दीपक जलाते समय हम गाय का घी,सरसों का तेल या तिल का तेल आदि प्रयोग करते हैं। इसका वैज्ञानिक कारण यह है, कि गाय का घी सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है तथा सरसों का तेल व तिल का तेल नकारात्मक ऊर्जा को खत्म करता है। अतः हमें दीपक जलाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि हम किस उद्देश्य से दीपक जला रहे हैं। हम घर में कपूर भी जलाते हैं , कपूर को जलाने से पहले उसकी कंपनशक्ति कम होती है, परंतु जलाने के बाद उसकी कंपन शक्ति बढ़ जाती है। तिरुपति भगवान के प्रसाद के लड्डू में भी खाने वाले कपूर का प्रयोग किया जाता है। कपूर वायरस को रोकता है। घर या मंदिर में पूजा करते समय जो हम घंटी बजाते हैं, उस ध्वनि से एक कंपन शक्ति उत्पन्न होती है जो नकारात्मक ऊर्जा को काटती है। इसीलिए घर के हर कोने में घंटी बजानी चाहिए। पूजा में नारियल का भी अपना महत्व है,नारियल को पंचभूतों का प्रतीक माना जाता है। जब हम चोटी वाला नारियल हाथ से पकड़कर तोड़ते हैं, तो हमारी हथेली के सारे एक्यूप्रेशर बिंदुओं पर दवाब पड़ता है।इसी प्रकार जब हम किसी को तिलक लगाते हैं तो उसका भी एक अपना महत्व है। हमारी पांचों अंगुलियां पंचभूतों का प्रतीक हैं। अंगूठा अग्नि का, तर्जनी अंगुली वायु का, मध्यमा अंगुली गगन का, अनामिका पृथ्वी का तथा कनिष्ठिका जल का प्रतीक होती हैं। हम तिलक लगाने में अधिकतर अनामिका अंगुली का प्रयोग करते हैं इसका अर्थ है, कि जिसको तिलक लगा रहे हैं वह भूमि तत्व से जुड़ा रहे। प्राचीन समय में योद्धा जब युद्ध पर जाते थे, तो उन्हें अंगूठे से त्रिकोण के रूप में तिलक लगाया जाता था, अग्नि वाली अंगुली से अग्नि के प्रतीक के रूप में तिलक लगाने सेउनके आग्नेय चक्र में अग्नि रूप शक्ति समाहित हो जाती थी, जिससे वह बड़ी वीरता के साथ युद्ध स्थल में युद्ध करते थे। तिलक हमेशा गोलाकार या त्रिकोण (पिरामिड आकार) के रूप में ही लगाया जाता है। पहले समय में तिलक को लगाने के लिए कुमकुम, सिंदूर और केसर को मिलाकर प्रयोग किया जाता था, जिससे बैंगनी रंग की ऊर्जा निकलती थी जो हमारी आग्नेय चक्र की आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाती थी। उस समय स्त्रियां जब तिलक लगाती थीं तथा मांग भरती थीं, तो वह हमारे ऊपर के चक्रों को बैंगनी रंग की ऊर्जा से हमारे आध्यात्मिक चक्रों को ऊर्जा प्रदान करती थी। आजकल हम बिंदी के नाम पर स्टीकर लगाते हैं उसकेपीछे जो चिपकाने वाला पदार्थ होता है वह सूअर की चर्बी से बना होता है, जिनको लगाने से हमारी बुद्धि भ्रष्ट होती जा रही है।स्त्रियां जो कांच की चूड़ियां पहनती हैं वह सिलीकान मिट्टी से बनी होती हैं तथा ये भूमि तत्व का प्रतीक होती हैं। स्त्रियों के ऊपर नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने पर चूड़ियां उस ऊर्जा को अपने ऊपर लेकर टूट जातीहै। स्त्रियों की कलाई में गर्भाशय के एक्यूप्रेशर बिदुं भी होते हैं, चूड़ियों के इधर-उधर खिसकने से उन पर दवाब पड़ता रहता है जिससे वे सक्रिय रहते हैं और स्त्रियों को गर्भाशय संबंधी परेशानी का सामना बहुत कम करना पड़ता है | परंतु आजकल फैशन के इस दौर में केवल शादी या पार्टी के समय जब साड़ी पहनते हैं तभी कुछ स्त्रियाँ कभी-कभी एक-दो घंटे केलिए कांच की चूड़ियां पहन लेती हैं, अन्यथा इनका प्रयोग विशेषकर शहरों में स्त्रियों नेबिल्कुल ही बंद कर दिया है।यह सबघोर मूर्खता के कारण हो रहा है |नवजात शिशु को काली पोत की माला पहनाने से उनपर राहु-केतू व शनि की नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव नहीं होता है। स्त्रियों को कमर से निचले भाग में चांदी का आभूषणपहनने के लिए कहा गया है । इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि चांदी नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है, स्त्री का गर्भाशय एक उल्टा पिरामिड शेप में है जिसका नीचे का नुकीला हिस्सा ऊर्जा ऊपर की तरफ खींचता है तथा स्त्री जब गर्भधारण करती है, तब गर्भाशय मूलाधार चक्र से ऊपर की तरफ ऊर्जा खींचता है जो बच्चे के विकास में सहायक होता है। पैरों से होती हुई नकारात्मक ऊर्जा गर्भाशय तक न पहुंचे, उसे रोकने के लिए पैरों में चांदी की पायल तथा कमर बंध का प्रयोग किया जाताथा। दक्षिण भारत की स्त्रियां पैरों में हल्दी लगाती हैं, जो नकारात्मक ऊर्जा को रोकने में सहायक होती है।प्राचीन समय में पुरुष भी पैरों में चांदी के मोटे-मोटे कड़े पहनते थे जिसका कारण था कि वे नगें पैर लंबा सफर भी पैदल ही करते थे। पैरों के द्वारा नकारात्मक ऊर्जा उनके शरीर में न आ सके, इसलिए पैरों में चांदी का प्रयोग किया जाता था। हमारे भारत में मेंहदी लगाने का एक विशेष महत्व है। जब मौसम बदलता है तो शरीर की सारी गर्मी निकालने के लिए मेंहदी का प्रयोग हाथ और पैरों में लगाकर करते हैं क्योंकि हाथ-पैरों में हमारे नाड़ियों के बिंदु होते हैं जिसके द्वारा यह ऊर्जा बाहर निकलती है।भारत में शादी भी एक उच्चतर वैज्ञानिक प्रक्रिया है। शादी से पहले लड़के और लड़की को हल्दी और बेसन का उबटन लगाया जाता है जो शरीर के अंदर वाली नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकालती है तथा बाहर से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है। आग के चारों तरफ भांवर या सात फेरे लेने का भी अपना महत्व है क्योंकि पंचभूतों में अग्नि ही सबसे पवित्र ऊर्जा मानी जाती है। किसी भी वस्तु को शुद्ध करने के लिए उसे आग में तपाया जाता है तथा इच्छानुसार आकार दिया जा सकता है| इसी तरह वर-वधु एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जब सात फेरे अग्नि के चारों तरफ लेते हैं, तो उन दोनों के बीच की जो नकारात्मक ऊर्जा होती है वह उस अग्नि में भस्म हो जाती है और उनका एक नया रिश्ता आकार लेता है। सात फेरे सात दिन का भी प्रतीक होते हैं। वधू को लाल कपड़े पहनने को कहा जाता है क्योंकि लाल और पीला रंग नकारात्मक शक्ति को रोकता है। शादी के बाद लड़की को काली पोत का मंगल सूत्र पहनाया जाता है जिससे उसको कोई नकारात्मक शक्तिप्रभावित न करे।पूजा स्थल जैसे, मंदिर हमारे यहां सबसे ज्यादा सकारात्मक ऊर्जा का स्थान माना जाता है। यहां पर लोग अपने दुःख-दर्द लेकरआते हैं तथा यहां पर आकर उनको मानसिक शांति का अनुभव होता है। इसलिए इनकी स्थापना करते समय हमें बहुत ही ध्यान रखना चाहिए। मंदिर को बहुत ही सकारात्मक ऊर्जा का क्षेत्र बनाना चाहिए। जब मंदिर के लिए भूमि पूजन होते हैं व वहां पर मूर्ति की स्थापनाहोनी होती है, वहां पर नव धान्य नवरत्न गाड़ देते हैं तथा वहां परगायमूत्र छिड़कते थे | मंदिर में हमेशा मंत्रोंच्चारण होते रहते हैं तथा हवन व यज्ञ होते रहते हैं जिससे मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है| भगवान को फूलों से अलंकृत किया जाता है क्योंकि प्रत्येक फूल का ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा से अधिक होता है इसलिए दक्षिण भारत की स्त्रियां अपने बालों में फूलोंव गजरों का प्रयोग करती हैं। पूजा के समय हाथ में कलावा बांधाजाता है। यह बाहरी नकारात्मक ऊर्जा को रोकता है तथा शरीर के अंदर की ऊर्जा को खींचता है। जब इसका रंग फीका पड़ने लगे या अधिक से अधिक नौ दिनों में हमें इसे अपने हाथ से खोल देना चाहिए।वेद मंत्रों का उच्चारण कपूर आदि जलाकर मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा इतनी बढ़ायी जाती है कि वहां पर जाकर हमें एक आत्मिक आनंद का अहसास होता है। भारत मेंकई तीर्थ स्थल ऐसे हैं, जिनका अपना एक विशेष महत्व है तथा वह ऐसी ऊर्जा ग्रहित क्षेत्रों मेंस्थापित किये गये हैं कि वहां जाने पर वहां की सकारात्मक ऊर्जा हमारी नकारात्मक ऊर्जा कोनष्ट कर देती ह

Tuesday 29 July 2014

ऐसे अधिकारी जीव को ही परमात्मा मिलते हैँ

दीपक के प्रकाश मेँ चाहे कोई भागवत पाठ करे या चोरी । दीपक के मन मे न तो किसी के प्रति सुभाव होगा न तो कुभाव । दीपक का धर्म तो एक ही है प्रकाशित होना , प्रकाश देना । प्रकाश का किसी के कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नही है "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।" परमात्मा सभी के हृदय मे बस कर दीपक की भाँति प्रकाश देते है । जीव के पाप या पुण्य कर्म का साक्षीभूत परमात्मा पर कोई प्रभाव नहीँ पड़ता । ईश्वर न तो निष्ठुर है न दयालु । ईश्वर का अपना कोई धर्म नहीँ ।ईश्वर आनन्दरुप हैँ , सर्वव्यापी हैँ । परमात्मा बुद्धि से परे है । ईश्वर ही बुद्धि को प्रकाशित करते है । ईश्वर को प्रकाश देने वाला कोई नहीँ हैँ वह स्वयं प्रकाशी है । ईश्वर के सिवाय अन्य सभी परप्रकाशी है ।
ईश्वर का दीपक सा यह स्वरुप हमेँ प्रकाश देता है इस स्वरुप का अनुभव करने हेतु ज्ञानी पुरुष ब्रह्माकार वृत्ति धारण करते हैँ । जब मन ईश्वर का सतत् चिन्तन करे , वृत्ति जब कृष्णाकार, ब्रह्माकार बने तभी मन को शान्ति मिलती है । ईश्वर को छोड़कर मनोवृत्ति को जहाँ भी रखा जायेगा वह स्थान उसमेँ समा नही पायेगा ईश्वर के अतिरिक्त सभी कुछ अल्प है । अतः अन्य किसी भी वृत्ति प्रवृत्ति मेँ मनोवृत्ति को शान्ति नही मिलेगी जब वृत्ति कृष्णाकार , ब्रह्माकार , भगवतस्वरुप बनेगी तभी आनन्द की प्राप्ति होगी ।
सत्यनिष्ठ जीव ही सत्यव्रत मनु है । कृतमाला के किनारे बसने का अर्थ है , सत्कर्म की परम्परा मेँ जीना । ऐसा होने पर ही सत्यव्रत जीवात्मा की वृत्ति ब्रह्माकार होती है । और भगवान मत्स्यनारायण उनके हाथ मेँ आते हैँ । ऐसे अधिकारी जीव को ही परमात्मा मिलते हैँ 

ईश्वर आनन्दरुप हैँ

महाराज सत्यव्रत मनु एक समय कृतमाला नदी मेँ स्नान करके तर्पण कर रहे थे । ऋषितर्पण से बुद्धि शुद्ध होती है ।भारत धर्मप्रधान देश है । ऋषियोँ का स्मरण करने से दिव्य संस्कार हमारे हृदय मेँ अवतीर्ण होते हैँ । आज शिक्षा मेँ धर्म का कोई स्थान ही नहीँ । जलतर्पण करते हुए महाराज मनु के हाथोँ मेँ एक मत्स्य आया । मनु ने उसे जल छोड़ दिया । मत्स्य ने कहा मैँ आपके हाथो मेँ आया हूँ आप मेरी रक्षा करेँ।क्योँकि नदी के बड़े जीव हमेँ खा जायेँगे । राजा ने उसे कमण्डल मेँ रखा किन्तु स्थान कम पड़ गया धीरे बढ़ता हुआ मत्स्य विशाल स्वरुप धारण करता गया ।
हमारी वृत्ति ही मत्स्य है जो धीरे धीरे बढ़ती जाती है।किन्तु जब तक बृत्ति ब्रह्माकार नहीँ होती तब तक शान्ति नहीँ मिलती है । मेरापन - अहम् एक ही स्थान पर नही रह सकता ।मन के आवरण को तोड़ने के लिए ब्रह्माकार वृत्ति आवश्यक है । इस जीव के हृदय मे ईश्वर रहते हैँ ।
दीपक के प्रकाश मेँ चाहे कोई भागवत पाठ करे या चोरी । दीपक के मन मे न तो किसी के प्रति सुभाव होगा न तो कुभाव । दीपक का धर्म तो एक ही है प्रकाशित होना , प्रकाश देना । प्रकाश का किसी के कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नही है "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।" परमात्मा सभी के हृदय मे बस कर दीपक की भाँति प्रकाश देते है । जीव के पाप या पुण्य कर्म का साक्षीभूत परमात्मा पर कोई प्रभाव नहीँ पड़ता । ईश्वर न तो निष्ठुर है न दयालु । ईश्वर का अपना कोई धर्म नहीँ ।ईश्वर आनन्दरुप हैँ , सर्वव्यापी हैँ । परमात्मा बुद्धि से परे है । ईश्वर ही बुद्धि को प्रकाशित करते है । ईश्वर को प्रकाश देने वाला कोई नहीँ हैँ वह स्वयं प्रकाशी है । ईश्वर के सिवाय अन्य सभी परप्रकाशी है ।
ईश्वर का दीपक सा यह स्वरुप हमेँ प्रकाश देता है इस स्वरुप का अनुभव करने हेतु ज्ञानी पुरुष ब्रह्माकार वृत्ति धारण करते हैँ । जब मन ईश्वर का सतत् चिन्तन करे , वृत्ति जब कृष्णाकार, ब्रह्माकार बने तभी मन को शान्ति मिलती है । ईश्वर को छोड़कर मनोवृत्ति को जहाँ भी रखा जायेगा वह स्थान उसमेँ समा नही पायेगा ईश्वर के अतिरिक्त सभी कुछ अल्प है । अतः अन्य किसी भी वृत्ति प्रवृत्ति मेँ मनोवृत्ति को शान्ति नही मिलेगी जब वृत्ति कृष्णाकार , ब्रह्माकार , भगवतस्वरुप बनेगी तभी आनन्द की प्राप्ति होगी ।
सत्यनिष्ठ जीव ही सत्यव्रत मनु है । कृतमाला के किनारे बसने का अर्थ है , सत्कर्म की परम्परा मेँ जीना । ऐसा होने पर ही सत्यव्रत जीवात्मा की वृत्ति ब्रह्माकार होती है । और भगवान मत्स्यनारायण उनके हाथ मेँ आते हैँ । ऐसे अधिकारी जीव को ही परमात्मा मिलते हैँ ।
प्रलय मेँ चाहे किसी भी वस्तु का नाश हो जाये किन्तु सत्यनिष्ठ का नाश भगवान नही होने देते अतः भगवान कहते हैँ - राजन् ! आज के सातवेँ दिन प्रलय होगा और सर्वनाश हो जायेगा तब तुम मेरा स्मरण करना मै तुम्हारी रक्षा करुँगा । जो सत्कर्म एव सत्यनिष्ठ भगवान की शरण मेँ जाता है भगवान जिसे अपनाते है उसका प्रलय मेँ भी नाश नहीँ होता है ।
सातवेँ दिन प्रलय हुआ पृथ्वी जलमय हुइ तभी राजा को एक मछ्ली दिखायी दी जिसकी सीँग मेँ नाव को बाँध दिया और जल मे घूमते रहे ।
" शरीर नौका है , प्रभू के चरण सीँग है इस शरीर को परमात्मा के चरणोँ मे बाँध देना चाहिए ।"
आदि मत्स्यनारायण की स्तुति को महात्माओँ ने गुरुष्ट ही कहा है जो भी मत्स्यनारायण की कथा को पढ़ता है या सुनता है और चिन्तन मनन करता है उसके सभी संकट नष्ट हो जाते हैँ

इसे धारण करने से शरीर स्वस्थ और मन शांत रहता !

एक बार देवर्षि नारद ने भगवान नारायण से
पूछा - दयानिधान! रुद्राक्ष को श्रेष्ठ
क्यों माना जाता है? इसकी क्या महिमा है? सभी के
लिए यह पूजनीय क्यों है? रुद्राक्ष की महिमा को आप
विस्तार से बताकर मेरी जिज्ञासा शांत करें।”
देवर्षि नारद की बात सुनकर भगवान् नारायण बोले - “हे
देवर्षि! प्राचीन समय में यही प्रश्न कार्तिकेय ने भगवान्
महादेव से पूछा था। तब उन्होंने जो कुछ बताया था,
वही मैं आपको बताता हूँ"
“एक बार पृथ्वी पर त्रिपुर नामक एक भयंकर दैत्य उत्पन्न
हो गया। वह बहुत बलशाली और पराक्रमी था। कोई
भी देवता उसे पराजित नहीं कर सका। तब ब्रह्मा, विष्णु
और इन्द्र आदि देवता भगवान शिव की शरण में गए और
उनसे रक्षा की प्रार्थना लगने लगे।
भगवान शिव के पास ‘अघोर’ नाम का एक दिव्य अस्त्र
है। वह अस्त्र बहुत विशाल और तेजयुक्त है। उसे सम्पूर्ण
देवताओं की आकृति माना जाता है। त्रिपुर का वध करने
के उद्देश्य से शिव ने नेत्र बंद करके अघोर अस्त्र
का चिंतन किया। अधिक समय तक नेत्र बंद रहने के कारण
उनके नेत्रों से जल की कुछ बूंदें निकलकर भूमि पर गिर गईं।
उन्हीं बूंदों से महान रुद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हुए। फिर
भगवान शिव की आज्ञा से उन वृक्षों पर रुद्राक्ष
फलों के रूप में प्रकट हो गए।
ये रुद्राक्ष अड़तीस प्रकार के थे। इनमें कत्थई वाले बारह
प्रकार के रुद्राक्षों की सूर्य के नेत्रों से, श्वेतवर्ण के
सोलह प्रकार के रुद्राक्षों की चन्द्रमा के नेत्रों से
तथा कृष्ण वर्ण वाले दस प्रकार के
रुद्राक्षों की उत्पत्ति अग्नि के नेत्रों से मानी जाती है।
ये ही इनके अड़तीस भेद हैं।
ब्राह्मण को श्वेतवर्ण वाले रुद्राक्ष, क्षत्रिय
को रक्तवर्ण वाले रुद्राक्ष, वैश्य को मिश्रित रंग वाले
रुद्राक्ष और शूद्र को कृष्णवर्ण वाले रुद्राक्ष धारण
करने चाहिए। रुद्राक्ष धारण करने पर बड़ा पुण्य प्राप्त
होता है। जो मनुष्य अपने कण्ठ में बत्तीस, मस्तक पर
चालीस, दोनों कानों में छः-छः, दोनों हाथों में बारह-
बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और
वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह
साक्षात भगवान नीलकण्ठ समझा जाता है। उसके
जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। रुद्राक्ष धारण
करना भगवान शिव के दिव्य-ज्ञान को प्राप्त करने
का साधन है। सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष धारण कर
सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य समाज में
मान-सम्मान पाता है।
रुद्राक्ष के पचास या सत्ताईस मनकों की माला बनाकर
धारण करके जप करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है।
ग्रहण, संक्रांति, अमावस्या और
पूर्णमासी आदि पर्वों और पुण्य दिवसों पर रुद्राक्ष
अवश्य धारण किया करें। रुद्राक्ष धारण करने वाले के
लिए मांस-मदिरा आदि पदार्थों का सेवन वर्जित
होता है।”
हिंदू धर्म में सदियों से पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन जैसे शुभ
कार्यो में रुद्राक्ष का प्रयोग किया जाता है। रुद्राक्ष
के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता। अब
तो वैज्ञानिक अनुसंधानों के माध्यम से पूरी दुनिया में
रुद्राक्ष की गुणवत्ता साबित हो चुकी है। इसके अद्भुत
औषधीय गुण प्रयोगशाला में जांच के बाद सही साबित
हुए है। इसे धारण करने से शरीर स्वस्थ और मन शांत
रहता ! 

करुना सुनो श्याम मेरी

करुना सुनो श्याम मेरी
मैं तो होय रही चेरी तेरी ॥
करुना सुनो श्याम मेरी

दरसन कारन भयी बावरी , बिरह व्यथा तन घेरी
तेरे कारन जोगन हूँगी , दूंगी नगर बिच फेरी
कुञ्ज बन हेरी हेरी ,
करुना सुनो श्याम मेरी

अंग बभूत गले मृग छाला, यूं तन भसम करूंगी
अजहूँ न मिल्या श्याम अबिनासी, बन बन बीच फिरुंगी
रोऊँ नित हेरी फेरी ,
करुना सुनो श्याम मेरी

जब मीरा को गिरिधर मिलिया , दुःख मेटन सुख भेरी ।
रोम रोम साका भई उर में , मिट गयी फेरा फेरी
रही चरनन तर चेरी ,
करुना सुनो श्याम मेरी
 ऊँकारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायंति योगिन:।
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नम:।।
नमंति ऋषयो देवा नमंत्यप्सरसां गणा:।
नरा नमंति देवेशं नकाराय नमो नम:।।
महादेवं महात्मानं महाध्यानं परायणम्।
महापापहरं देवं मकाराय नमो नम:।।
शिवं शान्तं जगन्नाथं लोकनुग्रहकारकम्।
शिवमेकपदं नित्यं शिकाराय नमो नम:।।
वाहनं वृषभो यस्य वासुकि: कंठभूषणम्।
वामे शक्तिधरं देवं वकाराय नमो नम:।।
यत्र यत्र स्थितो देव: सर्वव्यापी महेश्वर:।
यो गुरु: सर्वदेवानां यकाराय नमो नम:।।
षडक्षरमिदं स्तोत्रं य: पठेच्छिवसंनिधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।।

प्रभु चरणों की करके सेवा

जय श्री शिव शक्ति जी की जी ---(शिव निन्दा सुनना,करना सबसे बड़ा पाप है )
सबसे पहले प्रभु श्री शिव शक्ति जी के चरणों में इस दास का कोटि कोटि प्रणाम है ! आज हम इस विचार के माध्यम से सिर्फ ये ही कहना चाहेंगे आपसे की श्री शिव महापुराण और लिंग पुराण में एक बात बार बार बताई गई है की अगर कोई आपके सामने श्री शिव शक्ति की निंदा कर रहा है या करने की कोशिश करता है तो सबसे पहले आपका फ़र्ज़ है की उस इंसान को ऐसा करने से रोकिये,अगर वो नहीं रुकता है तो अपने कानों को बंद करके वहां से उठकर चले जाइये ,या फिर आप उसके प्राण ले लीजिये या फिर अपने प्राणों को समाप्त कर दीजिये ,क्योँकि शिव निंदा सुनना,करना और किसी दूसरे को सुनना ये बहुत बड़ा और घोर पाप माना गया है ,अगर कोई ऐसा कर रहा है तो आप उसके सामने से उठकर ये सोचकर चले जाइये की ये खुद तो नरक का द्वार अपने लिए खोल रहा है और आपको भी अपने साथ ले जाएगा,आपका कोई भले ही कितना करीबी मित्र हो किन्तु अगर वो शिव निंदा करे तो उसे समझकर देखिये ना माने तो खुद उठकर चले जाइये,आपने ये देखा या सुना या पढ़ा होगा की भगवान ब्रह्मा जी के पंच मस्तक थे पहले और अब चार हैं कारण ये था की भगवान ब्रह्मा जी का पांचवां मस्तक हमेशा शिव निन्दा करता रहता था जिसके फल सवरूप प्रभु श्री शिव ने कालभैरव को ये कहा था की ब्रह्मा हर समय मेरी निन्दा करता रहता है इसलिए तुम्हे उसे सबक सीखना पड़ेगा और तुम्हारी नज़रों में जो उचित हो उसे उसके कर्मों का वो फल दे देना फिर जब कालभैरव जी ने ब्रह्मा के पास पहुंचे और ये देखा की इनका पांचवां मस्तक ही हर समय शिव निन्दा करता रहता है इसलिए मैं इनके पांचवें मस्तक को ही काट डालूँगा ये विचार करके उन्होंने ब्रह्मा जी के पांचवें मस्तक को काट डाला था और वो मस्तक जहाँ गिरा था उस जगह का नाम कपालमोचन पड़ गया था.
जय शिव भोले बम बम भोले जो भी जाता जाएगा 
प्रभु चरणों की करके सेवा भवसागर से वो तर जाएगा !!
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय 

Monday 28 July 2014

एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया


(1) कबीर, नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चैदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।

(2) गोगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।

(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।

(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1200 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उ   की अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएं भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है।

परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, महाराज, आप क्यों रो रहे हैं? गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी। इस पर राजा ने कहा, हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं। गोरखनाथ बोले, तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं। 

तुम तो एक मृत स्त्री के कारण स्वयं मरने के लिए तैयार बैठे हो। गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया। कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर आज भी दर्शनीय है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ गोगामेडीश् के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रह   है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं। इन्ही गोगाजी को आज जावरवीर गोगा कहते है और राजस्थान से लेकर विहार और पश्चिम बंगाल तक इसके श्रद्धालु रहते हैं ।

शिवमंदिर बनवाया था।


(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज में डॉ० प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्त्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविर्भूत हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।

(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं, राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86।1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र भरथरी का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।

(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहराव है।

(6) कंथड़ी नामक एक सिद्धि के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चैलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।
इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में इस देश में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालंधरनाथ और कृष्णपाद के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।

1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूओं के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडू में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडू में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था। इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।
3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए। सतयुग में वह लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार भुज में और कलियुग में पुनः गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।
4.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।

5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।

6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।

7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।

8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उनकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।

9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को काम और सेक्स का लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। गोरक्षनाथ जी की एक गोष्ठी में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।

11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पूरनमल भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पूरनमल पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पूरनमल तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पूरनमल वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।

12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से राजस्थान पंजाब में गोपीचंद भरथरी , रानी पिंगला और राजा भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथ के परमप्रिय शिष्य बन गये थे।

विभिन्न मान्यताओं को तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुये ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरक्षनाथ जी का जीवन काल तेरहवीं शताब्दी से पहले का नहीं था। गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जलधरनाथ समसमायिक थे दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे,तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे,फिर संयोगवश ऐसे एक आचार-विचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध सेक्स संसर्ग मुख्य बात थी - संभवतः यह वामाचारी यौनसुखी साधना थी-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता आसानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है

महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।

गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चैरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है।

डॉ० बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ० बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को निसंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चैंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परंतु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है। पुस्तकें ये हैं-
1. सबदी 2. पद 3.शिष्यादर्शन 4. प्राण सांकली 5. नरवै बोध 6. आत्मबोध7. अभय मात्रा जोग 8. पंद्रह तिथि 9. सप्तवार 10. मंछिद्र गोरख बोध 11. रोमावली12. ग्यान तिलक 13. ग्यान चैंतीसा 14. पंचमात्रा 15. गोरखगणेश गोष्ठ 16.गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध) 17.महादेव गोरखगुष्टिउ 18. शिष्ट पुराण 19. दया बोध 20.जाति भौंरावली (छंद गोरख) 21. नवग्रह 22. नवरात्र 23 अष्टपारछ्या 24. रह रास 25.ग्यान माला 26.आत्मबोध (2) 27. व्रत 28. निरंजन पुराण 29. गोरख वचन 30. इंद्र देवता 31.मूलगर्भावली 32. खाणीवाणी 33.गोरखसत 34. अष्टमुद्रा 35. चौबीस सिध 36 षडक्षर 37. पंच अग्नि 38 अष्ट चक्र 39 अ   ूक 40. काफिर बोध

सौभाग्य की बात है

राजा प्रसेनजित की पुत्री विपुला उद्यान-भ्रमण हेतु निकली थी। वह इतनी रूपवान थी कि प्रत्येक युवक उसे प्राप्त करने के लिए बेचैन था। अरिहंत नामक संन्यासी राजोद्यान में ठहरे हुए थे। वे भगवती सरस्वती की वंदना में निमग्न थे और राजोद्यान का कण-कण उनके दिव्य संगीत की धुनों से भाव विभोर हो रहा था। विपुला भी इस संगीत को सुनकर खिंचती चली आई और सुनते-सुनते स्वत: ही उसके पांव थिरकने लगे।
कितने ही घंटे इसी प्रकार व्यतीत हो गए। आकर्षित होकर विपुला ने गले में पड़ी माला उतारकर अरिहंत के गले में डाल दी। अरिहंत जो अब तक भक्तिरस में डूबकर चेतना शून्य थे, उन्होंने गले में माला पड़ते ही अपनी आंखें खोलीं। सारे घटनाक्रम का भान होते ही उन्होंने गले में पड़ी माला उतारकर राजकुमारी को वापस कर दी। महाराज व महारानी को पूर्ण घटनाक्रम ज्ञात हुआ तो वे राजोद्यान पहुंचे और वहां पहुंचकर अरिहंत से बोले, ‘‘सौभाग्य की बात है कि विपुला ने आपका वरण किया है। आप राजकुमारी से विवाह करें और आधे राज्य के भी स्वामी बनें।’’
अरिहंत करबद्ध होकर राजा प्रसेनजित से बोले, ‘‘राजन! एक संन्यासी होने के नाते मैं तो पहले ही प्रभु के प्रेम में पड़ चुका हूं। अब तो यह जीवन उन्हीं की साधना और उन्हीं की तपश्चर्या के लिए समर्पित है।’’
राजकुमारी ने ये वचन सुनकर निश्चय किया कि भले ही उसका विवाह अरिहंत के साथ न हो, पर वह भक्ति के आदर्शों पर ही जीवन व्यतीत करेगी। वासना पर भक्ति की विजय हुई।
एक बेटा अपने पिता जी की मौत के बाद माँ को वृद्धाश्रम में छोड़ आया ! समय समय पर वह मिलकर आता रहा पर माँ ने कभी कोई शिकायत नहीं की ! 
एक दिन बेटे को वृद्धाश्रम से फोन आया कि आपकी माँ की तबियत ठीक नहीं है जल्दी आइये ...
बेटा जाकर देखता है कि उसकी माँ मरने वाली है .. उसने पूछा - माँ आपकी कोई आखिरी ख्वाहिश ??
माँ ने कहा - बेटा , हो सके तो वृद्धाश्रम में पंखें लगवा देना यहाँ एक भी पंखा नहीं है ! 
बेटा - माँ ... क्या यहाँ पंखा भी नहीं था फिर आपने कभी कहा क्यूँ नहीं ... अब तो आप जा रही हो अब क्यूँ ?? 
माँ - बेटा .... मैंनें अपना कष्ट तो सह लिया .. पर जब तुम्हारा बेटा तुम्हें यहाँ छोड़कर जायेगा तो ये माँ मरकर भी अपने बेटे का वो कष्ट सहन न कर पायेगी .

कहत 'कबीर' सुनो भाई साधों

माल जिन्होंने जमा किया, बनजारे हारे जाते है ।। टेर ।।
भाई-बन्धु कुटुम्ब कबीले, दावा कर-कर खाते है ।
जभी मुसाफिर मारा जावे, कोई काम न आते है ।। १
सांई का रस्ता बिनु जाने, और राह भटकाते है ।
इन रस्तों के बीच मुसाफिर, अक्सर मारे जाते है ।। २
ऊँचे-नीचे महल बनावे, बैठे समय बिताते है ।
राम-नाम धन नहीं बटोरा, हाथ पसारे जाते है ।। ३
अगन पलीता राज दण्ड अरु, चोर लुँट ले जाते है ।
राम-नाम पर कभी न देता, माल जँवाई खाते है ।। ४
भाई-बंधू नाती उस दिन, सभी अलग हो जाते है ।
कहत 'कबीर' सुनो भाई साधों, अपने हाथ जलाते है ।। ५
माल जिन्होंने जमा किया, बनजारे हारे जाते है ।। टेर
मेरे दिल के नाज़ुक धड़कनो को 
तुमने धड़कना सिखा दिया.....
जब से मिला हैं प्यार तेरा !
ग़म में भी मुस्कुराना सिखा दिया ---
किस कदर मुझको सताते हो तुम 
भूल जाने पे भी याद आते हो तुम..
जब भी खुदा से कुछ मांगता हूँ 
मेरे दिल की दुवा बन जाते हो तुम ---
जिंदगी बन के तेरे जान से गुजर जाऊँगा 
ऐसे न सता मैं तेरे दिल में उतर जाऊँगा 
मैं तो तेरे प्यार का एक हार हूँ.....
एक मोती भी टुटा तो बिखर जाऊँगा ---
अपनी साँसों में महकता पाया हैं आपको 
हर ख्वाब में हमने बुलाया हैं आपको 
क्यों न करे हम याद आपको....
जब रब ने हमारे लिए बनाया हैं आपको ---
चाहे प्यार कितनो भी दूर रहे
प्यार के सिलसिले कभी न कम होंगे 
जब भी लगे तुम तकलीफ में हो 
पलट कर देखना तेरे पीछे हम होंगे ---

Sunday 27 July 2014

प्रेतात्मा आदि का साया पड़ जाता है

कभी-कभी व्यक्ति का चौराहे पर रखी हुई वस्तु पर पैर पड़ जाता है या लाग हो जाती है या कोई व्यंतर आत्मा का शरीर से स्पर्श हो जाता है अथवा प्रेतात्मा आदि का साया पड़ जाता है तो व्यक्ति तुरंत अस्वस्थ हो जाता है। वह पागलों जैसी हरकतें कर सकता है, ज्वर से पीड़ित हो सकता है, उसका खाना-पीना छूट सकता है। इन सब कारणों का निदान चिकित्सकों के पास नहीं होता, इनका उपचार सिर्फ टोटकों द्वारा ही संभव होता है।
यह टोटका निम्न प्रकार से किया जाता है-
* सबसे पहले गाय के गोबर का कंडा व जली लकड़ी की राख को पानी से भिगोकर एक लड्डू बनाएँ।
* इसके बाद इसमें एक सिक्का गाड़ दें।
* फिर उस पर काजल और रोली की सात बिंदी लगा दें।
* तत्पश्चात्‌ लोहे की एक कील उसमें गाड़ दें।
* अब उस लड्डू को अस्वस्थ व्यक्ति के ऊपर से सात बार उतारकर चुपचाप नजदीक के किसी चौराहे पर रख आएँ।
* आते-जाते समय किसी से बातचीत न करें तथा पीछे मुड़कर भी न देखें। इस क्रिया से रोगी बहुत जल्दी स्वस्थ हो जाएगा।
दूसरा प्रयोग : 
* झाडू व धान कूटने वाला मूसल अस्वस्थ व्यक्ति के ऊपर से उतारकर उसके सिरहाने रख दें।
* अपने बाएँ पैर का जूता अस्वस्थ व्यक्ति के ऊपर से सात बार उतारकर (घुमाकर) प्रत्येक बार उल्टा जूता जमीन पर पीटें।
* सात ही बार वह जूता उस व्यक्ति को सुँघाएँ, इस प्रक्रिया से भी अस्वस्थ व्यक्ति ठीक हो जाएगा।
किसी भटकती आत्मा की लाग
* यदि किसी व्यक्ति को किसी भटकती आत्मा (शाकिनी, प्रेतनी) की लाग हो गई हो तो गंधक, गुग्गुल, लाख, लोबान, हाथी दाँत, सर्प की केंचुली व पीड़ित व्यक्ति के सिर का एक बाल लेकर सबको मिलाकर व पीसकर जलाएँ तथा उसका धुआँ रोगी को दें। इससे व्यक्ति पर से लाग हट जाती है।

ऐसे ही व्यक्ति मुनि या योगी बन पाते है।

तांत्रिक पंच मकार का अर्थ -
वाम मार्ग के तंत्र में इसका विशेष स्थान है, इसके बिना किसी भी प्रकार की साधना पूरी हो ही नहीं सकती और ये पंचमकार मद्य, मांस , मीन , मुद्रा और मैथुन है, ये पांचों प्रक्रियाएं साधन विशेष रूप से विधि-विधान सहित संपन्न होने चाहिए तभी साधक को तांत्रिक साधना में सफलता प्राप्त होती है !
कुलार्णव तंत्र के अनुसार
मद्य मांस च मीनं मुद्रा मैथुनमेव च।
मकार पंचकं प्रदुर्योगिनाम मुक्तिदाय्काम।।
अर्थात मद्य, मांस , मीन , मुद्रा और मैथुन
यह पांच मकार ही योगियों को पूर्ण सिद्धि एवं मुक्ति प्रदान करने वाले है। यदि सामान्य रूप से इसकी व्याख्या की जाये तो यह तो एक असम्भव सी स्थिति स्पष्ट होगी और इस प्रकार की क्रियाओं को उपयोग मे लेन वाला व्यक्ति असामान्य व्यक्ति ही माना जायेगा क्योंकि मध और मांस तामसिक प्रकृति के पदार्थ है, और इनके प्रयोग से तमोगुण की वृद्धि होती है। जब की तंत्र के ज्ञान से तो सिद्धि और मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए। यही मूल बिंदु है जिसकी व्याख्या आवश्यक है। केवल शाब्दिक अर्थों पर जाकर तंत्र शास्त्र को गलत द्रष्टि से देखना या दुराचार का मार्ग मानना उचित नहीं है। थोड़े से फेर बदल के साथ अलग अलग ग्रंथो मे जो पंच मकार की व्याख़्या क़ी गयी है उसका सार प्रस्तुत है -
मद्य या मदिरा -
"योगिनी तंत्र " में स्पष्ट कहा गया है की मदिरा का तात्पर्य है शक्तिदायक रस अर्थात शिव और शक्ति के संयोग से जो महातत्व उत्पन्न होता है वही मदिरा है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार गुड और अदरक का मेल ब्राह्मण के लिए मदिरा है , कांसे के पात्र में नारियल का पानी क्षत्रिय के लिय और कांसे के पात्र में शहद वैश्य के लिए सुरा अर्थात मदिरा कही गई है, जहाँ किसी तंत्र साधना में सुरा का प्रयोग हो , वहां इस प्रकार की सुरा विशिष्ट वर्ण वाले व्यक्ति को प्रयोग में लानी चाहिय !
जिसके पीने से अशुभ कर्मों का प्रवाह नष्ट हो जाता है तथा साधक परम तत्व, ज्ञान प्राप्य कर मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करता है, ऐसे ही व्यक्ति मुनि या योगी बन पाते है।
मांस
मांस तांत्रिक साधनाओ में बलि स्वरुप प्रयोग मे लाया जाता है। मूल रूप साधना में पशु या मानव बलि का उल्लेख ही नहीं है। मांस का तात्पर्य है शरीर का तत्व और इसी का साधना के दौरान यज्ञ मे बलि स्वरुप अर्पित करना उचित है "योगनी तंत्र " में लिखा है 
माँ शब्दाद रसना ज्ञेया संद्शान रसनाप्रियां।
एतद यो भक्षयेद देवी स एव मांससाधक:।।
अत: यह स्पष्ट है की बलि देना और तांत्रिक साधनों में मांस का भक्षण करना आवश्यक नहीं है यह तो उन पाखंडी, ढोगी और ठग तांत्रिको ने अपने स्वाद की पूर्ति करने हेतु मांस का भक्षण करना आवश्यक बना दिया। यह तो तांत्रिकों द्वारा शास्त्रों मे प्राचीन ऋषियों द्वारा दिए गए मन्त्रों के अर्थों का अनर्थ कर मांस को ही आवश्यक मान लिया गया है , इसी कारण तो आज भी श्रेष्ठ कार्यो में , देवी पूजन में नारियल को होम किया जाता है और वही पूर्ण सिद्धिदायक है।
मीन-मत्स्य
मीन अर्थात मछली तांत्रिको क्रियाओं के मंत्रो मे विशेष रूप से आई है और इसका शाब्दिक अर्थ कर इसे केवल मछली मन लिया गया है। मूल रूप से इसका तात्पर्य है, की जब हम किसी प्रकार की तांत्रिक किया संपन्न करते हैं तो छ: प्रकार की मछलियों अर्थात अहंकार , दंभ, मद, पशुता , मत्सर, द्धेष, शरीर में विचरण करने वाले इन छ: प्रकार के दोषों को नष्ट कर , अपने आपको शुद्ध कर देवता की आराधना में समर्पित कर देना है। केवल मछली खाने से ही यदि तांत्रिक क्रियायां संपन्न हो जाये तो शायद आज आधे से अधिक संसार तांत्रिक होता। तंत्र शास्त्र में तो लाक्षणिक शब्द दिए होते है , इनकी व्याख्या कर मूल भाव समझने की आवश्यकता है। साधक का शरीर भी जल -स्वरुप ही है और इसमें भी श्वास और प्रश्वास दो मत्स्य है। जो साधक प्राणायाम के द्वारा उसको रोक कर कुम्बक करते है, वे ही मत्स्य साधक है। यदि साधक अपनी इंद्रियां को वश मे कर सकता है , तभी वह वशीकरण क्रियाओं में सिद्ध हो सकता है। कुलार्ण तंत्र के अनुसार जहाँ -जहाँ तांत्रिक क्रियाओं मे मत्स्य का विधान है, वहा वैगन , मूली अथवा पानी-फल (नारियल ) को अर्पित करना चाहिए और हवन मे भी इन पदार्थों को अर्पित करना चाहिए , न की जीवित मछली को।
मुद्रा
मुद्रा का केवल उपासनाओं और साधनाओ में ही नहीं , अपितु अन्य रूप से भी विशेष महत्त्व है , मुद्रा का तात्पर्य आंतरिक भावों को प्रकट करना है, साधना काल मे साधक जो साधना कर रहा है , उस समय अपने मन के भावों को अपने इष्ट से वार्ता हेतु किस रूप से प्रकट करता है क्योकि ह्रदय और मन के भावों को बाह्य अंगों द्वारा प्रकट किया जा सकता है और जब हाथो, उँगलियों और पैरों की सहायता से ये मुद्राए बनाई जाती है, तो ये मुद्राए आंतरिक भावो का रूप ले लेती है, साधनाओ मे प्रत्येक प्रकार के लिए अलग -अलग मुद्राएँ है।
मैथुन
मैथुन का तात्पर्य है मिलन या संभोग , इस संभोग प्रक्रिया का प्रत्येक तंत्र साधना मे विशेष स्थान है लेकिन क्या संभोग का तात्पर्य स्त्री और पुरुष का मिलन ही है ? क्या तांत्रिक प्रक्रियाओं में स्त्री का उपयोग अनिवार्य है ? उत्तर है - जी नहीं।
स्त्री का तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति है जो भीतर स्थित है और इसका स्थान मूलाधार है। सहस्त्रार में शिव का स्थान है इस शिव और शक्ति के मिलन को ही मैथुन कहा गया है।
साधना की प्रक्रिया द्वारा अपने शरीर तत्व को उस स्थिति तक पंहुचा देना की शक्ति -तत्व पूर्ण रूप से प्राप्त हो जाय वही वास्तविक मैथुन है !
मूल रूप से पुष्प लताएँ ही स्त्री स्वरूप है और जब इनका समर्पण साधना मे किया जाता है तो वह स्त्री तत्व का समर्पण ही है। शरीर का विलास प्रिय होना तंत्रोक्त मैन्थुन नहीं है बल्कि पराशक्ति -तत्व को प्राप्त कर अपने भीतर के शिव तत्व से विलास रस का संगम ही पूर्ण मैथुन है। इसलिए शुद्ध तंत्र सदनों में तथा पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने हेतु विभिन्न प्रकार के पुष्पों का प्रयोग विशेष रूप से करना चाहिए।
साधना के दौरान मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखना चाहिए। मंत्र-साधक के बारे में यह बात किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि वो किस मंत्र का जप करता है या कर रहा है।
हमारे पुराणों में मंत्रों की असीम शक्ति का वर्णन किया गया है। यदि साधना काल में नियमों का पालन न किया जाए तो कभी-कभी इसके बड़े घातक परिणाम सामने आ जाते हैं। प्रयोग करते समय तो विशेष सावधानी‍ बरतनी चाहिए। मंत्र आपकी वाणी, आपकी काया, आपके विचार को प्रभावपूर्ण बनाते हैं। इसलिए सही मंत्र उच्चारण ही सर्वशक्तिदायक बनाता है। मंत्र उच्चारण की जरा-सी त्रुटि हमारे सारे किये -कराए पर पानी फेर सकत‍ी है। इसलिए गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन साधक को अवश्‍य करना चाहिए।

मैं लड्डू रखना ही भूल गया था

बहुत समय पहले की बात है वृन्दावन में श्रीबांके बिहारी जी के मंदिर में रोज पुजारी जी बड़े भाव से सेवा करते थे। वे रोज बिहारी जी की आरती करते , भोग लगाते और उन्हें शयन कराते और रोज चार लड्डू भगवान के बिस्तर के पास रख देते थे। उनका भाव था कि बिहारी जी को यदि रात में भूख लगेगी तो वे उठ कर खा लेंगे। और जब वे सुबह मंदिर के पट खोलते थे तो भगवान के बिस्तर पर प्रसाद बिखरा मिलता था। इसी भाव से वे रोज ऐसा करते थे। एक दिन बिहारी जी को शयन कराने के बाद वे चार लड्डू रखना भूल गए। उन्होंने पट बंद किए और चले गए। रात में जिस दुकान से वे बूंदी के लड्डू आते थे , उन बाबा की दुकान खुली थी। वे घर जाने ही वाले थे तभी एक छोटा सा बालक आया और बोला बाबा मुझे बूंदी के लड्डू चाहिए। बाबा ने कहा - लाला लड्डू तो सारे ख़त्म हो गए। अब तो मैं दुकान बंद करने जा रहा हूँ। वह बोला आप अंदर जाकर देखो आपके पास चार लड्डू रखे हैं। उसके हठ करने पर बाबा ने अंदर जाकर देखा तो उन्हें चार लड्डू मिल गए क्यों कि वे आज मंदिर नहीं गए थे। बाबा ने कहा - पैसे दो। बालक ने कहा - मेरे पास पैसे तो नहीं हैं और तुरंत अपने हाथ से सोने का कंगन उतारा और बाबा को देने लगे। तो बाबा ने कहा - लाला पैसे नहीं हैं तो रहने दो , कल अपने बाबा से कह देना , मैं उनसे ले लूँगा। पर वह बालक नहीं माना और कंगन दुकान में फैंक कर भाग गया। सुबह जब पुजारी जी ने पट खोला तो उन्होंने देखा कि बिहारी जी के हाथ में कंगन नहीं है। यदि चोर भी चुराता तो केवल कंगन ही क्यों चुराता। थोड़ी देर बाद ये बात सारे मंदिर में फ़ैल गई। जब उस दुकान वाले को पता चला तो उसे रात की बात याद आई। उसने अपनी दुकान में कंगन ढूंढा और पुजारी जी को दिखाया और सारी बात सुनाई। तब पुजारी जी को याद आया कि रात में , मैं लड्डू रखना ही भूल गया था। इसलिए बिहारी जी स्वयं लड्डू लेने गए थे।

भावार्थ - यदि भक्ति में भक्त कोई सेवा भूल भी जाता है तो भगवान अपनी तरफ से पूरा कर लेते हैं।