Wednesday 9 July 2014

साँवल शाह ! जिन्होंने परम भक्त नरसी की ५०० रुपये की हूंडी भरी थी; वह मेरे परमाराध्य आज भी नित्य नवीन लीलायें करते हैं। आज के इस भौतिकवाद में ऐसे भक्तों की कमी अवश्य ही हो गयी है किन्तु मेरे ठाकुर को तो अपना कार्य करना ही है सो जिसे भी तनिक सा भी अपने आराध्य की क्षमता पर विश्वास है; वह जानता है कि वह कैसी अदभुत लीला करते हैं। अपनी अपात्रता पर ग्लानि और पश्चाताप के साथ अपने स्वामी की अहैतुकी कृपा का स्मरण करते हुए चित्त गर्वित हो उठता है। मेरी किशोरीजी और मेरे मनमोहन साँवरे ने पग-पग पर इस दास का मान रखा है। नेत्र उनकी करुणा का स्मरण कर भर आते हैं, ह्रदय अलौकिक आनन्द से भर उठता है, अपनी स्वामिनी के बल का आधार लेते हुए दास विगलित कंठ से यही कह सकता है कि वे केवल नरसी के लिये ही नहीं आये, इस अधम, अपात्र, पाषाण ह्रदय के लिये भी वह अनेकों रुप में इस भौतिक जगत में केवल इस दास की अक्षमताओं को ढकने और मान रखने के लिये प्रस्तुत रहते हैं ! दास को न भौतिक समझ है और न ही आध्यात्मिक और दोनों में ही कोई तर्क-वितर्क भी नहीं करता। केवल और केवल मात्र यही समझ है कि मैं उनका दास और वे मेरे स्वामी ! किन्तु दास आज तक अपने स्वामी की कोई सेवा न कर सका और स्वामी? न जाने कौन सा मेरा दुर्गुण उन्हें भा गया है कि मेरा सारा भार उन्होंने उठा रखा है।
इस देह की कर्म-सिद्धान्त की मर्यादा रखने के लिये इस दास ने भी श्रीगिरिराज पर्वत में अपनी लाठी लगा रखी है किन्तु श्रीकिशोरीजी की कृपा से यह भली-भाँति ज्ञान है कि इस श्रीगिरिराज पर्वत को उन्होंने ही उठा रखा है, भले ही उन्होंने अपनी कनिष्ठिका को पर्वत से लगा रखा है। मेरे लाठी लगाने या न लगाने से कोई अंतर नहीं पड़ता किन्तु नन्दकिशोर चाहते हैं कि लोगों को दिखाने के लिये मैं भी लाठी लगाये रखूँ। सो जैसा स्वामी चाहें ! अधिकांश सोच रहे हैं कि पर्वत उन्हीं की लाठी पर टिका है। नन्द-नन्दन त्रिभंगी मुद्रा में मुस्करा रहे हैं और सभी को आशवस्त भी कर रहे हैं कि यदि तुमने लाठी न लगायी होती तो पर्वत का टिके रहना असंभव था। कनिष्ठिका पर श्रीगिरिराज पर्वत है, त्रिभंगी मुद्रा में समस्त जड़-चेतन को मोहित कर देने वाले वंशी के नाद से आनन्दघन, मदनमोहन ने सब को मोह रखा है और दास न्यौछावर है अपने अशरणशरण स्वामी के इस नयनाभिराम रुप और लीला पर !

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