Friday 18 July 2014

अब शिष्य को ज्ञान हुआ

राजा जनक विदेह कहलाते है l देह से परे जीने वाले विदेह l अनेक ऋषि-मुनियों ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया है एवं उनका उल्लेख करते हुए निष्काम कर्म, निर्लिप्त जीवन जीने वाला बतलाया है l अगणित लोगों को उन्होंने ज्ञान का शिक्षण दिया l एक गुरु ने अपने शिष्य को व्यवहारिक ज्ञान की दीक्षा हेतु राजा जनक के पास भेजा l शिष्य उलझन में था कि मैंने इतने सिद्ध गुरुओं के पास शिक्षण लिया l भोग-विलासों में रह रहा यह राजा मुझे क्या उपदेश देगा ! जनक ने शिष्य के रहने की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की l सुन्दर सुकोमल विस्तर, किन्तु शयनकक्ष में पलंग के ठीक ऊपर एक नंगी तलवार पतले धागे से लटकती देखी, तो वह रातभर सो न सका l सोचता रहा कि गुरुदेव ने कहाँ फँसा दिया जनक से शिकायत की ! कि नींद क्या आती – आपके सेवकों ने तलवार लगी छोड़ दी थी l इससे अच्छी नींद तो हमें हमारी कुटी में आती थी l जनक ने कहा – ‘’चलो आओ l रात की बात छोड़ो, भोजन कर लेते हैं l’’ सुस्वादु भोजनों का थाल सामने रखा गया l राजा बोले – ‘’आराम से भोजन करें, पर आप अपने गुरु का एक सन्देश सुन लें l उन्होंने कहा है कि शिष्य को सत्संग में ज्ञान प्राप्त होना जरुरी है l यदि न हो तो उसे आप सूली पर चढ़ा दें l आपको बताना था, सो बता दिया l अब आप भोजन करें l’’ भोजन तो क्या करता, उसे सूली ही दिखाई दे रही थी l बेमन से थोड़ा खाकर उठ गया l बोला – ‘’महराज ! अब आप किसी तरह प्राण बचा दें l’’ जनक बोले – ‘’आप सत्संग की चिंता न करें, वह तो हो चुका l रात आप सो न सकें, किन्तु मुझे तो नंगी तलवार की तरह हर पल मृत्यु का ही ध्यान बना रहता है l अतः मैं रास-रंग में डूबता नहीं l सूली की बात सुनकर तुम्हें स्वाद नहीं नहीं आया l इसी प्रकार मुझे भी इस शाश्वत सन्देश का सदा स्मरण रहता है l मैं माया के आकर्षणों में कभी लिप्त नहीं होता l संसार में रहो अवश्य, पर संसार तुममें न रहे l यही सबसे बड़ा शिक्षण लेकर जाओ l’’ अब शिष्य को ज्ञान हुआ कि जनक विदेह क्यों कहलाते हैं l

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