Friday 18 July 2014

श्री कृष्ण के दर्शन हेतु

सभी भक्तों को क्यों नहीं होते श्री कृष्ण के दर्शन
वो मनुष्य बड़ा सौभाग्यशाली होता है जिसकी प्रभु के नाम सिमरण में रूचि होती है। आंतरी गांव में ऐसे ही एक परम भगवत भक्त गोविंद दास जी निवास करते थे। बचपन से ही श्री कृष्ण लीलाओं में उनकी बहुत रूची थी। श्री कृष्ण को अपना सखा मान, उनकी मानसी सेवा किया करते थे।
गान विद्या, मधुर कण्ठ और माधुर्यातिपति श्री कृष्ण की मधुरतम लीलाएं तीनों का एक साथ संयोग होने से ये शीध्र ही आसपास के गांवों में गोविंद स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हो गए। जैसे-जैसे प्रसिद्धि बढ़ने लगी गोविंद स्वामी के सम्मुख अपने प्राण जीवन श्यामसुंदर के साथ मानसी एकांत क्रिड़ाओं में भी बाधाएं आने लगी। जब गोविंद स्वामी जी की सहन शक्ति की इति हो गई तो एक रात्रि वे अपना गांव छोड़ कर मथुरा की ओर निकल पड़े।
महावन में श्री कृष्ण के अवश्य ही दर्शन होंगे इस विश्वास के साथ वह वहीं बस गए। टकटकी लगाए वह अपने प्रियतम की प्रतिक्षा करते रहते, विरह वेदना बढ़ने लगी। कभी वे सोचते श्री कृष्ण मिलेंगे तो उनसे कैसे भेंट करूंगा? उनके मधुर स्पर्श से मेरे रोम-रोम कितने पुलक उठेंगे? विरह के आंसूओं से स्निग्ध भक्त की कोमल पदावली व्रजवीथियों में गूंज उठी। कभी पछाड़ खाकर धरती पर गिरते एवं कभी धूल में लोटने लगते।
गोकुल में गोस्वामी विट्ठलदास जी के पास इनका वृतांत पहुंचा। गोस्वामी जी ने अपने एक परम प्रेमी वैष्णव को गोविंद दास जी के पास भेजा। जब वो इनके समीप गए तो वे झट से आकर उनके गले से लग गए और उनसे प्रश्न करते हैं," भाई! तुम बताओगे मुझे श्री कृष्ण के दर्शन क्यों नहीं होते?"
वैष्णव उनका प्रश्न सुन कर भावुक हो गए और अवरूद्ध कंठ से बोले," श्री कृष्ण तुम्हारे प्रेम वश तुम्हारे पास आना तो चाहते हैं परंतु वे तो आजकल गोकुल में गोस्वामी विट्ठलदास जी के वश में हैं।"
अत: अगर सच में उन से मिलना चाहते हो तो यहां से गोकुल चले चलो। भक्त के अधीर ह्रदय को फिर इतना चैन कहां शांति की सांस इन्होंने तभी ली जब कि ये गोसाई जी के चरणों में लिपटकर श्री कृष्ण के दर्शन हेतु प्रार्थना करने का अवसर प्राप्त कर चुके।
गोसाई जी की कृपा से इन्होंने भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन एवं भगवल्लीला सांनिध्य दोनों ही प्राप्त हुए। ये गोस्वामी विट्ठलदास जी के शिष्य होने के पश्चात उनके अष्टछाप में ले लिए गए। इनका कण्ठ इतना सुरीला था की तानसेन तक इनका गाना सुनने आया करते थे। बादशाह अकबर ने इनका गाना सुनने के लिए इन्हें अनेक प्रलोभन दिए मगर यह श्री नाथ जी के सिवाय किसी के सामने नहीं गाते थे। जब बादशाह हर तरफ से निराश हो गया तो बीरबल ने चोरी से छिप कर इनका गाना सुनवा दिया। जब गोविंद दास जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने वो राग गाना ही छोड़ दिया क्योंकि उनका कहना था कि बादशाह अकबर ने राग को झूठा कर दिया है।
गोस्वामी विट्ठलदास जी गोविंद दास जी का अत्यंत प्रेम एवं आदर करते थे। भावावेश में किए गए व्यवहार को लोग दम्भ एवं अनाचार समझ इनकी अनेक शिकायतें गोस्वामी जी से किया करते थे।
एक बार श्री नाथ जी की किसी गोपनीय लीला को इन्होंने गोस्वामी जी के समक्ष प्रकट कर दी। गोस्वामी जी श्री नाथ जी का श्रृंगार कर रहे थे। इन्होंने पद कीर्तन करते हुए अपने पद में वह वस्तु प्रकट कर दी। श्री नाथ जी ने इनको मना करने के लिए सात कंकड़ियां मारी, किंतु यह नहीं मानें। आठवीं ककड़ी जैसे ही श्री नाथ जी ने उठाई इन्होंने भी पास पड़ी ककड़ी को उठा लिया और दौड़े मंदिर को ओर मारने। मंदिर के लोग बिगड़ने लगे। गोस्वामी जी ने लोगों को शांत किया। जब गोविंद दास जी को धैर्य बंधाया तो वो बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगे और बोले," आपके इस श्री नाथ ने मुझे आठ कंकड़ियां मारी हैंं। यदि मैं इसे मारता नहीं तो यह रूकता थोड़े ही।"

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