Monday 21 July 2014

नम और नाम ही मन को सुधारेँगे

भगवान मनुष्य का शरीर या घर नहीँ , बल्कि हृदय देखते हैँ । मन विशाल हो प्रभू आते हैँ । मन मेँ छिपी हुई अहंता ममता , अपने पराए की भावना ही मन को दुःखी करती है । मन के ये धर्म आत्मस्वरुप मे भासमान होने के कारण आत्मा स्वयं को सुखी दुःखी मानती है , परन्तु वास्तव मे वह आनन्दरुप है । मन के सुधरने पर सब कुछ सुधरता है और मन के विगड़ने पर सब कुछ बिगड़ता है । भगवान सुख दुःख के दाता है , अहमन्यता और ममता उन्हीँ पर छोड़ देने पर ही आनन्दरुप मिलता है ।
मनुष्य का मन पानी की भाँति गडढे की ओर ही बहता है । जल की तरह मन भी अधोगामी है । जल की भाँति मन का स्वभाव भी ऊपर नहीँ, नीचे की ओर जाने का है । इस मन को ऊपर चढ़ाना है । उसे परमात्मा के चरणोँ तक ले जाना है । जैसे यंत्र के संग मेँ आने से पानी ऊपर चढ़ता है , उसी तरह मंत्र के संग मे आने पर मन ऊपर चढ़ता है । मंत्र का संग होने पर अधोगामी मन ऊर्ध्वगामी बनेगा । मन शब्द के अक्षरोँ को उलटने से बनेगा नम । नम और नाम ही मन को सुधारेँगे ।
मन को स्थिर करने हेतु नामजप की आवश्यकता है । जप से मन की मलिनता और चंचलता दूर होती है । सांसारिक विषयोँ के संग से बिगड़ा हुआ मन ईश्वर का ध्यान करने सुधरता है । अन्तरात्मा मे विराजमन चैतन्यरुप परमात्मा मन बुद्धि को प्रकाश देते हैँ । भगवान का निर्गुण स्वरुप सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीँ देता और भगवान का सगुण स्वरुप तेजोमय है अतः वह भी दिखाई नहीँ देता । इसलिए हम जैसो के लिए भगवान का नामस्वरुप , मंत्रस्वरुप ही इष्ट है । भगवान स्वयं को तो छिपा सकते हैँ किन्तु नाम को नहीँ । नामस्वरुप प्रकट है अतः परमात्मा के नामस्वरुप का दृढ़ता पूर्वक आश्रय लेना चाहिए

No comments:

Post a Comment