Monday 28 July 2014

सौभाग्य की बात है

राजा प्रसेनजित की पुत्री विपुला उद्यान-भ्रमण हेतु निकली थी। वह इतनी रूपवान थी कि प्रत्येक युवक उसे प्राप्त करने के लिए बेचैन था। अरिहंत नामक संन्यासी राजोद्यान में ठहरे हुए थे। वे भगवती सरस्वती की वंदना में निमग्न थे और राजोद्यान का कण-कण उनके दिव्य संगीत की धुनों से भाव विभोर हो रहा था। विपुला भी इस संगीत को सुनकर खिंचती चली आई और सुनते-सुनते स्वत: ही उसके पांव थिरकने लगे।
कितने ही घंटे इसी प्रकार व्यतीत हो गए। आकर्षित होकर विपुला ने गले में पड़ी माला उतारकर अरिहंत के गले में डाल दी। अरिहंत जो अब तक भक्तिरस में डूबकर चेतना शून्य थे, उन्होंने गले में माला पड़ते ही अपनी आंखें खोलीं। सारे घटनाक्रम का भान होते ही उन्होंने गले में पड़ी माला उतारकर राजकुमारी को वापस कर दी। महाराज व महारानी को पूर्ण घटनाक्रम ज्ञात हुआ तो वे राजोद्यान पहुंचे और वहां पहुंचकर अरिहंत से बोले, ‘‘सौभाग्य की बात है कि विपुला ने आपका वरण किया है। आप राजकुमारी से विवाह करें और आधे राज्य के भी स्वामी बनें।’’
अरिहंत करबद्ध होकर राजा प्रसेनजित से बोले, ‘‘राजन! एक संन्यासी होने के नाते मैं तो पहले ही प्रभु के प्रेम में पड़ चुका हूं। अब तो यह जीवन उन्हीं की साधना और उन्हीं की तपश्चर्या के लिए समर्पित है।’’
राजकुमारी ने ये वचन सुनकर निश्चय किया कि भले ही उसका विवाह अरिहंत के साथ न हो, पर वह भक्ति के आदर्शों पर ही जीवन व्यतीत करेगी। वासना पर भक्ति की विजय हुई।

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