Thursday 30 April 2015

बिना साक्षात्कार के समता कभी आ ही नहीं सकती

जिज्ञासा÷आत्मसाक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। जीव, जगत (स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत) और ईश्वर – ये सब माया के अन्तर्गत आते हैं। आत्मसाक्षात्कार माया से परे है। जिसकी सत्ता से जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को मैं रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना, इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार। जन्मदिवस से भी हजारों गुना ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। आत्मासाक्षात्कार दिवस। भगवान कहते हैं-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।
हजारों मनुष्यों में कोई विरला सिद्धि के लिए यत्न करता है और उन सिद्धों में से कोई विरला मुझे तत्वतः जानता है।
आत्मसाक्षात्कार को ऐसे कोई विरले महात्मा ही पाते हैं। योगसिद्धि, दिव्य दर्शन, योगियों का आकाशगमन, खेचरी, भूचरी सिद्धियाँ, भूमि में अदृश्य हो जाना, अग्नि में प्रवेश करके अग्निमय होना, लोक-लोकान्तर में जाना, छोटा होना, बड़ा होना इन अष्टसिद्धियों और नवनिधियों के धनी हनुमानजी आत्मज्ञानी श्रीरामजी के चरणों में गये, ऐसी आत्मसाक्षात्कार की सर्वोपरि महिमा है। साधना चाह कोई कितनी भी ऊँची कर ले, भगवान राम, श्रीकृष्ण, शिव के साथ बातचीत कर ले, शिवलोक में शिवजी के गण या विष्णुलोक में जय-विजय की नाईं रहने को भी मिल जाय फिर भी साक्षात्कार के बिन यात्रा अधूरी रहती है।
आज हमारी असली शादी का दिवस है। आज ईश्वर मिलन दिवस, मेरे गुरूदेव का विजय दिवस है, मेरे गुरूदेव का दान दिवस है, गुरूदेव के पूरे बरसने का दिवस है। दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो पूरी मानवता के लिए अपने परम तत्त्व को पा सकने की खबर देने वाला दिवस आत्मसाक्षात्कार दिवस है। आज वह पावन दिवस है जब जीवात्मा सदियों की अधूरी यात्रा पूरी करने में सफल हो गया। धरती पर तो रोज करीब डेढ़ करोड़ो लोगों का जन्म दिवस होता है। शादी दिवस और प्रमोशन दिवस भी लाखों लोगों का हो सकता है। ईश्वर के दर्शन का दिवस भी दर्जनों भक्तों का हो सकता है लेकिन ईश्वर-साक्षात्कार दिवस तो कभी-कभी और कहीं-कहीं किसी-किसी विरले को देखने को मिलता है। जो लोक संत हैं और प्रसिद्ध हैं उनके साक्षात्कार दिवस का तो पता चलता है, बाकी तो कई ऐसे आत्मारामी संत हैं जिसका हमको आपको पता ही नहीं। ऐसे दिवस पर कुछ न करें तब भी वातावरण में आध्यात्मिकता की अद्भुत तरंगें फैलती रहती हैं।
आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस।
मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।
देह मिथ्या हुई पढ़ते तो हो, बोलते तो हो लेकिन देह कौनसी, पता है जो दिखती है वह स्थूल देह है, इसके अंदर सूक्ष्म देह है। विष्णुभक्त होगा तो विष्णुलोक में जायगा, तत्त्वज्ञान नहीं है तो अभी देह मिथ्या नहीं हुई। अगर पापी है तो नरकों में जायेगा फिर पशुयोनि में आयेगा, पुण्यात्मा है तो स्वर्ग में जायेगा फिर अच्छे घर में आयेगा, लेकिन अब न आना न जाना, अपने आपमें व्यापक हो जाना है। जब तत्त्व ज्ञान हो गया तो देह और आकृति का अस्तित्व अंदर टिकाने वाला शरीर मिथ्या हो गया। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर सारे बाधित हो गये। जली हुई रस्सी देखने में तो आती है लेकिन उससे आप किसी को बाँध नहीं सकते। ऐसे ही जन्म जन्मांतरों की यात्रा का कारण जो अज्ञान था, वह गुरु की कृपादृष्टि से पूरा हो गया (मिट गया)। जैसे धान से चावल ले लिया भूसी की ऐसी-तैसी, केले से गूदा ले लिया फिर केले के छिलके को तुम कैसे निरर्थक समझते हो, ऐसे ही शरीर होते हुए भी-
देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार।
हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार।।
आज तो आप लोग भी मुझे साक्षात्कार-दिवस की खूब मुबारकबादी देना, इससे आपका हौसला बुलंद होगा। जैसे खाते पीते, सुख-दुःख, निंदा स्तुति के माहौल से गुजरते हुए पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाहजी बापू, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि अथवा तो और कई नामी-अनामी संत समत्वयोग की ऊँचाई तक पहुँच गये, साक्षात्कार कर लिया, ऐसे ही आप भी उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं, ऐसे ही साक्षात्कारी पुरूषों के इस पर्व को समझने सुनने से आत्मचाँद की यात्रा करने का मोक्षद्वार खुल जाता है।
मनुष्य तू इतना छोटा नहीं कि रोटी, कपड़े मकान, दुकान या रूपयों में ही सारी जिंदगी पूरी कर दे। इन छूट जाने वाली असत् चीजों में ही जीवन पूरा करके अपने साथ अन्याय मत कर। तू तो उस सत्स्वरूप परमात्मा के साक्षात्कार का लक्ष्य बना। वह कोई कठिन नहीं है, बस उससे प्रीति हो जाये।
असत् पदार्थों की और दृष्टि रहेगी तो विषमता बढ़ेगी। यह शरीर मिथ्या है, पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा। धन, पद ये मिथ्या हैं, इनकी तरफ नजर रहेगी तो आपका व्यवहार समतावाला होगा। धीरे धीरे समता में स्थिति आने से आप कर्मयोगी होने में सफल हो जाओगे। ज्ञान के द्वारा सत् असत् का विवेक करके सत् का अनुसंधान करोगे और असत् आसक्ति मिटाकर समता में खड़े रहोगे तो आपका ज्ञानयोग हो जायगा। बिना साक्षात्कार के समता कभी आ ही नहीं सकती चाहे भक्ति में प्रखर हो, योग में प्रखर हो, ज्ञान का बस भंडार हो लेकिन अगर साक्षात्कार नहीं हुआ तो वह सिद्धपुरूष नहीं साधक है। साक्षात्कार हुआ तो बस सिद्ध हो गया। 

Monday 27 April 2015

सभी कार्य भगवान की भक्ति ही होते हैं

१. जब हम स्वयं के सुख की कामना करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम दूसरों के सुख की कामना करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
२. जब हम दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
३. जब हम स्वयं को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम भगवान को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
४. जब हम दूसरो को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
५. जब हम दूसरों के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
६. जब हम दूसरों को समझाने के भाव से कुछ भी कहते या लिखते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के समझने के भाव से कहते या लिखते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
७. जब हम संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझकर स्वयं के लिये उपभोग करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम संसार की सभी वस्तुओं को भगवान की समझकर भगवान के लिये उपयोग करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
ज्ञानी अवस्था में किये गये सभी कार्य भगवान की भक्ति ही होते हैं।

Sunday 26 April 2015

तब हम ज्ञानी होते हैं।


१. जब हम स्वयं के सुख की कामना करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम दूसरों के सुख की कामना करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
२. जब हम दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
३. जब हम स्वयं को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम भगवान को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
४. जब हम दूसरो को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
५. जब हम दूसरों के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
६. जब हम दूसरों को समझाने के भाव से कुछ भी कहते या लिखते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के समझने के भाव से कहते या लिखते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
७. जब हम संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझकर स्वयं के लिये उपभोग करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम संसार की सभी वस्तुओं को भगवान की समझकर भगवान के लिये उपयोग करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
ज्ञानी अवस्था में किये गये सभी कार्य भगवान की भक्ति ही होते हैं।

Thursday 23 April 2015

क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी

लेने वालों देना भी सीखो
एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देख कर दूसरों को लगता है कि इसे पहले से किसी ने दे रखा है। 
पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती दिखाई दी।
भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारे दरिद्र दूर हो जाएंगे, जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। 
जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया, उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी की तो मानो सांसें ही रुकने लगीं। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उलटे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। 
अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुन: याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला, मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे कर उसने दो दाने जौ के निकाले और उन्हें राजा की चादर पर डाल दिया। 
उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली, मगर वे दो दाने देने का मलाल उसे सारे दिन रहा। शाम को जब उसने झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ वह ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। 
उसे समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है। वह पछताया कि काश! उस समय राजा को और अधिक जौ दी होती, लेकिन नहीं दे सका, क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी।

Tuesday 21 April 2015

देवलोक वासी होने से देवता कहलाते हैं ।

मनुष्यों के पृथ्वीतत्त्व प्रधान शरीरों की अपेक्षा देवताओं के शरीर तेजस्तत्त्व प्रधान, दिव्य और शुद्ध होते हैं । मनुष्यों के शरीरों से मल, मूत्र, पसीना आदि पैदा होते हैं । अतः जैसे हम लोगों को मैले से भरे हुए सूअर से दुर्गन्ध आती है, ऐसे ही देवताओं को हमारे (मनुष्योंके) शरीरों से दुर्गन्ध आती है । देवताओं के शरीरों से सुगन्ध आती है । उनके शरीरों की छाया नहीं पड़ती । उनकी पलकें नहीं गिरतीं । वे एक क्षण में बहुत दूर जा सकते हैं और जहाँ चाहें, वहाँ प्रकट हो सकते हैं । इस दिव्यता के कारण ही उनको देवता कहते हैं ।
बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार‒ये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकार के) देवता सम्पूर्ण देवताओं में मुख्य माने जाते हैं । उनके सिवाय मरुद्‌गण, गन्धर्व, अप्सराएँ आदि भी देवलोक वासी होने से देवता कहलाते हैं ।
देवता तीन तरहके होते हैं‒
(१) आजानदेवता‒जो महासर्ग से महाप्रलय तक (एक कल्पतक) देवलोक में रहते हैं, वे ‘आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोक के बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं‒
(क) ईश्वरकोटि के देवता‒शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु‒यें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचों के अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजी के शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्य के सौर और विष्णु के वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तव में ये पाँचों ईश्वरकोटि के ही हैं ।
(ख) साधारण देवता‒इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।
(२) मर्त्यदेवता‒जो मनुष्य मृत्युलोक में यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, वे ‘मर्त्यदेवता’कहलाते हैं । ये अपने पुण्यों के बल पर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं‒
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।“
………..(गीता ९ । २१)
(३) अधिष्ठातृदेवता‒सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का एक मालिक होता है, जिसे ‘अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टि की मुख्य-मुख्य वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता‘मर्त्यदेवता’ (जीव) बनते हैं ।

मनुष्य जीवन प्राप्त करने का क्या लाभ हुआ

छोटा सा जीवन है, लगभग 80 वर्ष।
उसमें से आधा =40 वर्ष तो रात को
बीत जाता है। उसका आधा=20 वर्ष
बचपन और बुढ़ापे मे बीत जाता है।
बचा 20 वर्ष। उसमें भी कभी योग,
कभी वियोग, कभी पढ़ाई,कभी परीक्षा,
नौकरी, व्यापार और अनेक चिन्ताएँ
व्यक्ति को घेरे रखती हैँ।अब बचा ही
कितना ? 8/10 वर्ष। उसमें भी हम
शान्ति से नहीं जी सकते ? यदि हम
थोड़ी सी सम्पत्ति के लिए झगड़ा करें,
और फिर भी सारी सम्पत्ति यहीं छोड़
जाएँ, तो इतना मूल्यवान मनुष्य जीवन
प्राप्त करने का क्या लाभ हुआ?
स्वयं विचार कीजिये :- इतना कुछ होते हुए भी,
1- शब्दकोश में असंख्य शब्द होते हुए भी...
मौन होना सब से बेहतर है।

2- दुनिया में हजारों रंग होते हुए भी...
सफेद रंग सब से बेहतर है।

3- खाने के लिए दुनिया भर की चीजें होते हुए भी...
उपवास शरीर के लिए सबसे बेहतर है।

4-पर्यटन के लिए रमणीक स्थल होते हुए भी..
पेड़ के नीचे ध्यान लगाना सबसे बेहतर है।

5- देखने के लिए इतना कुछ होते हुए भी...
बंद आँखों से भीतर देखना सबसे बेहतर है।

6- सलाह देने वाले लोगों के होते हुए भी...
अपनी आत्मा की आवाज सुनना सबसे बेहतर है।

7- जीवन में हजारों प्रलोभन होते हुए भी...
सिद्धांतों पर जीना सबसे बेहतर है।

इंसान के अंदर जो समा जायें वो
" स्वाभिमान "
और
जो इंसान के बाहर छलक जायें वो
" अभिमान "
ये मैसेज पूरा पढ़े, और 
अच्छा लगे तो सबको भेजें 

✔जब भी बड़ो के साथ बैठो तो 
परमात्मा का धन्यवाद ,
क्योंकि कुछ लोग 
इन लम्हों को तरसते हैं ।

✔जब भी अपने काम पर जाओ 
तो परमात्मा का धन्यवाद करो
क्योंकि
बहुत से लोग बेरोजगार हैं ।

✔परमात्मा का धन्यवाद कहो 
जब तुम तन्दुरुस्त हो , 
क्योंकि बीमार किसी भी कीमत 
पर सेहत खरीदने की ख्वाहिश 
रखते हैं ।

✔ परमात्मा का धन्यवाद कहो 
की तुम जिन्दा हो , 
क्योंकि मरते हुए लोगों से पूछो 
जिंदगी कीमत ।

Thursday 16 April 2015

व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त करलेता है

अद्भुत जानकारी मूलाधार चक्र यह शरीर का पहला चक्र है।गुदा और लिंग के बीचचार पंखुरियों वाला यह "आधार चक्र" है।99.9% लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती हैऔर वेइसी चक्र में रहकर मर जाते हैं।जिनके जीवन में भोग,संभोग और निद्रा की प्रधानता है,उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।मंत्र : "लं"चक्र जगाने की विधि:-मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र मेंजी रहा है.!इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इसचक्र परलगातार ध्यािन लगाने से यह चक्र जाग्रत होनेलगता है।इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है NIयम.और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।प्रभाव :इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतरवीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रतहो जाता है।सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता,निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।  2. स्वाधिष्ठान चक्र- यह वह चक्र है,जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है,जिसकी छ: पंखुरियां हैं।अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है,तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी।यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीतहो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगाऔर हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।मंत्र : "वं"कैसे जाग्रत करें :जीवन में मनोरंजन जरूरी है,लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं।मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी मेंधकेलता है।फिल्म सच्ची नहीं होती.लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपकेबेहोश जीवन जीने का प्रमाण है।नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।प्रभाव :इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद,अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है।सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारेदुर्गुण समाप्त हो,तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।  3. मणिपुर चक्र नाभि के मूल में स्थितरक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत "मणिपुर" नामकतीसरा चक्र है,जो दस कमल पंखुरियों से युक्त है।जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित हैउसे काम करने की धुन-सी रहती है।ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं।ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।मंत्र : "रं"कैसे जाग्रत करें :आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इसचक्र पर ध्यान लगाएंगे।पेट से श्वास लें।प्रभाव :इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय,घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं।यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है।सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होनाजरूरी है।आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी हैकि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवनका कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।    4. अनाहत चक्र- हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमलकी पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों सेसुशोभित चक्र ही "अनाहत चक्र" है।अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है,तो आप एक सृजनशीलव्यक्ति होंगे।हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं।आप चित्रकार, कवि, कहानीकार, इंजीनियरआदि हो सकते हैं।मंत्र : "यं"कैसे जाग्रत करें :हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने सेयह चक्र जाग्रत होने लगता है।खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यानलगाने से यहअभ्यास से जाग्रत होने लगता है और "सुषुम्ना"इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।प्रभाव :इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क,चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकारसमाप्त हो जाते हैं।इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम औरसंवेदना का जागरण होता है।इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत:ही प्रकट होने लगता है।व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त,सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मकरूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं।ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थके मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।  5. विशुद्ध चक्र-  कंठ में सरस्वती का स्थान है,जहां "विशुद्ध चक्र" है और जो सोलहपंखुरियों वाला है।सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र केआसपास एकत्रित है,तो आप अति शक्तिशाली होंगे।मंत्र : "हं"कैसे जाग्रत करें :कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रतहोने लगता है।प्रभाव :इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं औरसोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है।इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यासको रोका जा सकता हैवहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।   6. आज्ञाचक्र  भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में "आज्ञा-चक्र" है।सामान्यतौर पर जिसव्यक्ति की ऊर्जा यहांज्यादा सक्रिय है,तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील औरतेज दिमाग का बन जाता हैलेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है।"बौद्धिक सिद्धि" कहते हैं।मंत्र : "ऊं"कैसे जाग्रत करें :भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने सेयह चक्र जाग्रत होने लगता है।प्रभाव :यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं।इस "आज्ञा चक्र" का जागरण होने से ये सभीशक्तियां जाग पड़ती हैं,और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।  7. सहस्रार चक्र :"सहस्रार" की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में हैअर्थात जहां चोटी रखते हैं।यदि व्यक्ति यम, नियमका पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वहआनंदमय शरीर में स्थित हो गया है।ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोईमतलब नहीं रहता है।कैसे जाग्रत करें :"मूलाधार" से होते हुए ही "सहस्रार" तकपहुंचा जा सकता है।लगातार ध्यान करते रहने से यह "चक्र" जाग्रतहो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त करलेता है।प्रभाव :शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीयऔर जैवीय विद्युत का संग्रह है।यही "मोक्ष" का द्वार है ।

Wednesday 15 April 2015

गठिया में आशातीत लाभ होता है

आज कल हमारी दिनचर्या हमारे खान -पान से गठिया का रोग 45 -50 वर्ष के बाद बहुत से लोगो में पाया जा रहा है । गठिया में हमारे शरीर के जोडों में दर्द होता है, गठिया के पीछे यूरिक एसीड की बड़ी भूमिका रहती है। इसमें हमारे शरीर मे यूरिक एसीड की मात्रा बढ जाती है। यूरिक एसीड के कण घुटनों व अन्य जोडों में जमा हो जाते हैं। जोडों में दर्द से रोगी का बुरा हाल रहता है। इस रोग में रात को जोडों का दर्द बढता है और सुबह अकडन मेहसूस होती है। इसकी पहचान होने पर इसका जल्दी ही इलाज करना चाहिए अन्यथा जोडों को बड़ा नुकसान हो सकता है।हम यहाँ पर गठिया के अचूक घरेलू उपाय बता रहे है.......
*दो बडे चम्मच शहद और एक छोटा चम्मच दालचीनी का पावडर सुबह और शाम एक गिलास मामूली गर्म जल से लें। एक शोध में कहा है कि चिकित्सकों ने नाश्ते से पूर्व एक बडा चम्मच शहद और आधा छोटा चम्मच दालचीनी के पावडर का मिश्रण गरम पानी के साथ दिया। इस प्रयोग से केवल एक हफ़्ते में ३० प्रतिशत रोगी गठिया के दर्द से मुक्त हो गये। एक महीने के प्रयोग से जो रोगी गठिया की वजह से चलने फ़िरने में असमर्थ हो गये थे वे भी चलने फ़िरने लायक हो गये।
*लहसुन की 10 कलियों को 100 ग्राम पानी एवं 100 ग्राम दूध में मिलाकर पकाकर उसे पीने से दर्द में शीघ्र ही लाभ होता है।
*सुबह के समय सूर्य नमस्कार और प्राणायाम करने से भी जोड़ों के दर्द से स्थाई रूप से छुटकारा मिलता है।
*एक चम्मच मैथी बीज रात भर साफ़ पानी में गलने दें। सुबह पानी निकाल दें और मैथी के बीज अच्छी तरह चबाकर खाएं।मैथी बीज की गर्म तासीर मानी गयी है। यह गुण जोड़ों के दर्द दूर करने में मदद करता है।
*गठिया के रोगी 4-6 लीटर पानी पीने की आदत डालें। इससे ज्यादा पेशाब होगा और अधिक से अधिक विजातीय पदार्थ और यूरिक एसीड बाहर निकलते रहेंगे।
*एक बड़ा चम्मच सरसों के तेल में लहसुन की 3-4 कुली पीसकर डाल दें, इसे इतना गरम करें कि लहसुन भली प्रकार पक जाए, फिर इसे आच से उतारकर मामूली गरम हालत में इससे जोड़ों की मालिश करने से दर्द में तुरंत राहत मिल जाती है।
*प्रतिदिन नारियल की गिरी के सेवन से भी जोड़ो को ताकत मिलती है।
*आलू का रस 100 ग्राम प्रतिदिन भोजन के पूर्व लेना बहुत हितकर है।
*प्रात: खाली पेट एक लहसन कली, दही के साथ दो महीने तक लगातार लेने से जोड़ो के दर्द में आशातीत लाभ प्राप्त होता है।
*250 ग्राम दूध एवं उतने ही पानी में दो लहसुन की कलियाँ, 1-1 चम्मच सोंठ और हरड़ तथा 1-1 दालचीनी और छोटी इलायची डालकर उसे अच्छी तरह से धीमी आँच में पकायें। पानी जल जाने पर उस दूध को पीयें, शीघ्र लाभ प्राप्त होगा ।
*संतरे के रस में १15 ग्राम कार्ड लिवर आईल मिलाकर सोने से पूर्व लेने से गठिया में बहुत लाभ मिलता है।
*अमरूद की 4-5 नई कोमल पत्तियों को पीसकर उसमें थोड़ा सा काला नमक मिलाकर रोजाना खाने से से जोड़ो के दर्द में काफी राहत मिलती है।
*काली मिर्च को तिल के तेल में जलने तक गर्म करें। उसके बाद ठंडा होने पर उस तेल को मांसपेशियों पर लगाएं, दर्द में तुरंत आराम मिलेगा।
*दो तीन दिन के अंतर से खाली पेट अरण्डी का 10 ग्राम तेल पियें। इस दौरान चाय-कॉफी कुछ भी न लें जल्दी ही फायदा होगा।
*दर्दवाले स्थान पर अरण्डी का तेल लगाकर, उबाले हुए बेल के पत्तों को गर्म-गर्म बाँधे इससे भी तुरंत लाभ मिलता है।
*गाजर को पीस कर इसमें थोड़ा सा नीम्बू का रस मिलाकर रोजाना सेवन करें । यह जोड़ो के लिगामेंट्स का पोषण कर दर्द से राहत दिलाता है।
*हर सिंगार के ताजे 4-5 पत्ती को पानी के साथ पीस ले, इसका सुबह-शाम सेवन करें , अति शीघ्र स्थाई लाभ प्राप्त होगा ।
*गठिया रोगी को अपनी क्षमतानुसार हल्का व्यायाम अवश्य ही करना चाहिए क्योंकि इनके लिये अधिक परिश्रम करना या अधिक बैठे रहना दोनों ही नुकसान दायक हैं।
*100 ग्राम लहसुन की कलियां लें।इसे सैंधा नमक,जीरा,हींग,पीपल,काली मिर्च व सौंठ 5-5 ग्राम के साथ पीस कर मिला लें। फिर इसे अरंड के तेल में भून कर शीशी में भर लें। इसे एक चम्मच पानी के साथ दिन में दो बार लेने से गठिया में आशातीत लाभ होता है।
*जेतुन के तैल से मालिश करने से भी गठिया में बहुत लाभ मिलता है।
*सौंठ का एक चम्मच पावडर का नित्य सेवन गठिया में बहुत लाभप्रद है।
*गठिया रोग में हरी साग सब्जी का इस्तेमाल बेहद फ़ायदेमंद रहता है। पत्तेदार सब्जियो का रस भी बहुत लाभदायक रहता है।
*गठिया के उपचार में भी जामुन बहुत उपयोगी है। इसकी छाल को खूब उबालकर इसका लेप घुटनों पर लगाने से गठिया में आराम मिलता है.

कितना सत्य है ना

कितना सत्य है ना.....
भक्ति जब भोजन में प्रवेश करती है,
भोजन 'प्रसाद' बन जाता है।
.
भक्ति जब भूख में प्रवेश करती है,
भूख 'व्रत' बन जाती है।
.
भक्ति जब पानी में प्रवेश करती है,
पानी 'चरणामृत' बन जाता है।
.
भक्ति जब सफर में प्रवेश करती है,
सफर 'तीर्थयात्रा' बन जाता है।
.
भक्ति जब संगीत में प्रवेश करती है,
संगीत 'कीर्तन' बन जाता है।
.
भक्ति जब घर में प्रवेश करती है,
घर 'मन्दिर' बन जाता है।
.
भक्ति जब कार्य में प्रवेश करती है,
कार्य 'कर्म' बन जाता है।
.
भक्ति जब क्रिया में प्रवेश करती है,
क्रिया 'सेवा' बन जाती है।
और...
.
भक्ति जब व्यक्ति में प्रवेश करती है,
व्यक्ति 'मानव' बन जाता है।
.

यह बात भी बुध्दि के पल्ले नहीं पड़ती


भौतिक जगत् की कई शक्तियां ऐसी हैं, जिन्हें प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा नहीं देखा जा सकता। विद्युत शक्ति स्वयं अदृश्य रहती है। आंखों से न दिखते हुए भी उसके अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। बल्ब में प्रकाश फैलाती, पंखे से हवा बिखेरती, हीटर से गर्मी देती तथा विशालकाय मशीनों, कारखानों को चलाने के लिये ऊर्जा देती, बिजली अपनी सत्ता का परिचय देती है। चुंबकीय शक्ति दिखाई नहीं पड़ती, पर प्रचंड आकर्षण शक्ति उसकी सत्ता का बोध कराती है। प्रकाश, ऊर्जा, गर्मी, विद्युत शक्ति के गुणहैं, उसकी प्रतिक्रियाएं हैं, मूल स्वरूप नहीं। मूल स्वरूप तो अभी तक परमाणु की सत्ता की भांति विवादास्पद बना हुआ है। गुणों का बोध ज्ञानेंद्रियों द्वारा होता है। नेत्रों में ज्योति न होने पर न तो प्रकाश दिखाई पड़ सकता है और न ही पंखे का चलना दृष्टिगोचर हो सकता है। आंख के साथ शरीर की त्वचा भी अपनी संवेदना क्षमता गवां बैठे, तो जिन्होंने कभी विद्युत शक्ति की सामर्थ्य नहीं देखी है, उनके लिये बिजली की सत्ता का अस्तित्व संदिग्ध ही बना रहेगा। यही बात चुंबक के साथ भी लागू होती है।
खाद्य पदार्थों के गुण-धर्म
पृथ्वी का गुरुत्व बल प्रत्यक्ष कहां दिखता है? वस्तुओं के नीचे गिरने से अनुमान लगाया जाता है कि उसमें कोई ऐसी आकर्षण शक्ति है, जो वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। यही वह प्रमाण है, जिसके आधार पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति की उपस्थिति को स्वीकारना पड़ता है। ऐसी कितनी ही शक्तियां हैं, जो नेत्रों से नहीं दिखाई पड़तीं, किन्तु उनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। फूल में सुगंध होती है, यह सर्वविदित है। गंध को नेत्र कहां देख पाते हैं। घ्राणेद्रियों द्वारा गंध की मात्र अनुभूति होती है। उनमें सौंदर्य होता है, जो हर किसी को मुग्ध करता है। सौंदर्य की होने वाली अनुभूति को किस रूप में प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता है? फूल की सुगंध एवं सौंदर्य की अनुभूति, घ्राण शक्ति एवं नेत्र ज्योति से रहित व्यक्ति नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्तियों द्वारा उसकी विशेषता से इंकार करने पर भी तथ्य अपने स्थान पर यथावत बना रहता है।
खाद्य पदार्थों के गुण-धर्म उनके भीतर सन्निहित होते हैं। उनके स्वाद को देखा नहीं जाता, स्वादेद्रिंय के ठीक रहने पर मात्र अनुभव किया जा सकता है। जिनकी जिव्हा जन्म सेही रोग ग्रस्त हो, स्वाद का अनुभव नहीं कर पाती हो, उनके लिये यह आश्चर्य, अविश्वास एवं कौतूहल का विषय बना रहेगा कि वस्तुओं में स्वाद भी होता है। जिह्वा से अनुभूति होते हुए भी स्वाद के मूल स्वरूप का दर्शन कर सकना सर्वथा असंभव है। गंध का वास्तविक रूप कैसा होता है, यह दृष्टिगम्य नहीं अनुभूति गम्य है।
विविध प्रकार की भौतिक शक्तियों का परिचय उनके गुण-धर्मों, विशेषताओं के आधार पर मिलता है और यह भी तभी संभव है, जब ज्ञानेंद्रियां उनकी विशेषताओं-संवेदनाओं को ग्रहण न कर पाने में सक्षम हों। इतने पर भी उनके मूल स्वरूप का दर्शन कर पाना न तो अब तक संभव हुआ है और न ही निकट भविष्य में संभावना ही है, क्योंकि शक्ति का कोई स्वरूप नहीं होता। लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, रूपी प्रत्यक्ष मापदंड की सीमा में वस्तुएं आती हैं, शक्तियां नहीं। इस तथ्य को कोई भी विज्ञ, विचारशील, तार्किक अथवा वैज्ञानिक भी मानने से इंकार नहीं कर सकता।
परमात्मा वस्तु अथवा व्यक्ति नहीं, जो इन स्थूल नेत्रों से देखा जा सके। वह एक सर्वव्यापक शक्ति है, जो जड़-चेतन सभी में समायी हुई है। उसी को प्रेरणा से सभी चेतन प्राणी गतिशील हैं। सृष्टि के प्रत्येक घटक में सुव्यवस्था, नियम एवं ससंचालन का होना इस बात का प्रमाण है कि किसी सर्वसमर्थ अदृश्य हाथों में इसकी बागडोर है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो लघु परमाणु से लेकर विशाल ब्रह्माण्ड तक में उसी की सत्ता क्रीड़ा-कल्लोल कर रही है। सामान्य कृतियों के लिये भी कितना अधिक श्रम, पुरुषार्थ एवं बुध्दि का नियोजन करना पड़ता है। छोटे-बड़े यंत्रों का निर्माण एवं सुसांचलन अपने आप नहीं हो जाता। सर्वविदित है कि मनुष्य को कितना अधिक नियंत्रण रखना पड़ता है, तब कहीं जाकर यंत्र अभीष्ट प्रयोजन पूरा कर पाता है। यह तो मनुष्य द्वारा विनिर्मित सामान्य कृतियों की बात हुई। विशाल सृष्टि अपने आप बनकर तैयार हो गयी और स्वसंचालित है, यह बात भी बुध्दि के पल्ले नहीं पड़ती।

Tuesday 14 April 2015

रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है


यज्ञ / हवन को सनातन संस्कृति में बहुत अधिक महत्व दिया गया है। आध्यात्मिक दृष्टि के साथ साथ ये शारीरिक और मानसिक लाभ भी पहुँचाते हैं। पूर्वकाल की कई कथाएं प्रचलित हैं जहाँ यज्ञ के माध्यम से विभिन्न कार्य सिद्ध किये गए निसन्तानो. को संतान और कुरूप या रोगी को स्वस्थग और रूपवान बना दिया गया।

लेकिन आज परिस्तिथि पूर्णतः भिन्न है। लोगों के पास पूजा का ही समय नही है तो कहाँ से करें? कुछ दशक पूर्व तक संध्या करने वाले लोग भी नित्य हवन करते थे विशेषतः ब्राह्मण सामुदाय परन्तु अब वहां भी इसका स्थान नही के बराबर ही रह गया है। 
अधार्मिक, नास्तिक, तर्कवादी और पश्चिमी सभ्यता के चाटुकार आधुनिकतावादी और अतिवैज्ञानिक लोग यज्ञ के लाभ को नकारते हैँ परन्तु यज्ञ के मूल को नहीँ समझते ।

आइये देखते हैं यज्ञ के पीछे छिपा विज्ञानं :-

यज्ञ के पीछे एक सांइटिफिक कारण होता है क्योँकि यज्ञ मेँ सब जड़ी बूटियाँ ही डाली जाती हैँ। आम की लकड़ी, देशी घी, तिल, जौँ, शहद, कपूर, अगर तगर, गुग्गुल, लौँग, अक्षत, नारियल शक्कर और अन्य निर्धारित आहूतियाँ भी बनस्पतियाँ ही होती हैँ। नवग्रह के लिए आक, पलाश, खैर,शमी,आपामार्ग, पीपल, गूलर, कुश, दूर्वा आदि सब आयुर्वेद मेँ प्रतिष्ठित आषधियाँ हैँ। यज्ञ करने पर मंत्राचार के द्वारा न सिर्फ ये और अधिक शक्तिशाली हो जाती हैँ बल्कि मंत्राचार और इन जड़ीबूटियोँ के धुएँ से यज्ञकर्ता/ यजमान / रोगी की आंतरिक बाह्य और मानसिक शुद्धि भी होती है। साथ ही मानसिक और शारीरिक बल तथा सकारात्मक ऊर्जा भी मिलती है। हमारे पूर्वजोँ ने इसे यूँ ही महत्व नहीँ दिया, यज्ञ मेँ जो आहूतियाँ देते है, तब यज्ञ की अग्नि मेँ या इतने हाई टेम्परेचर मेँ Organic material जल जाता है और inorgnic residue शेष रह जाता है जो दो प्रकार का होता है। एक ओर कई complex chemical compounds टूट कर सिम्पल या सरल रूप मेँ आ जाते है वहीँ कुछ सरल और जटिल react कर और अधिक complex compound बनाते हैँ। ये सब यज्ञ के धुएँ के साथ शरीर मेँ श्वास और त्वचा से प्रवेश करते हैँ और उसे स्वस्थ बनाते हैँ।

सभी वनस्पतियों में कुछ तरल / तैलीय द्रव्य होते हैं जिन्हे विज्ञानं की भाषा में एल्केलॉइड कहा जाता है। आज वैज्ञानिक इन्ही एलेकेलॉइड्स पर शोध कर वििभिन्न पौधों से कई नई दवाइयाँ बना रहे हैं और पहले भी बना चुके हैं. परन्तु वैज्ञानिक इन एल्केलॉइड्स केमिकल नकल ही बनाएंगे जो गोली/ कैप्सूल या सीरप रूप में आप महंगे दामों पर खरीदेंगे क्यूंकि एक दवा की रिसर्च में करोड़ों रूपए खर्च होते हैं जो कंपनिया आपसे ही वसूलती हैं। साथ में साइड इफ़ेक्ट अलग क्यूंकि गोली कैप्सूल आदि को बनाने में कई अन्य केमिकल लगते हैं। मनुष्य को दी जाने वाली तमाम तरह की दवाओं की तुलना में अगर औषधीय जड़ी बूटियां और औषधियुक्त हवन के धुएं से कई रोगों में ज्यादा फायदा होता है।

जबकि यज्ञ या हवन में जब ये वनस्पतियां जलती हैं तो ये अल्केलॉइड्स धुएं के साथ उड़ कर अआप्के शरीर से चिपक जाते हैं और और श्वास से भीतर जाते हैं और धुआं मनुष्य के शरीर में सीधे असरकारी होता है और यह पद्वति दवाओं की अपेक्षा सस्ती और टिकाउ भी है। यानि सिर्फ हवन करने से ही नही. बल्कि हवन में हिस्सा लेने और उसके धुएं से भी आप विभिन्न रोगों से बच सकते हैं और अपने शरीर को स्वस्थ बना सकते हैं।

कई बार आपने सुना होगा कि किसी बाबा ने भभूत खिलाकर रोगी को ठीक कर दिया या फलाँ जगह मँदिर आश्रम आदि की भभूत से चमत्कार हुऐ, रोगी ठीक हुए यह सत्य होता है और उसका वैज्ञानिक कारण मैँ आपको ऊपर बता चुका हूँ। इसी प्रकार यज्ञ की शेष भभूत सिर्फ चुटकी भर माथे पर लगाने और खाने पर बेहद लाभ देती है क्योँकि ये भभूत micronised/ nano particles के रूप मेँ होती है और शरीर के द्वारा बहुत आसानी से अवशोषित(absorb) कर ली जाती है। जिस हवन मेँ जौँ एवं तिल मुख्य घटक यानि आहूति सामग्री के रूप मेँ उपयोग किये गये होँ बहाँ से थोड़ी सी भभूत प्रसाद स्वरूप ले लेँ और बुखार, खाँसी, पेट दर्द, कमजोरी तथा मूत्र विकार आदि मेँ एक चुटकी सुबह शाम पानी से फाँक ले तो दो तीन दिन मेँ ही आराम मिल जाता है। प्राचीन काल से ऋषि मुनियों के साथ साथ युग पुरुष सवामी दयानंद सरस्वती ने भी ये सिद्ध किया की यज्ञादि से वर्षा भी अच्छी होती है जिससे अन्न जल की कोई कमी नहीँ होती ये भी प्रमाणिक है।

क्या कहती है हवन पर हुई वैज्ञानिक खोजें:-

यज्ञ के धूम्र / धुएं के लाभ नीचे लिखे पॉइंट 1,2 और 3 एक भारतीय वैज्ञानिक के ब्लॉग से साभार

(१) एक वेबसाइट रिपोर्ट के अनुसार फ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः आम की लकड़ी पर किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फ़ॉर्मिक एल्डिहाइड नमक गैस उत्पन्न होती है जो की खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओ को मरती है तथा वातावरण को शुद्द करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला। गुड़ को जलने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है।

(२) टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गयी अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाये अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है। 
(३) हवन की मत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च करी की क्या वाकई हवन से वातावरण शुद्द होता है और जीवाणु नाश होता है अथवा नही.

उन्होंने ग्रंथो. में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलने पर पाया की ये विषाणु नाश करती है। 
फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी काम किया और देखा की सिर्फ आम की लकड़ी १ किलो जलने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलायी गयी एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद बॅक्टेरिया का स्तर ९४ % कम हो गया। 
यही नही. उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजुद जीवाणुओ का परीक्षण किया और पाया की कक्ष के दरवाज़े खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के २४ घंटे बाद भी जीवाणुओ का स्तर सामान्य से ९६ प्रतिशत कम था। बार बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ की इस एक बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था। यह रिपोर्ट एथ्नोफार्माकोलोजी के शोध पत्र (resarch journal of Ethnopharmacology 2007) में भी दिसंबर २००७ में छप चुकी है।

रिपोर्ट में लिखा गया की हवन के द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों फसलों को नुकसान पहुचाने वाले बैक्टीरिया का नाश होता है। जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।

क्या हो हवन की समिधा (जलने वाली लकड़ी):- 
समिधा के रूप में आम की लकड़ी सर्वमान्य है परन्तु अन्य समिधाएँ भी विभिन्न कार्यों हेतु प्रयुक्त होती हैं। 
सूर्य की समिधा मदार की, चन्द्रमा की पलाश की, मङ्गल की खैर की, बुध की चिड़चिडा की, बृहस्पति की पीपल की, शुक्र की गूलर की, शनि की शमी की, राहु दूर्वा की और केतु की कुशा की समिधा कही गई है।

मदार की समिधा रोग को नाश करती है, पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली, पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, गूलर की स्वर्ग देने वाली, शमी की पाप नाश करने वाली, दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है।

हव्य (आहुति देने योग्य द्रव्यों) के प्रकार

प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वायुमण्डल रहते हैं। सर्दी, गर्मी, नमी, वायु का भारीपन, हलकापन, धूल, धुँआ, बर्फ आदि का भरा होना। विभिन्न प्रकार के कीटणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं समाप्ति का क्रम चलता रहता है। इसलिए कई बार वायुमण्डल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार अस्वास्थ्यकर हो जाता है। इस प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं, जो इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं।

होम द्रव्य ४ प्रकार के कहे गये हैं-
होम-द्रव्य अथवा हवन सामग्री वह जल सकने वाला पदार्थ है जिसे यज्ञ (हवन/होम) की अग्नि में मन्त्रों के साथ डाला जाता है।
(१) सुगन्धित : केशर, अगर, तगर, चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री छड़ीला कपूर कचरी बालछड़ पानड़ीआदि
(२) पुष्टिकारक : घृत, गुग्गुल ,सूखे फल, जौ, तिल, चावल शहद नारियल आदि
(३) मिष्ट - शक्कर, छूहारा, दाख आदि
(४) रोग नाशक -गिलोय, जायफल, सोमवल्ली ब्राह्मी तुलसी अगर तगर तिल इंद्रा जव आमला मालकांगनी हरताल तेजपत्र प्रियंगु केसर सफ़ेद चन्दन जटामांसी आदि

उपरोक्त चारों प्रकार की वस्तुएँ हवन में प्रयोग होनी चाहिए। अन्नों के हवन से मेघ-मालाएँ अधिक अन्न उपजाने वाली वर्षा करती हैं। सुगन्धित द्रव्यों से विचारों शुद्ध होते हैं, मिष्ट पदार्थ स्वास्थ्य को पुष्ट एवं शरीर को आरोग्य प्रदान करते हैं, इसलिए चारों प्रकार के पदार्थों को समान महत्व दिया जाना चाहिए। यदि अन्य वस्तुएँ उपलब्ध न हों, तो जो मिले उसी से अथवा केवल तिल, जौ, चावल से भी काम चल सकता है।
सामान्य हवन सामग्री
तिल, जौं, सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , पानड़ी , लौंग , बड़ी इलायची , गोला , छुहारे नागर मौथा , इन्द्र जौ , कपूर कचरी , आँवला ,गिलोय, जायफल, ब्राह्मी तुलसी किशमिशग, बालछड़ , घी

विभिन्न हवन सामग्रियाँ विभिन्न प्रकार के लाभ देती हैं विभिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता देती हैं.

प्राचीन काल में रोगी को स्वस्थ करने हेतु भी विभिन्न हवन होते थे। जिसे वैद्य या चिकित्सक रोगी और रोग की प्रकृति के अनुसार करते थे पर कालांतर में ये यज्ञ या हवन मात्र धर्म से जुड़ कर ही रह गए और इनके अन्य उद्देश्य लोगों द्वारा भुला दिए गये.

सर भारी या दर्द होने पर किस प्रकार हवन से इलाज होता था इस श्लोक से देखिये :-

श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितलं मनःशिला।। 
गन्धाश्चा गुरुपत्राद्या धूमं मुर्धविरेचनम्।। (चरक सू* ५/२६-२७)

अर्थात अपराजिता , मालकांगनी , हरताल, मैनसिल, अगर तथा तेज़पात्र औषधियों को हवन करने से शिरो व्विरेचन होता है। 
परन्तु अब ये चिकित्सा पद्धति विलुप्त प्राय हो गयी है।

एक नज़र कुछ रोगों और उनके नाश के लिए प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री पर 
१. सर के रोग:- सर दर्द, अवसाद, उत्तेजना, उन्माद मिर्गी आदि के लिए
ब्राह्मी, शंखपुष्पी , जटामांसी, अगर , शहद , कपूर , पीली सरसो

२ स्त्री रोगों, वात पित्त, लम्बे समय से आ रहे बुखार हेतु 
बेल, श्योनक, अदरख, जायफल, निर्गुण्डी, कटेरी, गिलोय इलायची, शर्करा, घी, शहद, सेमल, शीशम

३ पुरुषों को पुष्ट बलिष्ठ करने और पुरुष रोगों हेतु 
सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , अश्वगंधा , पलाश , कपूर , मखाने, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , लौंग , बड़ी इलायची , गोला 
४. पेट एवं लिवर रोग हेतु 
भृंगराज , आमला , बेल , हरड़, अपामार्ग, गूलर, दूर्वा , गुग्गुल घी , इलायची

५ श्वास रोगों हेतु 
वन तुलसी, गिलोय, हरड , खैर अपामार्ग, काली मिर्च, अगर तगर, कपूर, दालचीनी, शहद, घी, अश्वगंधा, आक, यूकेलिप्टिस

मित्रों हवन यज्ञ का विज्ञानं इतना वृहद है की एक लेख में समेत पाना मुश्किल है परन्तु एक छोटा सा प्रयास किया है की इसके महत्त्व पर कुछ सूचनाएँ आप तक पहुंचा सकूँ। विभिन्न खोजें और हमारे ग्रन्थ यही निष्कर्ष देते हैं की सवस्थ पर्यावरण, समाज और शरीर के लिए हवन का आज भी बहुत महत्त्व है। जरूरत बस इस बात की है की हम पहले इसके मूल कारण को समझे और फिर इसे अपनाएं।

भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का विधान है

पुराणोक्त पितृ -स्तोत्र : 

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः।।
प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।।
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।
अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः।।
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः।।
अर्थ: रूचि बोले - जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ। जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ। जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ। नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ। चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है। जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों।
विशेष - मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है। श्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों के भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का विधान है

Monday 13 April 2015

केवल खर्च कर सकते हो , कमाई नहीं कर सकते


एक महात्मा के पास कोई गया , उनसे पूछा " अमुक जगह कहाँ है ? " " उन्होंने कहा पार मे है " । वह बेचारा भोला - भाला आदमी था, नाव में बैठ गया । नाव वाले ने पूछा " किधर जाना है ? " वह बोला पार जाना है ।नाविक नाव को दूसरे किनारे पर ले गया । दूसरे किनारे पहुँच कर नाव वाले ने कहा " उतरो " , उसने कहा " पार आ गया ? " नाव बड़ी थी सैकड़ो आदमी चढ़े हुए थे , नाविक ने पहचाना नहीं कि वही आदमी है , सोचा कि इधर से ही चढ़ा होगा अतः उसने कहा " अच्छा , पार तो अभी जाएँगे " दूसरी तरब अर्थात् पहले वाले किनारे पर फिर आगए ,सब उतर गए , वह बैठा रहा , नाविक ने कहा " कहाँ जाना है ? " वह बोला - पार जाना है । नाविक ने कहा " अच्छा " । बहुत से आदमी थे पहचानने में आया नहीं तो बेचारा घण्टों इधर से उधर चलता रहा , सोचता रहा नजाने पार कब आएगा । इधर से चलो तो उघर पार है उधर से चल कर कहोगे तो इधर पारहो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य पैदा होता है तो सोचता है कि स्वार्गादि लोक में ,वैकुण्ठ - लोक में पहुँच जाऊँगा तो पारहो जाऊँगा । वहाँ जाता है तो वहाँ वाले कहते है " अरे मनुष्य - लोक में जाओ , वहाँ ज्ञान और मोक्ष हो जाता है " । शास्त्रकार कहते हैं कि जीव देवता बनता हैतो सोचता है कि मनुष्य बन जाऊँ " गायन्ति देवा किलगीतकानि धन्यास्तुते भारतभूमिभागे " पुराण बताता है कि देवता लोग कहते है कि जो भारतवर्ष में जन्म लेते हैं वे धन्य हैं। ठीक जैसे यहाँ से अगर आप अमेरिका चले जायें तो वहाँ आप कमाई नही कर सकते । कमाई करेंगे तो वे तुम्हें जेल में बन्द करदेंगे । आप वहाँ घूमने गये हो , मौज- शौक खूब करो । परन्तु केवल खर्च कर सकते हो , कमाई नहीं कर सकते । कमाई करने के लिये आपको फिर यहीं आना पड़ेगा । अब तो पता नहीं परन्तु कुछ साल पहले सरकार का नियम था कि कम से कम तीनसाल के पहले वहाँ जाने की अनुमति नहीं देते थे । हमने सोचा , सरकार ने यह निर्णय किया है कि तीन साल में रुपया इकट्ठा करे तो ही वहाँ जा कर खर्च कर सकता है । इससे यदि कम समय में किया हैतो इसने कहीं न कहीं सेंध मारी है । तभी इसके पास इतनी जल्दी वहाँ जाकर खर्च करने का पैसा हो गया । ठीक इसी प्रकार से मनुष्य - लोक में कमाई कर सकते हो , देव लोक मेंजा कर खर्च करो , खर्च करके वापस कमाई करने यहीं आना पड़ेगा । देव लोँक में पहुँच कर पूछते हो पार कहाँ है ? तो देवता कहते हैं - मनुष्य लोक में जाओ कमाई करने के लिए । मनुष्य लोक में आकर पार के बारे में पूछते हो तो कहते है देव लोकमें जाओ भोग भोगने के लिए । जीव कभी देव लोक , कभी मनुष्य लो , फिर देव लोक , बस यों घुमता रहता है परन्तु पार कभी आता नहीं । यहाँ दुःख इस बात का हैकि भोग नहीं भोग सकते , मनुष्य शरीर में कोई ज्यादा भोग भोगने की सामर्थ्य नहीं है। सेर - भर दाल का हलबा खा लोबस , फिर और खाना भी चाहो तो खानहीं सकते ।

इस संसार में दुख इस बात का है कि भोग भोग नहीं सकते ,मनुष्य शरीर में कोई ज्यादा भोग भोगने की शक्ति भी नहीं है । अतः मनुष्य जब यहाँ आता है तो दुःख इस बात का है कि" मैं दुःख भोग नहीं सकता" । और इस जगत में आने पर भय भी है। उम्र बहुत कम है । पचीस वर्ष जिसको " गधा पचीसी कहते हैं " उसमें चले गए , उसके बाद आपने कमाई करना शुरू किया । पचहत्तर साल मेंबुड्ढे हो गए तो वैसे ही कुछ भोग करने लायक नहीं रह जातें पचास साल तो ऐसे निकलजाते है कहने को सौ साल की उम्र है । पचास साल बचे उसके अन्दर तो आठ घण्टे तो नींद आप लेंगें ही , एक - तिहाई समय आपका सोने में निकल गया । खाना - पीना - नहाना - धोना सब में चार घण्टे और निकल जाते हैं बेचारों के । यों आपके पास आधा समय बचा यानि पचीस साल बचे। उनमें भी कुछ न कुछ समय निकालना पड़ता है यहाँ दाल- रोटी के धन्धा करने का , उससेजो सभय बचा उसी में आप पुण्य करके सुख भोगने के लिए देव- लोक में जाऐगें। अतःयहाँ पर हमेशा भय लगता रहता है कि समय खत्म हो रहा है , जल्दी ही यहाँ से जाना पड़ेगा , हम बहुत कम पुण्य कर पाए । इस बात का भय है । जब यहाँ पहुँचते हैं तब दुख इस बात का है कि रोज खर्च ही खर्च हो रहा है । क्योंकि जीवदेवलोक में पहुँचकर प्रज्ञावाला होता है , इसलिए उसको हर क्षण पता रहता है कि अब उसका इतना पुण्य बच गया । घर सेदूरभाष द्वारा , टेलिफोन द्वाराचाहे जितनी देर बातें करते हो तो घबराहट नहीं होती क्योंकि तत्काल पैसा नहीं देनापड़ता । दूरभाष के उपयोग के लिये खुली दूकान मे { एस . टी . डी बूथ में } जाकर बात करो तो हर क्षण सामने लिखा आता रहता है किकितने पैसे खर्च हो गये अतः वहाँ ज्यादा देर बात नहीं की जाती , देर तक बाता करने का मजा किरकिरा हो जाता है ।देव लोक में सामने आता रहता है कि " अब इतना पुण्य खर्च हो गया , अब इतना खर्च हो गया " , अतः दुःक बना रहते से वहाँ भोग का मजा भी किरकिरा हो जाता है । इसलियेचाहे मनुष्य - लोग हो या देवादिलोक, सर्वत्र दुःख और भय हमेशा रहते हैं जिसके फलस्वरूप जीव आनंदपूर्ण नहीं रहपाता । अन्य कोई उपाय नहीं जिससे ये दुःख व भय सर्वथा मिट सके , एकमात्र परमात्मज्ञान से ही दूर होकरआनन्दस्थिति होती है । वह परमात्म - ज्ञान " ओंकार { ॐ } " से ही संभवहै यही इस तार की , प्रणव की ,ॐ की महत्ता है ।
शब्दकी एक अद्भुत सामर्थ्य इसलिये मानी गई है जिससे वह अर्थों का ज्ञान करा देता है ।प्राचीनकाल से इसीलिए हम लोग शब्द के विषय में बड़ा विचार करते रहे हैं । मनुष्य केबंधन और मोक्ष , सुख और दुःख का सर्वाधिक कारण शब्द ही है ।हमको जितनी चीज़े याद रहती है वे अधिकतर शब्द के रूप में ही याद रहते हैं । अगरकिसी चीज़ की सुगन्धि को हम यथावत् याद करना चाहें तो प्रतीति नहीं होती , अगर किसी चीज़ का स्पर्श ठीक - ठीक याद करनाचाहें तो याद नहीं आता । दो ही चीज़े हमें स्पष्ट याद आती है - या तो रूप या नाम ।किसी का चेहरा स्पष्ट याद आ जाता है अथवा उसका नाम स्पष्ट याद आ जाता है । स्पर्श ,गंध आदि बाकी चीज़े स्पष्ट भान नहीं होती। अतः उपनिषदों ने जहाँ कहीं संसार का वर्णन किया है , वहाँ " नाम रूपात्मक सृष्टि कही है " यद्यपि यह ठीक है कि रूप शब्द का अर्थ व्यापक है" रूप्यते अनेन " इस व्युत्पत्ति से अंध आदि भी रूप है क्योंकिपदार्थों का निरूपण करते है तथापि मनुष्य के अन्दर यह शक्ति प्रायः कार्यकारी नहींहोती कि गंधादि से किसी का सही निरूपण कर या समझ सके । " आरक्षी विभाग " , " पुलिस डिपार्टमेन्ट " में कुत्ते रखे जाते हैं जो सुगन्ध से चोर कोपकड़ लेते हैं परंतु मनुष्यों में यह शक्ति प्रायः नहीं है ; कदाचित् किसी में हो तो बात दूसरी है , परंतु चेहरा देख लेते है तो सभी पहचान लेते है। इसीलियेयदि बत्ती जल जाए तो चोर को पहचानने जाने का डर होता है जान से भी मार देता है ।परंतु किसी चोर को यह डर नहीं रहता कि मेरी गंध पहचान लेंगे । हमारे एक परिचितसज्जन हमसे कहने लगे स्वामी जी एक अलाती , टार्च अपने पास रखा कीजिए , रात - बिरात कोई आए तो दिख जाए । हमने कहा तुम बीमा बेचे हुए हो हम बीमाबेचे हुए तो हैं नहीं । अगर चोर को पता लग गया कि हमने उसे पहचान लिया है तो वहमार कर जाएगा और अंधेरे में सिर्फ चोरी कर के चला जाएगा , उसको पहचाने जाने का डर नहीं लगेगा तो वह मार - पीट भीनहीं करेगा। गंध , स्पर्श आदि काभय चोर को नहीं होता है रूप का ही डर होता है कि कहीं पहचाना न जाऊँ । इसीलिए रूपमें गन्ध आदि का समावेश होने पर भी मनुष्य की दृष्टि से प्रधानता को मानकर रूप -शब्द का ही प्रयोग करते हैं । नाम और रूप की विशेषता इसीलिए दी गई ।

दुनिया सपना है अपना न कोई यहाँ

धन अकिंचन का श्री कृष्ण शरणम ममः।
लक्ष्य जीवन का श्री कृष्ण शरणम ममः।

दीन दुःखियों का, निर्बल जनों का सदा, दृढ सहारा है श्री कृष्ण शरणम ममः।
वैष्णवों का हितैषी, सदन शांति का, प्राण प्यारा है श्री कृष्ण शरणम ममः।

काटने के लिये मोह जंजाल को, तेज तलवार श्री कृष्ण शरणम ममः।
नाम ही मंत्र है मंत्र ही नाम है, है महामंत्र श्री कृष्ण शरणम ममः।

छूट जाते है साधन सभी अंत में, साथ रहता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
साथी दुनिया में कोई किसी का नही, सच्चा साथी है श्री कृष्ण शरणम ममः।

तरना चाहो जो संसार सागर से तो, पार कर देगा श्री कृष्ण शरणम ममः।
शत्रु हारेंगे होगी विजय आपकी , याद रखना है श्री कृष्ण शरणम ममः।

सुख मिलेगा सफलता स्वयं आयेगी, तुम जपो नित्य श्री कृष्ण शरणम ममः।
पूरे होंगे मनोरथ सभी सर्वदा, जो न भूलोगे श्री कृष्ण शरणम ममः।

दीनबंधु कृपासिंधु गोविन्द के, प्रेम का सिंधु श्री कृष्ण शरणम ममः।
दुःख दारिद्र दुर्भाग्य को मेट कर, देता सौभाग्य श्री कृष्ण शरणम ममः।

ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी प्रेम से, नित्य जपते हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।
शेष सनकादि नारद विषारद सभी , रट लगाते हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।

मंत्र जितने भी दुनिया में विख्यात हैं, मूल सबका है श्री कृष्ण शरणम ममः।
पानो चाहो जो सिद्धि अनायास है, वे जपें नित्य श्री कृष्ण शरणम ममः।

भक्त दुनिया में जितने हुए आजतक, सबका आधार श्री कृष्ण शरणम ममः।
लट्टुओं की तरह विश्व के जीव हैं, काम विद्युत का श्री कृष्ण शरणम ममः।

दुष्ट राक्षस डराने लगे जिस समय, बोले प्रहलाद श्री कृष्ण शरणम ममः।
राणा बोले कि रक्षक तेरा कौन है, मीरा बोली कि श्री कृष्ण शरणम ममः।

बोलो श्रद्धा से, विश्वास से, प्रेम से, कृष्ण श्री कृष्ण श्री कृष्ण शरणम ममः।
प्राणवल्लभ के वल्लभ हैं वल्लभ प्रभु, उनका वल्लभ है श्री कृष्ण शरणम ममः।

दुख मिटाता है देकर सहारा सदा, सुख बढाता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
धाम आनंद का, नाम गोविन्द का, सिंधु रस का है श्री कृष्ण शरणम ममः।

जग में आनन्द अक्षय अचल संपदा, नित्य देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
पांडवों की विजय क्यों हुई युद्ध में, उसका कारण है श्री कृष्ण शरणम ममः।

द्रौपदी का सहारा यही एक था, नित्य जपती थी श्री कृष्ण शरणम ममः।
ब्रज के गोपों का गोपीजनों का सदा, एक आश्रय था श्री कृष्ण शरणम ममः।

वल्लभाचार्य का विट्ठलाधीश का, मूल साधन था श्री कृष्ण शरणम ममः।
पुष्टीमार्गीय वैष्णव जनों के लिये, प्राणजीवन है श्री कृष्ण शरणम ममः।

लाभ लौकिक-अलौकिक विविध भांति के, सबसे बढकर है श्री कृष्ण शरणम ममः।
क्षीण हो जाते हैं पुण्य सब भांति के, किंतु अक्षय है श्री कृष्ण शरणम ममः।

काम सुधरेंगे सब लोक परलोक के, तुम जपोगे जो श्री कृष्ण शरणम ममः।
बल है निर्बल का, निर्धन का धन है यही, गुन है निर्गुण का श्री कृष्ण शरणम ममः।

यह असम्भव को संभव बनाता सदा, शक्तिशाली है श्री कृष्ण शरणम ममः।
कोई अन्तर नही नाम में रूप में, है स्वयं कृष्ण श्री कृष्ण शरणम ममः।

जिनको विश्वास नही वे भटकते रहें, हम तो जपते हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।
खिन्नता , हीनता और पराधीनता, सब मिटाता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

भाग जाता है भय, होता निर्भय हृदय, याद आते ही श्री कृष्ण शरणम ममः।
दूर रखता है दुःसंग से सर्वदा, देता सत्संग श्री कृष्ण शरणम ममः।

रंग अद्भुत चढाता है सत्संग का, संग रहता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
कृष्ण का प्यार, पीयूष की धार है, शास्त्र का सार श्री कृष्ण शरणम ममः।

काम को, क्रोध को, मोह को, लोभ को , नष्ट करता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
मेट दुख-द्वन्द, भव-फन्द छल-छंद सब, देता आनन्द श्री कृष्ण शरणम ममः।

पाप का, ताप का, क्लेश का, द्वेष का, नाश करता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
ज्ञान ध्यानादि से, योग यज्ञादि से , सबसे बढकर है श्री कृष्ण शरणम ममः।

है अहोभाग्य उसके जिसे अन्त में, याद आता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
धन्य है भक्त वह जिसके मन में सदा, वास करता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

कृष्ण बसते हृदय में उसी भक्त के, जो भी जपता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
छूट जाते हैं धन-जन-भवन एक दिन, साथ जाता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

बस जरूरत है श्रद्धा की, विश्वास की, कल्पतरु ही हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।
चलते फिरते जपो या जपो बैठकर, है सफल मंत्र श्री कृष्ण शरणम ममः।

चाहे अन्दर जपो, चाहे बाहर जपो,अंतर्यामी है श्री कृष्ण शरणम ममः।
आज तक जो किये हैं सुकृत आपने, फल हे उनका श्री कृष्ण शरणम ममः।

थक गये हैं जो जग में भटक कर उन्हे, देता विश्राम श्री कृष्ण शरणम ममः।
जग में जितने भी साधन हैं छोटे बडे, सबका स्वामी है श्री कृष्ण शरणम ममः।

जाना चाहो जो लीला में श्री कृष्ण की, तो जपो नित्य श्री कृष्ण शरणम ममः।
शुद्धि करनी हो जीवन की, मन की तुम्हे, तो जपो नित्य श्री कृष्ण शरणम ममः।

गेय श्रद्धेय है ये अनुपमेय है, है स्वयं श्रेय श्री कृष्ण शरणम ममः।
मन की ममता अहंता अभी मेट कर, समता देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

कृष्ण होते प्रकट अपने जन के निकट, नित्य रटते जो श्री कृष्ण शरणम ममः।
दुनिया झुकती है चरणों में उनके सदा, नित्य जपते जो श्री कृष्ण शरणम ममः।

शुद्धि करता है अन्तःकरण की सदा, बुद्धि देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
भ्रांति हरता है सिद्धांत के ज्ञान से, क्रांतिकारी है श्री कृष्ण शरणम ममः।

भक्ति का ज्ञान का और वैराग्य का, भाव भरता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
बन्द आँखों को सत्संग के ज्ञान से, खोल देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

दो सो बावन ओ चौरासी वैष्णव सभी, नित्य जपते हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।
पुष्टिमार्गीय वैष्णव करोडों हैं जो, नित्य जपते हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।

सेवा उत्तम है सब में सदा मानसी, श्रेष्ठ सुमिरन है श्री कृष्ण शरणम ममः।
कोई झंझट नही कोई खटपट नही, सीधा सादा है श्री कृष्ण शरणम ममः।

चस्का लग जाये रस का तो कहना ही क्या, अपने बस का है श्री कृष्ण शरणम ममः।
कृष्ण के प्रेम का, नेम का, क्षेम का, केन्द्र सबका है श्री कृष्ण शरणम ममः।

अपने गौरव तराजू में साधन सभी, तोल देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
ज्ञान का, ध्यान का, मान सम्मान का, दान देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

मानसी सिद्ध करता है सद्भाव की, वृष्टि करता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
ब्रह्म साकार भी है निराकार भी, सिद्ध करता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

मर्म समझाता है वेद के भेद का, खेद हरता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
सच्चे वैष्णव की ये मुख्य पहचान है, नित्य जपता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

वृद्धि करता है आयुष्य आरोग्य की, यह रसायन है श्री कृष्ण शरणम ममः।
मेट देता है भ्रम और संशय सभी, सिद्ध सदगुरु है श्री कृष्ण शरणम ममः।

बीज दुनिया में होता है हर चीज जा, भक्ति का बीज श्री कृष्ण शरणम ममः।
चारों युग में और चौदह भुवन में सदा, सर्व व्यापक है श्री कृष्ण शरणम ममः।

मन को निर्मल बना भगवदीय को , देता रस दान श्री कृष्ण शरणम ममः।
सुहृदय के हिंडोले में श्री कृष्ण को, नित झुलाता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

रास के जो रसिक हैं उन्हे पास में, नित बुलाता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
आस विश्वास रखते हैं जो कृष्ण में , दास जपते हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।

अन्याश्रय से डरते हैं वैष्णव सदा, उनका आश्रय है श्री कृष्ण शरणम ममः।
प्रेम बाजार में सदगुरु जो हरि, रत्न देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

तोला जाता नही मोल बिकता नही, रत्न अनमोल श्री कृष्ण शरणम ममः।
भाग्यशाली भगवदीय जन ही सदा, प्राप्त करते हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।

जो कृपा पात्र हैं बस उन्ही के लिये, है ये वरदान श्री कृष्ण शरणम ममः।
है बडे भाग्य उनके जिसे मिल गया, देव दुर्लभ है श्री कृष्ण शरणम ममः।

मिल गया है जिन्हे वे सुने ध्यान से, वे धरोहर हैं श्री कृष्ण शरणम ममः।
है ये गोलोक का मार्गदर्शक सखा, नित्य रटना है श्री कृष्ण शरणम ममः।

जेबकतरों, अविश्वासियों से सदा, गुप्त रखना है श्री कृष्ण शरणम ममः।
छोड देते हैं अपने सभी लोग तब, साथ देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

टूट जते हैं ममता के धागे सभी, साथ देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
पर्दा हटाता है दिल में अज्ञान का, कृष्ण बनता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

देखता है न अपराध जन का कभी, है क्षमाशील श्री कृष्ण शरणम ममः।
रंग की , धोप के, धन की, परवाह नही, प्रेम चाहता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

दूर हरि से न हरिजन रहे एक भी, चाहता है यह श्री कृष्ण शरणम ममः।
माता करती हिफाजत उसी तौर से , रक्षा करता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

आप उनके बनें वे बने आपके, यही कहता है श्री कृष्ण शरणम ममः।
भक्त सोता है तब भी स्वयं जाग कर, पहरा देता है श्री कृष्ण शरणम ममः।

चाहे मानो न मानो खुशी आपकी, सच्चा धन तो है, श्री कृष्ण शरणम ममः।
डर नही है किसी द्वेत का, प्रेत का , शुद्धद्वैत श्री कृष्ण शरणम ममः।

यह सीधी सडक चल पडो बेधडक, साथ रक्षक है श्री कृष्ण शरणम ममः।
हारते हे नही वे कहीं भी कभी, नित्य जपते जो श्री कृष्ण शरणम ममः।

श्याम सुंदर निकुंजों में मिल जायेगें, ढूंढ लायेगा श्री कृष्ण शरणम ममः।
दुनिया सपना है अपना न कोई यहाँ , नित्य जपना है श्री कृष्ण शरणम ममः।

सत्य और सुन्दर है सर्वस्व जो, वो है नवनीत श्री कृष्ण शरणम ममः।

Sunday 12 April 2015

सुबह शाम चाटने से बलगमी खाँसी दूर होती है।

- 2 से 3 ग्राम हरड़ चूर्ण में समभाग शहद मिलाकर सुबह खाली पेट लेने से ʹरसायनʹ के लाभ प्राप्त होते हैं।
- 15-20 नीम के पत्ते तथा 2-3 काली मिर्च 15-20 दिन चबाकर खाने से वर्षभर चर्मरोग, ज्वर, रक्तविकार आदि रोगों से रक्षा होती है।
- अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े कर उसमें नींबू का रस और थोड़ा नमक मिला के सेवन करने से मंदाग्नि दूर होती है।
- 5 ग्राम रात को भिगोयी हुई मेथी सुबह चबाकर पानी पीने से पेट की गैस दूर होती है।
- रीठे का छिलका पानी में पीसकर 2-2 बूँद नाक में टपकाने से आधासीसी का दर्द दूर होता है।
- 10 ग्राम घी में 15 ग्राम गुड़ मिलाकर लेने से सूखी खाँसी में राहत मिलती है।
- 10 ग्राम शहद, 2 ग्राम सौंठ व 1 ग्राम काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर सुबह शाम चाटने से बलगमी खाँसी दूर होती है।

क्या पता किसी ज़रूरतमंद को वक़्त पर मिल जाये

शुगर का इलाज"
  नुस्खा-ए-ख़ास

१-लहसुन छिला हुआ आधी छटाँक।
२-अदरक सब्ज़ (ताज़ा) एक छटाँक।
३-पुदीना सब्ज़ (हरा) एक छटाँक।
४-अनारदाना खट्टा एक छटाँक।

इन चारों चीज़ों को पीस कर चटनी बना लें।
और सुबह, दोपहर और शाम को एक-एक चम्मच खा लें।
पुरानी से पुरानी शुगर, यहाँ तक कि शुगर की वजह से जिस मरीज़ के जिस्म के किसी हिस्से को काटने की सलाह भी दी गयी हो तब भी ये चटनी बहुत फायदेमंद इलाज है।
अगर हो सके तो इसे आगे भी फॉरवर्ड कर दें।
क्या पता किसी ज़रूरतमंद को वक़्त पर मिल जाये।

Saturday 11 April 2015

मन ही मन अपनी कामना बोलिये.

शाबर महाकाली साधना.

मंत्र सिद्ध है फिर भी मन मे येसा कुछ ना आये के मुज़े अनुभव कैसे मिलेगा ईसलिये किसी भी मंगलवार के दिन शाम को 6:30 से 7:30 के समय मे मंत्र का 108 बार जाप कर लिजिये और 21 आहुती घी का दे साथ मे एक नींबू मंत्र का जाप करके चाकू से काटे तो बलि विधान भी पूर्ण हो जायेगा,नींबू को हवन कुंड मे डालना ना भूले.
अब जब भी आपको अपनी मनोकामना पूर्ण करने हेतु विधान करना हो तब जमीन पर थोडासा कुछ बुंद जल डाले और हाथ से जमीन को पौछ लिजिये.
साफ़ जमीन पर कपूर कि टिकिया रखे और मन ही मन अपनी कामना बोलिये.अब तीन बार "ओम नम: शिवाय" बोलकर कपूर जलाये और माहाकाली मंत्र का जाप करे,यहा पर मंत्र जाप संख्या का गिनती नही करना है और जाप करते समय ध्यान कपूर के ज्योत मे होना चाहिये इसलिये मंत्र भी पहिले ही याद करना जरुरी है.
कम से कम 3-4 टिकिया कपूर का इस्तेमाल करे और कपूर इस क्रिया मे बुज़ना नही चाहिये जब तक आपका जाप पूर्ण ना हो और इतने समय तक जाप करे अन्दाज से के आपका 21 बार मंत्र जाप होना चाहिये.अब आपही सोचिये आपको रोज कितना कपूर जलाना है.
साधना तब तक करना है जब तक आपका इच्छा पूर्ण ना हो और इच्छा पूर्ण होने के बाद कुछ गरिब बच्चो मे कुछ मिठा बाटे क्युके इच्छा पूर्ण होने के खुशी मे..
मंत्र-
ll ओम नमो आदेश माता-पिता-गुरू को l आदेश कालिका माता को,धरती माता-आकाश पिता को l ज्योत पर ज्योत चढाऊ ज्योत कालिका माता को,मन की इच्छा पुरन कर,सिद्धी कारका l दुहाई माहादेव कि ll

Friday 10 April 2015

जो जान गया वह श्रीकृष्ण से अलग कैसे रह सकता है?

माया क्या है? भ्रम| जो दिख रहा है, वह सत्य लगता है, यह
भ्रम है| शरीर ही सबकुछ है, भ्रम है| नष्ट हो जाने वाली वस्तुएं
शाश्वत हैं, भ्रम है| मकान-जायदाद, मेरी-तेरी, भ्रम है|
रिश्ते-नाते सत्य हैं, भ्रम है... यही माया है| मैं, मेरा, तेरा,
तुम्हारा| और जो व्यक्ति इससे अलग होकर स्वयं को देखता
है, उसका भ्रम तो मिटता है, लेकिन वह सत्य के नजदीक पहुंच
जाता है, और सत्य वह है जो श्रीकृष्ण कहते हैं - जो मुझसे अलग
है, मुझसे भिन्न है, वही माया है... और जो मुझमें रमा है, मुझसे
जुड़ा है, मुझे ही हर ओर देखता है, मुझे ही महसूस करता है, वह
माया से अलग रहता है... उसे माया स्पर्श नहीं कर सकती|
माया का अर्थ ही अज्ञान है| और यह अज्ञान कब शुरू
हुआ, इसे जानने की जरूरत नहीं| माया जीव से कब जुड़ी यह
भी जानने की जरूरत नहीं, लेकिन अज्ञान और माया को
मिटाने के ज्ञान की जरूरत है, और ये दोनों तभी मिट
सकते हैं, जब व्यक्ति परमात्मा से जुड़ता है| माया, इस
शरीर रूपी कपड़ों पर एक दाग है| यह जानने का कोई लाभ
नहीं कि यह दाग कहां से लगा, कैसे लगा, क्यों लगा...
जो लगना था, लग गया, अब तो इसे मिटाने की जरूरत है
कि पहला दाग मिटे और दूसरा दाग न लगे| माया क्या
है? मैं, में आदमी क्यों उलझ जाता है, यह सोचने के बजाय,
इससे रहित होना चाहिए और 'मैं' से रहित होने के लिए गुरु
और की शरण लेनी चाहिए| श्रीकृष्ण ने अपने जन्म से पहले
ही माता देवकी को अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन करा दिए थे|
मां हैरान थी कि ऐसा दिव्य स्वरूप उसके बालक के रूप में जन्म
लेगा, उसका बेटा बनेगा... लेकिन श्रीकृष्ण ने तभी कह
दिया था... मां मेरा यह दिव्य स्वरूप तुम्हें याद नहीं
रहेगा... इसकी लेशमात्र भी स्मृति नहीं रहेगी| क्योंकि
यदि तुम्हें मेरा यही रूप नजर आता रहा, तो तुम मुझमें रमी
रहोगी और मैं वे काम नहीं कर सकूंगा, जो मैं करने के लिए आ
रहा हूं... और मां माया में उलझ गई... भगवान का दिव्य स्वरूप
भूल गई| सारी उम्र भूली रही... उसी दिव्य स्वरूप को वह
अपना बेटा समझने लगी... और उसी की सुरक्षा की चिंता
करने लगी... उसकी चिंता, जो सबकी चिंता दूर करते हैं...
यही माया है|
सुदामा ने एक बार श्रीकृष्ण ने पूछा, "कान्हा, मैं आपकी
माया के दर्शन करना चाहता हूं... कैसी होती है?" श्रीकृष्ण
ने टालना चाहा, लेकिन सुदामा की जिद पर श्रीकृष्ण ने
कहा, "अच्छा, कभी वक्त आएगा तो बताऊंगा|"
और फिर एक दिन कहने लगे... सुदामा, आओ, गोमती में स्नान
करने चलें| दोनों गोमती के तट पर गए| वस्त्र उतारे| दोनों
नदी में उतरे... श्रीकृष्ण स्नान करके तट पर लौट आए| पीतांबर
पहनने लगे... सुदामा ने देखा, कृष्ण तो तट पर चला गया है, मैं
एक डुबकी और लगा लेता हूं... और जैसे ही सुदामा ने डुबकी
लगाई... भगवान ने उसे अपनी माया का दर्शन कर दिया|
सुदामा को लगा, गोमती में बाढ़ आ गई है, वह बहे जा रहे हैं,
सुदामा जैसे-तैसे तक घाट के किनारे रुके| घाट पर चढ़े| घूमने लगे|
घूमते-घूमते गांव के पास आए| वहां एक हथिनी ने उनके गले में फूल
माला पहनाई| सुदामा हैरान हुए| लोग इकट्ठे हो गए| लोगों
ने कहा, "हमारे देश के राजा की मृत्यु हो गई है| हमारा
नियम है, राजा की मृत्यु के बाद हथिनी, जिस भी व्यक्ति
के गले में माला पहना दे, वही हमारा राजा होता है|
हथिनी ने आपके गले में माला पहनाई है, इसलिए अब आप हमारे
राजा हैं|" सुदामा हैरान हुआ| राजा बन गया| एक
राजकन्या के साथ उसका विवाह भी हो गया| दो पुत्र
भी पैदा हो गए| एक दिन सुदामा की पत्नी बीमार पड़
गई... आखिर मर गई... सुदामा दुख से रोने लगा... उसकी पत्नी
जो मर गई थी, जिसे वह बहुत चाहता था, सुंदर थी, सुशील
थी... लोग इकट्ठे हो गए... उन्होंने सुदामा को कहा, आप
रोएं नहीं, आप हमारे राजा हैं... लेकिन रानी जहां गई है,
वहीं आपको भी जाना है, यह मायापुरी का नियम है|
आपकी पत्नी को चिता में अग्नि दी जाएगी... आपको भी
अपनी पत्नी की चिता में प्रवेश करना होगा... आपको भी
अपनी पत्नी के साथ जाना होगा|
सुना, तो सुदामा की सांस रुक गई... हाथ-पांव फुल गए...
अब मुझे भी मरना होगा... मेरी पत्नी की मौत हुई है, मेरी
तो नहीं... भला मैं क्यों मरूं... यह कैसा नियम है? सुदामा
अपनी पत्नी की मृत्यु को भूल गया... उसका रोना भी बंद
हो गया| अब वह स्वयं की चिंता में डूब गया... कहा भी,
'भई, मैं तो मायापुरी का वासी नहीं हूं... मुझ पर आपकी
नगरी का कानून लागू नहीं होता... मुझे क्यों जलना
होगा|' लोग नहीं माने, कहा, 'अपनी पत्नी के साथ आपको
भी चिता में जलना होगा... मरना होगा... यह यहां का
नियम है|' आखिर सुदामा ने कहा, 'अच्छा भई, चिता में जलने
से पहले मुझे स्नान तो कर लेने दो...' लोग माने नहीं... फिर
उन्होंने हथियारबंद लोगों की ड्यूटी लगा दी... सुदामा
को स्नान करने दो... देखना कहीं भाग न जाए... रह-रह कर
सुदामा रो उठता|
सुदामा इतना डर गया कि उसके हाथ-पैर कांपने लगे... वह
नदी में उतरा... डुबकी लगाई... और फिर जैसे ही बाहर
निकला... उसने देखा, मायानगरी कहीं भी नहीं, किनारे
पर तो कृष्ण अभी अपना पीतांबर ही पहन रहे थे... और वह एक
दुनिया घूम आया है| मौत के मुंह से बचकर निकला है...
सुदामा नदी से बाहर आया... सुदामा रोए जा रहा था|
श्रीकृष्ण हैरान हुए... सबकुछ जानते थे... फिर भी अनजान बनते
हुए पूछा, "सुदामा तुम रो क्यों रो रहे हो?"
सुदामा ने कहा, "कृष्ण मैंने जो देखा है, वह सच था या यह
जो मैं देख रहा हूं|" श्रीकृष्ण मुस्कराए, कहा, "जो देखा,
भोगा वह सच नहीं था| भ्रम था... स्वप्न था... माया थी
मेरी और जो तुम अब मुझे देख रहे हो... यही सच है... मैं ही सच
हूं... मेरे से भिन्न, जो भी है, वह मेरी माया ही है| और जो
मुझे ही सर्वत्र देखता है, महसूस करता है, उसे मेरी माया स्पर्श
नहीं करती| माया स्वयं का विस्मरण है... माया अज्ञान है,
माया परमात्मा से भिन्न... माया नर्तकी है... नाचती है...
नाचती है... लेकिन जो श्रीकृष्ण से जुड़ा है, वह नाचता
नहीं... भ्रमित नहीं होता... माया से निर्लेप रहता है, वह
जान जाता है, सुदामा भी जान गया था... जो जान गया
वह श्रीकृष्ण से अलग कैसे रह सकता है?

Thursday 9 April 2015

छोटे मुँह अति बड़ी चीज मैं माँगी, कृपानिधान!

दयामय! मोहि दासता दीजै।
सहज कृपाबस, दीनबंधु! अपनौ सेवक करि लीजै॥
अवगुन-खान, भरचौ मल सौं मन, हौं अति मूढ़ गँवार।
सेवा की नहिं नैक जोग्यता, नहिं सेवा-‌अधिकार॥
छोटे मुँह अति बड़ी चीज मैं माँगी, कृपानिधान!
एक भरोसौ प्रबल बिरुद कौ, अघहारी भगवान॥
निज दासनि मैं प्रभु जब मोकूँ करि लैंगे स्वीकार।
पाप-ताप तब छिन में जरि-बरि सभी होंयँगे छार॥

श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्रम्

॥ श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्रम् ॥
न + म: + शि + वा + य = नम: शिवाय , इन पंचाक्षर के एक एक अक्षर को ले कर इस सिद्ध मन्त्र की स्तोत्र रूपी मनोहारी महादेव की हृदयांगम स्तुति :-
(१) नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै " न " काराय नम: शिवाय ।।
- जिनके कंठ मे सर्पों का हार है , जिनके तीन नेत्र हैं , भस्म ही जिनका अंगराग है ( अनुलेपन ) है , दिशाँए ही जिनके वस्त्र हैं अर्थात दिगम्बर ( नग्न ) हैं उन अविनाशी महेश्वर " न " कार स्वरूप महादेव शिव को नमस्कार है ।
(२) मन्दाकिनी सलिल चन्दन चर्चिताय नन्दीश्र्वर प्रमथनाथ महेश्वराय ।
मन्दारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मै " म " काराय नम: शिवाय ।।
- गँगाजल और चन्दन से जिनकी अर्चा हुयी है , मन्दार पुष्प ( आँकड़ा ) तथा अन्यान्य पुष्पों से जिनकी सुंदर पूजा हुई है , उन नन्दी के अधिपति प्रमथगणों के स्वामी " म " कार स्वरूप महादेव शिव को नमस्कार है ।
(३) शिवाय गौरी वदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्री नीलकण्ठाय वृषभध्वजाय तस्मै " शि " काराय नम: शिवाय ।।
- जो कल्याण स्वरूप हैं , पार्वती जी के मुख कमल को विकसित ( प्रसन्न ) करने के लिये जो सूर्य स्वरूप हैं , जो राजा दक्ष के यज्ञ को नाश करने वाले हैं , जिनकी ध्वजा मे साँड ( बैल ) का चिन्ह है , उन शोभाशाली श्री नीलकण्ठ ( हलाहल पान के कारण नील वर्ण का कण्ठ ) " शि " कार स्वरूप महादेव शिव को नमस्कार है ।
(४) वशिष्ठकुम्भोद्भव गौतमार्य मुनीन्द्र देवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्क वैश्वानरलोचनाय तस्मै " व " काराय नम: शिवाय ।।
- वशिष्ठ , अगस्त्य , और गौतम आदि श्रेष्ठ ऋषि मुनियों ने तथा इन्द्र आदि देवताओं ने जिनके मस्तक की पूजा की है । चन्द्र , सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र है , उन " व " कार स्वरूप महादेव शिव को नमस्कार है ।
(५) यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै " य " काराय नम: शिवाय ।।
- जिन्होंने यज्ञरूप धारण किया है , जो जटाधारी हैं , जिनके हाथ मे पिनाक ( धनुष ) है , जो दिव्य सनातन पुरुष हैं , उन दिगम्बर देव महादेव " य " कार स्वरूप महादेव शिव को नमस्कार है ।
पन्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ।।
जयति शिवा - शिव शँकर हर जय । महादेव शम्भो जय जय ।।
जय गिरितनये , श्री नीलकण्ठ जय । जगदम्बे जय आशुतोष जय ।।

Wednesday 8 April 2015

गर्भधारण में समस्या है वो भी ठीक होती है

तुलसी के बीज का औषधीय उपयोग

जब भी तुलसी में खूब फूल यानी मञ्जरी लग जाए तो उन्हें पकने पर तोड़ लेना चाहिए वरना तुलसी के पौधे में चीटियाँ और कीड़ें लग जाते है और उसे समाप्त कर देते है |इन पकी हुई मञ्जरियों को रख ले , इनमे से काले काले बीज अलग होंगे उसे एकत्र कर ले , इसे सब्जा कहते है | अगर आपके घर में तुलसी के पौधे नही है तो बाजार में पंसारी या आयुर्वैदिक दवाईयो की दुकान से भी तुलसी के बीज ले सकते हैं वहाँ पर भी ये आसानी से मिल जाएंगे |
शीघ्र पतन एवं वीर्य की कमी ---- तुलसी के बीज 5 ग्राम रोजाना रात को गर्म दूध के साथ लेने से समस्या दूर होती है

नपुंसकता---- तुलसी के बीज 5 ग्राम रोजाना रात को गर्म दूध के साथ लेने से नपुंसकता दूर होती है और यौन-शक्ति में बढ़ोत्तरी होती है।

मासिक धर्म में अनियमियता------ जिस दिन मासिक आए उस दिन से जब तक मासिक रहे उस दिन तक तुलसी के बीज 5-5 ग्राम सुबह और शाम पानी या दूध के साथ लेने से मासिक की समस्या ठीक होती है और जिन महिलाओ को गर्भधारण में समस्या है वो भी ठीक होती है

तुलसी के पत्ते गर्म तासीर के होते है पर सब्जा शीतल होता है . इसे फालूदा में इस्तेमाल किया जाता है . इसे भिगाने से यह जैली की तरह फूल जाता है . इसे हम दूध या लस्सी के साथ थोड़ी देशी गुलाब की पंखुड़ियां डाल कर ले तो गर्मी में बहुत ठंडक देता है .इसके अलावा यह पाचन सम्बन्धी गड़बड़ी को भी दूर करता है तथा यह पित्त घटाता है |
ये त्रिदोषनाशक व क्षुधावर्धक है |

तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है

.
.. . श्रीकृष्ण कहते हैं-
"तुम पाँचों भाई वन में जाओ और जो कुछ भी दिखे वह आकर मुझे बताओ।
मैं तुम्हें उसका प्रभाव बताऊँगा।"
पाँचों भाई वन में गये।
युधिष्ठिर महाराज ने देखा कि किसी हाथी की दो सूँड है। यह देखकर आश्चर्य का पार न रहा।
अर्जुन दूसरी दिशा में गये। वहाँ उन्होंने देखा कि कोई पक्षी है, उसके पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं पर वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है. यह भी आश्चर्य है !
भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय ने बछड़े को जन्म दिया है और बछड़े को इतना चाट रही है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है।
सहदेव ने चौथा आश्चर्य देखा कि छः सात कुएँ हैं और आसपास के कुओं में पानी है किन्तु बीच का कुआँ खाली है। बीच का कुआँ गहरा है फिर भी पानी नहीं है।
पाँचवे भाई नकुल ने भी एक अदभुत आश्चर्य देखा कि एक पहाड़ के ऊपर से एक बड़ी शिला लुढ़कती- लुढ़कती आती और कितने ही वृक्षों से टकराई पर
उन वृक्षों के तने उसे रोक न सके। कितनी ही अन्य शिलाओं के साथ टकराई पर वह रुक न सकीं। अंत में एक अत्यंत छोटे पौधे का स्पर्श होते ही वह स्थिर हो गई।
पाँचों भाईयों के आश्चर्यों का कोई पार नहीं !
शाम को वे श्रीकृष्ण के पास गये और अपने अलग- अलग दृश्यों का वर्णन किया।
युधिष्ठिर कहते हैं-
"मैंने दो सूँडवाला हाथी देखा तो मेरे आश्चर्य का कोई पार न रहा।"
तब श्री कृष्ण कहते हैं-
"कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा जो दोनों ओर से शोषण करेंगे। बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ।
ऐसे लोगों का राज्य होगा। इससे तुम पहले राज्य कर लो।
अर्जुन ने आश्चर्य देखा कि पक्षी के पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं और पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है।
इसी प्रकार कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे जो बड़े- बड़े पंडित और विद्वान कहलायेंगे किन्तु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति कर जाये।
"संस्था" के व्यक्ति विचारेंगे कि कौन सा मनुष्य मरे और संस्था हमारे नाम से हो जाये।
हर जाति धर्म के प्रमुख पद पर बैठे विचार करेंगे कि कब किसका श्राद्ध है ?
चाहे कितने भी बड़े लोग होंगे किन्तु उनकी दृष्टि तो धन के ऊपर (मांस के ऊपर) ही रहेगी।
परधन परमन हरन को वैश्या बड़ी चतुर।
ऐसे लोगों की बहुतायत होगी, कोई कोई विरला ही संत पुरूष होगा।
भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय अपने बछड़े को इतना चाटती है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है।
-- कलियुग का आदमी शिशुपाल हो जायेगा। बालकों के लिए इतनी ममता करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा।
किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे....
किन्तु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोयेंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा ?
इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोहमाया और परिवार में ही बाँधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा। अंत में बिचारा अनाथ होकर
मरेगा।
वास्तव में लड़के तुम्हारे नहीं हैं, वे तो बहुओं की अमानत हैं. लड़कियाँ जमाइयों की अमानत हैं और तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है।
तुम्हारी आत्मा-परमात्मा की अमानत है । तुम अपने शाश्वत संबंध को जान लो बस !
सहदेव ने चौथा आश्चर्य यह देखा कि पाँच सात भरे कुएँ के बीच का कुआँ एक दम खाली !
कलियुग में धनाढय लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रूपये खर्च कर देंगे, परन्तु पड़ोस में ही यदि कोई भूखा प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं।
दूसरी और मौज-मौज में, शराब, कबाब, फैशन और व्यसन में पैसे उड़ा देंगे। किन्तु किसी के दो आँसूँ पोंछने में उनकी रूचि न होगी और जिनकी रूचि होगी उन पर कलियुग का प्रभाव नहीं होगा, उन पर भगवान का प्रभाव होगा।
पाँचवा आश्चर्य यह था कि एक बड़ी चट्टान पहाड़ पर से लुढ़की, वृक्षों के तने और चट्टाने उसे रोक न पाये किन्तु एक छोटे से पौधे से टकराते ही वह
चट्टान रूक गई।
कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा। यह पतित जीवन धन की शिलाओं से नहीं रूकेगा न ही सत्ता के वृक्षों से रूकेगा।
किन्तु हरिनाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे से मनुष्य जीवन का पतन होना रूक जायेगा ।

Tuesday 7 April 2015

भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं,

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं...

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ 
(गीता १४/३)

मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है। 

संसार यानि प्रकृति आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।

दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के द्वारा निर्मित होता है। 

सबसे पहले हमें बुद्धि तत्व के द्वारा अहंकार तत्व को जानना होता है, (अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं। शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता रहता है तो वह मिथ्या अहंकार(अवास्तविक स्वरूप) से ग्रसित रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये। 

जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में रहता है तो वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत अहंकार(वास्तविक स्वरूप) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं, जब पूर्ण चेतन स्वरूप परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता रहता है। 

श्री कृष्ण ही केवल एक मात्र पूर्ण चेतन स्वरूप भगवान हैं वह साकार रूप मैं पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, सभी ज़ड़ और चेतन रूप में दिखाई देने वाली और न दिखाई देने वाली सभी वस्तुयें भगवान श्री कृष्ण का अंश मात्र ही हैं। स्थूल तत्व रूप से साकार रूप में दिखाई देते हैं और दिव्य तत्व रूप से निराकार रूप में कण-कण में व्याप्त हैं।

भगवान तो स्वयं में परिपूर्ण हैं...... 

पूर्ण मदः, पूर्ण मिदं, पूर्णात, पूर्ण मुदचत्ये।
पूर्णस्य, पूर्ण मादाये, पूर्ण मेवावशिश्यते॥

जो परिपूर्ण परमेश्वर है, वही पूर्ण ईश्वर है, वही पूर्ण जगत है, ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण जगत सम्पूर्ण है। ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण ही निकलता है और पूर्ण ही शेष बचता है। यही परिपूर्ण परमेश्वर की यह पूर्णता ही पूर्ण विशेषता है।

संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, न तो स्थूल तत्व ही नष्ट होते हैं और न ही दिव्य तत्व नष्ट होते हैं, स्थूल तत्वों के मिश्रण से पदार्थ की उत्पत्ति होती है, पदार्थ ही नष्ट होते हुए दिखाई देते हैं, जबकि स्थूल तत्व नष्ट नहीं होते हैं इन तत्वों की पुनरावृत्ति होती है परन्तु जो चेतन तत्व आत्मा है वह हमेशा एक सा ही बना रहता है उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है।

जीव स्वयं में अपूर्ण है जव जीव आत्मा से संयुक्त होता है तब यह जीवात्मा कहलाता है। इससे सिद्ध होता है जीव ज़ड़ ही है और आत्मा जो कि भगवान का अंश कहलाता है अंश कभी भी अपने अंशी से अलग होकर भी कभी अलग नहीं होता है, इसलिये जो आत्मा कहलाता है वह वास्तव में परमात्मा ही है। 

*** उदाहरण के लिये ***

जिस प्रकार कोई भी शक्तिशाली मनुष्य अपनी शक्ति के कारण ही शक्तिमान बनता है, शक्ति कभी शक्तिमान से अलग नहीं हो सकती है उसी प्रकार भगवान शक्तिशाली हैं, और "अपरा और परा" भगवान की प्रमुख शक्तियाँ हैं इसलिये जीव भगवान से अलग नहीं है।

इस प्रकार जीव स्वयं भी अपना नहीं है तो स्थूल तत्वों से निर्मित कोई भी वस्तु हमारी कैसे हो सकती है जब इन वस्तुओं को हम अपना समझते हैं तो इसे "मोह"कहते हैं, मिथ्या अहंकार के कारण हम स्वयं की पहिचान स्थूल शरीर के रूप में करने लगते है और मोह के कारण शरीर से सम्बन्धित सभी वस्तुओं को अपना समझने लगते हैं। 

तब फिर प्रश्न उठता है कि संसार में अपना क्या है?

जीव का जीवन आत्मा और शरीर इन दो वस्तुओं के संयोग से चलता है, यह दोनों वस्तु जीव को ऋण के रूप में प्राप्त होती है, जीव को भगवान ने बुद्धि और मन दिये हैं। बुद्धि के अन्दर "विवेक" होता है और मन के अन्दर "भाव" की उत्पत्ति होती है। जब बुद्धि के द्वारा जानकर, मन में जो भाव उत्पन्न होता है उसे ही"स्वभाव = स्व+भाव" कहते हैं, यही भाव ही व्यक्ति का अपना होता है। इस स्वभाव के अनुसार ही कर्म होता है। 

आत्मा परमात्मा का ऋण है और शरीर प्रकृति का ऋण है, इन दोनों ऋण से मुक्त होना ही मुक्ति कहलाती है, इन ऋण से मुक्त होने की "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार केवल दो विधियाँ हैं। 

पहली विधि तो यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा आत्मा और शरीर अलग-अलग अनुभव करके, जीवन के हर क्षण में "भाव" के द्वारा आत्मा को भगवान को सुपुर्द करना होता है और शरीर को प्रकृति को सुपुर्द करना होता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "सांख्य-योग" कहा गया है।

दूसरी विधि यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा अपने कर्तव्य कर्म को "निष्काम भाव" से करते हुए कर्म-फलों को भगवान के सुपुर्द कर दिया जाता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "निष्काम कर्म-योग" या "भक्ति-योग" कहा गया है और इसी को"समर्पण-योग" भी कहते हैं।

जिस व्यक्ति को "सांख्य-योग" अच्छा लगता है वह पहली विधि को अपनाता है, और जिस व्यक्ति को"भक्ति-योग" अच्छा लगता है वह दूसरी विधि को अपनाता है। जो व्यक्ति इन दोनों विधियों के अतिरिक्त बुद्धि के द्वारा जो भी कुछ करता है, वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं हो पाता है, इन ऋण को चुकाने के लिये ही उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है। 

इन सभी अवस्था में कर्म तो करना ही पड़ता है और मनुष्य कर्म करने मे सदैव स्वतंत्र होता है, भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, क्योंकि किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप करने का विधि का विधान नहीं है।

इसलिये मनुष्य को न तो किसी कर्म में हस्तक्षेप करना चाहिये और न ही किसी के हस्तक्षेप करने से विचलित होना चाहिये, इस प्रकार अपनी स्थिति पर दृड़ रहने का अभ्यास करना चाहिये। 

जब कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्थान की इच्छा करता है, तब बुद्धि के द्वारा सत्य को जानकर सत्संग करने लगता है तो उस व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है, तब उसके मन में उस सत्य को ही पाने की लालसा उत्पन्न होती है। 

जब यह लालसा अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब मन में शुद्ध-भाव की उत्पत्ति होती है, तब उस व्यक्ति को सर्वज्ञ सत्य की अनुभूति होती है, यह शुद्ध-भाव मक्खन के समान अति कोमल, अति निर्मल होता है। 

बस यही मक्खन परम-सत्य स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है, इस शुद्ध-भाव रूपी मक्खन को चुराने के लिये भगवान स्वयं आते हैं। 

यही "कर्म-योग" का सम्पूर्ण सार है। यही मनुष्य जीवन का सार है। यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन की अन्तिम उपलब्धि है। यही मनुष्य जीवन की परम-सिद्धि है। इसे प्राप्त करके कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। यह उपलब्धि केवल मनुष्य जीवन में ही प्राप्त होती है।