Monday 29 June 2015

साधक का अंतिम पड़ाव यहीं है

आज्ञा चक्र जागृति से साधक को अनायास अनुपम बाकशक्ति प्राप्त होती है आत्म ज्ञान की उपाधि मिलती है । तथा और प्रगति पथ पर चन्द्र चक्र से अमृत पान कर अमरता सिद्ध होती है । इस मुद्रा में काकी मुद्रा करें तो साधक पवनहारी बनता है । भूख अत्यन्त कम लगते हुए वह अमृतपान , तब पबनाहार करता है । साधक द्वारा खेचरी मुद्रा सिद्ध करने पर तुरियातीत अवस्था में ध्यानस्थ समाधि लग जाती है । जिस पर किसी वातावरण का शरीर के ऊपर प्रभाव नहीँ होता है । विशेषतः साधक जब मुलबन्ध , उड्डियान बँध , तथा जालंधर बँध एक ही समय तीनो बँध लगाकर दीर्घ कुम्भक करते हैं तब इस आज्ञा चक्र में ब्रह्मग्रंथी का भेदन ब्रह्मांड दर्शन होकर आनँद प्राप्त होता है । और अभ्यास होने पर कुण्डलिनी शक्ति सुशुमना में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी होती है । और कंठ में विशुद्ध चक्र में स्थिति विष्णु ग्रंथी का भेदन होकर परमानंद की प्राप्ति होती है । और उत्तरोत्तर अभ्यास करने पर आज्ञा चक्र में स्थिति रुद्र ग्रंथी जागृत होने पर केबलानन्द की प्राप्ति होती है । जो कि साधक शव्दो में व्यक्त नहीँ कर सकता । और यहीं चेतना सहस्रागार में जाती है । तो साधक मुक्त हों जाता है । 
इस प्रकार उपरोक्त तीनो बँध लगा कर शाम्भबी मुद्रा में स्थिति आज्ञा चक्र की कुण्डलिनी जब सहस्रागार चक्र या ब्रह्म रंध्र में प्रवेश करती है तो यहाँ मुक्ती मोक्ष का द्वार खुल जाता है । इसे शून्य चक्र भी कहते हैं । इस सहस्रागार का तत्त्व सत्गुरु बीज मन्त्र सत्गुरु मुख से प्राप्त किया हुआ शब्द है । अर्थात साधक को गुरु मन्त्र का जाप करना आवश्यक है । यहाँ साधक को तुर्यातीत अवस्था आती है जब शून्य समाधि में वह लय हों जाता है । तब कुण्डलिनी जब कुण्डलिनी शक्ति इस भ्रमर गुफा में प्रवेश करती है । और ब्रह्मरंध्र खुल जाता है । जेसे ताली से ताला खुलता है । यहाँ वह साधक , वह योगेश्वर ब्रह्मांड - सृष्टि ज्ञान , परम ज्ञान , परमात्मा ज्ञान , परम तत्त्व को प्राप्त हों जाता है । इस साधक को सभी प्रकार की सिद्धियाँ , शक्तियां तथा शाश्वत ज्ञान प्रकाश प्राप्त होता है । वह यहाँ साम्प्रत समाधि - शून्य समाधि लगाकर अपना प्राण अपनी आत्मा को इस सहस्रागार चक्र में स्थिति करता है । और अमर पद पाता है । यहाँ साधक को प्रत्यक्ष शिव साक्षात्कार होता है । नाथ सिद्धों koकौ शिव का गुरु गोरखनाथ जी के रुप में साक्षात्कार होता है । यहाँ मोक्ष मुक्ती का परम पद प्राप्त होता है । यहाँ असंख्य मात्रका , परम गुरु तत्त्व , का सर्वोच्च स्थान में योगी स्थिति होजाता है । इस अवस्था को राज़योग , उन्मनि , मनोन्मयी , अजर अमर , अमरत्व , लय , लीन , अमन्स्क , अद्वित , निरालम्ब , निरालम्ब , निराकार , जीव मुक्ती आदि नामों seसे सम्बोधित करते हैं । साधक का अंतिम पड़ाव यहीं है 

Sunday 28 June 2015

साधक उस का पान करके अमरत्व प्राप्त करता है

साधक विशेषत: उज्जयी प्राणायाम का अभ्यास करता है जहाँ प्राण नाक से कंठ में और कंठ से हृदय से जाकर स्थिर किया जाता है यहाँ जालंधर बँध लगाने से मृत्यु बस में किया जाता है । वहि हृदय में संचित की हुई प्राण शक्ति भाव शक्ति और उदान वायु ब्यान वायुयों की शक्तियां संक्रमित होकर यहाँ महा भाव की शक्ति परिवर्तित होती है । क्योंकि यहाँ कुण्डलिनी शक्ति उदान वायु में संघर्ष करती है और यहाँ का विशुद्ध चक्र जागृत होता है । जब साधक जालंधर बँध लगा कर के ठोडी को वक्ष पर स्थिर करने पर कंठ मूल का निरोध होता है । और सहस्रागार का द्रवित अमृत नाभि स्थान सूर्य मुख में गिर कर भष्म होने से बचाते हैं । और साधक उस का पान करके अमरत्व प्राप्त करता है यहाँ ईडा पिंगला का भी निरोध हों जाता है । और कुण्डलिनी शक्ति सुषुमना में उर्ध्वरेता होकर प्रभाहित होती है । यहाँ साधक अमृत रस पीकर अमरत्व पाता है उसे भूख नहीँ सताती दूरी श्रवण सिद्धि आकाश गमन सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । जो गुरु गोरखनाथ जी को प्राप्त थी । 
साधक उज्जयी कुम्भक प्राणायाम तथा जालंधर बँध लगाते हुए मस्तक पर दोनो आँखो के भौंहों के बीच में ध्यान एकाग्र करें । यहाँ आज्ञा चक्र दो दलों बाला हं , क्षँ बीज अक्षरो से विद्यमान है । इसका तत्त्व बीज , ॐ , प्रणव है कर्म इंद्रिय आँखे होने के कारण आँखे बन्द करके शाम्भबी मुद्रा में ॐ कार प्रणव का अखण्ड जापएकाग्र होकर करना पड़ेगा । इस अभ्यास में प्रगति होने पर इस अभ्यास में प्रगति होने पर परा शक्ति रुप कुण्डलिनी शक्ति विशुद्ध चक्र से यहाँ प्रवेश करती है । यहाँ काया की पंचवायु शक्ति कार्य करती है । अत: यहाँ महाभाब शक्ति का चेतन शक्ति में परिवर्तन होता है । यहाँ साधक को शिव शक्ति का दर्शन होता है । तथा और अभ्यास प्रगति करने पर आत्म दर्शन ज्योति स्वरूप होता है । यहाँ साधक शीतल चन्द्र मंडल का ध्यान करने पर और सतत ध्यान करने पर साधक सम्पूर्ण शरीर स्वच्छ , पवित्र और शान्त स्थिर और सौम्यता को प्राप्त होता है । आज्ञा चक्र खुलने के लिये यह शाम्भबी मुद्रा अमृतमय सिद्ध होती है । शरीर के मूलाधार से लेकर सहस्रागार चक्र कमलों पर अन्तर मुख एकाग्र होने के लिये यह मुद्रा सिद्ध है । समस्त मन चित्त तथा प्राण का लय इस मुद्रा में होता है । यह शिव आदिनाथ साक्षात्कारी मुद्रा है । यह गुरु कृपा seसे सिद्ध होने पर शून्य अशून्य seसे परे साधक को लेजाती है ।

Saturday 27 June 2015

जीवन के लक्ष्य तक पहुंचना यूं तो कठिन नहीं है,

एक किसान के घर एक दिन उसका कोई परिचित
मिलने आया। उस समय वह घर पर नहीं था। उसकी
पत्नी ने कहा-'वह खेत पर गए हैं। मैं बच्चे को बुलाने के
लिए भेजती हूं। तब तक आप इंतजार करें।' कुछ ही देर में
किसान खेत से अपने घर आ पहुंचा। उसके साथ-साथ
उसका पालतू कुत्ता भी आया। कुत्ता जोरों से हांफ
रहा था। उसकी यह हालत देख, मिलने आए व्यक्ति ने
किसान से पूछा-'क्या तुम्हारा खेत बहुत दूर है?'
किसान ने कहा-'नहीं, पास ही है। लेकिन आप ऐसा
क्यों पूछ रहे हैं?' उस व्यक्ति ने कहा-'मुझे यह देखकर
आश्चर्य हो रहा है कि तुम और तुम्हारा कुत्ता दोनों
साथ-साथ आए, लेकिन तुम्हारे चेहरे पर रंच मात्र थकान
नहीं जबकि कुत्ता बुरी तरह से हांफ रहा है।' किसान
ने कहा-'मैं और कुत्ता एक ही रास्ते से घर आए हैं। मेरा
खेत भी कोई खास दूर नहीं है। मैं थका नहीं हूं। मेरा
कुत्ता थक गया है। इसका कारण यह है कि मैं सीधे
रास्ते से चलकर घर आया हूं, मगर कुत्ता अपनी आदत से
मजबूर है। वह आसपास दूसरे कुत्ते देखकर उनको भगाने के
लिए उसके पीछे दौड़ता था और भौंकता हुआ वापस
मेरे पास आ जाता था। फिर जैसे ही उसे और कोई
कुत्ता नजर आता, वह उसके पीछे दौड़ने लगता। अपनी
आदत के अनुसार उसका यह क्रम रास्ते भर जारी रहा।
इसलिए वह थक गया है।' देखा जाए तो यही स्थिति
आज के इंसान की भी है। जीवन के लक्ष्य तक पहुंचना यूं
तो कठिन नहीं है, लेकिन लोभ,मोह अहंकार और
ईर्ष्या जीव को उसके जीवन की सीधी और सरल राह
से भटका रही है। अपनी क्षमता के अनुसार जिसके
पास जितना है, उससे वह संतुष्ट नहीं। आज लखपति,
कल करोड़पति, फिर अरबपति बनने की चाह में उलझकर
इंसान दौड़ रहा है। अनेक लोग ऐसे हैं जिनके पास सब
कुछ है। भरा-पूरा परिवार, कोठी, बंगला, एक से एक
बढ़िया कारें, क्या कुछ नहीं है। फिर भी उनमें बहुत से
दुखी रहते हैं। बड़ा आदमी बनना, धनवान बनना बुरी
बात नहीं, बनना चाहिए। यह हसरत सबकी रहती है।
उसके लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होगी तो थकान नहीं
होगी। लेकिन दूसरों के सामने खुद को बड़ा दिखाने
की चाह के चलते आदमी राह से भटक रहा है और यह
भटकाव ही इंसान को थका रहा है। यह लक्ष्य
प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है। जीवन के सही लक्ष्य
को पाने को मिली ऊर्जा को आज का इंसान
बर्बाद करता जा रहा है। मोह,लोभ, अहंकार और
ईर्ष्या से बचकर लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में सीधे-
सीधे आगे बढ़ते रहे तो फिर एक दिन उसे मंजिल मिल
ही जाएगी। लेकिन इनके चक्कर में पड़ेगा तो वह थk
ही जाएगा। 

Thursday 25 June 2015

जिसके करने से पुण्य अर्जित होता है।

सभी शास्त्रों का अवलोकन करके उन पर पुनः पुनः विचार करके यही निश्चय होता है कि एक मात्र यही योग शास्त्र परममत रूप एवं श्रेष्ठ है। इसकी ठीक प्रकार से रचना हुई है। इसको जानने के लिए अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। क्योंकि (जब अन्य शास्त्र निरर्थक ही हैं तब) उनका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयोजन ही क्या है?

शिव जी कहते हैं कि मेरे द्वारा कहा गया यह योगशास्त्र गोपनीय है,इसलिए इसे तीनों लोकों में से केवल उसी को देना चाहिए,जो कि महात्मा और श्रेष्ठ भक्t
वेद के दो मत हैं-कर्मकांड और ज्ञानकांड। उनमें कर्मकांड और ज्ञानकांड दोनों के भी दो-दो भेद माने गए हैं। कर्मकांड के दो भागों को निषेध और विधि के नाम से जाना जाता है। निषेध कर्म के करने से अवश्य ही पाप होता है और विधि कर्म के कारण निश्चित रूप से पुण्य होता है।

विधि कर्म नित्य,नैमित्तिक और सकाम के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। नित्यकर्म अर्थात देव-पूजन, संध्या आदि इसके न करने से पाप होता है। सकाम कर्मफल की इच्छा से किया जाता है और नैमित्तिक कर्म अर्थात पर्व काल में तीर्थ आदि के पुण्यजलों में स्नान दान आदि है, जिसके करने से पुण्य अर्जित होता है।

दो प्रकार का फल माना जाता है। स्वर्ग और नरक। स्वर्ग और नरक दोनों ही अनेक प्रकार के होते हैं। पुण्य कर्म करने वाले को स्वर्ग और पाप कर्म करने वाले को नरक की प्राप्ति होती है। यह सृष्टि निश्चय ही कर्मबंधन से युक्त है, इसे अन्यथा नहीं समझना चाहिए। सृष्टि के कर्म बंधन का तात्पर्य यह है कि संसार में आकर मनुष्य जो कुछ कर्म या अकर्म करता है,जब तक उनके फल का भोग नहीं किया जाता और जब तक किंचित भी कर्म शेष रहता है,तब तक संसार के बंधन से छुटकारा नहीं मिलता।

स्वर्ग में जीव को अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव प्राप्त होता है और इसी प्रकार नरक में उसे अनेक प्रकार के दुःसहनीय दुखों को भोगना होता है। पाप कर्मों के करने से दुःख की और पुण्य कर्मों का करने से सुख की प्राप्ति है, इसलिए हमेशा पुण्य कर्म करने के लिए प्रयास करना चाहिए।

जैसे पाप का फल भोग लेने पर जीव को पुनः संसार में जन्म लेना होता है, वैसे ही पुण्य का फल भोगने पर भी पुनर्जन्म ग्रहण करना होता है। ऐसा अवश्य होता है, इसमें अन्यथा नहीं समझना चाहिए। स्वर्ग भी निश्चय ही दुःख का स्थान है, क्यों कि वहां परस्त्री का दर्शन (अप्सरा आदि का भोग) मिलता है, जिससे रागद्वेष ईर्ष्या आदि एवं इच्छित स्त्री के न मिलने से मानसिक व्यथा उत्पन्न होना स्वाभाविक है और यह सब दुःख रूप ही है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मनुष्य मुक्ति मार्ग को छोड़कर भवचक्र में ही भ्रमण करते रहते हैं।


केवल एक ज्ञान ही नित्य और आदि अन्त से रहित है। जगत में ज्ञान से भिन्न कोई अन्य वस्तु विद्यमान नहीं है। इंद्रियों की उपाधि के द्वारा जो कुछ पृथक-पृथक प्रतीत होता है, वह केवल ज्ञान की भिन्नता के कारण ही प्रतीत होता है। भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से मैंने यह योग का अनुशासन कहा है। सब भूतों की आत्मा मुक्तिदायक है। यह इस शास्त्र का लक्ष्य है जो मत विवादमय और दुर्ज्ञान के कारणरूप है, उनका त्याग करके आत्मज्ञान का आश्रय लें, यही भूतों की अनन्य गति है।
कोई विद्वान सत्य की प्रशंसा करते हैं तो कोई तपस्या की और कोई शुद्ध आचार को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कोई क्षमा को उचित मानते हैं तो कोई सब में समान भाव रखना ही ठीक बताते हैं। कोई सरलता का अनुमोदन करते हैं तो कोई दान की ही प्रशंसा किया करते हैं। कोई पितर कर्म (तर्पणादि) की महत्ता स्वीकार करते हैं । कोई कर्म अर्थात सगुण उपासना को ही मान्यता देते हैं। कुछों के मत में वैराग्य ही श्रेष्ठ है।

कोई विद्वान पुरुष गृहस्थ धर्म को प्रशंसनीय कहते हैं तो कोई परमज्ञानी अग्निहोत्र आदि कर्मों को ही प्रशस्त मानते हैं। किसी के मत में मंत्र योग ही श्रेष्ठ है और किसी के विचार में तीर्थ यात्रा आदि करना या तीर्थसेवन करना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अनेकानेक विद्वानों ने संसार सागर से मुक्त होने के लिए अपनी-अपनी मति के अनुसार अनेक उपाय बताए हैं।

इस प्रकार कृत्य और अकृत्य अर्थात विधि-निषेध कर्मों के ज्ञाता पुरुष पाप कर्मों से विमुक्त रहकर भी व्यामोह में ही पड़े रहते हैं तथा पाप-पुण्य के अनुष्ठान रूप उपयुक्त मतों के आश्रय में रहते हैं। परिणामस्वरूप अनुष्ठाता को जन्म-मरण के चक्र में बार-बार घूमते रहना होता है। इसका तात्पर्य यह है कि शुभ कर्मों के करने से चित्त की शुद्धि तो संभव है, परंतु मुक्ति मिल जाना संभव नहीं है।

कुछ विद्वान गोपनीय शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहना श्रेष्ठ बताते हैं। अनेकों का कहना है कि आत्मा नित्य और सर्वज्ञ गमन करने में समर्थ है। कुछ भी सत्य नहीं हैं। वे अपने दृढ़ चित्त से यही कहते हैं कि स्वर्गादि लोक हैं ही कहां? अर्थात स्वर्गादि लोक कहीं है ही नहीं। कुछ विद्वानों का मत है कि जो कुछ भी है, वह ज्ञान का प्रवाह ही है अर्थात संसार की सब दृश्यमान वस्तुएं ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। किसी किसी का निश्चय है कि जो कुछ है, वह शून्य ही है(यह शून्यवादियों का मत है) इसी प्रकार कुछ लोगों के विचार में प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व हैं।

जो परमार्थ के विरुद्ध है उनकी मति तो और भी भिन्न है। इस प्रकार अपनी अपनी मति के अनुसार मान्यता बनाए हुए लोग कर्मों में लगे रहते हैं। किन्हीं का कहना है कि ईश्वर है ही नहीं और किन्हीं का कहना है कि यह जगत प्रपंच ईश्वरमय ही है। इस भांति अनेक विद्वान अनेक भेदों का वर्णन करते हैं और अपने मत में दृढ़ता पूर्वक तत्पर रहते हैं अर्थात वे किसी अन्य मत की कोई बात भी सुनना चाहते ।

इस प्रकार अनेक मनुष्यों ने विभिन्न नाम वाले और पृथक पृथक विधि विधान वाले विविध मतों को लेकर शास्त्रों की रचना कर डाली है। परंतु ऐसे सभी शास्त्र लोकों को व्यामोह में डालने वाले हैं। अर्थात उन भिन्न भिन्न मत के शास्त्रों को पढ़ने से भ्रम उत्पन्न हो जाता है और साधक कुछ निश्चय करने में असमर्थ रहता है जिसके कारण जीवन समाप्त होने तक भी चित्त में भ्रांति बनी रहती है। परंतु ऐसे विवादशील पुरुषों का मत कहने की शक्ति हममें नहीं है, जिससे कि मनुष्य मुक्ति मार्ग को छोड़कर भवचक्र में ही भ्रमण करते रहते हैं।

Wednesday 24 June 2015

समयसे पहले न किसी को कुछ मिला है और न मिलेगा

एक सेठ जी थे -
जिनके पास काफी दौलत थी.
सेठ जी ने अपनी बेटी की शादी
एक बड़े घर में की थी.
:
परन्तु बेटी के भाग्य में सुख न होने के कारण
उसका पति जुआरी, शराबी निकल गया.
जिससे सब धन समाप्त हो गया.
बेटी की यह हालत देखकर सेठानी जी
रोज सेठ जी से कहती कि आप
दुनिया की मदद करते हो,
मगर अपनी बेटी परेशानी में होते हुए
उसकी मदद क्यों नहीं करते हो?
सेठ जी कहते कि "जब उनका
भाग्योदय होगा तो अपने आप
सब मदद करने को तैयार हो जायेंगे..."
:
एक दिन सेठ जी घर से बाहर गये थे
कि तभी उनका दामाद घर आ गया.
सास ने दामाद का आदर-सत्कार किया
और बेटी की मदद करने का विचार
उसके मन में आया कि क्यों न मोतीचूर के
लड्डूओं में अर्शफिया रख दी जाये...
यही सोचकर सास ने लड्डूओ के बीच में
अर्शफिया दबा कर रख दी और
दामाद को टीका लगा कर विदा करते समय
पांच किलों शुद्ध देशी घी के लड्डू,
जिनमे अर्शफिया थी दिये...
:
दामाद लड्डू लेकर घर से चला,
दामाद ने सोचा कि इतना वजन
कौन लेकर जाये क्यों न यहीं
मिठाई की दुकान पर बेच दिये जायें
और दामाद ने वह लड्डुओँ का पैकेट
मिठाई वाले को बेच दिया और
पैसे जेब में डालकर चला
गया.
:
उधर सेठ जी बाहर से आये तो उन्होंने
सोचा घर के लिये मिठाई की दुकान से
मोतीचूर के लड्डू लेता चलू और सेठ जी ने
दुकानदार से लड्डू मांगे...
मिठाई वाले ने वही लड्डू का पैकेट
सेठ जी को वापिस बेच दिया.
सेठ जी लड्डू लेकर घर आये..
:
सेठानी ने जब लड्डूओ का वही पैकेट देखा तो
सेठानी ने लड्डू फोडकर देखा,
अर्शफिया देख कर अपना माथा पीट लिया.
सेठानी ने सेठ जी को दामाद के
आने से लेकर जाने तक और लड्डुओं में
अर्शफिया छिपाने की बात कह डाली...
सेठ जी बोले कि
"भाग्यवान मैंनें पहले ही समझाया था
कि अभी उनका भाग्य नहीं जागा..."
देखा मोहरें ना तो दामाद के भाग्य में थी
और न ही मिठाई वाले के भाग्य में...
इसलिये कहते हैं कि भाग्य से ज्यादा
और...
समयसे पहले न किसी को कुछ मिला है
और न मिलेगा

Tuesday 23 June 2015

नाम आपका टेढ़ा- कृष्ण,


एक बार की बात है - वृंदावन का एक साधू अयोध्या की गलियों में राधे कृष्ण - राधे कृष्ण जप रहा था । अयोध्या का एक साधू वहां से गुजरा तो राधे कृष्ण राधे कृष्ण सुनकर उस साधू को बोला - अरे जपना ही है तो सीता राम जपो, क्या उस टेढ़े का नाम जपते हो ?

वृन्दावन का साधू भडक कर बोला - ज़रा जुबान संभाल कर बात करो, हमारी जुबान भी पान भी खिलाती हैं तो लात भी खिलाती है । तुमने मेरे इष्ट को टेढ़ा कैसे बोला ?

अयोध्या वाला साधू बोला इसमें गलत क्या है ? तुम्हारे कन्हैया तो हैं ही टेढ़े । कुछ भी लिख कर देख लो- 
उनका नाम टेढ़ा - कृष्ण
उनका धाम टेढ़ा - वृन्दावन

वृन्दावन वाला साधू बोला चलो मान लिया, पर उनका काम भी टेढ़ा है और वो खुद भी टेढ़ा है, ये तुम कैसे कह रहे हो ?

अयोध्या वाला साधू बोला - अच्छा अब ये भी बताना पडेगा ? तो सुन - 
जमुना में नहाती गोपियों के कपड़े चुराना, रास रचाना, माखन चुराना - ये कौन सीधे लोगों के काम हैं ? और आज तक ये बता कभी किसी ने उसे सीधे खडे देखा है कभी ?

वृन्दावन के साधू को बड़ी बेइज्जती महसूस हुई , और सीधे जा पहुंचा बिहारी जी के मंदिर । अपना डंडा डोरिया पटक कर बोला - इतने साल तक खूब उल्लू बनाया लाला तुमने । 
ये लो अपनी लुकटी, ये लो अपनी कमरिया, और पटक कर बोला ये अपनी सोटी भी संभालो ।
हम तो चले अयोध्या राम जी की शरण में ।
और सब पटक कर साधू चल दिये ।

अब बिहारी जी मंद मंद मुस्कुराते हुए उसके पीछे पीछे । साधू की बाँह पकड कर बोले अरे " भई तुझे किसी ने गलत भडका दिया है "

पर साधू नही माना तो बोले, अच्छा जाना है तो तेरी मरजी , पर ये तो बता राम जी सीधे और मै टेढ़ा कैसे ? कहते हुए बिहारी जी कूंए की तरफ नहाने चल दिये ।

वृन्दावन वाला साधू गुस्से से बोला -

" नाम आपका टेढ़ा- कृष्ण, 
धाम आपका टेढ़ा- वृन्दावन, 
काम तो सारे टेढ़े- कभी किसी के कपडे चुरा, कभी गोपियों के वस्त्र चुरा, 
और सीधे तुझे कभी किसी ने खड़े होते नहीं देखा। तेरा सीधा है किया"। 
अयोध्या वाले साधू से हुई सारी झैं झैं और बइज़्जती की सारी भड़ास निकाल दी।

बिहारी जी मुस्कुराते रहे और चुप से अपनी बाल्टी कूँए में गिरा दी । 
फिर साधू से बोले अच्छा चला जाइये, पर जरा मदद तो कर जा, तनिक एक सरिया ला दे तो मैं अपनी बाल्टी निकाल लूं ।

साधू सरिया ला देता है और कृष्ण सरिये से बाल्टी निकालने की कोशिश करने लगते हैं ।

साधू बोला अब समझ आइ कि तौ मैं अकल भी ना है।
अरै सीधै सरिये से बाल्टी भला कैसे निकलेगी ? 
सरिये को तनिक टेढ़ा कर, फिर देख कैसे एक बार में बाल्टी निकल आवेगी ।

बिहारी जी मुस्कुराते रहे और बोले - जब सीधापन इस छोटे से कूंए से एक छोटी सी बालटी नहीं निकाल पा रहा, तो तुम्हें इतने बडे भवसागर से कैसे पार लगा सकेगा ? 
अरे आज का इंसान तो इतने गहरे पापों के भवसागर में डूब चुका है कि इस से निकाल पाना मेरे जैसे टेढ़े के ही बस की है ।

Monday 22 June 2015

इसे प्राप्त करके कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है



भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ । 
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।
संसार यानि प्रकृति आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर बना है।
स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।
हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के द्वारा निर्मित होता है।
सबसे पहले हमें बुद्धि तत्व के द्वारा अहंकार तत्व को जानना होता है, (अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं। शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है।
जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता रहता है तो वह मिथ्या अहंकार (अवास्तविक स्वरूप) से ग्रसित रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।
जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में रहता है तो वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत अहंकार (वास्तविक स्वरूप) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका अज्ञान दूर होने लगता है।
इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।
भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता रहता है।
श्री कृष्ण ही केवल एक मात्र पूर्ण चेतन स्वरूप भगवान हैं वह साकार रूप मैं पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, सभी ज़ड़ और चेतन रूप में दिखाई देने वाली और न दिखाई देने वाली सभी वस्तुयें भगवान श्री कृष्ण का अंश मात्र ही हैं। स्थूल तत्व रूप से साकार रूप में दिखाई देते हैं और दिव्य तत्व रूप से निराकार रूप में कण-कण में व्याप्त हैं।
भगवान तो स्वयं में परिपूर्ण हैं......
पूर्ण मदः, पूर्ण मिदं, पूर्णात, पूर्ण मुदचत्ये।
पूर्णस्य, पूर्ण मादाये, पूर्ण मेवावशिश्यते॥
जो परिपूर्ण परमेश्वर है, वही पूर्ण ईश्वर है, वही पूर्ण जगत है, ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण जगत सम्पूर्ण है। ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण ही निकलता है और पूर्ण ही शेष बचता है। यही परिपूर्ण परमेश्वर की यह पूर्णता ही पूर्ण विशेषता है।
संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, न तो स्थूल तत्व ही नष्ट होते हैं और न ही दिव्य तत्व नष्ट होते हैं, स्थूल तत्वों के मिश्रण से पदार्थ की उत्पत्ति होती है, पदार्थ ही नष्ट होते हुए दिखाई देते हैं, जबकि स्थूल तत्व नष्ट नहीं होते हैं इन तत्वों की पुनरावृत्ति होती है परन्तु जो चेतन तत्व आत्मा है वह हमेशा एक सा ही बना रहता है उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है।
जीव स्वयं में अपूर्ण है जव जीव आत्मा से संयुक्त होता है तब यह जीवात्मा कहलाता है। इससे सिद्ध होता है जीव ज़ड़ ही है और आत्मा जो कि भगवान का अंश कहलाता है अंश कभी भी अपने अंशी से अलग होकर भी कभी अलग नहीं होता है, इसलिये जो आत्मा कहलाता है वह वास्तव में परमात्मा ही है।
*** उदाहरण के लिये ***
जिस प्रकार कोई भी शक्तिशाली मनुष्य अपनी शक्ति के कारण ही शक्तिमान बनता है, शक्ति कभी शक्तिमान से अलग नहीं हो सकती है उसी प्रकार भगवान शक्तिशाली हैं, और "अपरा और परा" भगवान की प्रमुख शक्तियाँ हैं इसलिये जीव भगवान से अलग नहीं है।
इस प्रकार जीव स्वयं भी अपना नहीं है तो स्थूल तत्वों से निर्मित कोई भी वस्तु हमारी कैसे हो सकती है जब इन वस्तुओं को हम अपना समझते हैं तो इसे "मोह" कहते हैं, मिथ्या अहंकार के कारण हम स्वयं की पहिचान स्थूल शरीर के रूप में करने लगते है और मोह के कारण शरीर से सम्बन्धित सभी वस्तुओं को अपना समझने लगते हैं।
तब फिर प्रश्न उठता है कि संसार में अपना क्या है?
जीव का जीवन आत्मा और शरीर इन दो वस्तुओं के संयोग से चलता है, यह दोनों वस्तु जीव को ऋण के रूप में प्राप्त होती है, जीव को भगवान ने बुद्धि और मन दिये हैं। बुद्धि के अन्दर "विवेक" होता है और मन के अन्दर "भाव" की उत्पत्ति होती है। जब बुद्धि के द्वारा जानकर, मन में जो भाव उत्पन्न होता है उसे ही "स्वभाव = स्व+भाव" कहते हैं, यही भाव ही व्यक्ति का अपना होता है। इस स्वभाव के अनुसार ही कर्म होता है।
आत्मा परमात्मा का ऋण है और शरीर प्रकृति का ऋण है, इन दोनों ऋण से मुक्त होना ही मुक्ति कहलाती है, इन ऋण से मुक्त होने की "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार केवल दो विधियाँ हैं।
पहली विधि तो यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा आत्मा और शरीर अलग-अलग अनुभव करके, जीवन के हर क्षण में "भाव" के द्वारा आत्मा को भगवान को सुपुर्द करना होता है और शरीर को प्रकृति को सुपुर्द करना होता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "सांख्य-योग" कहा गया है।
दूसरी विधि यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा अपने कर्तव्य कर्म को "निष्काम भाव" से करते हुए कर्म-फलों को भगवान के सुपुर्द कर दिया जाता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "निष्काम कर्म-योग" या "भक्ति-योग कहा गया है और इसी को "समर्पण-योग" भी कहते हैं।
जिस व्यक्ति को "सांख्य-योग" अच्छा लगता है वह पहली विधि को अपनाता है, और जिस व्यक्ति को "भक्ति-योग" अच्छा लगता है वह दूसरी विधि को अपनाता है। जो व्यक्ति इन दोनों विधियों के अतिरिक्त बुद्धि के द्वारा जो भी कुछ करता है, वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं हो पाता है, इन ऋण को चुकाने के लिये ही उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है।
इन सभी अवस्था में कर्म तो करना ही पड़ता है और मनुष्य कर्म करने मे सदैव स्वतंत्र होता है, भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, क्योंकि किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप करने का विधि का विधान नहीं है।
इसलिये मनुष्य को न तो किसी कर्म में हस्तक्षेप करना चाहिये और न ही किसी के हस्तक्षेप करने से विचलित होना चाहिये, इस प्रकार अपनी स्थिति पर दृड़ रहने का अभ्यास करना चाहिये।
जब कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्थान की इच्छा करता है, तब बुद्धि के द्वारा सत्य को जानकर सत्संग करने लगता है तो उस व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है, तब उसके मन में उस सत्य को ही पाने की लालसा उत्पन्न होती है।
जब यह लालसा अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब मन में शुद्ध-भाव की उत्पत्ति होती है, तब उस व्यक्ति को सर्वज्ञ सत्य की अनुभूति होती है, यह शुद्ध-भाव मक्खन के समान अति कोमल, अति निर्मल होता है।
बस यही मक्खन परम-सत्य स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है, इस शुद्ध-भाव रूपी मक्खन को चुराने के लिये भगवान स्वयं आते हैं।
यही "कर्म-योग" का सम्पूर्ण सार है। यही मनुष्य जीवन का सार है। यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन की अन्तिम उपलब्धि है। यही मनुष्य जीवन की परम-सिद्धि है। इसे प्राप्त करके कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। यह उपलब्धि केवल मनुष्य जीवन ही प्राप्त होती है।

हिन्दू धर्म में पंच सतियों का बड़ा महत्त्व है

पंच सती

हिन्दू धर्म में पंच सतियों का बड़ा महत्त्व है। ये पांचो
सम्पूर्ण नारी जाति के सम्मान की साक्षी मानी जाती
हैं। विशेष बात ये है कि इन पांचो स्त्रियों को अपने जीवन
में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और साथ ही
साथ समाज ने इनके पतिव्रत धर्म पर सवाल भी उठाए लेकिन
इन सभी के पश्चात् भी वे हमेशा पवित्र और पतिव्रत धर्म की
प्रतीक मानी गई। कहा जाता है कि नित्य सुबह इनके बारे
में चिंतन करने से सारे पाप धुल जाते हैं। आइये इनके बारे में कुछ
जानें।

अहल्या: ये महर्षि गौतम की पत्नी थी। देवराज
इन्द्र इनकी सुन्दरता पर रीझ गए और उन्होंने अहल्या
को प्राप्त करने की जिद ठान ली पर मन ही मन वे
अहल्या के पतिव्रत से डरते भी थे। एक बार रात्रि में
हीं उन्होंने गौतम ऋषि के आश्रम पर मुर्गे के स्वर में
बांग देना शुरू कर दिया। गौतम ऋषि ने समझा कि
सवेरा हो गया है और इसी भ्रम में वे स्नान करने
निकल पड़े। अहल्या को अकेला पाकर इन्द्र ने गौतम
ऋषि के रूप में आकर अहल्या से प्रणय याचना की और
उनका शील भंग किया। गौतम ऋषि जब वापस आये
तो अहल्या का मुख देख कर वे सब समझ गए। उन्होंने
इन्द्र को नपुंसक होने का और अहल्या को शिला में
परिणत होने का श्राप दे दिया। युगों बाद
श्रीराम ने अपने चरणों के स्पर्श से अहल्या को श्राप
मुक्त किया।

मन्दोदरी: मंदोदरी मय दानव और हेमा अप्सरा की
पुत्री, राक्षसराज रावण की पत्नी और इन्द्रजीत
मेघनाद की माता थी। पुराणों के अनुसार रावण के
विश्व विजय के अभियान के समय मय दानव ने रावण
को अपनी पुत्री दे दी थी। जब रावण ने सीता का
हरण कर लिया तो मंदोदरी ने बार बार रावण को
समझाया कि वो सीता को सम्मान सहित
लौटा दें। रावण की मृत्यु के पश्चात् मंदोदरी के करुण
रुदन का जिक्र आता है। श्रीराम के सलाह पर रावण
के छोटे भाई विभीषण ने मंदोदरी से विवाह कर
लिया था।

तारा: तारा समुद्र मंथन के समय निकली अप्सराओं
में से एक थी। ये वानरराज बालि की पत्नी और
अंगद की माता थी। रामायण में हालाँकि इनका
जिक्र बहुत कम आया है लेकिन ये अपनी बुधिमत्ता के
लिए प्रसिद्ध थीं। पहली बार बालि से हारने के
बाद जब सुग्रीव दुबारा लड़ने के लिए आया तो
इन्होने बालि से कहा कि अवश्य हीं इसमें कोई भेद है
लेकिन क्रोध में बालि ने इनकी बात नहीं सुनी और
मारे गए। बालि के मृत्यु के पश्चात् इनके करुण रुदन का
वर्णन है। श्रीराम की सलाह से बालि के छोटे भाई
सुग्रीव से इनका विवाह होता है। जब लक्षमण
क्रोध पूर्वक सुग्रीव का वध करने कृष्किन्धा आये तो
तारा ने हीं अपनी चतुराई और मधुर व्यहवार से
उनका क्रोध शांत किया।

कुन्ती: ये श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थी।
इनका असली नाम पृथा था लेकिन महाराज
कुन्तिभोज ने इन्हें गोद लिया था जिसके कारण
इनका नाम कुंती पड़ा। इनका विवाह भीष्म के
भतीजे और ध्रितराष्ट्र के छोटे भाई पांडू से हुआ।
विवाह से पूर्व भूलवश इन्होने महर्षि दुर्वासा के
वरदान का प्रयोग सूर्यदेव पर कर दिया जिनसे कर्ण
का जन्म हुआ लेकिन लोकलाज के डर से इन्होने कर्ण
को नदी में बहा दिया। पांडू के संतानोत्पत्ति में
असमर्थ होने पर उन्होंने उसी मंत्र का प्रयोग कर
धर्मराज से युधिष्ठिर, वायुदेव से भीम और इन्द्र से
अर्जुन को जन्म दिया। इन्होने पांडू की दूसरी
पत्नी माद्री को भी इस मंत्र की दीक्षा दी
जिससे उन्होंने अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव को
जन्म दिया।

द्रौपदी: ये पांचाल के राजा महाराज द्रुपद की
पुत्री, धृष्टधुम्न की बहन और पांचो पांडवो की
पत्नी थी। श्रीकृष्ण ने इन्हें अपनी मुहबोली बहन
माना। ये पांडवों के दुःख और संघर्ष में बराबर की
हिस्सेदार थी। पांच व्यक्तियों की पत्नी होकर
भी इन्होने पतिव्रत धर्म का एक अनूठा उदाहरण
प्रस्तुत किया। कौरवों ने इनका चीरहरण करने का
प्रयास किया और ये इनके पतिव्रत धर्म का हीं
प्रभाव था कि स्वयं श्रीकृष्ण को इनकी रक्षा के
लिए आना पड़ा। श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा
को इन्होने हीं पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी थी।
यही नहीं, जब पांडवों ने अपने शरीर को त्यागने
का निर्णय लिया तो उनकी अंतिम यात्रा में ये
भी उनके साथ थीं।

Saturday 20 June 2015

गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द

गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द ..
गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..
गुरु मेरा देऊ , अलख अभेऊ , सर्व पूज चरण गुरु सेवऊ
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..
गुरु का दर्शन .... देख - देख जीवां , गुरु के चरण धोये -धोये पीवां..
गुरु बिन अवर नही मैं ठाऊँ , अनबिन जपऊ गुरु गुरु नाऊँ
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..
गुरु मेरा ज्ञान , गुरु हिरदय ध्यान , गुरु गोपाल पुरख भगवान्
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..
ऐसे गुरु को बल-बल जाइये .. आप मुक्त मोहे तारें..
गुरु की शरण रहो कर जोड़े , गुरु बिना मैं नही होर
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..
गुरु बहुत तारे भव पार , गुरु सेवा जम से छुटकार
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..
अंधकार में गुरु मंत्र उजारा , गुरु के संग सजल निस्तारा
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..
गुरु पूरा पाईया बडभागी , गुरु की सेवा जिथ ना लागी
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत..

Friday 19 June 2015

यह उपलब्धि केवल मनुष्य जीवन ही प्राप्त होती है।


जय श्री कृष्णा....
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ । 
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।
संसार यानि प्रकृति आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर बना है।
स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।
हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के द्वारा निर्मित होता है।
सबसे पहले हमें बुद्धि तत्व के द्वारा अहंकार तत्व को जानना होता है, (अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं। शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है।
जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता रहता है तो वह मिथ्या अहंकार (अवास्तविक स्वरूप) से ग्रसित रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।
जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में रहता है तो वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत अहंकार (वास्तविक स्वरूप) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका अज्ञान दूर होने लगता है।
इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।
भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता रहता है।
श्री कृष्ण ही केवल एक मात्र पूर्ण चेतन स्वरूप भगवान हैं वह साकार रूप मैं पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, सभी ज़ड़ और चेतन रूप में दिखाई देने वाली और न दिखाई देने वाली सभी वस्तुयें भगवान श्री कृष्ण का अंश मात्र ही हैं। स्थूल तत्व रूप से साकार रूप में दिखाई देते हैं और दिव्य तत्व रूप से निराकार रूप में कण-कण में व्याप्त हैं।
भगवान तो स्वयं में परिपूर्ण हैं......
पूर्ण मदः, पूर्ण मिदं, पूर्णात, पूर्ण मुदचत्ये।
पूर्णस्य, पूर्ण मादाये, पूर्ण मेवावशिश्यते॥
जो परिपूर्ण परमेश्वर है, वही पूर्ण ईश्वर है, वही पूर्ण जगत है, ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण जगत सम्पूर्ण है। ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण ही निकलता है और पूर्ण ही शेष बचता है। यही परिपूर्ण परमेश्वर की यह पूर्णता ही पूर्ण विशेषता है।
संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, न तो स्थूल तत्व ही नष्ट होते हैं और न ही दिव्य तत्व नष्ट होते हैं, स्थूल तत्वों के मिश्रण से पदार्थ की उत्पत्ति होती है, पदार्थ ही नष्ट होते हुए दिखाई देते हैं, जबकि स्थूल तत्व नष्ट नहीं होते हैं इन तत्वों की पुनरावृत्ति होती है परन्तु जो चेतन तत्व आत्मा है वह हमेशा एक सा ही बना रहता है उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है।
जीव स्वयं में अपूर्ण है जव जीव आत्मा से संयुक्त होता है तब यह जीवात्मा कहलाता है। इससे सिद्ध होता है जीव ज़ड़ ही है और आत्मा जो कि भगवान का अंश कहलाता है अंश कभी भी अपने अंशी से अलग होकर भी कभी अलग नहीं होता है, इसलिये जो आत्मा कहलाता है वह वास्तव में परमात्मा ही है।
*** उदाहरण के लिये ***
जिस प्रकार कोई भी शक्तिशाली मनुष्य अपनी शक्ति के कारण ही शक्तिमान बनता है, शक्ति कभी शक्तिमान से अलग नहीं हो सकती है उसी प्रकार भगवान शक्तिशाली हैं, और "अपरा और परा" भगवान की प्रमुख शक्तियाँ हैं इसलिये जीव भगवान से अलग नहीं है।
इस प्रकार जीव स्वयं भी अपना नहीं है तो स्थूल तत्वों से निर्मित कोई भी वस्तु हमारी कैसे हो सकती है जब इन वस्तुओं को हम अपना समझते हैं तो इसे "मोह" कहते हैं, मिथ्या अहंकार के कारण हम स्वयं की पहिचान स्थूल शरीर के रूप में करने लगते है और मोह के कारण शरीर से सम्बन्धित सभी वस्तुओं को अपना समझने लगते हैं।
तब फिर प्रश्न उठता है कि संसार में अपना क्या है?
जीव का जीवन आत्मा और शरीर इन दो वस्तुओं के संयोग से चलता है, यह दोनों वस्तु जीव को ऋण के रूप में प्राप्त होती है, जीव को भगवान ने बुद्धि और मन दिये हैं। बुद्धि के अन्दर "विवेक" होता है और मन के अन्दर "भाव" की उत्पत्ति होती है। जब बुद्धि के द्वारा जानकर, मन में जो भाव उत्पन्न होता है उसे ही "स्वभाव = स्व+भाव" कहते हैं, यही भाव ही व्यक्ति का अपना होता है। इस स्वभाव के अनुसार ही कर्म होता है।
आत्मा परमात्मा का ऋण है और शरीर प्रकृति का ऋण है, इन दोनों ऋण से मुक्त होना ही मुक्ति कहलाती है, इन ऋण से मुक्त होने की "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार केवल दो विधियाँ हैं।
पहली विधि तो यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा आत्मा और शरीर अलग-अलग अनुभव करके, जीवन के हर क्षण में "भाव" के द्वारा आत्मा को भगवान को सुपुर्द करना होता है और शरीर को प्रकृति को सुपुर्द करना होता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "सांख्य-योग" कहा गया है।
दूसरी विधि यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा अपने कर्तव्य कर्म को "निष्काम भाव" से करते हुए कर्म-फलों को भगवान के सुपुर्द कर दिया जाता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "निष्काम कर्म-योग" या "भक्ति-योग कहा गया है और इसी को "समर्पण-योग" भी कहते हैं।
जिस व्यक्ति को "सांख्य-योग" अच्छा लगता है वह पहली विधि को अपनाता है, और जिस व्यक्ति को "भक्ति-योग" अच्छा लगता है वह दूसरी विधि को अपनाता है। जो व्यक्ति इन दोनों विधियों के अतिरिक्त बुद्धि के द्वारा जो भी कुछ करता है, वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं हो पाता है, इन ऋण को चुकाने के लिये ही उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है।
इन सभी अवस्था में कर्म तो करना ही पड़ता है और मनुष्य कर्म करने मे सदैव स्वतंत्र होता है, भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, क्योंकि किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप करने का विधि का विधान नहीं है।
इसलिये मनुष्य को न तो किसी कर्म में हस्तक्षेप करना चाहिये और न ही किसी के हस्तक्षेप करने से विचलित होना चाहिये, इस प्रकार अपनी स्थिति पर दृड़ रहने का अभ्यास करना चाहिये।
जब कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्थान की इच्छा करता है, तब बुद्धि के द्वारा सत्य को जानकर सत्संग करने लगता है तो उस व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है, तब उसके मन में उस सत्य को ही पाने की लालसा उत्पन्न होती है।
जब यह लालसा अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब मन में शुद्ध-भाव की उत्पत्ति होती है, तब उस व्यक्ति को सर्वज्ञ सत्य की अनुभूति होती है, यह शुद्ध-भाव मक्खन के समान अति कोमल, अति निर्मल होता है।
बस यही मक्खन परम-सत्य स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है, इस शुद्ध-भाव रूपी मक्खन को चुराने के लिये भगवान स्वयं आते हैं।
यही "कर्म-योग" का सम्पूर्ण सार है। यही मनुष्य जीवन का सार है। यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन की अन्तिम उपलब्धि है। यही मनुष्य जीवन की परम-सिद्धि है। इसे प्राप्त करके कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। यह उपलब्धि केवल मनुष्य जीवन ही प्राप्त होती है।

मैं आज रात इस सराय में रुकना चाहता हूं

एक राज्य में एक राजा रहता था जो बहुत घमंडी था । उसके घमंड के चलते आसपास के राज्य के राजाओं से भी उसके संबंध अच्छे नहीं थे । उसके घमंड की वजह से सारे राज्य के लोग उसकी बुराई करते थे । एक बार उस गांव से एक साधु महात्मा गुजर रहे थे । उन्होंने भी राजा के बारे में सुना और राजा को सबक सिखाने की सोची । साधु तेजी से राजमहल की ओर गए और बिना प्रहरियों से पूछे सीधे अंदर चले गए । राजा ने देखा तो वह गुस्से में भर गया । 

राजा बोला, ‘‘यह क्या उदंडता है महात्मा जी आप बिना किसी की आज्ञा के अंदर कैसे आ गए?’’ साधु ने विनम्रता से उत्तर दिया, ‘‘मैं आज रात इस सराय में रुकना चाहता हूं ।’’ राजा को यह बात बहुत बुरी लगी वह बोला, ‘‘महात्मा जी यह मेरा राज महल है कोई सराय नहीं, कहीं और जाइए ।’’साधु ने कहा, ‘‘हे राजा, तुमसे पहले यह राजमहल किसका था?’’ राजा, ‘‘मेरे पिता जी का’’ । साधु, ‘‘तुम्हारे पिता जी से पहले यह किसका था ।’’ राजा,‘‘मेरे दादा जी का ।’’ 

साधु ने मुस्कुरा कर कहा, ‘‘हे राजा जिस तरह लोग सराय में कुछ देर रहने के लिए आते हैं वैसे ही यह तुम्हारा राज महल भी है जो कुछ समय के लिए तुम्हारे दादा जी का था, फिर कुछ समय के लिए तुम्हारे पिता जी का था अब कुछ समय के लिए तुम्हारा है । कल किसी और का होगा । यह राज महल जिस पर तुम्हें इतना घमंड है यह एक सराय ही है जहां एक व्यक्ति कुछ समय के लिए आता है और फिर चला जाता है ।’’ साधु की बातों से राजा इतना प्रभावित हुआ कि सारा राजपाट, मान-सम्मान छोड़कर साधु के चरणों में गिर पड़ा और महात्मा जी से क्षमा मांगी और फिर कभी घमंड न करने की शपथ ली । 

Thursday 18 June 2015

6 महिने मे चमत्कार देखो

* बालोँ को कुदरती काले करने की दवा *
आज कल कम उम्र मेँ ही बाल पकने और सफेद होने लगते है। एक बहुत ही कारगर ईलाज बता rahi हूँ दोस्तोँ। इस दवाई को बना कर पूरा फायदा जरूर उठायेँ।
सामग्री :-
1. अरंडी का तेल 250 ग्राम
2. जैतून का तेल 50 ग्राम,
3. चन्दन कि लकड़ी का बारीक बुरादा 50 ग्राम
4. काँफी पाउडर (नेस्सले) 50 ग्राम।
5. बरगद के पेड़ कि एकदम ताजा पत्ती (बन्द वाली कोपल) 300 ग्राम
6. अम्बर बेल 300 ग्राम (जो हरे रंग के धागे कि तरह पेड़ के ऊपर मिलती है।)
(क्र. 1 से 4 की चीजेँ पंसारी एवँ 5,6 को गाँव देहात से ढूँढ कर लाना होगा।)
बनाने की विधि > दोनोँ तेलोँ को मिला कर हल्की आँच पर गर्म करेँ। फिर इस तेल मे सभी चीजेँ डाल लेवेँ और तब तक हिलाते रहेँ जब तक पूरी सामग्री काली होकर जल ना जायेँ। सावधानी रखना तेल तड़तड़ाता बहुत है। सभी चीजेँ जल जाने पर ठंडा करके तेल को बोतल मे भरकर रख लेवेँ।
प्रयोग की विधि > रोजाना 20 मिनिट तक उँगलियोँ के पोरौँ से इस तेल की मालिश सिर मे करेँ। तेल के नियमित प्रयोग से जो बाल सफेद हो गये है वो भी वापस जड़ से काले उगने लगेँगे।
परहेज > साबुन और सेम्पू का प्रयोग नही करेँ। सिर्फ रात मे भिगोई गयी मुल्तानी मिट्टी को सुबह 10 मिनिट सर मे साबुन की तरहा लगाकर सर धो लेवेँ।
कई लोगौँ को बता chuki हूँ। परिछित है आप भी लाभ उठायेँ।
ये दवाई मैनेँ मेरे छोटे भाई को प्रयोग करायी है। 100 % सकारात्मक परिणाम रहा है मित्रोँ। उपयोग करो और 6 महिने मे चमत्कार देखो।

Wednesday 17 June 2015

स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करते है।

रुद्राभिषेक : रूद्र अर्थात भूत भावन शिव का अभिषेक
शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।
शिव को ही रुद्र कहा जाता है
क्योंकि- रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं।
हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं।
रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे कुंडली से पातक कर्म एवं महापातक भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।
रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि-सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:अर्थात् :-
सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।
हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है।
साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं।
किसी खास मनोरथ कीपूर्ति के लिये तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक की जाती है।
रुद्राभिषेक के विभिन्न पूजन के लाभ इस प्रकार हैं-
• जल से अभिषेक करने पर वर्षा होती है।
• असाध्य रोगों को शांत करने के लिए कुशोदक से रुद्राभिषेक करें।
• भवन-वाहन के लिए दही से रुद्राभिषेक करें।
• लक्ष्मी प्राप्ति के लिये गन्ने के रस से रुद्राभिषेक करें।
• धन-वृद्धि के लिए शहद एवं घी से अभिषेक करें।
• तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
• इत्र मिले जल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है ।
• पुत्र प्राप्ति के लिए दुग्ध से और यदि संतान उत्पन्न होकर मृत पैदा हो तो गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें।
• रुद्राभिषेक से योग्य तथा विद्वान संतान की प्राप्ति होती है।
• ज्वर की शांति हेतु शीतल जल/गंगाजल से रुद्राभिषेक करें।
• सहस्रनाम-मंत्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है।
• प्रमेह रोग की शांति भी दुग्धाभिषेक से हो जातीहै।
• शक्कर मिले दूध से अभिषेक करने पर जडबुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।
• सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है।
• शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है।
• पातकों को नष्ट करने की कामना होने पर भी शहद से रुद्राभिषेक करें।
• गो दुग्ध से तथा शुद्ध घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
• पुत्र की कामनावाले व्यक्ति शक्कर मिश्रित जल से अभिषेक करें।ऐसे तो अभिषेक साधारण रूप से जल से ही होता है।
परन्तु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों मंत्र गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है।
विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत सेभी अभिषेक किया जाता है।
तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है।
इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत् अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत हीउत्तम फल देता है।
किन्तु यदि पारद के शिवलिंग काअभिषेक किया जाय तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है।
रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है।
वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की गयी है।
पुराणों में तो इससे सम्बंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है।
वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में तो बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काट कर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था।
जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।
भष्मासुर ने शिव लिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओ से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया।
रुद्राभिषेक करने की तिथियांकृष्णपक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, द्वादशी, अमावस्या, शुक्लपक्ष की द्वितीया, पंचमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथियों में अभिषेक करने से सुख-समृद्धि संतान प्राप्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
कालसर्प योग, गृहकलेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यो की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके अभीष्ट सिद्धि के लिए फलदायक है।
किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर अनुष्ठान अवश्य सफल होता है और मनोवांछित फल प्राप्त होता है।
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, अमावस्या तथा शुक्लपक्ष की द्वितीया व नवमी के दिन भगवान शिव माता गौरी के साथ होते हैं, इस तिथिमें रुद्राभिषेक करने से सुख-समृद्धि उपलब्ध होती है।
कृष्णपक्ष की चतुर्थी, एकादशी तथा शुक्लपक्ष की पंचमी व द्वादशी तिथियों में भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर होते हैं और उनकी अनुकंपा से परिवार मेंआनंद-मंगल होता है।
कृष्णपक्ष की पंचमी, द्वादशी तथा शुक्लपक्ष की षष्ठी व त्रयोदशी तिथियों में महादेव नंदी पर सवार होकर संपूर्ण विश्व में भ्रमण करते है।
अत: इन तिथियों में रुद्राभिषेक करने पर अभीष्ट सिद्ध होता है।
कृष्णपक्ष की सप्तमी, चतुर्दशी तथा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, पूर्णिमा में भगवान महाकाल श्मशान में समाधिस्थ रहते हैं।
अतएव इन तिथियों में किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाने वाले रुद्राभिषेक में आवाहन करने पर उनकी साधना भंग होती है जिससे अभिषेककर्ता पर विपत्ति आ सकती है।
कृष्णपक्ष की द्वितीया, नवमी तथा शुक्लपक्ष की तृतीया व दशमी में महादेव देवताओं की सभा में उनकी समस्याएं सुनते हैं।
इन तिथियों में सकाम अनुष्ठान करने पर संताप या दुख मिलता है।
कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी तथा शुक्लपक्ष की चतुर्थी व एकादशी में सदाशिव क्रीडारत रहते हैं।
इन तिथियों में सकाम रुद्रार्चन संतान को कष्ट प्रदान करते है।
कृष्णपक्ष की षष्ठी, त्रयोदशी तथा शुक्लपक्ष की सप्तमी व चतुर्दशी में रुद्रदेव भोजन करते हैं।
इन तिथियों में सांसारिक कामना से किया गया रुद्राभिषेक पीडा देते हैं।
ज्योर्तिलिंग-क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि-प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।
वस्तुत: शिवलिंग का अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका कृपापात्र बना देता है और उनकी सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं।
अतः हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से मनुष्य के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं।
स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करते है।
संसार में ऐसी कोई वस्तु, वैभव, सुख नही है जो हमें रुद्राभिषेक करने या करवाने से प्राप्त नहीं हो सकता हैॐ नमः शिवाय

Sunday 14 June 2015

अब मुझे कुछ नहीं देखना

सूरदास जी तो जन्म से अंधे थे पर भजन की महिमा तो देखो जब वो भजन करते थे तो बाल कृष्ण उनके सामने बैठकर उनका भजन सुनते थे ।
हम आँखों से देखकर भी भगवान को देख नहीं पाते और सूरदास जी अंधे होकर भी देख लेते थे।
एक बार वो भजन कर रहे थे तो वो भावराग में खो गए जिसमें कृष्णजी, राधा जी के साथ नृत्य कर रहे थे।
और तभी राधा जी की एक पायल गिर गई तो सूरदास जी ने वो पायल उठा ली।
भगवान कृष्ण ने कहा कि सूरदास जी..
जब राधा जी अपनी पायल मागने आए, 
तो आप उनके पैर पकड लेना।
जब राधा जी पायल मागॅने आई..
तो सूरदास जी ने पैर पकड लिए और कहा जब तक आप दोनों हमें दर्शन नहीं दोगें, मै पैर नहीं छोंडूगा।
दोनो ने उन्हें दर्शन दिए और मन की आखें तो थी ही उनके पास उन्हें दृष्टि भी प्रदान की और जब वो दर्शन देकर जाने लगी, तो सूरदास जी ने कहा-
कि ये आखें तो ले जाओ।
तब राधा जी ने कहा - कि आप जन्म से अंधे हो अब आप को दुनिया नहीं देखनी है क्या ?
तो उन्हेाने कहा मैने आपको देख लिया अब मुझे कुछ नहीं देखना।।
हम आंखे होते हुऐ भी नहीं देख पा रहे और उन्होने अंधे होकर भी देख लिया।
जिसके भजन में जैसी ताकत होगी बाके बिहारी वैसे ही प्रकट होगें..
भजन की उम्र नहीं होती है।
जिसने बचपन में, जवानी मे भजन नहीं किया,
वो कहे कि मै बुढापे में भजन करूगा तो भगवान
भी कहते है कि जैसे तुम मुझे ये अपने जीवन का बचा हुआ समय दे रहे हो, वो भी अपने साथ वैसे ही करेगे.
क्येांकि जो भक्त भगवान को जैसे भजता है भगवान भी उसको वैसा ही देते है।
.
और जब व्यक्ति का बुरा होता है तो भगवान को कोसता है । 
वो ये भूल जाता है, कि क्या हमनें भगवान का भजन किया था।
पहले खुद से ही प्रश्न कर लो क्योकि जब तक वो व्यक्ति भजन नहीं करेगा तो बाके बिहारी कैसे आएगें ।
हरिदास जी थे जिन्होंने अपनी संगीत साधना से भगवान को प्रकट कर लिया था कैसे प्रकट कर लिया उनके
भजन में शक्ति थी।
जैसे उन्होने वो राग गाया, और भगवान राधा जी के साथ
प्रकट हो गए ।
तो हमें देखना है हमारे भजन में कितनी शक्ति है ।

Saturday 13 June 2015

मैं कृष्ण का चिंतन करता हूँ

एक दिन सुबह पार्क में हरिनाम जप करते समय एक जानकार बूढ़े व्यक्ति ने व्यंगात्मक लहजे में कहा,"बेटा ये उम्र माला करने की नहीं मेहनत करके खाने कमाने और जिम्मेदारी उठाने की है।
ये काम तो फिलहाल बुढ़ापे के लिए छोड़ दो।"
मैंने पूछा,"आप कितनी माला करते हैं ?"
वो सकपकाकर बोले,"मैं नहीं करता मैं तो अपने जीवन से संतुष्ट हूँ। "
मैंने कहा,"संतुष्ट तो गधा भी होता है जीवन से क्योंकि वो जानता ही नहीं की संतुष्टि का अर्थ क्या है। वो सोचता है की दिन भर मेहनत करके शाम को २ सूखी रोटी मिल जाना ही संतुष्टि है।
उसको नहीं पता की अगर वो मालिक के चुंगल से निकल जाए तो सारे हरे भरे मैदान उसके लिए मुफ्त उपलब्ध हैं। इसलिए गधे सामान व्यक्ति ही बिना भक्ति के जीवन में संतुष्टि महसूस कर सकता है।
क्योंकि उसको नहीं पता कि जन्म मृत्यु बुढ़ापे और बीमारियों से लैस इस भौतिक जीवन से परे एक नित्य शाश्वत जीवन भी है जहाँ हमारा परम पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण से सीधा सम्बन्ध है और वहां जन्म मृत्यु बुढ़ापा और बीमारियां भी नहीं होते।
वो जाने लगे तो मैंने पुकार कर कहा बाबा जी," बुढ़ापे तक जीवित रहेंगे इसका कोई गारंटी कार्ड तो है नहीं और जब जवानी में भगवान में मन नहीं लगाया तो बुढ़ापे में कैसे मन लगेगा ?
और रही बात खाने कमाने की तो भक्त लोग कर्म से नहीं भागते वे तो उल्टा एक आम नागरिक से ज्यादा कर्मशील होते हैं क्योंकि वो सबसे बड़े समाज-सेवी होते हैं। वो खुद का जन्म भी सार्थक करते हैं और दूसरों का भी मार्ग दर्शन करते हैं।
मैं कृष्ण का चिंतन करता हूँ और वो मेरे जीवन यापन का चिंतन करेंगे यह पूर्ण विश्वास है मुझे।

Thursday 11 June 2015

सभी कार्य भगवान की भक्ति ही होते हैं


१. जब हम स्वयं के सुख की कामना करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम दूसरों के सुख की कामना करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
२. जब हम दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
३. जब हम स्वयं को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम भगवान को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
४. जब हम दूसरो को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
५. जब हम दूसरों के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
६. जब हम दूसरों को समझाने के भाव से कुछ भी कहते या लिखते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के समझने के भाव से कहते या लिखते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
७. जब हम संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझकर स्वयं के लिये उपभोग करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम संसार की सभी वस्तुओं को भगवान की समझकर भगवान के लिये उपयोग करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
ज्ञानी अवस्था में किये गये सभी कार्य भगवान की भक्ति ही होते हैं।

Monday 8 June 2015

1. अपने प्रवेश द्वार पर 2 इंच ऊँची दहलीज लगवाएँ।
यह दहलीज लकड़ी की ही हो।
2. प्रवेश स्थल को साफ-सुथरा एवं ठीक रखें।
3. प्रवेश द्वार के सामने बाथरूम का दरवाजा न दिखे,
अगर ऐसा हो तो प्रयास करें कि उसका दरवाजा
दूसरी तरफ खुले अथवा उसके दरवाजे पर बाँस की चिक
का पर्दा लगाएँ।
4. घर के अंदर दरवाजे के सामने कचरे का ‍डिब्बा न रखें।
5. घर के किसी भी कोने में अथवा मध्य में जूते-चप्पल
(मृत चर्म) न रखें।
6. जूतों के रखने का स्थान घर के प्रमुख व्यक्ति के कद
का एक चौथाई हो, उदाहरण के तौर पर 6 फुट के
व्यक्ति (घर का प्रमुख) के घर में जूते-चप्पल रखने का
स्थल डेढ़ फुट से ऊँचा न हो।
7. द्वार के बाहर दरवाजे के दोनों तरफ प्रमुख व्यक्ति
की आँखों की सतह की ऊँचाई पर काले स्वस्तिक
बनाएँ, जिससे नेगेटीव आकाशीय एनर्जी घर में प्रवेश न
कर सके।
8. द्वार के सामने खाली दीवार हो तो काँच के
कटोरे को ताजे फूलों से भरकर रखें।
9. बैठक के कमरे में द्वार के सामने की दीवार पर दो
सूरजमुखी के या ट्यूलिप के फूलों का चित्र लगाएँ।
10. घर के बाहर के बगीचे में दक्षिण-पश्चिम के कोने
को सदैव रोशन रखें।
- तीन व्यक्तियों की एक सीध में एकाकी फोटो हो
तो घर में न रखें।
- फोटो कभी भी टाँगें नहीं।
- अगर दीवार पर फोटो लगानी हो तो उसके नीचे
एक लकड़ी की पट्टी लगाएँ, अर्थात वह फोटो
लकड़ी के पट्टे पर टिकें।
- बाथरूम की ओर न हो।
- प्रमुख द्वार की ओर कदापि न हो।
- सीढ़ियों की ओर न दिखे।
- तलघर में कभी भी परिवार के सदस्यों की अथवा
ईश्वर की फोटो न लगाएँ।
- उपहार में आई कैंची अथवा चाकू न रखें। चाहे मायके
से ही क्यों न आई हो।
- उत्तर-पश्चिम में तेज रोशनी का बल्ब न लगाएँ।
- कैक्टस तथा अन्य काँटे के पौधे घर में न रखें।
- धुले कपड़े पूरी रात घर के बाहर न रखें।
- धुलने के लिए खोले हुए कपड़े इधर-उधर न डालें,
व्यवस्थित किसी स्थान पर ढँक कर रखें।
उत्तर-पूर्व में संसार का नक्शा अथवा ग्लोब रखें।
- पूरब तथा उत्तर में नीले तथा बैंगनी फूल सजाएँ।
- पश्चिम में सफेद फूल रखें।
- दक्षिण में पीले-लाल फूल रखें।
- कमरों के द्वार के सामने बिस्तर न लगाएँ।
- रसोई में पानी कभी भी न टपके इसका ध्यान रखें।
- कार्यालय में आपके कार्यशील हाथ की ओर
टेलीफोन रखने से आपको सहायता मिलेगी।
- कार्यशील हाथ की ओर कागजों का ढेर न लगाएँ।
- टेबल के नीचे कचरे की टोकरी न रखें, यह आपके चमकते
प्रभामंडल में व्यावधान डालती है।
- कार्यस्थल में अपने बैठने की कुर्सी के पीछे कोई
सामान न रखें तथा कोई खिड़की न रखें।
- नाखूनों को जल में बहाएँ।

Saturday 6 June 2015

घर के कलह मिटकर सुख-शांति स्थापित होती है

यह प्रयोग एक तीब्र प्रभाव कारी प्रयोग है जिसे पूर्ण करने से हनुमान की कृपा प्राप्त होती है और यदि घर में भूत-प्रेत-पिशाच आदि का प्रकोप हो या घर में उपद्रव होते हों ,घर में लड़ाई -झगडा -असंतोष हो ,कलह ,मार-पीट होती हो ,नकारात्मक ऊर्जा का असर हो तो सब समस्याएं समाप्त हो जाती हैं और सकारात्मक उर्जा का संचार होता है |
आवश्यक सामग्री := मंत्र सिद्ध चैतन्य प्राण प्रतिष्ठित पारद हनुमान मूर्ती ,मंत्र सिद्ध चैतन्य प्रतिष्ठित मूंगे की माला ,जल पात्र ,तेल का दीपक ,धुप-अगरबत्ती ,गुड आदि |
मंत्र :- ॐ घंटाकर्णो महावीर सर्व उपद्रव नाशन कुरु कुरु स्वाहा |
विधि =किसी भी मंगलवार की रात्री को स्नान कर लाल धोती पहनकर, लाल ऊनि आसन पर पश्चिम दिशा की और मुखकर बैठे ,अपने सामने चौकी या बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर किसी पात्र में प्राण प्रतिष्ठित पारद हनुमान की मूर्ति को स्थापित करे |सर्वप्रथम हनुमान जी को सनान कराकर उनकी पूजा करें ,सिन्दूर का तिलक करें और गुड का भोग लगायें ,फिर लाल मंत्र सिद्ध चैतन्य मूंगे की माला से मंत्र जप करें ,,मंत्र नित्य २१०० की संख्या में होना चाहिए अर्थात इक्कीस माला नित्य ,यह क्रम ११ दिनों तक अनवरत चलता रहेगा ,अंतिम दिन अथवा उसके अगले दिन २१०० की संख्या में हवन करें और किसी बालक को भोजन कराकर उसे लाल वस्त्र दान दें ,ऐसा करने से यह प्रयोग सिद्ध हो जायेगा और यदि घर में किसी प्रकार का उपद्रव-अशांति है तो उसका शमन होगा |प्रयोग समाप्त होने पर हनुमान की मूर्ति को पूजा स्थान में स्थापित कर दें और रोज पूजा करते रहें |यह प्रयोग सफल एवं सिद्ध है ,इससे घर के कलह मिटकर सुख-शांति स्थापित होती है ,सकारात्मक उर्जा का प्रवाह बढ़ता है और उन्नति होती है 

Tuesday 2 June 2015

जो तू कहे सब स्वीकार

स्मरण रखना कि जब कोई आयकर अधिकारी अथवा बिक्री-कर अधिकारी जब हमारे व्यापार के हमारे ही द्वारा रखे गये खातों को पकड़ लेता है तो कैसा भय होता है ? उससे बचने के लिये कहाँ-कहाँ भागे-भागे नहीं फ़िरते, किस-किस से अपनी सिफ़ारिश नहीं करवाते। एक वर्ष के पकड़े गये खातों पर लगे जुर्माने को अदा करने तक वर्षों लग जाते हैं और सदैव स्मृति बनी रहती है।
तो अब चिंतन करना है कि इस अमूल्य जीवन का जब श्रीहरि हिसाब माँगेगे तो क्या देंगे ? श्रीहरि ने जीवन दिया, सारी आवश्यकताओं की पूर्ति की, पग-पग पर अनेक रुपों द्वारा प्रत्यक्ष सहायता की। हमने क्या किया ? अपने ही जीवन के लेखे-जोखे में गड़बड़ी के अतिरिक्त !
लोकश्रुति है कि हमारे कर्मों का हिसाब-किताब, महाराज चित्रगुप्त रखते हैं परन्तु दास का व्यक्तिगत मत है कि वे कम से कम हम जैसों का लेखा-जोखा रखने जैसा तिरस्कृत कृत्य कैसे कर सकते हैं सो अब यह भार भी हम पर ही है। हमारे स्वभाव को जानने के कारण श्रीहरि कहते हैं कि यहाँ कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जाता है। तू मेरा है सो मुझे तेरा विश्वास है अत: तू मुझे अपना जो भी हिसाब-किताब दिखायेगा, मैं उसे स्वीकार कर लूँगा और तदनुरुप ही तेरे कर्मों के बारे में निर्णय लिया जायेगा ताकि तुम यह न कह सको कि प्रभु, आपके यहाँ तो गड़बड़ चल रही है, ऐसे कर्म तो कभी भी मैंने किये ही नहीं !
सूक्ष्म बात के लिये आज की तकनीक की सहायता लेना चाहता हूँ। मृत्यु के बाद जब सूक्ष्म शरीर जाता है तो इसके साथ सूक्ष्म "पेनड्राइव" भी जाती है, जिसमें हमारे सभी कृत्यों की पूरी "रिकार्डिंग" होती है। हम अपने जीवन में जो भी कर रहे हैं, उसे हम ही रिकार्ड भी करते हैं और यही कारण है कि मृत्यु-पूर्व, हमारे जीवन की पूरी फ़िल्म एक बार हम पुन: देखते हैं क्योंकि अब समय आ गया है कि हमें इसका जबाब देना है। चित्रगुप्त महाराज तो यही कहते हैं कि -"लाओ भैया ! तुम स्वयं द्वारा लिखे गये रिकार्ड ही हमें दे दो ताकि तुम्हारे बारे में उचित निर्णय लिया जा सके"। कैसी अदभुत प्रणाली ! जो तू कहे सब स्वीकार !
जीव अपने ही जाल में फ़ँस जाता है, अब क्या कहे ? किस पर आक्षेप लगावे ? जीवन का काला खाता, स्वयं ही लेकर प्रस्तुत हो गया ! सोचा था कि अपनी तीक्ष्ण-बुद्दि से उनके खातों में कमी निकाल दूँगा, इन्होंने तो निरुत्तर ही कर दिया ! कैसे कहूँ कि मेरे द्वारा लाया गया ये हिसाब गलत है। हाय ! किसी ने बताया होता कि हम अपना "स्टिंग-आपरेशन" स्वयं ही करते रहते हैं ! मजा तो यह है कि पुण्य कार्यों की रिकाडिंग तो एक बार ही होती है पर चूँकि पाप करने के बाद भी भय से बार-बार स्मरण होता है सो उसकी रिकाडिंग भी बार-बार होने से अमिट हो जाती है। "पेनड्राइव" खराब होने पर भी "पाप" का "डाटा" रिकवर हो ही जाता है।
हे नाथ ! ऐसी कृपा हो कि जीव-मात्र को यह समझ आ जावे कि उसे क्या करना है। आज तक जो भूल हुयी सो हुयी, अब न होने पावे और जब तुम "हियरिंग" के लिये बुलाओ तो प्रेम से, आनन्द से भरकर मैं, तुम्हारे पास आऊँ। तुम्हारे चरणों में पड़ा, नेत्र उठाकर तुम्हें निहार सकूँ और भीतर यह विश्वास हो कि दास, तुम्हारी ही कृपा से, तुम्हारे प्रेम और विश्वास पर किंचित तो खरा उतर सका।

Monday 1 June 2015

अहं है तो दीनता असंभव है

प्रभु अपने निज जन का बहुत ही ख्याल करते है | पुष्टि जीव पर कृपा जब बरसनी शुरू होती है तो कई प्रकार से उसकी अनुभूति होती है | गौर से देखे तो पता चले | कभी अपनी खुद की जिंदगी की परछाई से बहार निकलकर साक्षी भाव से अपने ही ही जीवन में घटित घटना पर ध्यान ही नहीं देते , इसलिए पता कैसे चले |
जब खुद अहं के बंदी है तो दृढ आश्रय प्रभु का कैसे सिद्ध हो ? श्री वल्लभ प्रभु की कृपा से दीनतापूर्वक ही प्रभु का शरण प्राप्त हो सकता है | दीनता और अहं का ताल मेल हो ही नहीं सकता | अहं है तो दीनता असंभव है | ऐसी परिस्थिति में प्रभु कृपा करके अहं मिटाने के लिए जो भी लौकिक सुख में मोह है वह हटाना शुरू करते है | प्रभु चाहते है , इन लौकिक सुख में से बहार निकलकर जीव उनकी और कदम बढ़ाये | ये प्रभु की कृपा नहीं तो और क्या है | हम भाग्यशाली है की प्रभु की इतनी बड़ी कृपा होती है |
अपने अहं का आश्रय करने के बावजूद जब सारे पैतरे नाकाम सिद्ध होते है , अपनों से सम्बन्धो में कड़वाहट पैदा हो जाती है , जिसे अपना मानते है वो स्वार्थ के पुतले प्रतीत होने लगते है | यह बात बोलनी जितनी आसान है उतनी है नहीं | इसमें भी प्रभु की कृपा ही कारण है | यह सब रात ही रात में संभव नहीं | यह प्रक्रिया निरंतर चलती है , प्रभु हमे उनके करीब लाना चाहते है | हमारा ध्यान इस बात पर जितना जल्दी आ जाये उतना श्रम प्रभु को कम पड़ता है | प्रभु श्रम उठाते है , हमे अपनी और खीचने |
१ बार जब मन में दृढ विश्वास हो जाये कि मेरी खुद की कोई हैसियत ही नहीं , मै कुछ नहीं कर सकता , सारे दाव उलटे पड़ने लगे , तब जाके प्रभु की और हम मुड़ते है | जो भी आश्रय के रास्ते थे वे सारे टेस्ट कर लिए , सारे के सारे बेकार साबित हो चुके , तब जाके प्रभु की और आश्रय के लिए मुड़ते है | यकीन हो गया की प्रभु के अलावा और कुछ काम नहीं आना है , तब प्रभु का आश्रय सिद्ध होता है | अहं का मिटना ही दीनता का स्वरूप है | जैसे जैसे अहं की मात्रा कम होती जाती है , उसके बराबर मात्रा में दीनता बढ़ती जाती है | जैसे जैसे दीनता बढ़ती जाती है , प्रभु का आश्रय दृढ आश्रय में परिवर्तित होता जाता है |
हम पुष्टि जीव इतने भाग्यशाली है की आज के इस युग में भी हमे श्री महाप्रभुजी , श्री गुंसाईजी और सारे श्री वल्लभकुल प्रभु की कृपा से अपने ही घर में कोटि कोटि ब्रह्माण्डनायक , गोलोकधाम के स्वामी की सेवा प्राप्त हुइ है |
इसे प्रभु की कृपा नहीं तो और क्या कह सकते है ?