Friday 27 February 2015

तो बहुत बड़ी घटना घट सकती है


ध्यान की शुरुआत के पूर्व की क्रिया- 'मैं क्यों सोच रहा हूं' इस पर ध्यान दें।' हमारा 'विचार' भविष्य और अतीत की हरकत है। विचार एक प्रकार का विकार है। वर्तमान में जीने से ही जागरूकता जन्मती है। भविष्य की कल्पनाओं और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।
स्टेप- 1 : ध्यान शुरू करने से पहले आपका रेचन हो जाना जरूरी है अर्थात आपकी चेतना (होश) पर छाई धूल हट जानी जरूरी है। इसके लिए चाहें तो कैथार्सिस या योग का भस्त्रिका, कपालभाति प्राणायाम कर लें। आप इसके अलावा अपने शरीर को थकाने के लिए और कुछ भी कर सकते हैं।
स्टेप : शुरुआत में शरीर की सभी हलचलों पर ध्यान दें और उसका निरीक्षण करें। बाहर की आवाज सुनें। आपके आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर गौर करें। उसे ध्यान से सुनें।
स्टेप : फिर धीरे-धीरे मन को भीतर की ओर मोड़े। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर चुपचाप गौर करें। इस गौर करने या ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही चित्त स्थिर होकर शांत होने लगेगा। भीतर से मौन होना ध्यान की शुरुआत के लिए जरूरी है।
स्टेप : अब आप सिर्फ देखने और महसूस करने के लिए तैयार हैं। जैसे-जैसे देखना और सुनना गहराएगा आप ध्यान में उतरते जाएंगे।
ध्यान की शुरुआती विधि : प्रारंभ में सिद्धासन में बैठकर आंखें बंद कर लें और दाएं हाथ को दाएं घुटने पर तथा बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखकर, रीढ़ सीधी रखते हुए गहरी श्वास लें और छोड़ें। सिर्फ पांच मिनट श्वासों के इस आवागमन पर ध्यान दें कि कैसे यह श्वास भीतर कहां तक जाती है और फिर कैसे यह श्वास बाहर कहां तक आती है। पूर्णत: भीतर कर मौन का मजा लें। मौन जब घटित होता है तो व्यक्ति में साक्षी भाव का उदय होता है। सोचना शरीर की व्यर्थ क्रिया है और बोध करना मन का स्वभाव है।
ध्यान की अवधि : उपरोक्त ध्यान विधि को नियमित 30 दिनों तक करते रहें। 30 दिनों बाद इसकी समय अवधि 5 मिनट से बढ़ाकर अगले 30 दिनों के लिए 10 मिनट और फिर अगले 30 दिनों के लिए 20 मिनट कर दें। शक्ति को संवरक्षित करने के लिए 90 दिन काफी है। इसे जारी रखें।
सावधानी : ध्यान किसी स्वच्छ और शांत वातावरण में करें। ध्यान करते वक्त सोना मना है। ध्यान करते वक्त सोचना बहुत होता है। लेकिन यह सोचने पर कि 'मैं क्यों सोच रहा हूं' कुछ देर के लिए सोच रुक जाती है। सिर्फ श्वास पर ही ध्यान दें और संकल्प कर लें कि 20 मिनट के लिए मैं अपने दिमाग को शून्य कर देना चाहता हूं। अंतत: ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ सकते है।
ध्यान और विचार : जब आंखें बंद करके बैठते हैं तो अक्सर यह शिकायत रहती है कि जमाने भर के विचार उसी वक्त आते हैं। अतीत की बातें या भविष्य की योजनाएं, कल्पनाएं आदि सभी विचार मक्खियों की तरह मस्तिष्क के आसपास भिनभिनाते रहते हैं। इससे कैसे निजात पाएं? माना जाता है कि जब तक विचार है तब तक ध्यान घटित नहीं हो सकता। अब कोई मानने को भी तैयार नहीं होता कि निर्विचार भी हुआ जा सकता है। कोशिश करके देखने में क्या बुराई है।  ध्यान विचारों की मृत्यु है। आप तो बस ध्यान करना शुरू कर दें। जहां पहले 24 घंटे में चिंता और चिंतन के 30-40 हजार विचार होते थे वहीं अब उनकी संख्या घटने लगेगी। जब पूरी घट जाए तो बहुत बड़ी घटना घट सकती है।

Thursday 26 February 2015

पाप का बाप कौन है


एक प्रसिद्ध कहानी है‒एक पण्डितजी काशी से पढ़कर आये । ब्याह हुआ,स्त्री आयी । कई दिन हो गये । एक दिन स्त्री ने प्रश्न पूछा कि ‘पण्डित जी महाराज ! यह तो बताओ कि पाप का बाप कौन है ?’ पण्डित जी पोथी देखते रहे, पर पता नहीं लगा, उत्तर नहीं दे सके । अब बड़ी शर्म आयी कि स्त्री पूछती है पाप का बाप कौन है ? हमने इतनी पढ़ाई की, पर पता नहीं लगा । वे वापस काशी जाने लगे ।
मार्गमें ही एक वेश्या रहती थी । उसने सुन रखा था कि पण्डितजी काशी पढ़कर आये हैं । उसने पूछा‒‘कहाँ जा रहे हैं महाराज ?’ तो बोले‒‘मैं काशी जा रहा हूँ ।’ काशी क्यों जा रहे हैं ? आप तो पढ़कर आये हैं ? तो बोले‒‘क्या करूँ ? मेरे घरमें स्त्रीने यह प्रश्र पूछ लिया कि पाप का बाप कौन है ? मेरे को उत्तर देना आया नहीं । अब पढ़ाई करके देखूँगा कि पापका बाप कौन है ?’ वह वेश्या बोली‒‘आप वहाँ क्यों जाते हो ? यह तो मैं यहीं बता सकती हूँ आपको ।’
बहुत अच्छी बात । इतनी दूर जाना ही नहीं पड़ेगा । ‘आप घरपर पधारो । आपको पाप का बाप मैं बताऊँगी ।’ अमावस्या के एक दिन पहले पण्डित जी महाराज को अपने घर बुलाया । सौ रुपया सामने भेंट दे दिये और कहा कि ‘महाराज ! आप मेरे यहाँ कल भोजन करो ।’ पण्डित जी ने कह दिया‒‘क्या हर्ज है,कर लेंगे !’ पण्डितजी के लिये रसोई बनानेका सब सामान तैयार कर दिया । अब पण्डितजी महाराज पधार गये और रसोई बनाने लगे तो वह बोली‒‘देखो, पक्की रसोई तो आप पाते ही हो, कच्ची रसोई हरेक के हाथकी नहीं पाते । पक्की रसोई मैं बना दूँ, आप पा लेना’ ! ऐसा कह कर सौ रुपये पास में और रख दिये । उन्होंने देखा कि पक्की रसोई हम दूसरोंके हाथ की लेते ही हैं, कोई हर्ज नहीं, ऐसा करके स्वीकार कर लिया । अब रसोई बनाकर पण्डितजी को परोस दिया । सौ रुपये और पण्डित जी महाराज के आगे रख दिये और नमस्कार करके बोली‒‘महाराज ! जब मेरे हाथ से बनी रसोई आप पा रहें हैं तो मैं अपने हाथ से ग्रास दे दूँ । हाथ तो वे ही हैं, जिनसे रसोई बनायी है, ऐसी कृपा करो ।’ पण्डित जी तैयार हो गये उसकी बात पर । उसने ग्रास को मुँह के सामने किया और उन्होंने ज्यों ही ग्रास लेनेके लिये मुँह खोला कि उठाकर मारी थप्पड़ जोरसे, और वह बोली‒‘अभी तक आपको ज्ञान नहीं हुआ ? खबरदार ! जो मेरे घर का अन्न खाया तो ! आप जैसे पण्डित का मैं धर्म-भ्रष्ट करना नहीं चाहती । यह तो मैंने पाप का बाप कौन है, इसका ज्ञान कराया है ।’ रुपये ज्यों-ज्यों आगे रखते गये पण्डित जी ढीले होते गये ।
इससे सिद्ध क्या हुआ ? पापका बाप कौन हुआ ? रुपयोंका लोभ !

काम, क्रोध और लोभ‒ये नरकके खास दरवाजे हैं ।

Wednesday 25 February 2015

,कभी हृदय रोग नहीं होंगे।


*जी हाँ आइये तेजपत्ते का सेवन कीजिए....
* पुलाव बिरयानी की प्लेट में तेजपात नज़र आता है जिसे हम बड़े करीने से किनारे कर देते हैं।
आपको पता है कि ये बहुत चमत्कारी औषधि है !
इसका पेड़ पचीस फुट तक ऊँचा होता है और इस पर पीले रंग के फूल लगते हैं। इसमें रासायनिक खोज करने पर तीन तरह के तेल पाए गए हैं। उतपत्त तेल ,यूजीनाल और
आइसो यूजीनाल। इसे हिन्दी में तेजपात और संस्कृत में तमालपत्र कहते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में Cinnamomum tamala कहते हैं।
आइये तेजपात के औषधीय गुणों की चर्चा करे .....!
*तेजपात के ५-६ पत्तों को एक गिलास पानी में इतने उबालें की पानी आधा रह जाए | इस पानी से प्रतिदिन सिर की मालिश करने के बाद नहाएं | इससे
सिर में जुएं नहीं होती हैं |
*चाय-पत्ती की जगह तेजपात के चूर्ण की चाय पीने से सर्दी-जुकाम,छींकें आना ,नाक बहना,जलन ,सिरदर्द आदि में शीघ्र लाभ मिलता है |
*तेजपात के पत्तों का बारीक चूर्ण सुबह-शाम दांतों पर मलने से दांतों पर चमक आ जाती है |
*तेजपात के पत्रों को नियमित रूप से चूंसते रहने से हकलाहट में लाभ होता है |
*एक चम्मच तेजपात चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर सेवन करने से खांसी में आराम मिलता है |
*तेजपात के पत्तों का क्वाथ (काढ़ा) बनाकर पीने से पेट का फूलना व अतिसार आदि में लाभ होता है |
*इसके २-४ ग्राम चूर्ण का सेवन करने से उबकाई मिटती है |
*दमा में ....तेजपात ,पीपल,अदरक मिश्री सभी को बराबर मात्र में लेकर चटनी पीस
लीजिए।१-१ चम्मच चटनी रोज खाएं ४० दिनों तक। फायदा सुनिश्चित है।
*दांतों के लिए ...सप्ताह में तीन दिन तेजपात के बारीक चूर्ण से मंजन कीजिए। दांत मजबूत होंगे दांतों में कीड़ा नहीं लगेगा ,ठंडा गरम पानी नहीं लगेगा , दांत मोतियों की तरह चमकेंगे।
*कपड़ों के बीच में तेजपात के पत्ते रख दीजिए ,ऊनी,सूती,रेशमी कपडे कीड़ों से बचे रहेंगे।
अनाजों के बीच में ४-५ पत्ते डाल दीजिए तो अनाज में भी कीड़े नहीं लगेंगे। उनमें एक दिव्य सुगंध जरूर बस जायेगी।
*अनेक लोगों के मोजों से दुर्गन्ध आती है ,वे लोग तेजपात का चूर्ण पैर के तलुवों में मल कर मोज़े पहना करें। पर इसका मतलब ये नहीं कि आप महीनों तक मोज़े धुलें
ही न। वैसे भी अंदरूनी कपडे और मोज़े तो रोज धुलने चाहिए। मुंह से दुर्गन्ध आती है तो तेजपात का टुकड़ा चबाया करें। बगल के पसीने से दुर्गन्ध आती है तो तेजपात का चूर्ण पावडर की तरह बगलों में लगाया करें।
*अगर अचानक आँखों कि रोशनी कुछ कम होने लगी है तो तेजपात के बारीक चूर्ण को सुरमे की तरह आँखों में लगाएं। इससे आँखों की सफाई हो जायेगी और नसों में ताजगी आ जायेगी जिससे आपकी दृष्टि तेज हो जायेगी। इस प्रयोग को लगातार करने से चश्मा भी उतर सकता है।
*पेट में गैस की वजह से तकलीफ महसूस हो रही हो तो ३-४ चुटकी या ४ मिली ग्राम
तेजपात का चूर्ण पानी से निगल लीजिए।
एसीडिटी की तकलीफ में इसका लगातार सेवन बहुत फायदा करता है और पेट को आराम मिलता है।
* तेजपात का अपने भोजन में लगातार प्रयोग कीजिए ,आपका ह्रदय मजबूत बना रहेगा ,कभी हृदय रोग नहीं होंगे।
*पागलपन के लिए ...एक एक ग्राम तेजपात का चूर्ण सुबह शाम रोगी को पानी या शहद से खिलाएं। या तेजपात के चूर्ण का हलुआ बनाकर खिलाएं। सूजी के हलवे में एक चम्मच तेजपात का चूर्ण डाल दीजिए। बन गया हलवा।
* तेजपात के टुकड़ों को जीभ के नीचे रखा रहने दें ,चूसते रहे। एक माह में हकलाना खत्म हो जाएगा।
* दिन में चार बार चाय में तेजपत्ता उबाल कर पीजिए ,जुकाम-जनित सभी कष्टों में आराम मिलेगा। या चाय में चायपत्ती की जगह तेजपत्ता डालिए। खूब उबालिए ,फिर दूध और चीनी डालिए।
*पेट की किसी भी बीमारी में तेजपत्ते का काढा बनाकर पीजिए। दस्त, आँतों के घाव, भूख न लगना सभी में आराम मिलेगा।

Tuesday 24 February 2015

हमारा कुछ ना बिगड़ेगा तुम्हारी लाज जाएगी

पकड़ लो हाथ बनबारी नही तो डूब जायेंगे
हमारा कुछ ना बिगड़ेगा तुम्हारी लाज जाएगी
धरी है पाप की गठरी हमारे सिर पे ये भारी
बजन पापो का है भारी इसे कैसे उठायेंगे
तुम्हारे ही भरोसे पर जमाना छोड़ बैठे है
जमाने की तरफ देखो इसे कैसे निभायेंगे
पकड़ लो हाथ बनबारी नही तो डूब जायेंगे
हमारा कुछ ना बिगड़ेगा तुम्हारी लाज जाएगी
दर्द दे दिल की कहे किससे सहारा ना कोई देगा
सुनोगे आप ही मोहन और किसको सुनायेंगे
पकड़ लो हाथ बनबारी नही तो डूब जायेंगे
हमारा कुछ ना बिगड़ेगा तुम्हारी लाज जाएगी
फंसी है भवर में नईया प्रभु अब डूब जायेंगे
खिवईया आप बन जाओ तो बेड़ा पार हो जाए
पकड़ लो हाथ बनबारी नही तो डूब जायेंगे
हमारा कुछ ना बिगड़ेगा तुम्हारी लाज जाएगी

यही मानव जन्म और शरीर का रहस्य है


 श्रीमहाविष्णु को एक बार प्रसन्न मुद्रा में बैठे देखकर वैनतेय नामधारी गरुड़ ने उनसे पूछा, "हे परात्पर। हे परमपुरुष। हे जगन्नाथ। मैं यह जानना चाहता हूं कि जीव किस प्रकार जन्म और मृत्यु का कारण भूत बनता है। किन कारणों से वह स्वर्ग और नरक भोगता है? कैसे वह प्रेतात्मा बनकर कष्ट झेलता है?" इस पर अंतर्यामी श्रीमहाविष्णु ने गरुड़ पर प्रसन्न होकर उनको जन्म-मरण का रहस्य बताया। इस कारण से यह कथा गरुड़ पुराण नाम से लोकप्रिय बन गई।नैमिशारण्य में वेदव्यास के शिष्य महर्षि सूत ने शौनक आदि मुनियों को यह वृत्तांत सुनाया, "हे मुनिवृंद, वैनतेय ने श्रीमहाविष्णु से प्रश्न किया था कि हाड़-मांस, नसें, रक्त, मुंह, हाथ-पैर, सिर, नाक, कान, नेत्र, केश और बाहुओं से युक्त जीव के शरीर का निर्माण कैसे होता है? श्रीमहाविष्णु ने इसके जो कारण बताए, वे मैं आपको सुनाता हूं।

 प्राचीन काल में देवता और राक्षसों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया। परिणामस्वरूप इंद्र ब्रह्महत्या के दोष के शिकार हुए। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे निवेदन किया कि वे उनको इस पाप से मुक्त कर दें। ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या के दोष को चार भागों में विभाजित कर एक अंश स्त्रियों के सिर मढ़ दिया। स्त्रियों की प्रार्थना पर दया होकर ब्रह्मा ने उसके निवारण का उपाय बताया कि स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा।

 ब्रह्मा ने कहा कि उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी। रजस्वला के छठे दिन से अठारह दिन तक यदि छठे, आठवें, दसवें, बारहवें, चौदहवें, सोलहवें और अठारहवें दिन वे पति के साथ संयोग करती हैं तो उन्हें पुरुष संतान की प्राप्ति होगी। ऐसा न होकर पांचवें दिन से लेकर अठारह दिन तक विषम दिनों में यानी पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पंद्रह और सत्रहवें दिन मैथुन क्रिया संपन्न करने पर स्त्री संतान होगी। इसलिए पुत्र प्राप्ति करने की कामना रखनेवाले दम्पतियों को सम दिनों में ही दांपत्य सुख भोगना होगा।ऋतुमती होने के चार दिन पश्चात अठारह दिन तक के सम दिन में मैथुन से यदि नारी गर्भ धारण करती है, तो गर्भस्थ शिशु की क्रमश: वृद्धि हो सुखी प्रसव होगा। वह शिशु शील, संपन्न और धर्मबुद्धिवाला होगा। रजस्वला के पांचवें दिन स्त्रियों को खीर, मिष्ठान्न आदि मधुर पदार्थो का सेवन करना होगा। तीखे पदार्थ वर्जित हैं। साधारणत: पांचवें दिन के पश्चात आठ दिनों के अंदर गर्भधारण होता है।

 गर्भधारण के संबंध में भी कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। शयन गृह में दम्पति को अगरबत्ती, चंदन, पुष्प, तांबूल आदि का उपयोग करना चाहिए। इनके सेवन और प्रयोग से दम्पति का चित्त शीतल होता है। तब उन्हें परस्पर प्रेमपूर्ण रति-क्रीड़ा में पति और पत्नी के शुक्र और श्रोणित का संयोग होता है। परिणामस्वरूप पत्नी गर्भ धारण करती है। क्रमश: गर्भस्थ पिंड शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति दिन-प्रतिदिन प्रवर्धगमान होगा। रति क्रीड़ा के समय यदि पति के शुक्र की मात्रा अधिक स्खलित होती है तो पुरुष संतान होती, पत्नी के श्रोणित की मात्रा अधिक हो जाए तो स्त्री संतान के रूप में गर्भ शिशु का विकास होता है। अगर दोनों की मात्रा समान होकर पुरुष शिशु का जन्म होता है तो वह नपुंसक होगा। गर्भ धारण के रतिक्रीड़ा में स्खलित इंद्रियां गर्भ-कोशिका में एक गोल बिंदु या बुलबुला उत्पन्न करता है।

 इसके बाद पंद्रह दिनों के अंदर उस बिंदु के साथ मांस सम्मिलित होकर विकसित होता है। फिर क्रमश: इसकी वृद्धि होती जाती है। एक महीने के पूरा होते-होते उस पिंड से पंच तत्वों का संयोग होता है। दूसरे महीने पिंड पर चर्म की परत जमने लगती है। तीसरे महीने में नसें निर्मित होती हैं। चौथे महीने में रोम, भौंहें, पलकें आदि का निर्माण होता है।

 पांचवें महीने में कान, नाक, वक्ष; छठे महीने में कंठ, सिर और दांत तथा सातवें महीने में यदि पुरुष शिशु हो तो पुरुष-चिह्न्, स्त्री शिशु हो तो स्त्री-चिह्न् का निर्माण होता है। आठवें महीने में समस्त अवयवों से पूर्ण शिशु का रूप बनता है। उसी स्थिति में उस शिशु के भीतर जीव या प्राण का अवतरण होता है। नौवें महीने में जीव सुषुम्न नाड़ी के मूल से पुनर्जन्म कर्म का स्मरण करके अपने इस जन्म धारण पर रुदन करता है। दसवें महीने में पूर्ण मानव की आकृति में माता के गर्भ से जन्म लेता है।

प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-ये पांच 'प्राण वायु' कहलाते हैं। इसी प्रकार नाग, कर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय नामक अन्य पांच वायु भी हैं। इस शरीर में शुक्ल, अस्थियां, मांस, जल, रोम और रक्त नामक छह कोशिकाएं हैं। नसों से बंधित इस स्थूल शरीर में चर्म, अस्थियां, केश, मांस और नख-ये क्षिति या पृथ्वी से सम्बंधित गुण हैं।

 मुंह में उत्पन्न होनेवाला लार, मूत्र, शुक्ल, पीव, व्रणों से रिसनेवाला जल-ये आप यानी जल गुण हैं। भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य और कांति तेजोगुण हैं यानी अग्नि गुण है। इच्छ, क्रोध, भय, लज्जा, मोह, संचार, हाथ-पैरों का चालन, अवयवों का फैलाना, स्थिर यानी अचल होना-ये वायु गुण कहलाते हैं। ध्वनि भावना, प्रश्न, ये गगन यानी आकाशिस्थ गुण है। कान, नेत्र, नासिका, जिा, त्वचा, ये पांचों ज्ञानेंद्रिय हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये दीर्घ नाड़ियां हैं।इनके साथ गांधारी, गजसिंह, गुरु, विशाखिनी-मिलकर सप्त नाड़ियां कहलाती हैं। मनुष्य जिन पदार्थो का सवेन करता है उन्हें उपरोक्त वायु उन कोशिकाओं में पहुंचा देती हैं। परिणामस्वरूम उदर में पावक के उपरितल पर जल और उसके ऊध्र्व भाग में खाद्य पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इस जटराग्नि को वायु प्रज्वलित कर देती है।

 मानव शरीर का गठन अति विचित्र है। इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, बत्तीस दांत, बीस नाखून, सत्ताईस करोड़ शिरोकेश, तीन हजार तोले के वजन की मांसपेशियां, तीन सौ तोले वजन का रक्त, तीस तोले की मेधा, तीस तोले की त्वचा, छत्तीस तोले की मज्जा, नौ तोले का प्रधान रक्त और कफ, मल व मूत्र-प्रत्येक पदार्थ नौ तोले के परिमाण में निहित हैं। इनके अतिरिक्त अंड के भीतर की सारी वस्तुएं शरीर के अंदर समाहित हैं।

 इसी प्रकार शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं- ये भुवन शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतीक हैं, जैसे-दायां पैर अतल नाम से व्यवह्रत है, तो एड़ी वितल, घुटना सुतल, घुटने का ऊपरी भाग यानी जांध रसातल, गुह्य पाश्र्व भाग तलातल, गुदा भाग महातल, मध्य भाग पाताल, नाभि स्थल भूलोक, उदर भुवर्लोक, ह्रदय सुवर्लोक, भुजाएं सहर्लोक, मुख जनलोक, भाल तपोलोक, शिरो भाग सत्यलोक माने जाते हैं।

 इसी प्रकार त्रिकोण मेरु पर्वत, अघ: कोण, मंदर पर्वत, इन कोणों का दक्षिण पाश्र्व कैलाश वाम पाश्र्व हिमाचल, ऊपरी भाग निषध पर्वत, दक्षिण भाग गंधमादन पर्वत, बाएं हाथ की रेखा वरुण पर्वत नामों से अभिहित हैं।अस्थियां जम्बू द्वीप कहलाती हैं। मेधा शाख द्वीप, मांसपेशियां कुश द्वीप, नसें क्रौंच द्वीप, त्वचा शालमली द्वीप, केश प्लक्ष द्वीप, नख पुष्कर द्वीप नाम से व्यवहृत हैं। जल समबंधी मूत्र लवण समुद्र नाम से पुकारा जाता है तो थूक क्षीर समुद्र, कफ सुरा सिंधु समुद्र, मज्जा आज्य समुद्र, लार इक्षु समुद्र, रक्त दधि समुद्र, मुंह में उत्पन्न होनेवाला जल शुदार्नव नाम से जाने जाते हैं।

 मानव शरीर के भीतर लोक, पर्वत और समुद्र ही नहीं बल्कि ग्रह भी चक्रों के नाम से समाहित हैं। प्रधानत: मानव के शरीर में दो चक्र होते हैं- नाद चक्र और बिंदु चक्र। नाद चक्र में सूर्य और बिंदु चक्र में चंद्रमा का निवास होता है। इनके अतिरिक्त नेत्रों में अंगारक, ह्रदय में बुध, वाक्य में गुरु, शुक्ल में शुक्र, नाभि में शनि, मुख में राहू और कानों में केतु निवास करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर भूमंडल और ग्रह मंडल समाहित है। यही मानव जन्म और शरीर का रहस्य है।

Monday 23 February 2015

घर में रहने वाले सदस्यों की भी तरक्की होती है.

8 आदतों से सुधारें अपना घर :

१) ::
अगर आपको कहीं पर भी थूकने की आदत है तो यह निश्चित है।कि आपको यश, सम्मान अगर मुश्किल से मिल भी जाता है तो कभी टिकेगा ही नहीं ।wash basin में ही यह काम कर आया करें !
२) ::
जिन लोगों को अपनी जूठी थाली या बर्तन वहीं उसी जगह पर छोड़ने की आदत होती है उनको सफलता कभी भी स्थायी रूप से नहीं मिलती.!
बहुत मेहनत करनी पड़ती है और ऐसे लोग अच्छा नाम नहीं कमा पाते.!
अगर आप अपने जूठे बर्तनों को उठाकर उनकी सही जगह पर रख आते हैं तो चन्द्रमा और शनि का आप सम्मान करते हैं।
३) ::
जब भी हमारे घर पर कोई भी बाहर से आये, चाहे मेहमान हो या कोई काम करने वाला, उसे स्वच्छ पानी जरुर पिलाएं !
ऐसा करने से हम राहू का सम्मान करते हैं.!
जो लोग बाहर से आने वाले लोगों को स्वच्छ पानी हमेशा पिलाते हैं उनके घर में कभी भी राहू का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता.!
४) ::
घर के पौधे आपके अपने परिवार के सदस्यों जैसे ही होते हैं, उन्हें भी प्यार और थोड़ी देखभाल की जरुरत होती है.!
जिस घर में सुबह-शाम पौधों को पानी दिया जाता है तो हम बुध, सूर्य और चन्द्रमा का सम्मान करते हुए परेशानियों से डटकर लड़ पाते हैं.!
जो लोग नियमित रूप से पौधों को पानी देते हैं, उन लोगों को depression, anxiety जैसी परेशानियाँ जल्दी से नहीं पकड़ पातीं.!
५) ::
जो लोग बाहर से आकर अपने चप्पल, जूते, मोज़े इधर-उधर फैंक देते हैं, उन्हें उनके शत्रु बड़ा परेशान करते हैं.!
इससे बचने के लिए अपने चप्पल-जूते करीने से लगाकर रखें, आपकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी
६) ::
उन लोगों का राहू और शनि खराब होगा, जो लोग जब भी अपना बिस्तर छोड़ेंगे तो उनका बिस्तर हमेशा फैला हुआ होगा, सिलवटें ज्यादा होंगी, चादर कहीं, तकिया कहीं, कम्बल कहीं ?
उसपर ऐसे लोग अपने पुराने पहने हुए कपडे तक फैला कर रखते हैं ! ऐसे लोगों की पूरी दिनचर्या कभी भी व्यवस्थित नहीं रहती, जिसकी वजह से वे खुद भी परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं.!
इससे बचने के लिए उठते ही स्वयं अपना बिस्तर समेट दें.!
७)::
पैरों की सफाई पर हम लोगों को हर वक्त ख़ास ध्यान देना चाहिए,
जो कि हम में से बहुत सारे लोग भूल जाते हैं ! नहाते समय अपने पैरों को अच्छी तरह से धोयें, कभी भी बाहर से आयें तो पांच मिनट रुक कर मुँह और पैर धोयें.!
आप खुद यह पाएंगे कि आपका चिड़चिड़ापन कम होगा, दिमाग की शक्ति बढेगी और क्रोध 
धीरे-धीरे कम होने लगेगा.!
८) ::
रोज़ खाली हाथ घर लौटने पर धीरे-धीरे उस घर से लक्ष्मी चली जाती है और उस घर के सदस्यों में नकारात्मक या निराशा के भाव आने लगते हैं.!
इसके विपरित घर लौटते समय कुछ न कुछ वस्तु लेकर आएं तो उससे घर में बरकत बनी रहती है.!
उस घर में लक्ष्मी का वास होता जाता है.!
हर रोज घर में कुछ न कुछ लेकर आना वृद्धि का सूचक माना गया है.!
ऐसे घर में सुख, समृद्धि और धन हमेशा बढ़ता जाता है और घर में रहने वाले सदस्यों की भी तरक्की होती है.

Sunday 22 February 2015

इस शब्द की रचना का कारण

मंदिर शब्द का अर्थ 

इस शब्द की रचना का कारण 

मंदिर शब्द में 
'मन' और 'दर' की संधि है
मन + दर
मन अर्थात मन
दर अर्थात द्वार
मन का द्वार तात्पर्य 
यह कि जहाँ हम अपने मन का द्वार खोलते हैं, वह स्थान मंदिर है।

म + न
म अर्थात मम = मैं
न अर्थात नहीं
जहाँ मैं नहीं !!
अर्थात जिस स्थान पर जाकर हमारा 'मैं' यानि अंहकार 'न' रहे 
वह स्थान मंदिर है। 
सर्व विदित है कि ईश्वर हमारे मन में ही है | अत: जहाँ 'मैं' 'न' रह कर केवल ईश्वर हो वह स्थान मंदिर है ||

संकट-नाश के लिए

विविध कामना सिद्धि के कुछ मानता निम्नलिखित है जिनसे आप लाभ प्राप्त कर सकते हैं :-

1) मुकदमे में जीत हेतु -
पवन तनय बल पवन सामना, बुद्धि बिबेक बिज्ञान निधाना।
कवन सो काज कठिन जग माही, जो नहीं होइ तात तुम पाहि।।

2) श्री हनुमान जी की प्रसन्नता प्राप्ति के लिए -
सुमिरि पवनसुत पावन नामू 7 अपने बस करी राखे रामू।।

3) मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिए -
हनुमान अंगद रन गाजे। हांक सुनत रजनीचर भाजे।।

 5) डर व भूत भागने का मंत्र -
प्रनवउं पवनकुमार खेल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय अगर बसहि राम सर चाप धार।।
6) ज्ञान-प्राप्ति के लिये-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।

7) यात्रा की सफलता के लिए-
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयं राखि कोसलपुर राजा॥

8)  विवाह के लिए-
तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि संवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुंअरि लई हंकारि कै॥

9) शत्रुता समाप्ति हेतु -
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥

10) मनचाहे कार्यों की सफलता हेतु -
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।

11) काम धंदे के लिए
बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

12) गरीबी समाप्ति हेतु -
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।

13) विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिए
दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥

14) शिक्षा में सफलता के लिए
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भांती। जासु कृपा नहिं कृपां अघाती॥

15) संकट-नाश के लिए
जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।

Thursday 19 February 2015

80 प्रकार के वात रोगों में लाभकारी

गुग्गुल (गुगल)
कैशोर गूगल : वात रक्त और खून की खराबी के कारण शरीर में फोड़ा, फुंसी या चकत्ता होना, कुष्ठ, व्रण आदि व्याधियों में लाभकारी। मात्रा 1 से 2 गोली सुबह-शाम गर्म जल से।
नवक गूगल : मेद वृद्धि (मोटापा) व आमवात नाशक। मात्रा 2-2 गोली सुबह-शाम।
पुनर्नविद गूगल : वातरक्त, शोथ, गृध्रसी तथा प्रबल आमवात का नाश होता है। मात्रा 1 से 2 गोली सुबह-शाम गर्म जल से।
महायोगराज गूगल : 80 प्रकार के वात रोगों में लाभकारी। समस्त वात विकार, संधिवान, अर्द्धगावात, कमर व मेरुदण्ड का दर्द, सर्वांग शूल, व्रण, भगंदर, अर्श वात रक्त आदि रोगों की प्रसिद्ध दवा। मात्र 1 से 2 रत्ती गोली सुबह-शाम रास्नादि क्वाथ, गर्म जल या चाय के साथ।
योगराज गूगल : महायोगराज गूगल के समान गुण पर कुछ कम असर करने वाली।
रास्नादि गूगल : आमवात, गठिया जोड़ों का दर्द आदि विकारों में लाभकारी। मात्रा 1 से 2 रत्ती सुबह-शाम।
लाक्षादि गूगल : हड्डियों की बीमारी व सूजन, चोट लगने के बाद होने वाले दर्द, टूटी हड्डियों को जोड़ने एवं रक्त के जमाव को दूर करने में लाभकारी। मात्रा 1 से 2 गोली सुबह-शाम गर्म जल अथवा दूध से।
सप्तविंशति गूगल : भगंदर, पुराने घाव, शूल आदि रोगों में लाभकारी। बवासीर, नाड़ी त्रण, आंत्र वृद्धि तथा वस्ति विकारों पर। मात्रा 1 से 2 गोली सुबह-शाम गर्म जल से।
सिंहनाथ गूगल : वातरक्त, आमावत, संधिवात, गुल्म, शूल, उदर रोग, पथरी व कुष्ठ आदि में लाभदायक। अग्निदीपक है। मात्रा 1 से 2 गोली जल या रास्नादि काढ़े के साथ।
सिंहनाथ गूगल : वातरक्त, आमवात, संधिवात, गुल्म शूल, उदर रोग, पथरी व कुष्ठ आदि में लाभदायक, अग्निदीपक है। मात्रा 1 से 2 गोली जल या रास्नादि काढ़े के साथ।
त्रियोदांश गूगल : गृध्रसी आदि भयंकर वात रोगों में लाभकारी। मात्रा 1 से 2 गोली सुबह-शाम।
त्रिफला गूगल : भगंदर, गुल्म सूजन और बवासीर आदि में अत्यंत लाभकारी। मात्रा 1 से 2 गोली सुबह-शाम।

गर्म पानी अमृत समान फायदेमंद हैं।

गर्म पानी के फायदे
♍अगर आप स्किन प्रॉब्लम्स से परेशान हैं या ग्लोइंग स्किन के लिए तरह-तरह के कॉस्मेटिक्स यूज करके थक चूके हैं तो रोजाना एक गिलास गर्म पानी पीना शुरू कर दें। आपकी स्किन प्रॉब्लम फ्री हो जाएगी व ग्लो करने लगेगी।
♍लड़कियों को पीरियड्स के दौरान अगर पेट दर्द हो तो ऐसे में एक गिलास गुनगुना पानी पीने से राहत मिलती है। दरअसल इस दौरान होने वाले पैन में मसल्स में जो खिंचाव होता है उसे गर्म पानी रिलैक्स कर देता है।
♍गर्म पानी पीने से शरीर के विषैले तत्व बाहर हो जाते हैं। सुबह खाली पेट व रात्रि को खाने के बाद पानी पीने से पाचन संबंधी दिक्कते खत्म हो जाती है व कब्ज और गैस जैसी समस्याएं परेशान नहीं करती हैं।
♍भूख बढ़ाने में भी एक गिलास गर्म पानी बहुत उपयोगी है। एक गिलास गर्म पानी में एक नींबू का रस और काली मिर्च व नमक डालकर पीएं। इससे पेट का भारीपन कुछ ही समय में दूर हो जाएगा।
♍खाली पेट गर्म पानी पीने से मूत्र से संबंधित रोग दूर हो जाते हैं। दिल की जलन कम हो जाती है। वात से उत्पन्न रोगों में गर्म पानी अमृत समान फायदेमंद हैं।
♍गर्म पानी के नियमित सेवन से ब्लड सर्कुलेशन भी तेज होता है। दरअसल गर्म पानी पीने से शरीर का तापमान बढ़ता है। पसीने के माध्यम से शरीर की सारे जहरीले तत्व बाहर हो जाते हैं।
♍बुखार में प्यास लगने पर मरीज को ठंडा पानी नहीं पीना चाहिए। गर्म पानी ही पीना चाहिए बुखार में गर्म पानी अधिक लाभदायक होता है।
♍यदि शरीर के किसी हिस्से में गैस के कारण दर्द हो रहा हो तो एक गिलास गर्म पानी पीने से गैस बाहर हो जाती है।
♍अधिकांश पेट की बीमारियां दूषित जल से होती हैं यदि पानी को गर्म कर फिर ठंडा कर पीया जाए तो जो पेट की कई अधिकांश बीमारियां पनपने ही नहीं पाएंगी।
♍गर्म पानी पीना बहुत उपयोगी रहता है इससे शक्ति का संचार होता है। इससे कफ और सर्दी संबंधी रोग बहुत जल्दी दूर हो जाते हैं।
♍दमा ,हिचकी ,खराश आदि रोगों में और तले भुने पदार्थों के सेवन के बाद गर्म पानी पीना बहुत लाभदायक होता है।
♍सुबह खाली पेट एक गिलास गर्म पानी में एक नींबू मिलाकर पीने से शरीर को विटामिन सी मिलता है। गर्म पानी व नींबू का कॉम्बिनेशन शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करता है।साथ ही पी.एच. का स्तर भी सही बना रहता है।
♍रोजाना एक गिलास गर्म पानी सिर के सेल्स के लिए एक गजब के टॉनिक का काम करता है। सिर के स्केल्प को हाइड्रेट करता है जिससे स्केल्प ड्राय होने की प्रॉब्लम खत्म हो जाती है।
♍वजन घटाने में भी गर्म पानी बहुत मददगार होता है। खाने के एक घंटे बाद गर्म पानी पीने से मेटॉबालिम्म बढ़ता है। यदि गर्म पानी में थोड़ा नींबू व कुछ बूंदे शहद की मिला ली जाएं तो इससे बॉडी स्लिम हो जाती है।
♍हमेशा जवान दिखते रहने की चाहत रखने वाले लोगों के लिए गर्म पानी एक बेहतरीन औषधि का काम करता है

Wednesday 18 February 2015

अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है।


कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर या परमेश्वर ने ब्रह्मांड या सृष्टि को छ दिन में रचा और सातवें दिन उसने आराम किया। धरती पर उसने सबसे पहले मानव को रचा और उसकी ही छाती की पसली से एक स्त्री को रचा। लेकिन क्या यह कहानी सच है?
वैज्ञानिक शोध कतई इस तरह की कहानी को सच नहीं मान सकते। सृष्टि उत्पत्ति और विकास में क्रमविकास और कार्य-कारण का सिद्धांत कार्य करता है। वेदों में सृष्टि रचना को वैज्ञानिक तरीके से समझाया गया है। वेदों में ब्रह्मांड उत्पत्ति का जो सिद्धांत है विज्ञान आज उसके नजदिक पहुंच गया है। अब लोगों को कहानी से ज्यादा तथ्य पर विश्वास होता है। यहां वेद-गीता के उत्पत्ति के सिद्धांत को समझने का प्रयास करते हैं।
ब्रह्म और ब्रह्मांड और आत्मा- तीनों ही आज भी मौजूद हैं। सर्वप्रथम ब्रह्म था आज भी ब्रह्म है और अनंत काल तक ब्रह्म ही रहेगा। यह ब्रह्म कौन है? ईश्वर है, परमेश्वर है या परमात्मा? यह तीनों नहीं है और तीनों ही है। यह ब्रह्म संपूर्ण विश्व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी है।
ब्रह्म ने सृष्टि की रचना नहीं की। ब्रह्म की उपस्थिति से सृष्टि की रचना हो गई। यह सात दिन या सात करोड़ वर्ष का मामला नहीं है यह अनंत काल के अंधकार के बाद अरबों वर्ष के क्रमश: विकास का परिणाम है।
उत्पत्ति और विकास :
अब सृष्टि की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ यह जानते हैं। ब्रह्म की जगह हम समझने के लिए अत्मा को रख देते हैं। आप पांच तत्वों को तो जानते ही हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल और ग्रह (धरती या सूर्य)। सब सोचते हैं कि सबसे पहले ग्रहों की रचना हुई फिर उसमें जल, अग्नि और वायु की, लेकिन यह सच नहीं है।
ग्रह या कहें की जड़ जगत की रचना सबसे अंतिम रचना है। तब सबसे पहले क्या उत्पन्न हुआ? जैसे आप सबसे पहले हैं फिर आपका शरीर सबसे अंत में। आपके और शरीर के बीच जो है आप उसे जानें। अग्नि जल, प्राण और मन। प्राण तो वायु है और मन तो आकाश है। शरीर तो जड़ जगत का हिस्सा है। अर्थात धरती का। जो भी दिखाई दे रहा है वह सब जड़ जगत है।
नीचे गिरने का अर्थ है जड़ हो जाना और ऊपर उठने का अर्थ है ब्रह्माकाश हो जाना। अब इन पांच तत्वों से बड़कर भी कुछ है क्योंकि सृष्टि रचना में उन्हीं का सबसे बड़ा योगदान रहा है।
अवकाश और आकाश के पूर्व अंधकार :
आकाश एक अनुमान है। दिखाई देता है लेकिन पकड़ में नहीं आता। धरती के एक सूत ऊपर से, ऊपर जहां तक नजर जाती है उसे आकाश ही माना जाता है। लेकिन ऊपर अंतरिक्ष भी तो है।
आकाश अर्थात वायुमंडल का घेरा- स्काई। खाली स्थान अर्थात स्पेस। जब हम खाली स्थान की बात करते हैं तो वहां अणु का एक कण भी नहीं होना चाहिए, तभी तो उसे खाली स्थान कहेंगे। है ना? हमारे आकाश-अंतरिक्ष में तो हजारों अणु-परमाणु घुम रहे हैं।
खाली स्थान को अवकाश कहते हैं। अवकाश था तभी आकाश-अंतरिक्ष की उत्पित्ति हुई। अर्थात अवकाश से आकाश बना। अवकाश अर्थात अनंत अंधकार। अंधकार के विपरित प्रकाश होता है, लेकिन यहां जिस अंधकार की बात कही जा रही है उसे समझना थोड़ा कठिन जरूर है। यही अद्वैतवादी सिद्धांत है।
जब तक एक है तो दूसरा भी होगा लेकिन अद्वैत सिद्धांत कहता है कि वह परम एक, शुद्ध एक। सारे धर्म द्वैतवादी है लेकिन हिंदू धर्म अद्वैतवादी है। सचमुच सबकुछ दो जैसा दिखाई देता है लेकिन है नहीं। अंत में एक ही हाथ लगेगा दो जैसा व्यवहार करता हुआ।
नर और मादा सृष्टि की सबसे अंतिम रचना है। नकारात्मक और सकारात्म शक्तियां भी बाद की उत्पत्ति है। इसलिए कहना की ईश्वर के विपरित शैतान है यह ईश्वर के खिलाफ बात है। सबसे बड़ी ईशनिंदा यही है कि आपने शैतान को ईश्वर के विपरित माना या उसे ईश्वर के समकक्ष रखा। जो लोग द्वैतवादी है वह अधूरे हैं।
सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से श्वास ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।' -ऋग्वेद
ब्रह्म (आत्मा) से आकाश अर्थात जो कारण रूप द्रव्य (ब्रह्माणु) सर्वत्र फैल रहा था उसको इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि बिना अवकाश (खाली स्थान) के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सके और बिना अवकाश के आकाश कहां हो। अवकाश अर्थात जहां कुछ भी नहीं है और आकाश जहां सब कुछ है।
आकाश के पश्चात वायु :
आत्मा से अवकाश, अवकाश से आकाश और आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई। वायु आठ तरह की होती है। सूर्य से धरती तक जो सौर्य तूफान आता है वह किसकी शक्ति से यहां तक आता है? संपूर्ण ब्रह्मांड में वायु का साम्राज्य है, लेकिन हमारी धरती की वायु और अंतरिक्ष की वायु में फर्क है।
वायु को ब्रह्मांण का प्राण और आयु कहा जाता है। जैसे- हमारे शरीर में हमारे बाद मन की सत्ता है। फिर प्राण की और फिर जल, अग्नि और शरीर की। शरीर और हमारे बीच वायु का सेतु है।
वायु के पश्चात अग्नि :
वायु में ही अग्नि और जल तत्व छुपे हुए रूप में रहते हैं। वायु ठंडी होकर जल बन जाती है गर्म होकर अग्नि का रूप धारण कर लेती है। वायु का वायु से घर्षण होने से अग्नि की उत्पत्ति हुई। अग्नि की उत्पत्ति ब्रह्मांड की सबसे बड़ी घटना थी। वायु जब तेज गति से चलती है तो धरती जैसे ग्रहों को उड़ाने की ताकत रखती है लेकिन यहां जिस वायु की बात कही जा रही है वह किसी धरती ग्रह की नहीं अंतरिक्ष में वायु के विराट समुद्री गोले की बात कही जा रही है।
अग्नि से जल की उत्पत्ति : वायु जब बदल गई विराट अग्नि के गोले में तो उसी में जल तत्व की उत्पत्ति हुई। अंतरिक्ष में आज भी ऐसे समुद्र घुम रहे हैं जिनके पास अपनी कोई धरती नहीं है लेकिन जिनके भीतर धरती बनने की प्रक्रिया चल रही है।
जल से धरती की उत्पत्ति हुई : सचमुच ऐसा ही हुआ। जलता हुआ जल कहीं जमकर बर्फ बना तो कहीं भयानक अग्नि के कारण काला कार्बन होकर धरती बनता गया कहना चाहिए कि ज्वालामुखी बनकर ठंडा होते गया। अब आप देख भी सकते हैं कि धरती आज भी भीतर से जल रही है और हजारों किलोमिटर तक बर्फ भी जमी है। धरती पर 75 प्रतिशत जल ही तो है। कोई कैसे सोच सकता है कि जल भी जलता होगा या वायु भी जलती होगी?
जीवन की उत्पत्ति :
अब यहीं से जीवन की उत्पत्ति की शुरुआत की बात कर सकते हैं कि कैसे बने पेड़, पौधे, फिर जलचर जंतु, फिर उभयचर, फिर नभचर तथा अंत में थलचर जीव-जंतु। आत्मा का नीचे गिरना जड़ हो जाना है और आत्मा का ऊपर उठना ब्रह्म हो जाना है।
यह नीचे गिरने और ऊपर उठने की प्रक्रिया अनंत काल से जारी और आज भी चल रही है। जब आत्मा जड़ बन गई तो उसने फिर से उठने का प्रयास किया और फिर वह मोटे तौर पर जल में पौधों के रूप में अभिव्यक्त हुई। फिर जलचर के रूप में, फिर उभयचर और फिर थलचर के रूप में। थलचर में भी आत्मा ने मानव के रूप में खुद को अच्छे तरीके से अभिव्यक्त किया। यह क्रमश: हुआ। कैसे?
आकाश के पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्न‍ि, अग्नि के पश्चात जल, जल के पश्चात पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है।- तैत्तिरीय उपनिषद
ब्रह्मांड का मूलक्रम- अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी। अनंत जिसे आत्मा कहते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं।
यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से घिरा हुआ है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।
वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहां तक प्रकाशित होता है, वहां से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है।
उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।

Tuesday 17 February 2015

इन सुंदर और रहस्यमय गुफाओं को किसने बनाया होगा

1)हिंगलाज माता मंदिर : पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के जिला लसबेला में हिंगोल नदी के किनारे पहाड़ी गुफा में स्थित माता पार्वती का हिंगलाज मंदिर अतिप्राचीन है। इसी तरह पाकिस्तान के सिन्ध प्रांत के शहर नगरपारकर में माता कालिका का एक और प्राचीन और रहस्यमय गुफा मंदिर है.हिंगलाज माता का यह मंदिर माता पार्वती के 51 शक्तिपीठों में से एक है। इस मंदिर के महत्व का उल्लेख देवीभागवत पुराण सहित अन्य पुराणों में भी मिलता है।
भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान के कई ऐतिहासिक और प्राचीन मंदिरों को नष्ट कर दिया गया। बाद में 1992 में बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद पाकिस्तान में करीब 1,000 मंदिर ध्वस्त किए गए। आज भी अल्पसंख्यक हिन्दू आबादी मंदिरों पर हमलों से परेशान और दुखी हैं, लेकिन पाकिस्तान की सरकार इस पर चुप्पी साधे रखती है। 
2) गोआ गोवा गजह गुफा (बाली, इंडोनेशिया) : इंडोनेशिया के द्वीप बाली द्वीप पर हिन्दुओं के कई प्राचीन मंदिर हैं, जहां एक गुफा मंदिर भी है। इस गुफा मंदिर को गोवा गजह गुफा और एलीफेंटा की गुफा कहा जाता है।19 अक्टूबर 1995 को इसे विश्व धरोहरों में शामिल किया गया। यह गुफा भगवान शंकर को समर्पित है। यहां 3 शिवलिंग बने हैं। देश-विदेश से पर्यटक इसे देखने आते हैं।
3) वराह गुफाएं : तमिलनाडु में चेन्नई के कोरोमंडल के पास महाबलीपुरम में स्थित है वराह गुफा। वराह गुफा में भगवान विष्णु का मंदिर है।चट्टानों को काटकर की गई कलाकारी इतनी सुंदर है कि इसे यूनेस्को की विश्व विरासत का हिस्सा बनाया गया है। वराह गुफा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इस गुफा के अलावा सित्तनवसल और नार्थमलाई गुफा भी काफी फेमस है।
4) एलीफेंटा की गुफा : मुंबई के गेट वे ऑफ इंडिया से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित एक स्थल है, जो एलीफेंटा नाम से विश्वविख्यात है। यहां पहाड़ को काटकर बनाई गई इन सुंदर और रहस्यमय गुफाओं को किसने बनाया होगा? माना जाता है कि इसे 7वीं व 8वीं शताब्दी में राष्‍ट्रकूट राजाओं द्वारा खोजा गया था। 'खोजा गया था' का मतलब यह कि यह उन्होंने बनाया नहीं था। कई हजार वर्षों पुरानी इन गुफाओं की संख्या 7 हैं जिनमें से सबसे महत्‍वपूर्ण है महेश मूर्ति गुफा। एलीफेंटा को घारापुरी के पुराने नाम से जाना जाता है, जो कोंकणी मौर्य की द्वीप राजधानी थी।इसका ऐतिहासिक नाम घारापुरी है। यह नाम मूल नाम अग्रहारपुरी से निकला हुआ है। एलीफेंटा नाम पुर्तगालियों ने दिया है। यहां हिन्दू धर्म के अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। यहां भगवान शंकर की 9 बड़ी-बड़ी मूर्तियां हैं, जो शंकरजी के विभिन्न रूपों तथा क्रियाओं को दिखाती हैं। इनमें शिव की त्रिमूर्ति प्रतिमा सबसे आकर्षक है। यह पाषाण-शिल्पित मंदिर समूह लगभग 6,000 वर्गफीट के क्षेत्र में फैला है।गुफा के मुख्‍य हिस्‍से में पोर्टिको के अलावा 3 ओर से खुले सिरे हैं और इसके पिछली ओर 27 मीटर का चौकोर स्‍थान है और इसे 6 खंभों की कतार से सहारा दिया जाता है। 'द्वारपाल' की विशाल मूर्तियां अत्‍यंत प्रभावशाली हैं। इस गुफा में शिल्‍पकला के कक्षों में अर्द्धनारीश्‍वर, कल्‍याण सुंदर शिव, रावण द्वारा कैलाश पर्वत को ले जाने, अंधकारी मूर्ति और नटराज शिव की उल्‍लेखनीय छवियां दिखाई गई हैं। इस गुफा संकुल को यूनेस्‍को द्वारा विश्‍व विरासत का दर्जा दिया गया है।
5) महाकाली और कन्हेरी की गुफाएं : मुंबई में कई गुफाएं हैं। उनमें से एलीफेंटा, महाकाली, कन्हेरी और जोगेश्‍वरी की गुफाएं प्रसि‍द्ध हैं। महाकाली की गुफा मुंबई के अंधेरी वेस्ट में बौद्ध मठ के पास है, जबकि कन्हेरी की गुफा मुंबई के पश्चिम में बसे बोरीवली क्षेत्र में स्थित है। इसके अलावा पुणे में पातालेश्वर या पांचालेश्वर गुफा मंदिर और लेनयाद्रि की बौद्ध गुफाएं देखने लायक हैं।
6) अजंता-एलोरा की गुफाएं : यह स्थान महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित है। इसमें अजंता में 29 बौद्ध गुफाएं और कई हिन्दू मंदिर मौजूद हैं। ये गुफाएं अपनी चित्रकारी, गुफाएं और अद्भुत मंदिरों के लिए प्रसिद्ध हैं। ये गुफाएं कई हजार वर्ष पुरानी हैं, लेकिन बौद्ध गुफाएं होने के कारण इनको 2 सदी ईसा पूर्व से 7 शताब्दी ईसा तक का माना जाता रहा है, लेकिन अब नए शोध ने यह धारणा बदल दी है।एलोरा की गुफाएं सबसे प्राचीन मानी जाती हैं। इसमें पत्थर को काटकर बनाई गईं 34 गुफाएं हैं और एक रहस्यमयी प्राचीन हिन्दू मंदिर है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे कोई मानव नहीं बना सकता और इसे आज की आधुनिक तकनीक से भी नहीं बनाया जा सकता। इस विशालकाय अद्भुत मंदिर को देखने सभी आते हैं। इसका नाम कैलाश मंदिर है। आर्कियोलॉजिस्टों के अनुसार इसे कम से कम 4 हजार वर्ष पूर्व बनाया गया था। 40 लाख टन की चट्टानों से बनाए गए इस मंदिर को किस तकनीक से बनाया गया होगा? यह आज की आधुनिक इंजीनियरिंग के बस की भी बात नहीं है।माना जाता है कि एलोरा की गुफाओं के अंदर नीचे एक सीक्रेट शहर है। आर्कियोलॉजिकल और जियोलॉजिस्ट की रिसर्च से यह पता चला कि ये कोई सामान्य गुफाएं नहीं हैं। इन गुफाओं को कोई आम इंसान या आज की आधुनिक तकनीक नहीं बना सकती। यहां एक ऐसी सुरंग है, जो इसे अंडरग्राउंड शहर में ले जाती है।
औरंगाबाद में पीतलखोरा की गुफाएं भी प्रसिद्ध हैं।
7) अमरनाथ गुफा : जम्मू और कश्मीर में तो अमरनाथ और वैष्णोदेवी की गुफा में हिन्दूजन दर्शन के लिए जाते ही हैं, लेकिन कश्मीर में ऐसी 4 गुफाएं हैं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उनका दूसरा सिरा 4,000 किलोमीटर दूर रूस तक जाता है। इतना ही नहीं, इन गुफाओं के बारे में और भी ऐसे रहस्य हैं जिनकी सच्चाई सदियों बाद भी सामने नहीं आईं।
पीर पंजाल की गुफा : जम्मू-कश्मीर के पीर पंजाल में एक गुफा है, जहां एक शिवलिंग रखा है। इसका नाम पीर पंजाल केव रखा गया है। शिव खाड़ी : जम्मू में ही शिव खाड़ी नामक एक गुफा है।
8) बादामी गुफा : यह सुंदर और नक्काशीदार गुफा कर्नाटक के बादामी में स्थित है। बादामी की 4 गुफाओं में से 2 गुफाएं भगवान विष्णु, 1 भगवान शिव और 1 जैन धर्म से संबंधित बताई जाती हैं। पहाड़ों को काटकर लाल पत्थर से बनाई गई ये गुफाएं अपनी सुंदरता के लिए फेमस हैं। पत्थरों में की गई नक्काशी देखने लायक है।बादामी चालुक्‍यों की राजधानी थी, जो 6-8वीं सदी ईसवी में इस स्‍थान से शासन करते थे। इसे मूलत: वातापी कहा जाता है। 1979 में बादामी में और इसके आसपास खोजी गई गुफाओं, मूर्तियों, अभिलेखों, बिखरे पड़े पुरातत्‍वीय अंशों का संग्रह और परिरक्षण करने के लिए एक मूर्तिशाला के रूप में स्‍थापित किया गया था। बाद में इसे वर्ष 1982 में एक पूर्णरूपेण स्‍थल संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
9) परशुराम महादेव गुफा मंदिर : अरावली की प्राचीन पहाड़ियों में स्थित एक गुफा मंदिर है जिसे महादेव गुफा मंदिर कहा जाता है। माना जाता है कि इसका निर्माण विष्णु के 6ठे अवतार स्वयं परशुराम ने अपने फरसे से चट्टान को काटकर किया था। इस गुफा मंदिर के अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग है। कहते हैं यहां परशुराम के घोर तपस्या की थी। तपस्या के बल पर उन्होंने भगवान शिव से धनुष, अक्षय तूणीर एवं दिव्य फरसा प्राप्त किया था।इस गुफा मंदिर तक जाने के लिए 500 सीढ़ियों का सफर तय करना पड़ता है, जहां पर विष्णु के 6ठे अवतार परशुराम ने भगवान शिव की कई वर्षों तक कठोर तपस्या की थी।दुर्गम पहाड़ी, घुमावदार रास्ते, प्राकृतिक शिवलिंग, कल-कल करते झरने एवं प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत होने के कारण भक्तों ने इसे 'मेवाड़ के अमरनाथ' का नाम दे दिया है।परशुराम महादेव का मंदिर राजस्थान के राजसमंद और पाली जिले की सीमा पर स्थित है। मुख्य गुफा मंदिर राजसमंद जिले में आता है जबकि कुण्ड धाम पाली जिले में आता है। पाली से इसकी दूरी करीब 100 किलोमीटर और विश्वप्रसिद्ध कुम्भलगढ़ दुर्ग से मात्र 10 किलोमीटर है।
10) जोगीमारा गुफा : छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भारत का सबसे घने जंगलों और नदियों वाला प्रदेश है। यह प्राचीनकाल में दंडकारण्य क्षेत्र का हिस्सा था। यहां भयानक जंगल, वन्यजीव, आदिवासी और प्राकृतिक सुंदरता तो देखने को मिलेगी ही, साथ ही प्राचीन मानव सभ्यता के अवशेष भी मिलेंगे।
गुफाएं तो छत्तीसगढ़ में बहुत हैं, लेकिन सीताबेंग गुफा सरगुजा जिले के अंबिकापुर की रामगढ़ पहाड़ियों में स्थित है। दरअसल, ये 2 गुफाएं हैं- एक सीताबेंग और दूसरी जोगीमारा। यहां तक पहुंचने के लिए आपको प्राकृतिक टनल हतिपल के रास्ते से जाना होगा। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी इलाकों और घने जंगल से होते हुए ही आप कैलाश गुफा, दंडक गुफा और कुटुमसर गुफा तक पहुंच सकते हैं। यह कांगड़ वैली के नेशनल पार्क के पास है।
11) बाराबर गुफाएं : ध्यान और तपस्या के लिए बनाई गई इन गुफाओं को देखने दूर-दूर से पर्यटक आते हैं। बाराबर गुफाएं बिहार के गया जिले में स्थित हैं। गया जिले में और भी कई हिन्दू, जैन और बौद्ध गुफाएं हैं।
ये गुफाएं बाराबर की दो पहाड़ियों में हैं। यहां कुल 4 गुफाएं हैं और नागार्जुन की पहाड़ियों में 3 गुफाएं हैं। ये गुफाएं देश की सबसे प्राचीन गुफाओं में से हैं। यहां कलाकृतियां भी मिलती हैं। इन गुफाओं के अलावा सुदामा और सोनभद्रा भी बिहार की प्रसिद्ध गुफाओं में से एक हैं।
12) बोरा गुफाएं : दक्षिणी राज्य आंध्रप्रदेश में बेलम व बोरा गुफाएं प्रसिद्ध हैं। बोरा गुफाएं विशाखापट्टनम से 90 किलोमीटर की दूरी पर हैं। 10 लाख साल पुरानी इन गुफाओं पर भू-वैज्ञानिकों के शोध कहते हैं कि लाइमस्टोन की ये स्टैलक्टाइट व स्टैलग्माइट गुफाएं गोस्थनी नदी के प्रवाह का परिणाम हैं।गुफाएं अंदर से काफी विराट हैं। अंदर घुसकर वहां एक अलग ही दुनिया नजर आती है। कहीं आप रेंगते हुए मानो किसी सुरंग में घुस रहे होते हैं तो कहीं अचानक आप विशालकाय बीसियों फुट ऊंचे हॉल में आ खड़े होते हैं। विशाखापट्टनम में रुककर भी दिन में गुफाएं देखी जा सकती हैं। इन गुफाओं में आपको प्राचीनकालीन शिवलिंग के दर्शन होंगे जिनकी पूजा आज भी आदिवासी लोग करते हैं।
बेलम गुफाएं : आंध्र के कुरनूल से 106 किलोमीटर दूर बेलम गुफाएं स्थित हैं। मेघालय की गुफाओं के बाद ये भारतीय उपमहाद्वीप की दूसरी सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफाएं हैं। इन्हें मूल रूप से तो 1854 में एचबी फुटे ने खोजा था लेकिन दुनिया के सामने 1982 में यूरोपीय गुफा विज्ञानियों की एक टीम ने इन्हें मौजूदा स्वरूप में पेश किया।पहाड़ियों में स्थित बोरा गुफाओं के विपरीत बेलम गुफाएं एक बड़े से सपाट खेत के नीचे स्थित हैं। जमीन से गुफाओं तक 3 कुएं जैसे छेद हैं। इन्हीं में से बीच का छेद गुफा के प्रवेश द्वार के रूप में इस्तेमाल होता है। लगभग 20 मीटर तक सीधे नीचे उतरने के बाद गुफा जमीन के नीचे फैल जाती हैं। इनकी लंबाई 3,229 मीटर है।
मलेशिया : मलेशिया भी पहले हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था। वहां कई प्राचीन गुफा मंदिर हैं। उनमें से ही एक माता देवी पार्वती के बेटे और युद्ध के देवता मुरुगन का गुफा मंदिर भी है। उक्त देवता के जन्म अवसार पर थैपुसम नामक उत्सव मनाया जाता है।
300 से अधिक सीढ़ियां चढ़कर इस गुफा मंदिर में जाना होता है। थैपुसम त्योहार हिन्दू कैलेंडर के मुताबिक 10 महीने में एक बार मनाया जाता है। सामान्य कैलेंडर के अनुसार यह अवसर जनवरी के अंतिम या फरवरी की शुरुआत में आता है। भारत, सिंगापुर, मॉरिशस द्वीप समूह में भी यह उत्सव मनाया जाता है जबकि मलेशिया के उत्तरी राज्य पेनाग में यह उत्सव बड़े पैमाने पर मनाया जाता है।
यहां गुफा के सामने मुरुगन की विशालकाय मूर्ति लगी है। इस मूर्ति की ऊंचाई 42.7 मीटर ऊंची है।
इसके अलावा पाताल भुवनेश्वर (उत्तराखंड), थ्रिक्कुर महादेव मंदिर (केरल), बाघ गुफाएं (धार, मध्यप्रदेश), उदयगिरि गुफाएं (ओडिशा), बाराबर गुफाएं (बिहार), उंदावली, विजयवाड़ा की गुफा (आंध्रप्रदेश), डुंगेश्वरी गुफा (बिहार), अर्जुन गुफा (कुल्लू, हिमाचल), पीतलखोरा की गुफा (महाराष्ट्र), सोन भंडार गुफा (राजगीर, बिहार) आदि भी दर्शनीय हैं।

Monday 16 February 2015

जिनसे आप लाभ प्राप्त कर सकते हैं :-

विविध कामना सिद्धि के कुछ मानता निम्नलिखित है जिनसे आप लाभ प्राप्त कर सकते हैं :-

1) मुकदमे में जीत हेतु -
पवन तनय बल पवन सामना, बुद्धि बिबेक बिज्ञान निधाना।
कवन सो काज कठिन जग माही, जो नहीं होइ तात तुम पाहि।।

2) श्री हनुमान जी की प्रसन्नता प्राप्ति के लिए -
सुमिरि पवनसुत पावन नामू 7 अपने बस करी राखे रामू।।

3) मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिए -
हनुमान अंगद रन गाजे। हांक सुनत रजनीचर भाजे।।

 5) डर व भूत भागने का मंत्र -
प्रनवउं पवनकुमार खेल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय अगर बसहि राम सर चाप धार।।
6) ज्ञान-प्राप्ति के लिये-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।

7) यात्रा की सफलता के लिए-
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयं राखि कोसलपुर राजा॥

8)  विवाह के लिए-
तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि संवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुंअरि लई हंकारि कै॥

9) शत्रुता समाप्ति हेतु -
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥

10) मनचाहे कार्यों की सफलता हेतु -
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।

11) काम धंदे के लिए
बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

12) गरीबी समाप्ति हेतु -
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।

13) विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिए
दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥

14) शिक्षा में सफलता के लिए
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भांती। जासु कृपा नहिं कृपां अघाती॥

15) संकट-नाश के लिए
जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।

आध्यात्मिक उन्नति बिलकुल बाधित हो जाती है ,


पितृ गण हमारे पूर्वज हैं जिनका ऋण हमारे ऊपर है ,क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार हमारे जीवन के लिए किया है | मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक है,पितृ लोक के ऊपर सूर्य लोक है एवं इस से भी ऊपर स्वर्ग लोक है| आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है ,वहाँहमारे पूर्वज मिलते हैं |अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये हमारे पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं की इस अमुक आत्मा ने हमारे कुल में जन्म लेकर हमें धन्य किया |इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है |वहाँ से आगे ,यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को बेध कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है,लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है ,जो परमात्मा में समाहित होती है |जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता | मनुष्य लोक एवं पितृ लोक में बहुत सारी आत्माएं पुनः अपनी इच्छा वश ,मोह वश अपने कुल में जन्म लेती हैं|
हमारे ये ही पूर्वज सूक्ष्म व्यापक शरीर से अपने परिवार को जब देखते हैं ,और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग ना तो हमारे प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें कोई प्यार या स्नेह है और ना ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं,ना ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं,जिसे "पितृ- दोष" कहा जाता है | पितृ दोष एक अदृश्य बाधा है .ये बाधा पितरों द्वारा रुष्ट होने के कारण होती है |पितरों के रुष्ट होने के बहुत से कारण हो सकते हैं ,आपके
आचरण से,किसी परिजन द्वारा की गयी गलती से ,श्राद्ध आदि कर्म ना करने से ,अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि के कारण भी हो सकता है |
इसके अलावा मानसिक अवसाद,व्यापार में नुक्सान ,परिश्रम के अनुसार फल न मिलना ,वैवाहिक जीवन में समस्याएं.,कैरिअर में समस्याएं या संक्षिप्त में कहें तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति और उसके परिवार को बाधाओं का सामना करना पड़ता है , पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति ,गोचर ,दशाएं होने पर भी शुभ 
फल नहीं मिल पाते, कितना भी पूजा पाठ ,देवी ,देवताओं की अर्चना की जाए ,
उसका शुभ फल नहीं मिल पाता|
पितृ दोष दो प्रकार से प्रभावित करता है
१.अधोगति वाले पितरों के कारण
२. .उर्ध्वगति वाले पितरों के कारण 
अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण, परिजनों की अतृप्त इच्छाएं ,जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग होने पर,विवाहादिमें परिजनों द्वारा गलत निर्णय .परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट देने पर पितर क्रुद्ध हो जाते हैं , परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से नकारात्मक फल प्रदान करते हैं|
उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते , परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति- रिवाजों का निर्वहन नहीं करने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं | इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बिलकुल बाधित हो जाती है ,
फिर चाहे कितने भी प्रयास क्यों ना किये जाएँ ,कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ, उनका कोई भी कार्य ये पितृदोष सफल नहीं होने देता | 
पितृ दोष निवारण के लिए सबसे पहले ये जानना ज़रूरी होता है कि किस गृह के कारण और किस प्रकार का पितृ दोष उत्पन्न हो रहा है |जन्म पत्रिका में लग्न ,पंचम ,अष्टम और द्वादश भाव से पितृदोष का विचार किया जाता है |पितृ दोष में ग्रहों में मुख्य रूप से सूर्य ,चन्द्रमा ,गुरु ,शनि ,और राहू -केतु की स्थितियों से पितृ दोष का विचार किया जाता है |इनमें से भी गुरु ,
शनि और राहु की भूमिका प्रत्येक पितृ दोष में महत्वपूर्ण होती है |
इनमें सूर्य से पिता या पितामह , चन्द्रमा से माता या मातामह ,मंगल से भ्राता या भगिनी और शुक्र से पत्नी का विचार किया जाता है |अधिकाँश लोगों की जन्म पत्रिका में मुख्य रूप से क्योंकि गुरु ,शनि और राहु से पीड़ित होने पर ही पितृ दोष उत्पन्न होता है ,इसलिए विभिन्न उपायों को करने के साथ साथ व्यक्ति यदि पंचमुखी ,सातमुखी और आठ मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर ले , तो पितृ दोष का निवारण शीघ्र हो जाता है |पितृ दोष निवारण के लिए इन रुद्राक्षों को धारण करने के अतिरिक्त इन ग्रहों के अन्य उपाय जैसे मंत्र जप और स्तोत्रों का पाठ करना भी श्रेष्ठ होता है 

मन की एकाग्रता धीरे-धीरे बढ़ने लगती है।


ध्यान का सीधा-सीधा संबंध मन से है। मनुष्य के अन्दर दो प्रकार का मन होता है एक बाह्यमन तथा दुसरा अंर्तमन। अंर्तमन की अपेक्षा बाह्यमन का स्वभाव अत्यंत चंचल तथा कुटिल है जीसमे काम क्रोध, लोभ, अहंकार, इष्र्या, राग, द्वेष, छल, कपट इत्यादि विकार उत्पन्न होते रहते हैं जो मुख्य रूप से मनुष्य के पतन का कारण है। बाह्यमन हमेशा व्यक्ति को बुरे कर्मों के लिए प्रेरित करता है।
अंर्तमन का स्वभाव है शांत निर्मल और पवित्र जो मनुष्य को हमेशा अच्छे कार्यो के लिए प्रेरित करता है इसी मन के अन्दर छुपी होती है अलौकिक दिव्य और चमत्कारिक शक्तियाँ। बाह्यमन जब सुप्तावस्था में होता है तब अंर्तमन सक्रिय होने लगता है और इसी अवस्था को ध्यान कहा जाता है। मन को बेलगाम घोड़े की संज्ञा दी गई है क्योंकि मन कभी एक जगह स्थीर नही रहता तथा शरीर की समस्त इद्रियों को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिस करता है। मन हर समय नई -नई इच्छओं को उत्पन्न करता है। 
एक इच्छा पूरी नही हुई कि दुसरी इच्छा जागृत हो जाती है। और मनुष्य उन्ही इच्छाओं की पुर्ति की चेष्टा करता रहता है। जिसके लिए मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, पीड़ा इत्यादि से गुजरना पड़ता है। इसके बावजुद भी जब मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति नही हो पाती तब मन में क्लेश तथा दुख होने लगता है। यदि मन को किसी तरह अपने वश में कर एकाग्रचिŸा कर लिया जाय तब मनुष्य की आत्मोन्ती होने लगती है तथा समस्त प्रकार के विषय विकारों से उपर उठने लगता है और अंर्तमन में छुपे हुये उर्जा के भंडार को जागृत कर अलौकिक सिद्धियों का स्वामी बन सकता है। 
मन को नियंत्रित करना थोड़ा कठिन है परंतु कुछ प्रयासो के बाद मन पर पूर्ण रूप से नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। मन को साधने के लिए शास्त्रों में अनेकों प्रकार के उपाय हैं जिसमे से सबसे आसान तरीका है ध्यान साधना |ध्यान के माध्यम से कुछ ही दिनों या महिनो के प्रयास से साधक अपने मन पर पूरी तरह नियंत्रण रखने में समर्थ हो सकता है क्योंकि शास्त्रों में ध्यान को मन की चाबी कहा गया है। ध्यान साधना से मन के सारे विकार धीरे-धीरे समाप्त होने लगते हैं, तथा अंर्तमन जागृत तथा चैतन्य होने लगता है। मन की एकाग्रता धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। मनुष्य के शरीर की सुप्त शक्तियाँ जागृत होने से शरीर पूर्णतः पवित्र निर्मल तथा निरोग हो जाता है।
ध्यान साधना प्रयोग 
सर्व प्रथम साधक ब्रह्ममुहूर्त मे उठकर स्नान आदि क्रियाओं से निवृत होकर अपने पूजा स्थान अथवा किसी निर्जन स्थान में पùासन, सिध्दासन या सुखासन में बैठ कर ध्यान लगाने का प्रयास करे, ध्यान लगाते समय अपने सबसे पहले अपने आज्ञा चक्र पर ध्यान केद्रित करे तथा शरीर को अपने वश मे रखने का प्रयास करें बिल्कुल शांत निश्चल और स्थीर रहें, श्रीर को हिलाना डूलना खुजलाना इत्यादि न करें। तथा नियम पुर्वक ध्यान लगाने का प्रयास करें।
ध्यान साधना के तीन आयाम 
सर्वप्रथम साधक जब ध्यान लगाने की चेष्टा करता है तब मन अत्यधिक चंचल हो जाता है तथा मन में अनेकों प्रकार के ख्याल उभरने लगते हैं। साधक विचार को जितना ही एकाग्र करना चाहता है उतनी ही तिव्रता से मन विचलित होने लगता है तथा मन में दबे हुए अनेकों विचार उभर कर सामने आने लगते हैं इस लिए ध्यान साधना को तीन आयामों में विभक्त किया गया है।
1 विचार दर्शन 
2 विचार सर्जन
3 विचार विसर्जन।
विचार दर्शन:- साधक को चाहिए कि जब ध्यान लगाने बैठे तब मन में जो विचार उत्पन्न हो उसे होने दें विचारो को आने से न रोकें न ही विचारो को दबाने की चेष्टा करे। मन में विचार लाना नही है और न ही विचारों को आने से रोकना है, केवल दृष्टा बन कर विचारों को देखते रहना है। 
मन एक विचार से दुसरा विचार दुसरे से तीसरा इस तरह से अनेको प्रकार के विचार घटना, दुर्घटना, वास्तविक तथा काल्पनीक अनेकों विचार मन में उत्पन्न होते रहेंगे परंतु आपको उन विचारों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने की जरूरत नही केवल दृष्टा बनकर आप देखते जाइये कि मन किस प्रकार कल्पना लोक में उड़ान भर रहा है। ऐसा करने से धीरे-धीरे आपके विचारों में कमी आने लगेगी और विचार स्थीर होने लगेंगे।
विचार सर्जनः- इस क्रिया में साधक को अपनी आँखे बंद कर मन को आज्ञाचक्र पर कुछ देर तक केद्रित करने का प्रयास करना चाहिए तत्पश्चात मन मे कोई विचार लाए और कुछ देर तक उस पर ध्यान को केद्रित करें और उस विचार को मन से हटा दें तथा पुनः दुसरा विचार लाएं और उस पर भी कुछ देर तक
ध्यान केंद्रित कर उसे भी मन सें हटा दें। इस तरह मन में अलग-अलग विचारों को लाते रहें तथा कुछ देर तक उसपर अपना ध्यान केंद्रित कर उसें हटाते जायें। इस तरह करते रहने से धीरे-धीरे मन थकान अनुभव करने लगेगा और कुछ देर के लिए कुछ सोंचना बंद कर देगा, आपको ऐसा लगेगा कि मन आराम करना चाह रहा है।धीरे-धीरे आप देखेगे कि मन आपके काबु मे हो ने लगेगा तथा विचार शुन्य होने लगेगा। 
विचार विर्सजन:- साधक अपनी आँखे बंद कर धीरे-धीरे गहरी श्वांस ले और धीरे-धीरे छोड़े कुछ देर बाद मन में कोइ विचार आने दें। जैसे ही मन में कोइ विचार आता है उसे तुरंत अपने मन से हटा दें, फिर मन में कोइ विचार आये उसे भी हटा दें, इस तरह मन मे उठने वाले सभी विचारो को मन से हटाते जाएं ऐसी क्रिया को हि विचार विर्सजन कहा जाता है। 
इस क्रिया मे साधक को चाहिए कि मन मे उठने वाले विचारों को न रोकें बल्कि उन विचारों को मन से हटाने का प्रयास करते रहना चाहिए। इस प्रकार से अभ्यास करते रहने से मन निर्विकार तथा निर्विचार होने लगता है और विचार शुन्य की स्थिती बनने लगती है तथा अर्तमन के जागृत होने से अलौकिक एवं चमत्कारिक दृष्य तथा घटनाएं ध्यान की अवस्था में दिखाई देने लगते हैं।

Sunday 15 February 2015

मनु के काल के सप्तऋषियों का परिचय

सात महान ‍ऋषि:
ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, याने लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार से ज्यादा मंत्र हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।
वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती
प्रत्येक मनवंतर में अगल-अगल सप्तऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्वत मनु के काल के सप्तऋषियों का परिचय।
1.वशिष्ठ : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था।
कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
2.विश्वामित्र : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। लेकिन स्वर्ग में उन्हें जगह नहीं मिली तो विश्वामित्र ने एक नए स्वर्ग की रचना कर डाली थी। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।
3.कण्व : माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।103 सूक्तवाले ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं, किंतु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गए हैं। इनमें लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र हैं।
सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर श्रृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है।
4.भारद्वाज : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे।
ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है
5.अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा माँगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहाँ उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ।
अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
6.वामदेव : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्य शास्त्र सामवेद से ही प्रेरित है। हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए सामवेद में संगीत और वाद्य यंत्रों की संपूर्ण जानकारी मिलती है।
वामदेव जब मां के गर्भ में थे तभी से उन्हें अपने पूर्वजन्म आदि का ज्ञान हो गया था। उन्होंने सोचा, मां की योनि से तो सभी जन्म लेते हैं और यह कष्टकर है, अत: मां का पेट फाड़ कर बाहर निकलना चाहिए। वामदेव की मां को इसका आभास हो गया। अत: उसने अपने जीवन को संकट में पड़ा जानकर देवी अदिति से रक्षा की कामना की। तब वामदेव ने इंद्र को अपने समस्त ज्ञान का परिचय देकर योग से श्येन पक्षी का रूप धारण किया तथा अपनी माता के उदर से बिना कष्ट दिए बाहर निकल आए
7. शौनक : शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।

यदि आप जी ने भी शिव जी के दर्शन करने हैं तो

एक ही दिन मैं भगवान शिव को प्रसन करने का बहुत आसान सा पाठ
शिवरात्रि की रात को सफेद 2 आसन लो एक अपने लिए  ओर एक  भगवान शिव जी के लिए ,,,एक  आसन को बिछा कर खुद बेठो ओर एक आसन अपने सामने भगवान शिव के लिए बिछा दो ओर उसके उपर फूलों की कुछ पंखड़ीय रख दो धूप दीप जला कर निच्चे लिखा मन्त्र रात 10 बजे के बाद 3 घेंटे तक करो आप को भगवान शिव जी का साक्षात अनुभव होगा
मंत्र
शिव गोरक्ष महादेव केलाश से आओ,, दर्शन दिखाओ,, रिधि सिधि नाल लेआओ,, सिधों को लाओ,, आओ आओ धुनि जमाओ,, शिव गोरक्ष  शम्बु सीध गुरु का आसन आन,, गोरक्ष  सीध को आदेश आदेश आदेश
शिव भगतो यह सीध मन्त्र है ओर हमारा अनुभव किया है यदि आप जी ने भी शिव जी  के दर्शन करने हैं तो यह मन्त्र का पाठ ज़रूर करें

Saturday 14 February 2015

वह जागते हुए भी सोया है।


अनमोल संवाद जिसमे मनुष्य जीवन के सारे प्रश्नों के उत्तर निहित है।
⚘यक्ष और युधिष्ठिर संवाद⚘
यक्ष – जीवन का उद्देश्य क्या है ?
युधिष्ठिर – जीवन का उद्देश्य प्राणी मात्र मे स्थित आत्मा को जानना है जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है।
यक्ष – जन्म का कारण क्या है ?
युधिष्ठिर – अतृप्त वासनाएं, कामनाएं और कर्मफल ये ही जन्म का कारण हैं।
यक्ष – जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है ?
युधिष्ठिर – जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
यक्ष – वासना और जन्म का सम्बन्ध क्या है ?
युधिष्ठिर – जैसी वासनाएं वैसा जन्म।
यदि वासनाएं पशु जैसी तो पशु योनि में जन्म।
यदि वासनाएं मनुष्य जैसी तो मनुष्य योनि में जन्म।
यक्ष – संसार में दुःख क्यों है ?
युधिष्ठिर – लालच, स्वार्थ, भय संसार के दुःख का कारण हैं।
यक्ष – तो फिर ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की ?
युधिष्ठिर – ईश्वर ने संसार की रचना की और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की।
यक्ष – क्या ईश्वर है ?
कौन है वह ?
क्या रुप है उसका ? 
क्या वह स्त्री है या पुरुष ?
युधिष्ठिर – हे यक्ष! कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है।तुम हो इसलिए वह भी है उस महान कारण को ही आध्यात्म में ईश्वर कहा गया है।वह न स्त्री है न पुरुष।
यक्ष – उसका स्वरूप क्या है ?
युधिष्ठिर – वह सत्-चित्-आनन्द है, वह अनाकार ही सभी रूपों में अपने आप को स्वयं को व्यक्त करता हैं।
यक्ष – वह अनाकार स्वयं करता क्या है ?
युधिष्ठिर – वह ईश्वर संसार की रचना, पालन और संहार करता है।
यक्ष – यदि ईश्वर ने संसार की रचना की तो फिर ईश्वर की रचना किसने की ?
युधिष्ठिर – वह अजन्मा अमृत और अकारण हैं।
यक्ष – भाग्य क्या है ?
युधिष्ठिर – हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। 
परिणाम अच्छा भी हो सकता है,बुरा भी हो सकता है।
यह परिणाम ही भाग्य है।आज का प्रयत्न कल का भाग्य है।
यक्ष – सुख और शान्ति का रहस्य क्या है ?
युधिष्ठिर – सत्य, सदाचार, प्रेम और क्षमा सुख का कारण हैं।असत्य, अनाचार, घृणा व क्रोध का त्याग शान्ति का मार्ग है।
यक्ष – चित्त पर नियंत्रण कैसे संभव है ?
युधिष्ठिर – कामनाएं चित्त में उद्वेग उतपन्न करती हैं। कामनाओं पर विजय चित्त पर विजय है।
यक्ष – सच्चा प्रेम क्या है ?
युधिष्ठिर – स्वयं को सभी में देखना सच्चा प्रेम है। स्वयं को सर्वव्याप्त देखना सच्चा प्रेम है। स्वयं को सभी के साथ एक देखना सच्चा प्रेम है।
यक्ष – तो फिर मनुष्य सभी से प्रेम क्यों नहीं करता ?
युधिष्ठिर – जो स्वयं को सभी में नहीं देख सकता वह सभी से प्रेम नहीं कर सकता।
यक्ष – आसक्ति क्या है ?
युधिष्ठिर –नशवर देह व वस्तु से अपेक्षा, अधिकार आसक्ति है।
यक्ष – बुद्धिमान कौन है ?
युधिष्ठिर – जिसके पास सत्संग से प्राप्त विवेक है।
यक्ष – नशा क्या है ?
युधिष्ठिर –नश्वर माया मे आसक्ति।
यक्ष – चोर कौन है ?
युधिष्ठिर – इन्द्रियों के आकर्षण,जो इन्द्रियों को हर लेते हैं चोर हैं।
यक्ष – जागते हुए भी कौन सोया हुआ है ?
युधिष्ठिर – जो आत्मा रूपी परमात्मा को नहीं जानता वह जागते हुए भी सोया है।
यक्ष – कमल के पत्ते में पड़े जल की तरह अस्थायी क्या है ?
युधिष्ठिर – यौवन, धन और जीवन।
यक्ष – नरक क्या है ?
युधिष्ठिर – इन्द्रियों की दासता नरक है।
यक्ष – मुक्ति क्या है ?
युधिष्ठिर – अनासक्ति ही मुक्ति है।
यक्ष – दुर्गति का कारण क्या है ?
युधिष्ठिर – मद और अहंकार।
यक्ष – सदगति का कारण क्या है ?
युधिष्ठिर – सत्संग और सबके प्रति मैत्री भाव।
यक्ष – सारे दुःखों का नाश कौन कर सकता है ?
युधिष्ठिर – जो सब छोड़ने को तैयार हो।
यक्ष – मृत्यु पर्यंत यातना कौन देता है ?
युधिष्ठिर – गुप्त रूप से किये गए पाप।
यक्ष –किस बात का विचार सदैव रहना चाहिए ?
युधिष्ठिर – सांसारिक सुखों की क्षण-भंगुरता का।
यक्ष – संसार को कौन जीतता है ?
युधिष्ठिर – जिसमें सत्य और श्रद्धा है।
यक्ष – भयमुक्ति कैसे संभव है ?
युधिष्ठिर – परमार्थ से।
यक्ष – मुक्त कौन है ?
युधिष्ठिर – जो अज्ञान से परे है।
यक्ष – अज्ञान क्या हैस?
युधिष्ठिर – आत्मज्ञान का अभाव अज्ञान है।
यक्ष – दुःखों से मुक्त कौन है ?
युधिष्ठिर – लोभी सदैव भयभीत रहता है, संतोषी जीव कभी क्रोध नहीं करता वह मुक्त हे।
यक्ष – वह क्या है जो अस्तित्व में है और नहीं भी ?
युधिष्ठिर – माया।
यक्ष – माया क्या है ?
युधिष्ठिर – नाम और रूपधारी नाशवान जगत।
यक्ष ने प्रश्न किया – मनुष्य का साथ कौन देता है ?
युधिष्ठिर ने कहा – धैर्य व धर्म मनुष्य का साथ देते है.
यक्ष – इस लोक व परलोक मे गति एकमात्र उपाय क्या है?
युधिष्ठिर – दान।
यक्ष – हवा से तेज कौन चलता है ?
युधिष्ठिर – मन।
यक्ष – विदेश जानेवाले का साथी कौन होता हैस?
युधिष्ठिर – विद्या।
यक्ष – किसे त्याग कर मनुष्य निर्मल हो जाता है ?
युधिष्ठिर – अहम् भाव से उत्पन्न गर्व के छूट जाने पर।
यक्ष – किस गुण से मनुष्य अप्रिय हो जाता हे ?
युधिष्ठिर – क्रोध।
यक्ष – किस कारण मनुष्य पापी बनता है ?
युधिष्ठिर – लोभ।
यक्ष – वन्दनीय होना किस बात पर निर्भर है ? जन्म पर, विद्या पर, या शीतल स्वभाव पर ?
युधिष्ठिर – शीतल स्वभाव पर।
यक्ष – कौन सा एकमात्र उपाय है जिससे जीवन सुखी हो जाता है ?
युधिष्ठिर – स्वयं का शीतल स्वभाव ही सुखी होने का उपाय है।
यक्ष – सर्वोत्तम लाभ क्या है ?
युधिष्ठिर – आरोग्य।
यक्ष – धर्म से बढ़कर संसार में और क्या है ?
युधिष्ठिर – दया और परमार्थ।
यक्ष – कैसे व्यक्ति के साथ की गयी मित्रता पुरानी नहीं पड़ती ?
युधिष्ठिर – सज्जनों के साथ की गयी मित्रता कभी पुरानी नहीं पड़ती।
यक्ष – इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?
युधिष्ठिर – रोज़ हजारों-लाखों लोग मरते हैं फिर भी सभी को अनंतकाल तक जीते रहने की इच्छा होती है।
इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है....

ज्योति के रूप में उस कला रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं

कुंडलिनी और ब्रह्मरंध्र [सहस्त्रार ]

शिर के मध्य से (ब्रह्मरंध्र) में 1 हजार पंखुड़ियों का कमल है उसे ही सहस्रार चक्र कहते हैं |उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है |यहीं आकर कुण्डलिनी शिव से मिल गई है। इसे आत्मा का स्थान, सूत्रात्मा धाम आदि कहते हैं। यहीं से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है जिस प्रकार पर्दे में बैठा हुआ कलाकार उँगलियों को गति दे-देकर कठपुतलियों को नचाया करता है। विराट् ब्रह्माण्ड में हलचल पैदा करने वाली सूत्र शक्ति और विभाग इस सहस्रार कमल के आसपास फैल पड़े हैं। यहीं अमृत पान का सुख, विश्व-दर्शन संचालन की शक्ति और समाधि का आनन्द मिलता है। यहाँ तक पहुँचना बड़ा कठिन होता है। अनेक साधक तो नीचे के ही चक्रों में रह जाते हैं उनमें जो आनन्द मिलता है उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिये कुण्डलिनी साधना द्वारा मिलने वाली प्रारम्भिक सिद्धियों को बाधक माना गया है। जिस प्रकार धन-वैभव ऐश्वर्य और सौंदर्यवान युवती पत्नियों का सुख पाकर मनुष्य संसार को ही सब कुछ समझ लेता है उसी प्रकार कुण्डलिनी का साधक भी बीच के ही छः चक्रों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूसरों के मन की बात जानना, भविष्य दर्शन आदि अनेक सिद्धियाँ पाकर उनमें ही आनन्द का अनुभव करने लगता है और परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।
सहस्रार चक्र में पहुँच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं। वह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है उसके बाद वह फिर निम्नतम लोकों के सुखों में जा भटकता है पर जो अपने सहस्रार को पका लेते हैं वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्त काल तक ऐश्वर्य सुखोपभोग करते हैं।
सहस्रार दोनों कनपटियों से 2-2 इंच अन्दर और भौहों से भी लगभग 3-3 इंच अन्दर मस्तिष्क के मध्य में “महाविवर” नामक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति-पुँज के रूप में अवस्थित है। कुण्डलिनी साधना द्वारा इसी छिद्र को तोड़ कर ब्राह्मी स्थिति में प्रवेश करना पड़ता है इसलिये इसे “दशम द्वार” या ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। ध्यान बिन्दु उपनिषद् में कहा है-

अर्थात्-मस्तक में जो मणि के समान प्रकाश है जो उसे जानते हैं वहीं योगी है। तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धारा-सी प्रकाशित वह मणि अग्नि स्थान से चार अंगुल ऊर्ध्व और मेढ़ स्थान के नीचे है |इस स्थान पर पहुँचने की शक्यों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारी भवति” अर्थात् वह परम विज्ञानी, त्रिकालदर्शी और सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है वह चाहे जो कुछ करे उसे कोई पाप नहीं होता। उसे कोई जीत नहीं सकता।
ब्रह्मरंध्र एक प्रकार से जीवात्मा का कार्यालय है |इस दृश्य जगत में जो कुछ है और जहाँ तक हमारी दृष्टि नहीं पहुँच सकती उन सबकी प्राप्ति की प्रयोगशाला है। भारतीय तत्त्वदर्शन के अनुसार यहाँ 17 तत्त्वों से संगठित ऐसे विलक्षण ज्योति पुँज विद्यमान् हैं जो दृश्य जगत में स्थूल नेत्रों से कहीं भी नहीं देखे जा सकते। समस्त ज्ञानवाहक सूत्र और बात नाड़ियाँ यहीं से निकल कर सारे शरीर में फैलती हैं। सूत्रात्मा इसी भास्कर श्वेत दल कमल में बैठा हुआ चाहे जिस नाड़ी के माध्यम से शरीर के किसी भी अंग को आदेश-निर्देश और सन्देश भेजता ओर प्राप्त करता रहता है। वह किसी भी स्थान में हलचल पैदा कर सकता है किसी भी स्थान की बिना किसी बाध्य-उपकरण के सफाई ओर प्राणवर्धा आदि, जो हम सब नहीं कर सकते वह सब कुछ कर सकता है। यह सब ज्योति पुञ्जों के स्स्रण आकुंचन-प्रकुञ्चन आदि से होता है। नाक, जीभ, नेत्र, कर्ण, त्वचा इन सभी स्थूल इन्द्रियों को यह प्रकाश-गोलक ही काम कराते हैं और उन पर नियन्त्रण सहस्रारवासी परमात्मा का होता है। ध्यान की पूर्वावस्था में यह प्रकाश टिमटिमाते जुगनू चमकते तारे, चमकीली कलियाँ, मोमबत्ती, आधे या पूर्ण चन्द्रमा आदि के प्रकाश-सा झलकता है। धीरे-धीरे उनका दिव्य रूप प्रतिभासित होने लगता है उससे स्थूल इन्द्रियों की गतिविधियों में शिथिलता आने लगती है और आत्मा का कार्य-क्षेत्र सारे विश्व में प्रकाशित होने लगता है।
सामान्य व्यक्ति को केवल अपने शरीर और सम्बन्धियों तक ही चिन्ता होती है | पर योगी की व्यवस्था का क्षेत्र सारी पृथ्वी, और दूसरे लोकों तक फैल जाता है | उसे यह भी देखना पड़ता है कि ग्रह-नक्षत्रों की क्रियायें भी तो असंतुलित नहीं हो रही। स्थूल रूप से इन गतिविधियों से पृथ्वी वासी भी प्रभावित होते रहते हैं इसलिये अनजाने में ही ऐसी ब्राह्मी स्थिति का साधक लोगों का केवल हित संपादित किया करता है। उसे जो अधिकार और सामर्थ्य मिली होती हैं वह इतने बड़े उत्तरदायित्व को संभालने की दृष्टि से ही होती है। वैसे वह भले ही शरीरधारी दिखाई दे पर उसे शरीर की सत्ता का बिलकुल ज्ञान नहीं होता। वह सब कुछ जानता, देखता, सुनता और आगे क्या होने वाला है वह सब पहचानता है।
विज्ञानमय कोष और मनोमय कोष के अध्यक्ष मन और बुद्धि यहीं रहते हैं और ज्ञानेन्द्रियों से परे दूर के या कहीं भी छिपे हुए पदार्थों के समाचार पहुँचाते रहते हैं। आत्म-संकल्प जब चित्त वाले क्षेत्र से बुद्धि क्षेत्र में पदार्पण करता है तब दिव्य दृष्टि बनती है और वह आज्ञा चक्र से निकल कर विश्व ब्रह्माण्ड में जो अनेक प्रकार की रश्मियाँ फैली हैं उनसे मिलकर किसी भी लोक के ज्ञान को प्राप्त कर लेती है। विद्युत तरंगों के माध्यम से जिस प्रकार दूर के अन्तरिक्ष यानों को पृथ्वी से ही दाहिने-बायें (ट्रीवर्स) किया जा सकता है। जिस प्रकार टेलीविजन के द्वारा कहीं का भी दृश्य देखा जा सकता है उसी प्रकार बुद्धि और संकल्प की रश्मियों से कहीं के भी दृश्य देखे जाना या किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करना मनुष्य को भी सम्भव हो जाता है। मुण्डक और छान्दोग्य उपनिषदों में क्रमशः खण्ड 2 और 9 में इन साक्षात्कारों का विशद वर्णन है और कहा गया है-हिरण्यभये परेकोणे विरजं ब्रह्म निष्फलं, तच्छुत्रं ज्योतिषाँ ज्योति तद् परात्मनो बिदुः” अर्थात् आत्मज पुरुष इस हिरण्मयं कोष में शुभ्रतम ज्योति के रूप में उस कला रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं 

Friday 13 February 2015

अलौकिक सुख का सरोवर इसी शरीर में मिल जाता है

कुण्डलिनी शक्ति को अच्छी तरह समझने के लिये  क्रिया और सम्पूर्ण शीर्षक (मेडुला आफ लोगलेटा) का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पाये हैं कि नाक से ली हुयी साँस मन से होती हुई  (फेफड़ों) तक पहुँचती है। फेफड़ों के छिद्रों में भरे हुये रक्त को वायु शुद्ध कर देती है। और रक्त-परिसंचालन की गतिविधि शरीर में चलती रहती है। किन्तु प्राणायाम द्वारा श्वाँस-क्रिया को बन्द करके भारतीय योगियों ने यह सिद्ध कर दिया कि चेतना जिस प्राण-तत्व को धारण किये हुये जीवित है, उसके लिये श्वाँस- क्रिया आवश्यक नहीं है। 
साँस ली हुई हवा का स्थूल भाग ही रक्त शुद्धि का काम करता है, उसका सूक्ष्म भाग सुषुम्ना शीर्षक में अवस्थित खड़ा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से नाभि-कम्द स्थित चेतना को उद्दीप्त किये रहता है। ”गोरक्ष पद्धति” में श्लोक 48 में इस क्रिया को शक्ति-चालन महामुद्रा, नाड़ी शोभन आदि नाम दिये है और लिखा है कि सामान्य अवस्था में इड़ा और पिंगला-नाड़ियों का शरीर की जिस ग्रन्थि या इन्द्रिय से सम्बन्ध होता है, मनुष्य उसी प्रकार के विचारों से प्रभावित होता रहता है, इस अवस्था में नाड़ियों के स्वतः संचालन का अपना कोई क्रम नहीं होता। किन्तु जब विशेष रूप (प्राणायाम) से प्राण-वायु को जगाया जाता है तो इड़ा (गर्म नाड़ी) और पिंगला (ठण्डी नाड़ी) दोनों सम-स्वर में प्रवाहित होने लगती है।
इस अवस्था के विकास के साथ-साथ नाभि-कन्द में प्रकाश स्वरूप गोला भी विकसित होने लगता है। उसके प्राण-शक्ति का विद्युत-शक्ति के समान निस्तारण होता है। चूँकि सभी नाड़ियाँ इसी भाग से निकलती है, इसलिये वह इस ज्योति के संस्पर्श में होती है। सभी नाड़ियों में वह विश्व-व्यापी शक्ति भरने से सारे शरीर में वह तेज ‘ओजस’ के रूप में प्रकट होने लगता हैं। इन्द्रियों में वही जल के रूप में, नेत्रों में चमक के रूप में परिलक्षित होता है। इस प्राण-शक्ति के कारण प्रबल आकर्षण शक्ति पैदा होती है। यह शक्ति नाभि प्रवेश में प्रस्फुटित होती है और चूँकि दृष्टि प्रवेश भी उसी के समीप है, इसलिए वह भाग शीघ्र और तेजी से प्रभावित होता है। इसलिये यौन-शक्ति केन्द्रों का नियन्त्रण में रखना अधिक आवश्यक होता है। साधना की अवधि में संयम पर इसीलिये अधिक जोर दिया जाता है, जिससे कुण्डलिनी शक्ति का फैलाव ऊर्ध्वगामी हो जाये उसी से ओज की वृद्धि होती है।
स्थूल रूप से शरीर के वायु मंडल की ही प्रख्यात वैज्ञानिक देख पाते है, वे अभी तक नाड़ियों के भीतर बहने और जीवन की गतिविधियों को मूलरूप से प्रभावित करने वाले प्राण प्रवाह को नहीं जान सके। सूक्ष्म नेत्रों से उसे देखा जाना संभव भी नहीं है। उसे भारतीय योगियों ने चेतना के अति सूक्ष्म-स्तर का चेतन करके देखा। योग शिखोपनिषद् में 101 नाड़ियों का वर्णन करते हुये शास्त्रकार ने सुषुम्ना शीर्षक को परानाड़ी बताया है। यह कोई नाड़ी नहीं है वरन इड़ा और पिंगला के समान विद्युत-प्रवाह से उत्पन्न हुई एक तीसरी धारा है। जिसका स्थूल रूप से अस्तित्व नहीं भी है और सूक्ष्म रूप से इतना व्यापक एवं विशाल है कि जीव की चेतना अब उसमें से होकर चला करती है तो ऐसा लगता है कि वह किसी आकाश गंगा में प्रभावित हो रही हो। वहाँ से विशाल ब्रह्माण्ड की भाँति होती है। अन्तरिक्ष में अव-स्थित अगणित सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र की स्थिति समझने का अलभ्य अवसर, जो किसी चन्द्रयान या राकेट के द्वारा भी सम्भव नहीं है, इसी शरीर में मिलता है। उस स्थिति का वर्णन किया जाये तो प्रतीत होगा कि जो कुछ स्थल और सूक्ष्म इस संसार में विद्यमान् है, उन सब के साथ सम्बन्ध मिला लेने और उनका मान उपलब्ध करने की क्षमता उस महान् आत्म-तेज में विद्यमान् है जो कुण्डलिनी के भीतर बीज रूप में मौजूद है।
सुषुम्ना नाड़ी (स्पाइनलकर्ड) मेरुदण्ड में प्रवाहित होती है और ऊपर मस्तिष्क के चौथे निचले भाग (फोर्थ वेन्टिकस) में जाकर सहस्रार चक्र में उसी तरह प्रविष्ट हो जाती है, जिस तरह तालाब के पानी में से निकलती हुई कमल नाल से शत-दल कमल विकसित हो उठता है। सहस्रार चक्र ब्रह्माण्ड लोक का प्रतिनिधि है, यहाँ ब्रह्म की सम्पूर्ण विभूति-बीज रूप से विद्यमान् है और कुण्डलिनी की ज्वाला वहीं जाकर अन्तिम रूप से जा ठहरती है, उस स्थिति में निरन्तर मधुपान का सा, सम्भोग की तरह का सुख (जिसका कभी अन्त नहीं होता) है, उसी कारण कुण्डलिनी शक्ति से ब्रह्म प्राप्ति होना बताया जाता है।
कुण्डलिनी का महत्व इसी शरीर में परिपूर्ण  और सामर्थ्य का स्वामी बनकर आत्मा की अनुभूति और ईश्वर दर्शन प्राप्त करने से निःसन्देह बहुत अधिक बढ़ जाता है। पृथ्वी का आधार जिस प्रकार शेष भगवान को मानते है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति पर ही प्राणि मात्र का जीवन अस्थित्व टिका हुआ है। सर्प के आकर की वह महाशक्ति ऊपर जिस प्रकार मस्तिष्क में अवस्थित शून्य-चक्र से मिलती है, उसी प्रकार नीचे वह यौन-स्थान में विद्यमान् कुण्डलिनी के ऊपर टिकी रहती है। प्राण और अपान वायु के चौंकने से वह धीरे-धीरे मोटी,  सशक्त और पिरपुड होने लगती है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था में यही क्रिया धीरे-धीरे होती है। किन्तु साक्षात्कार या सिद्धि की अवस्था में यह सीधी हो जाती है और सुषुम्ना का द्वार खुल जाने से शक्ति का स्फुरण वेग से फूट कर सारे शरीर में-विशेष रूप से मुख्यकृति में-फूट पड़ता है। कुण्डलिनी जागरण दिव्य-ज्ञान दिव्य अनुभूति और अलौकिक सुख का सरोवर इसी शरीर में मिल जाता है

Wednesday 11 February 2015

इससे गठिया ठीक हो जाता है

आलू में कैल्शियम, लोहा, विटामिन-बी तथा फास्फोरस बहुतायत में होता है। आलू खाते रहने से रक्त वाहिनियां बड़ी आयु तक लचकदार बनी रहती हैं तथा कठोर नहीं होने पातीं, इसलिए आलू खाकर लम्बी आयु प्राप्त की जा सकती है। 
आलू में विटामिन बहुत होता है। इसको मीठे दूध में भी मिलाकर पिला सकते हैं। आलू को छिलके सहित गरम राख में भूनकर खाना सबसे अधिक गुणकारी है या इसको छिलके सहित पानी में उबालें और गल जाने पर खाएं। 

* रक्तपित्त बीमारी में कच्चा आलू बहुत फायदा करता है। 

* कभी-कभी चोट लगने पर नील पड़ जाती है। नील पड़ी जगह पर कच्चा आलू पीसकर लगाएँ ।

* शरीर पर कहीं जल गया हो, तेज धूप से त्वचा झुलस गई हो, त्वचा पर झुर्रियां हों या कोई त्वचा रोग हो तो कच्चे आलू का रस निकालकर लगाने से फायदा होता है।

* भुना हुआ आलू पुरानी कब्ज और अंतड़ियों की सड़ांध दूर करता है। आलू में पोटेशियम साल्ट होता है जो अम्लपित्त को रोकता है।

* चार आलू सेंक लें और फिर उनका छिलका उतार कर नमक, मिर्च डालकर नित्य खाएं। इससे गठिया ठीक हो जाता है।

* गुर्दे की पथरी में केवल आलू खाते रहने पर बहुत लाभ होता है। पथरी के रोगी को केवल आलू खिलाकर और बार-बार अधिक पानी पिलाते रहने से गुर्दे की पथरियाँ और रेत आसानी से निकल जाती हैं।

* उच्च रक्तचाप के रोगी भी आलू खाएँ तो रक्तचाप को सामान्य बनाने में लाभ करता है।

* आलू को पीसकर त्वचा पर मलें। रंग गोरा हो जाएगा।

* कच्चा आलू पत्थर पर घिसकर सुबह-शाम काजल की तरह लगाने से 5 से 6 वर्ष पुराना जाला और 4 वर्ष तक का फूला 3 मास में साफ हो जाता है।

* आलू का रस दूध पीते बच्चों और बड़े बच्चों को पिलाने से वे मोटे-ताजे हो जाते हैं। आलू के रस में मधु मिलाकर भी पिला सकते हैं।

* आलुओं में मुर्गी के चूजों जितना प्रोटीन होता है, सूखे आलू में 8.5 प्रतिशत प्रोटीन होता है। आलू का प्रोटीन बूढ़ों के लिए बहुत ही शक्ति देने वाला और बुढ़ापे की कमजोरी दूर करने वाला होता है।

जब तुम देखते हो कि तुम मर रहे हो

‘’मृतवत लेटे रहो।‘’कल्पना करो कि तुम एकाएक मर गए हो। शरीर को छोड़ दो, क्‍योंकि तुम मर गए हो। बस कल्‍पना करो कि मृत हूं, मैं शरीर नहीं हूं, शरीर को नहीं हिला सकता। आँख भी नहीं हिला सकता। मैं चीख-चिल्‍ला भी नहीं सकता। न ही मैं रो सकता हूं, कुछ भी नहीं कर सकता। क्‍योंकि मैं मरा हुआ हूं। और तब देखो तुम्‍हें कैसा लगता है। लेकिन अपने को धोखा मत दो। तुम शरीर को थोड़ा हिला सकते हो, नहीं, हिलाओ नहीं। लेकिन मच्‍छर भी आ जाये, तो भी शरीर को मृत समझो। यह सबसे अधिक उपयोग की गई विधि है।
रमण महर्षि इसी विधि से ज्ञान को उपलब्‍ध हुए थे। लेकिन यह उनके इस जन्‍म की विधि नहीं थी। इस जन्‍म में तो अचानक सहज ही यह उन्‍हें घटित हो गई। लेकिन जरूर उन्‍होंने किसी पिछले जन्‍म में इसकी सतत सधाना की होगी। अन्‍यथा सहज कुछ भी घटित नहीं होता। प्रत्‍येक चीज का कार्य-कारण संबंध रहता है। जब वे केवल चौदह या पंद्रह वर्ष के थे, एक रात अचानक रमण को लगा कि मैं मरने वाला हूं, उनके मन में यक बात बैठ गई कि मृत्‍यु आ गई है। वे अपना शरीर भी नहीं हिला सकते थे। उन्‍हें लगा कि मुझे लकवा मार गया है। फिर उन्‍हें अचानक घुटन महसूस हुई और वे जान गए कि उनकी ह्रदय-गति बंद होने वाली है। और वे चिल्‍ला भी नहीं सके, बोल भी नहीं सके कि मैं मर रहा हूं।कभी-कभी किसी दुस्वप्न में ऐसा होता है कि जब तुम न चिल्‍ला पाते हो और न हिल पाते हो। जागने पर भी कुछ क्षणों तक तुम कुछ नहीं कर पाते हो। यही हुआ रमण को अपनी चेतना पर तो पूरा अधिकार था। पर अपने शरीर पर बिलकुल नहीं। वे जानते थे कि मैं हूं, चेतना हूं, सजग हूं, लेकिन मैं मरने वाला हूं। और यह निश्‍चय इतना घना था कि कोई विकल्‍प भी नहीं था। इसलिए उन्‍होंने सब प्रयत्‍न छोड़ दिया। उन्‍होंने आंखे बद कर ली और मृत्‍यु की प्रतीक्षा करने लगे।धीरे-धीरे उनका शरीर सख्‍त हो गया। शरीर मर गया। लेकिन एक समस्‍या उठ खड़ी हुई। वे जान रहे थे कि शरीर नहीं हूं। लेकिन मैं तो हूं, वे जान रहे थे कि मैं जीवित हूं, और शरीर मर गया है। फिर वे उस स्‍थिति से वापस आए। 
सुबह में शरीर स्‍वास्‍थ था। लेकिन वही आदमी नहीं लौटा था जो मृत्‍यु के पूर्व था। क्‍योंकि उसने मृत्‍यु को जान लिया था।अब रमण ने एक नए लोक को देख लिया था। चेतना के एक नए आयाम को जान लिया था। उन्‍होंने घर छोड़ दिया। उस मृत्‍यु के अनुभव ने उन्‍हें पूरी तरह बदल दिया। और वे इस यूग के बहुत थोड़े से प्रबुद्ध पुरूषों में हुए।और यहीं विधि है जो रमण को सहज घटित हुई। लेकिन तुमको यह सहज ही नहीं घटित होने वाली। लेकिन प्रयोग करो तो किसी जीवन में यह सहज हो सकती है। प्रयोग करते हुए भी यह घटित हो सकती है। और यदि नहीं घटित हुई तो भी प्रयत्‍न कभी व्‍यर्थ नहीं जाता है। यह प्रयत्‍न तुम में रहेगा। तुम्‍हारे भीतर बीज बनकर रहेगा। कभी जब उपयुक्‍त समय होगा और वर्षा होगी, यह बीज अंकुरित हो जाएगा।सब सहजता की यही कहानी है। किसी काल में बीज बो दिया गया था। लेकिन ठीक समय नहीं आया था। और वर्षा नहीं हुई थी। किसी दूसरे जन्‍म और जीवन में समय तैयार होता है, तुम अधिक प्रौढ़, अधिक अनुभवी होते हो। और संसार में उतने ही निराश होते हो, तब किसी विशेष स्‍थिति में वर्षा होती है और बीज फूट निकलता है।
‘’मृतवत लेटे रहो। क्रोध में क्षुब्‍ध होकर उसमें ठहरे रहो।‘’निश्‍चय ही जब तुम मर रहे हो तो वह कोई सुख का क्षण नहीं होगा। वह आनंदपूर्ण नहीं हो सकता। जब तुम देखते हो कि तुम मर रहे हो। भय पकड़ेगा। मन में क्रोध उठेगा, या विषाद, उदासी, शोक, संताप, कुछ भी पकड़ सकता है। व्‍यक्‍ति-व्‍यक्‍ति में फर्क है।सूत्र कहता है—‘’क्रोध में क्षुब्‍ध होकर उसमे ठहरे रहो, स्‍थित रहो।‘’अगर तुमको क्रोध घेरे तो उसमे ही स्‍थित रहो। अगर उदासी घेरे तो उसमे भी। भय, चिंता, कुछ भी हो, उसमें ही ठहरे रहो, डटे रहो, जो भी मन में हो, उसे वैसा ही रहने दो, क्‍योंकि शरीर तो मर चुका है।यह ठहरना बहुत सुंदर है। अगर तुम कुछ मिनटों के लिए भी ठहर गए तो पाओगे कि सब कुछ बदल गया। लेकिन हम हिलने लगते है। यदि मन में कोई आवेग उठता है तो शरीर हिलने लगता है। उदासी आती है, तो भी शरीर हिलता है। इसे आवेग इसीलिए कहते है कि यह शरीर में वेग पैदा करता है।
मृतवत महसूस करो—और आवेगों को शरीर हिलाने इजाजत मत दो। वे भी वहां रहे और तुम भी वहां रहो। स्‍थिर, मृतवत। कुछ भी हो, पर हलचल नहीं हो, गति नहीं हो। बस ठहरे रहो।‘’या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो।‘’यह मेहर बाबा की विधि थी। वर्षो वे अपने कमरे की छत को घूरते रहे, निरंतर ताकते रहे। वर्षो वह जमीन पर मृतवत पड़े रहे और पुतलियों को, आंखों को हिलाए बिना छत को एक टक देखते रहे। ऐसा वे लगातार घंटो बिना कुछ किए घूरते रहते थे। टकटकी लगाकर देखते रहते थे।आंखों से घूरना अच्‍छा है। क्‍योंकि उससे तुम फिर तीसरी आँख मैं स्‍थित हो जाते हो। और एक बार तुम तीसरी आँख में थिर हो गए तो चाहने पर भी तुम पुतलियों को नहीं घूमा सकते हो। वे भी थिर हो जाती है—अचल।मेहर बाबा इसी घूरने के जरिए उपलब्‍ध हो गए। और तुम कहते हो कि इन छोटे-छोटे अभ्‍यासों से क्‍या होगा। लेकिन मेहर बाबा लगातार तीन वर्षों तक बिना कुछ किए छत को घूरते रहे थे। तुम सिर्फ तीन मिनट के लिए ऐसी टकटकी लगाओ और तुमको लगेगा कि तीन वर्ष गुजर गये। तीन मिनट भी बहुत लम्‍ब समय मालूम होगा। तुम्‍हें लगेगा की समय ठहर गया है। और घड़ी बंद हो गई है। लेकिन मेहर बाबा घूरते रहे, घूरते रह, धीरे-धीरे विचार मिट गए। और गति बंद हो गई। मेहर बाबा मात्र चेतना रह गए। वे मात्र घूरना बन गए। टकटकी बन गए। और तब वे आजीवन मौन रह गए। टकटकी के द्वारा वे अपने भीतर इतने शांत हो गए कि उनके लिए फिर शब्‍द रचना असंभव हो गई।
मेहर बाबा अमेरिका में थे। वहां एक आदमी था जो दूसरों के विचार को, मन को पढ़ना जानता था। और वास्‍तव में वह आदमी दुर्लभ था—मन के पाठक के रूप में। वह तुम्‍हारे सामने बैठता, आँख बंद कर लेता और कुछ ही क्षणों में वह तुम्‍हारे साथ ऐसा लयवद्ध हो जाता कि तुम जो भी मन में सोचते, वह उसे लिख डालता था। हजारों बार उसकी परीक्षा ली गई। और वह सदा सही साबित हुआ। तो कोई उसे मेहर बाबा के पास ले गया। वह बैठा और विफल रहा। और यह उसकी जिंदगी की पहली विफलता थी। और एक ही। और फिर हम यह भी कैसे कहें कि यह उसकी विफलता हुई।वह आदमी घूरता रहा, घूरता रहा, और तब उसे पसीना आने लगा। लेकिन एक शब्‍द उसके हाथ नहीं लगा। हाथ में कलम लिए बैठा रहा और फिर बोला—किसी किस्‍म का आदमी है। यह, मैं नहीं पढ़ पाता हूं, क्‍योंकि पढ़ने के लिए कुछ है ही नहीं। यह आदमी तो बिलकुल खाली है। मुझे यह भी याद नहीं रहता की यहां कोई बैठा है। आँख बंद करने के बाद मुझे बार-बार आँख खोल कर देखना पड़ता है कि यह व्‍यक्‍ति यहां है कि नहीं। या यहां से हट गया है। मेरे लिए एकाग्र होना भी कठिन हो गया है। क्‍योंकि ज्‍यों ही मैं आँख बंद करता हूं कि मुझे लगता है कि धोखा दिया जा रहा है। वह व्‍यक्‍ति यहां से हट जाता है। मेरे सामने कोई भी नहीं है। और जब मैं आँख खोलता हूं तो उसको सामने ही पाता हूं। वह तो कुछ भी नहीं सोच रहा है।उस टकटकी ने, सतत टकटकी ने मेहर बाबा के मन को पूरी तरह विसर्जित कर दिया था।