Friday 13 February 2015

अलौकिक सुख का सरोवर इसी शरीर में मिल जाता है

कुण्डलिनी शक्ति को अच्छी तरह समझने के लिये  क्रिया और सम्पूर्ण शीर्षक (मेडुला आफ लोगलेटा) का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पाये हैं कि नाक से ली हुयी साँस मन से होती हुई  (फेफड़ों) तक पहुँचती है। फेफड़ों के छिद्रों में भरे हुये रक्त को वायु शुद्ध कर देती है। और रक्त-परिसंचालन की गतिविधि शरीर में चलती रहती है। किन्तु प्राणायाम द्वारा श्वाँस-क्रिया को बन्द करके भारतीय योगियों ने यह सिद्ध कर दिया कि चेतना जिस प्राण-तत्व को धारण किये हुये जीवित है, उसके लिये श्वाँस- क्रिया आवश्यक नहीं है। 
साँस ली हुई हवा का स्थूल भाग ही रक्त शुद्धि का काम करता है, उसका सूक्ष्म भाग सुषुम्ना शीर्षक में अवस्थित खड़ा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से नाभि-कम्द स्थित चेतना को उद्दीप्त किये रहता है। ”गोरक्ष पद्धति” में श्लोक 48 में इस क्रिया को शक्ति-चालन महामुद्रा, नाड़ी शोभन आदि नाम दिये है और लिखा है कि सामान्य अवस्था में इड़ा और पिंगला-नाड़ियों का शरीर की जिस ग्रन्थि या इन्द्रिय से सम्बन्ध होता है, मनुष्य उसी प्रकार के विचारों से प्रभावित होता रहता है, इस अवस्था में नाड़ियों के स्वतः संचालन का अपना कोई क्रम नहीं होता। किन्तु जब विशेष रूप (प्राणायाम) से प्राण-वायु को जगाया जाता है तो इड़ा (गर्म नाड़ी) और पिंगला (ठण्डी नाड़ी) दोनों सम-स्वर में प्रवाहित होने लगती है।
इस अवस्था के विकास के साथ-साथ नाभि-कन्द में प्रकाश स्वरूप गोला भी विकसित होने लगता है। उसके प्राण-शक्ति का विद्युत-शक्ति के समान निस्तारण होता है। चूँकि सभी नाड़ियाँ इसी भाग से निकलती है, इसलिये वह इस ज्योति के संस्पर्श में होती है। सभी नाड़ियों में वह विश्व-व्यापी शक्ति भरने से सारे शरीर में वह तेज ‘ओजस’ के रूप में प्रकट होने लगता हैं। इन्द्रियों में वही जल के रूप में, नेत्रों में चमक के रूप में परिलक्षित होता है। इस प्राण-शक्ति के कारण प्रबल आकर्षण शक्ति पैदा होती है। यह शक्ति नाभि प्रवेश में प्रस्फुटित होती है और चूँकि दृष्टि प्रवेश भी उसी के समीप है, इसलिए वह भाग शीघ्र और तेजी से प्रभावित होता है। इसलिये यौन-शक्ति केन्द्रों का नियन्त्रण में रखना अधिक आवश्यक होता है। साधना की अवधि में संयम पर इसीलिये अधिक जोर दिया जाता है, जिससे कुण्डलिनी शक्ति का फैलाव ऊर्ध्वगामी हो जाये उसी से ओज की वृद्धि होती है।
स्थूल रूप से शरीर के वायु मंडल की ही प्रख्यात वैज्ञानिक देख पाते है, वे अभी तक नाड़ियों के भीतर बहने और जीवन की गतिविधियों को मूलरूप से प्रभावित करने वाले प्राण प्रवाह को नहीं जान सके। सूक्ष्म नेत्रों से उसे देखा जाना संभव भी नहीं है। उसे भारतीय योगियों ने चेतना के अति सूक्ष्म-स्तर का चेतन करके देखा। योग शिखोपनिषद् में 101 नाड़ियों का वर्णन करते हुये शास्त्रकार ने सुषुम्ना शीर्षक को परानाड़ी बताया है। यह कोई नाड़ी नहीं है वरन इड़ा और पिंगला के समान विद्युत-प्रवाह से उत्पन्न हुई एक तीसरी धारा है। जिसका स्थूल रूप से अस्तित्व नहीं भी है और सूक्ष्म रूप से इतना व्यापक एवं विशाल है कि जीव की चेतना अब उसमें से होकर चला करती है तो ऐसा लगता है कि वह किसी आकाश गंगा में प्रभावित हो रही हो। वहाँ से विशाल ब्रह्माण्ड की भाँति होती है। अन्तरिक्ष में अव-स्थित अगणित सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र की स्थिति समझने का अलभ्य अवसर, जो किसी चन्द्रयान या राकेट के द्वारा भी सम्भव नहीं है, इसी शरीर में मिलता है। उस स्थिति का वर्णन किया जाये तो प्रतीत होगा कि जो कुछ स्थल और सूक्ष्म इस संसार में विद्यमान् है, उन सब के साथ सम्बन्ध मिला लेने और उनका मान उपलब्ध करने की क्षमता उस महान् आत्म-तेज में विद्यमान् है जो कुण्डलिनी के भीतर बीज रूप में मौजूद है।
सुषुम्ना नाड़ी (स्पाइनलकर्ड) मेरुदण्ड में प्रवाहित होती है और ऊपर मस्तिष्क के चौथे निचले भाग (फोर्थ वेन्टिकस) में जाकर सहस्रार चक्र में उसी तरह प्रविष्ट हो जाती है, जिस तरह तालाब के पानी में से निकलती हुई कमल नाल से शत-दल कमल विकसित हो उठता है। सहस्रार चक्र ब्रह्माण्ड लोक का प्रतिनिधि है, यहाँ ब्रह्म की सम्पूर्ण विभूति-बीज रूप से विद्यमान् है और कुण्डलिनी की ज्वाला वहीं जाकर अन्तिम रूप से जा ठहरती है, उस स्थिति में निरन्तर मधुपान का सा, सम्भोग की तरह का सुख (जिसका कभी अन्त नहीं होता) है, उसी कारण कुण्डलिनी शक्ति से ब्रह्म प्राप्ति होना बताया जाता है।
कुण्डलिनी का महत्व इसी शरीर में परिपूर्ण  और सामर्थ्य का स्वामी बनकर आत्मा की अनुभूति और ईश्वर दर्शन प्राप्त करने से निःसन्देह बहुत अधिक बढ़ जाता है। पृथ्वी का आधार जिस प्रकार शेष भगवान को मानते है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति पर ही प्राणि मात्र का जीवन अस्थित्व टिका हुआ है। सर्प के आकर की वह महाशक्ति ऊपर जिस प्रकार मस्तिष्क में अवस्थित शून्य-चक्र से मिलती है, उसी प्रकार नीचे वह यौन-स्थान में विद्यमान् कुण्डलिनी के ऊपर टिकी रहती है। प्राण और अपान वायु के चौंकने से वह धीरे-धीरे मोटी,  सशक्त और पिरपुड होने लगती है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था में यही क्रिया धीरे-धीरे होती है। किन्तु साक्षात्कार या सिद्धि की अवस्था में यह सीधी हो जाती है और सुषुम्ना का द्वार खुल जाने से शक्ति का स्फुरण वेग से फूट कर सारे शरीर में-विशेष रूप से मुख्यकृति में-फूट पड़ता है। कुण्डलिनी जागरण दिव्य-ज्ञान दिव्य अनुभूति और अलौकिक सुख का सरोवर इसी शरीर में मिल जाता है

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