Friday 6 February 2015

यह महाशक्ति जो कि सूर्य की शक्ति मानी जाती है,

‘‘योगियों के हृदय देश में वह नृत्य करती रहती है। यही सर्वदा प्रस्फुटित होने वाली विद्युत रूप महाशक्ति सब प्राणियों का आधार है।” इसका आशय यही है कि कुण्डलिनी शक्ति के न्यूनाधिक परिणाम में चैतन्य हुये बिना मनुष्य की प्रतिभा का विकास नहीं होता।

पिछले पचास-साठ वर्षों से अनेक विदेशी विद्वान भी इस तरफ ध्यान देने लगे हैं और उन्होंने स्वयम् कुण्डलिनी साधन करके उसकी शक्ति का अनुभव किया है। उनकी सम्मति में कुण्डलिनी शक्ति विश्व-व्यापी है। एक दृष्टि से हम अपने शरीरों में स्थित कुण्डलिनी को चैतन्य-शक्ति का आधार कह सकते हैं। इस शक्ति की एक धारा समस्त विश्व में सूर्य, चन्द्र आदि प्राकृतिक पिंडों में भी बहती रहती है। इस प्रकार उसे सर्व-शक्तिमान कह सकते हैं। अगर साधक कुण्डलिनी-योग में पूर्ण सफलता प्राप्त करके उस पर पूरा अधिकार और नियन्त्रण कर सके तो फिर संसार में उसके लिये कोई असम्भव नहीं है। वह सृष्टि का संचालन अपनी इच्छानुसार कर सकता है।

पर यह कार्य सामान्य नहीं है। इस कार्य में वे व्यक्ति ही हाथ डाल सकते हैं, जिन्होंने अपना रहन-सहन आरम्भ से ही पूर्ण संयम-युक्त और सात्विक रखा है और अपने शरीर तथा मन को नियमित अभ्यास द्वारा सुदृढ़ और सहनशील बनाया है। क्योंकि यह महाशक्ति जो कि सूर्य की शक्ति मानी जाती है, जब जागृत की जाती है, तब समस्त शरीर, विशेषकर स्नायु-संस्थान में बहुत उष्णता उत्पन्न करती है, जिससे साधक को कष्ट प्रतीत होने लगता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उत्तम श्रेणी के साधकों में ध्यान और उपासना करते-करते यह स्वयम् ही जागृत हो जाती है।

श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन-चरित्र से विदित होता है कि जिस समय दक्षिणेश्वर के मन्दिर में महीनों तक काली का ध्यान करते हुए उनकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो गई थी तब उनको भी ऐसा ही कष्ट सहन करना पड़ा था। उस अवस्था का वर्णन करते हुए उन्होंने बतलाया था-

“कुछ झुनझुनी-सी उठकर पाँव से सर तक जाती है। सिर में पहुंचने के पूर्व तक तो चेतना रहती है, पर सिर में उसके पहुंचने पर सुध-बुध जाती रहती है, आँख, कान अपना कार्य नहीं करते, बोली भी रुक जाती है। बोले कौन? उस समय ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद ही मिट जाता है। जो शक्ति झन-झन करती ऊपर उठती है, वह एक ही प्रकार की गति से नहीं चढ़ती। शास्त्रों में उसके पाँच प्रकार कहे हैं-

(1) चींटी के समान धीरे-धीरे ऊपर चढ़ना (2) मेंढक के समान दो-तीन छलाँग जल्दी जल्दी कूद कर फिर ठहर जाना, (3) सर्प के समान टेढ़ी गति से चलना (4) पक्षी के समान उड़कर चढ़ना (5) बन्दर के समान दो-तीन छलाँग लगाकर सिर में पहुँच जाना। किसी भी गति से इसके सिर में पहुँचने पर समाधि हो जाती है।

जीवन को उन्नत, शक्तिशाली और महान् बनाने के लिये कुण्डलिनी-जागरण निस्संदेह एक अत्यन्त प्रभाव शाली मार्ग है। पर यह तभी सम्भव है, जब इस साधना को किसी अनुभवी शिक्षक की देख-रेख में किया जाय। इससे भी अधिक आवश्यकता यह है कि साधक के आचार-विचार और उद्देश्य पूर्णतः शुद्ध हों।

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