Sunday 8 February 2015

आज भोजन का आनंद ही अलग है

यदि हम अपना कल्याण चाहते हैं और अपने दूषित हो गये स्वभाव को ठीक करना चाहते हों तो सर्वप्रथम हमें अपने भोजन के बारे में विचार करना होगा। हम जैसे अन्न का उपभोग करते हैं, उसके रस से पुष्ट हुआ, यह शरीर और बुद्धि तदनुरूप ही व्यवहार करती हैं। अत: अन्न की शुद्धता बहुत आवश्यक है। हमारे भोजन का अन्न, हमारी सात्विक कमाई का ही होना चाहिये। भोजन जब बन रहा हो तब माताओं-बहनों का यह भाव हो कि यह ठाकुरजी के भोग के लिये बन रहा है और इसे प्रेम-पूर्वक तन्मय होकर, प्रभु के नामों का स्मरण करते हुए पकाना चाहिये। यथासंभव रसोई की पवित्रता का भी ध्यान रखा जाये क्योंकि भोजन नहीं, भोग बन रहा है। रसोई में चरणपादुकाओं का उपयोग न हो तो अति उत्तम। भोग का निर्माण, नौकरॊं की अपेक्षा, स्वय़ं कर सकें तो ठाकुरजी को भी अलग ही आनंद आवेगा। जैसा अन्न, वैसा मन, यह उक्ति सत्य ही है।
प्रभु का भोग लगाने के बाद, प्रसाद को बड़े ही प्रेम से सबके साथ आनंदपूर्वक बाँटकर ग्रहण करें और हम पायेंगे कि आज भोजन का आनंद ही अलग है क्योंकि आज भोजन नहीं किया वरन प्रसाद पाया। इस प्रकार यदि संभव हो सके तो एक आदत बनायें कि हम घर के अतिरिक्त भी यदि कहीं भी, कभी भी कुछ भोजन, जलपान या पेय पदार्थ ग्रहण करते हों तो उसको ग्रहण करने से पहिले हम प्रभु का स्मरण कर उन्हें अर्पित करें और उसके बाद ग्रहण करें। यह आदत अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध होगी क्योंकि ऐसा करते ही भक्ष्याभक्ष्य का ज्ञान हो जायेगा और अभक्ष्य पदार्थों से हमारा स्वत: ही बचाव होना आरंभ हो जायेगा। इसका अर्थ यह है कि जिन पदार्थों का भोग हमारे ठाकुरजी को नहीं लग सकता, अबसे वह स्वत: ही हमारे लिये त्याज्य हो जायेंगे और उनका उपभोग न करने से उनके द्वारा होने वाला दूषित प्रभाव भी हम पर न पड़ेगा। प्रयत्न करें कि भोजन यथासंभव अपने ही घर में करें। प्रेम से बने हुए प्रसाद के रस से पुष्ट हुआ हमारा शरीर और बुद्धि दोनों ही निर्मल होते-होते प्रभु की ओर चित्त के लगने में सहायक होते हैं।

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